human rights in india in hindi movement issues and challenges भारत में मानवाधिकार आन्दोलन , महत्व , समस्या क्या है पर लेख लिखिए ?
भारत में मानवाधिकार आन्दोलन
सन् 1950 में बने भारतीय संविधान के भाग III और IV में मौलिक अधिकारों एवं राज्य के नीति- निर्देशक सिद्धान्तों के अंतर्गत मानवाधिकारों पर पर्याप्त सामग्री उपलब्ध है। संविधान निर्माताओं ने विविध राजनीतिक, आर्थिक एवं सामाजिक विषयों पर न केवल संसार के अन्य संविधानों का वरन् संयुक्त राष्ट्र घोषणा एवं अधिकार पत्र का संदर्भ भी दिया है। संविधान में भारत के नागरिकों के लिए न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, आस्था एवं आराधना की स्वतंत्रता, स्तर एवं अवसर की समानता और उन सब में व्यक्ति के सम्मान के निश्चय के साथ भाई चारे को प्रोत्साहन देने की भावना के विकास की प्रतिज्ञा की गई है। राज्य के नीति निर्देशक सिद्धान्तों के अनुरूप, राज्य ने मानवाधिकार से संबंधित अनेक अधिनियम जैसे, छुआछूत-उन्मूलन, अनैतिक व्यापार का दमन, मद्य निषेध, आदि पारित किए। संविधान में अल्पसंख्यकों एवं समाज के कमजोर वर्गों के हितों की रक्षा के लिए अनेक स्वतंत्र निकायों का सर्जन किया गयाय जैसे, परिगणित जाति एवं परिगणित जनजाति आयोगय अल्पसंख्यक आयोगय भाषा-आयोगय राष्ट्रीय महिला आयोग आदि। इन सभी उपायों के बावजूद मानवाधिकारों का क्रियान्वयन एवं उल्लंघन, गंभीर चिंता का विषय रहा है। सन् 1975 में जब श्रीमति इंदिरा गांधी की सरकार ने आपातकाल लागू कर दिया और अनेक राजनेता तथा प्रमुख नागरिक बिना किसी प्रकार का अभियोग लगाए बंदीगृह में डाल दिए गए तब मानवाधिकार का प्रश्न महत्वपूर्ण हो उठा। मानवाधिकार समर्थक अनेक सक्रियतावादी आपातकाल का विरोध करने को उठ खड़े हुए। श्री जय प्रकाश नारायण ने नागरिक स्वतंत्रता के लिए जनता मोर्चा का गठन किया। इसका मुख्य लक्ष्य आपातकाल के दौरान किए गए नागरिक एवं राजनीतिक दमन का विरोध करना था। जनता मोर्चे ने अंधाधुंध हत्याओं के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय में मुकदमें दायर किए। उसने मानवाधिकार सक्रियतावादियों, वकीलों, राजनीतिज्ञों एवं जन साधारण को अभिप्रेरित करने के लिए शिविरों एवं कार्यशालाओं का आयोजन किया। सन् 1981 में, लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए जनता का संघ (पी.यू.सी.एल.) नामक एक और संगठन ने मुठभेड़ के बहाने की जाने वाली हत्याओं के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय में मुकदमें लड़े। पंजाब का मानवाधिकार संगठन, ऐमनेस्टी इंटरनेशनल से संबद्ध है। लोकतांत्रिक अधिकार संघ तथा कुछ अन्य संगठन पंजाब में । मानवाधिकारों को परिरक्षित एवं संरक्षित रखने का कार्य कर रहे हैं। मणिपुर का मानवाधिकार संगठन, नागालैण्ड का मानवाधिकारों के लिए नागा जन आन्दोलन आदि कुछ अन्य संगठन हैं जो दलितों एवं अल्पसंख्यकों को न्याय दिलाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। संक्षेप में वैयक्तिक अधिकारों के संरक्षण की दिशा में पर्याप्त प्रगति हुई है। उदाहरणार्थ, बंदियों एवं अभियोगाधीनों के अधिकारों की अब तक कहीं चर्चा भी नहीं थी किन्तु अब उन्हें संरक्षण प्रदान किया गया है। इसी प्रकार बंधुआ मजदूरों की मुक्ति और उनके पुनर्वास के प्रयत्न भी अत्यंत फलदायी रहे हैं। फिर भी, इन अधिकारों के संरक्षण के अधिकतर प्रयत्न न्यायिक निर्णयों और जन हित याचिकाओं के माध्यम से ही किए गए हैं। जो भी सही मानवाधिकारों के प्रति बढ़ी हुई जागरूकता के कारण बहुत से महत्वपूर्ण मुद्दे भी उठे हैं। प्रेस तथा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगाने की चेष्टाएँ, महिलाओं के अधिकारों पर सुनिश्चित आक्रमण, प्रतिष्ठा एवं आत्म सम्मान के लिए दलितों के संघर्ष के प्रश्न आदि सभी मानवाधिकार उल्लंघन के अनेक उदाहरणों को ही प्रकट करते हैं।
भारत सरकार भी पीछे नहीं रही और उसने 1993 में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की स्थापना कर दी। इस आयोग ने ऐमनेस्टी इंटरनेशलन द्वारा संस्तुत सभी मानकों को अपने कार्यक्रम में शामिल किया। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के मुख्य उद्देश्य निम्नलिखित हैंः
1) ऐसे संस्थागत प्रबंध करना जिनके माध्यम से मानवाधिकार पर समग्रता में विचार एवं ध्यान केन्द्रित किया जा सके।
2) सरकारी मत से स्वतंत्र रहकर अतिचार संबंधी आरोपों की जाँच इस तरह करना कि मानवाधिकारों के संरक्षण के संबंध में सरकार की प्रतिबद्धता रेखांकित की जा सके।
3) इस दिशा में जो प्रयत्न किए गए हैं उनकी सराहना करना तथा उन्हें सुदृढ़ करना।
आयोग ने टाडा के अंतर्गत मनमाने ढंग से बंदी बनाए गए लोगों के मामलों का अध्ययन किया तथा उसने बच्चों के अधिकार, बाल मजदूरी एवं महिलाओं के अधिकार आदि विषयों पर भी ध्यान दिया। उसने अरुणाचल में चकमा शरणार्थियों तथा तमिलनाडु में श्रीलंकाई शरणार्थियों की समस्याओं के विषय में दिशा-निर्देश भी दिए। राष्ट्रीय आयोग के अतिरिक्त कुछ राज्यों, जैसे मध्य प्रदेश तथा पश्चिम बंगाल की सरकारों ने अपने यहाँ मानवाधिकार के मुद्दों से निपटने के लिए राज्य मानवाधिकार आयोगों का गठन किया है जिन्होंने हिरासत में हुई मृत्यु, बलात्कार उत्पीड़न, बंदीगृह सुधार आदि विषयों से संबंधित कार्यों को भी हाथ में लिया है।
मानवाधिकार आन्दोलन का मूल्यांकन
यद्यपि द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद मानवाधिकार आन्दोलन बहुत लोकप्रिय रहा है, फिर भी, समयसमय पर उसके विरुद्ध दार्शनिक वैधानिक एवं सैद्धान्तिक आधारों पर आपत्तियाँ उठती रही हैं। उन सभी आपत्तियों में यह प्रश्न उठाया जाता रहा है कि ‘मानवाधिकार कहाँ तक न्याय संगत है।
मानवाधिकारों के विरोधी, उन्हें मात्र पूर्वग्रहों के पुलिंदै कह कर तिरस्कृत कर देते हैं। नैसर्गिक अधिकारों की संगति तो निसर्ग या प्रकृति के नियमों के आधार पर मानी जा सकती है किन्तु मानवाधिकार तो नैसर्गिक नियम की अवधारणा से पृथक्कत हैं। समसामयिक राजनीतिक चिंतक मानवाधिकार की संगति आधारभूत मूल्यों, जैसे, स्वतंत्रता, स्वायत्तता, समानता एवं मानव कल्याण के प्रति प्रतिबद्धता पर आधारित मानते हैं। जो भी सही, यह सत्य है कि मानवाधिकार का मुद्दा अत्यंत जटिल है क्योंकि विभिन्न राज्यों में सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक एवं सांस्कृतिक दृष्टियों में विविध प्रकार के अंतर पाए जाते हैं। तथ्य यह है कि अपनी सारी लोकप्रियता के बावजूद, अभी तक, मानवाधिकार सार्वभौमिक स्वीकृति प्राप्त कर नहीं सके हैं। कुछ मामलों में उन्हें राजनीति तक पहुँचने के अधिकार कह कर सामान्य आलोचना के तहत टाल दिया जाता है तो अन्य मामलों में आलोचना के लक्ष्य विशिष्ट मानवाधिकार को बनाया जाता हैं। आलोचना के कुछ महत्वपूर्ण बिंदु निम्नलिखित हैंः
1) पहली आपत्ति मानवाधिकार और उसके उपयोग के दार्शनिक आधार को लेकर है। यह दावा – करना कि मानवाधिकार किसी भी प्रकार की आस्था से निरपेक्ष, मानव मात्र में निहित होता है, स्पष्ट रूप से अतिवादी कथन है। संयुक्त राष्ट्र घोषणा, संयुक्त राष्ट्र की स्थापना करने वाले राज्यों की राजनीतिक प्रतिबद्धता पर आधारित है। प्रश्न यह है कि उन राज्यों की तत्कालीन सरकारों को क्या अधिकार था कि भविष्य में सदस्यता ग्रहण करने वाले राज्यों और कालान्तर में परिवर्तन की संभावना से युक्त शासन प्रणालियों की ओर से भी प्रतिबद्धता स्वीकार कर लें। संभवतः यह मानव स्थितियों के विषय में किसी तर्क अथवा सामान्य समझ के आग्रह पर आधारित रहा हो किन्तु वहीं यह दार्शनिक दुविधा पैदा होती है कि तथ्यों से कुछ मूल्य, विशेषकर बाध्य मूल्य, किस प्रकार निकाले जा सकते हैं? सभी सरकारें इस बात पर सहमत हो सकती हैं कि इस क्षेत्र में मानव जाति, गतिविधि की स्वतंत्रता का उपभोग करती लगती है या बिना सहमत हुए मान सकती हैं कि ऐसी स्वतंत्रता देना इन (सरकारों) के लिए लाभदायक है) संक्षेप में, घोषणा के संबंध में दार्शनिक तर्क अस्थिर है।
उपयोग का जहाँ तक संभव है, इस ओर ध्यान आकर्षित कराया गया है कि अनेक राज्यों में तानाशाही है और घोषणा में ऐसे कोई उपाय नहीं सुझाए गए कि मानवाधिकारों के उल्लंघन से उन राज्यों को कैसे रोका जाए। कहा जा सकता है कि घोषणा के प्रति अनुरोध अधिक से अधिक खोखली भंगिमा है या शीत युद्ध में हथियारों की तरह अनुपयोगी है। इसके अतिरिक्त इस घोषणा में मानवाधिकारों का उल्लंघन करने वालों के लिए नूरेनबर्ग अभिकरण जैसे किसी अभिकरण के सामने पेश होने का प्रावधान है। किन्तु इसमें भी कठिनाई है क्योंकि घोषणा की धारा 11 में कहा गया है कि, ‘किसी को भी ऐसे किसी कार्य या भूल के लिए दंडनीय अपराध का दोषी नहीं माना जाएगा जो (कार्य या भूल) उसके निष्पादन के समय किसी राष्ट्रीय अथवा अन्तर्राष्ट्रीय कानून के अनुसार दंडनीय अपराध नहीं था।
2) दूसरी आपत्ति कानूनी है। बैंथेमाइट परंपरा के अनुयायियों का दावा है कि मानवाधिकारों पर जोर इसलिए दिया जाता है कि इन का अस्तित्व उसी प्रकार तथ्यपरक है जैसा कि कानूनी अधिकारों में आधारभूत अंतर है और यदि इस अंतर को मान्यता दी जाए तो मानवाधिकारों को नैतिक दावों से अधिक कुछ नहीं माना जा सकता।
3) मानवाधिकारों में सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक अधिकार, जैसे, शिक्षा, कार्य, सामाजिक सुरक्षा, विश्राम एवं सुख सुविधा तथा रहन सहन का एक उपयुक्त स्तर आदि के अधिकार अभूतपूर्व भले ही न हों, किन्तु महत्वपूर्ण बन चुके हैं। किन्तु उनके द्वारा न केवल सामाजिक न्याय संबंधी संदेह जाग्रत हुए हैं वरन् उन्हें मानवाधिकार मानने पर भी प्रश्न उठने लगे हैं। मॉरिस ऊन्स्टन ने आपत्ति उठाते हुए कहा है कि आर्थिक एवं सामाजिक अधिकारों की (मानवाधिकार के रूप में) कोई संगति नहीं है क्योंकि ये गरीब देशों के काल्पनिक आदर्शों से अधिक कुछ नहीं होते और इन्हें शामिल करने पर अन्य अधिकारों को भी काल्पनिक मानने की प्रवृत्ति बनने लगेगी। इसी प्रकार ब्रायन बोरी ने भी सामाजिक अधिकारों को शामिल करने पर प्रश्न उठाया है क्योंकि उनमें सापेक्षता होती है जिसके विषय में सदैव तर्क उठाए जा सकते हैं। श्रहन-सहन के उपयुक्त स्तरश् के सादृश्य पर ‘मुक्त भाषण की संयत मात्रा‘ भी कही जा सकती है किन्तु उसे श्अधिकारों की घोषणा नहीं कहा जा सकता। अनेक अल्प विकसित एवं विकासशील देशों पर कुछ अच्छा कर दिखाने के लिए पर्याप्त संसाधन नहीं है। यह बेतुकी बात है कि लोगों से कहा जाए कि उन पर अधिकार तो हैं पर उन्हें पूरा करना संभव नहीं है जबकि इसी संसार में दूसरी ओर ऐसे बहुत लोग हैं जो उन अधिकारों का लंबे समय से उपभोग कर रहे हैं। अतः अलग-अलग लोगों के लिए अलग-अलग मानक हो जाते हैं। सामाजिक आर्थिक अधिकारों का एक अन्य शंकास्पद लक्षण यह है कि किसी विशिष्ट व्यक्ति के लिए उनका उचित प्रावधान करने का दायित्व किसी विशेष सरकार का होता है अर्थात् किसी उपलब्धि का अधिकार व्यक्ति के उस राज्य के नागरिक होने पर निर्भर होता है न कि मानव जाति के सदस्य होने पर। फिर मानवाधिकार घोषणा का प्रारूप तैयार करने वालों की मंशा कुछ भी रही हो क्या यह मानना तार्किक रूप से अविवेकपूर्ण नहीं है कि विश्व भर में मानव जाति का यह उत्तरदायित्व है कि वे एक दूसरे के आर्थिक कल्याण के कार्य करें।
4) अनेक समाजवादी एवं विकासशील देशों ने मानवाधिकार के वैश्विक लक्षण पर इस विचार से आपत्ति की कि इससे पश्चिम के सांस्कृतिक साम्राज्यवाद के फैलने की आशंका जाग्रत होती है। घोषणा में ऐसे अधिकारों की सूची गिनाई गई है जिनके मानवाधिकार होने की संगति एवं अभिप्रेरण को लेकर विकासशील देशों के मन में प्रश्न हैं। उनका कहना है कि पाश्चात्य देश अपनी मूल्य पद्धति को अन्य संस्कृतियों पर आरोपित करने का प्रयत्न कर रहे हैं। उदाहरण के लिए भाषण की स्वतंत्रता का पाश्चात्य विचार एक निरक्षर, बेरोजगार और भूखे आदमी के लिए कोई संगति नहीं रखता। अतः किसी राज्य विशेष में रोजगार, भोजन, घर, शिक्षा आदि नागरिक और राजनीतिक स्वतंत्रताओं से कहीं अधिक महत्वपूर्ण हो सकते हैं श्यद्यपि कुछ राज्यों ने सांस्कृतिक एवं नागरिक स्वतंत्रताओं में कटौती करने के लिए इसी बहाने का आश्रय लिया है। एक आलोचना यह भी है कि मानवाधिकार की पश्चिम में विकसित अवधारणा में, समुदायों, जैसे, वर्गों, राष्ट्रों, एवं जातियों के अधिकारों की उपेक्षा की गई है। उदारवादी लोकतंत्र ने वर्ग-शोषण, राष्ट्रीय आत्म निर्णय एवं जातीय भेदभाव की चिंताओं पर बहुत कम ध्यान दिया है। जो हो, यह आवश्यक नहीं है कि सांस्कृतिक मूल्य सदैव अत्यधिक जटिल ही हों। यदि संयुक्त राष्ट्र घोषणा में कहा गया है कि मनुष्यों के साथ उत्पीड़न, गतिरोध, अपमान तथा अत्याचार बुरे होते हैं तो यह सभी संस्कृतियों के विश्वाजनीन लक्षण के अनुरूप है।
हम सभ्यता के युग में रहते हैं जिसमें मानवाधिकारों को विश्व व्यापी साधनों के माध्यम से मान्यता मिली है। कुछ देशों में यह मान्यता राष्ट्रीय संविधानों या राष्ट्रीय आयोगों के माध्यम से प्रदान की गई है। किन्तु हमें अपने समय के इस विरोधाभास को नहीं भूलना चाहिए कि हर स्थान पर इन अधिकारों का उल्लंघन भी हो रहा है और उनकी उपेक्षा भी हो रही है। अधिकार रहित मनुष्यों की संख्या बढ़ती जा रही है। हर स्थान पर खून और आँसय आंतक और उत्पीड़न के शिकार लोग दिखाई पड़ते हैं। मानव की अमानवीयता अनेक रूपों में अभिव्यक्त हो रही है। सामाजिक फूट और राजनीतिक अस्थिरताय विभिन्न संस्थागत ढाँचों और अपर्याप्त संसाधनों से मिलकर संयुक्त राष्ट्र घोषणा की अपेक्षा – पूर्ति को असंभव बना देती हैं। फिर भी 1990 से अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य में हुए कुछ परिवर्तनों ने यह आशा जाग्रत की है कि संयुक्त राष्ट्र घोषणा का लागू हो सकना असंभव नहीं है। पहला परिवर्तन तो यह है कि विश्व ने संचार एवं सूचना के क्षेत्र में बड़ी वैज्ञानिक क्रान्ति का अनुभव प्राप्त किया है। इसके कारण सूचनाओं, चित्रों एवं आँकड़ों का तत्काल प्रसारण संभव हुआ है। जन-संचार माध्यमों के शुभागमन ने मानवाधिकार उल्लंघन के विषय में जन साधारण की जागरूकता में वृद्धि की है और मानवीय मुद्दों पर जन शक्ति के प्रयोग की संभावनाओं का सर्जन किया है। दूसरे, 1990 के बाद के वर्षों में विश्व आर्थिक पद्धतिय उत्पादन एवं वितरण के अन्तर्राष्ट्रीयकरण तथा पूँजी एवं विश्व सूचना-अवसंरचना-तंत्र (जैसे इंटरनैट) की मुक्त गतिविधि के साथ परिचालित हुई है। ऐसी सुविधाएँ चीन, ईरान, तथा सऊदी अरब जैसे देशों में भी उपलब्ध हैं जिन्होंने परंपरागत रूप से मानवाधिकारों की अवधारणा को अग्राह्य माना था। तीसरे, विश्व स्तर पर गैर सरकारी संगठनों की संख्या में असाधारण रूप से वृद्धि हुई हैं। इन संगठनों ने प्रभावशाली तंत्र का विकास किया है और इन्हें सूचना के अधिकृत साधनों के रूप में मान्यता प्राप्त हुई है। ये संगठन उन सरकारों का भंडाफोड़ करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं जो मानवाधिकारों के विषय में या तो जुबानी जमा खर्च अधिक करती हैं या जो उनका उपयोग राजनीतिक प्रचारवाद के लिए करती है। आज मानवाधिकार आन्दोलन, विकसित एवं विकासशीलय दोनों वर्गों के देशों में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। यह सही है कि कुछ मामलों में उनके प्रति बोध के स्तर पर अंतर है।
बोध प्रश्न 7
नोटः क) अपने उत्तरों के लिए नीचे दिए गए स्थान का प्रयोग कीजिए।
ख) इस इकाई के अंत में दिए गए उत्तरों से अपने उत्तर मिलाइए।
1) मानवाधिकार आन्दोलन में गैर सरकारी संगठनों की क्या भूमिका है?
2) भारत में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की स्थापना के मुख्य उद्देश्य क्या हैं?
3) मानवाधिकार आन्दोलन की आलोचना के मुख्य बिन्दुओं का विवरण कीजिए।
सारांश
इस इकाई में हमने मानवाधिकार विषय पर – अवधारणा एवं आन्दोलन – दोनों दृष्टियों से विस्तृत अध्ययन किया है। हमने देखा है कि विभिन्न देशों के संविधानों में अधिकारों की व्यवस्था होने के बावजूद, राज्यों के कानूनों से अलग सार्वभौमिक मानवाधिकारों की आवश्यकताय विशेषकर द्वितीय विश्वयुद्ध के बादय तीव्रता से अनुभव की गई थी क्योंकि उस युद्ध में मानवता के विरुद्ध कुछ (जघन्य) अपराध किए गए थे। इस दिशा में पहल 1948 के संयुक्त राष्ट्र घोषणापत्र के द्वारा की. गई थी जिस का अनुगमन यूरोपीय समझौते, संयुक्त राष्ट्र के 1966 के मानवाधिकार समझौतों, मानवाधिकारों संबंधी अफ्रीकी अधिकार पत्र, मानवाधिकारों पर अमेरिकी राज्य संगठन-समझौते आदि के द्वारा किया गया था। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद मानवाधिकार का मुद्दा विश्व व्यापी घटना के रूप में उभरा और उसने विकसित एवं विकासशील, दोनों वर्गों के देशों का ध्यान आकर्षित किया। जनसाधारण के आधारभूत मानवाधिकारों को समर्थन एवं संरक्षण प्रदान करने के लिए क्षेत्रीय, अन्तर्राष्ट्रीय, राष्ट्रीय स्तर के अनेक गैर सरकारी संगठन तथा प्रायः प्रत्येक राज्य में स्थानीय स्तर के अनेक संगठन अस्तित्व में आए। इन संगठनों ने जातीय अल्पसंख्यकों, शरणार्थियों, बच्चों, लिंग संबंधी, पूर्वग्रह परिपीड़ितों, बंधुआ मजदूरों, मानसिक विकलांगों, बंदियों, अभियोगाधीनों आदि के अधिकारों को सुरक्षित करने में प्रशंसनीय कार्य किया है। ऐसा नहीं है कि इन प्रयत्नों के फलस्वरूप धरती पर से क्रूरता और अमानवीयता का अंत हो गया हो। बहुत लोगों पर आज भी जीवन के लिए अनिवार्य मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं हो पाती। किंतु मानवाधिकारों को पुष्ट रखना महत्वपूर्ण है। वे मानव-उत्पीड़न की प्रक्रिया को उलटने और व्यक्ति की प्रतिष्ठा को स्थापित करने के लिए हैं।
शब्दावली
मानवाधिकार ः मानवाधिकार ऐसे अधिकार हैं जिन्हें संरक्षित रखने और जिनका उपभोग करने का अधिकार हर मनुष्य को होता है। ऐसे अधिकारों में यह मौलिक सिद्धान्त अंतर्निहित होता है कि सभी पुरुषों, स्त्रियों और बच्चों को सम्मानजनक व्यवहार प्राप्त करने का अधिकार है। यह धारणा किसी न किसी रूप में सभी संस्कृतियों और सभी समाजों में विद्यमान होती है।
मानवाधिकार संबंधी संयुक्त राष्ट्र घोषणा ः संयुक्त राष्ट्र ने 1948 में मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा की थी जिसमें ‘सभी लोगों तथा सभी राष्ट्रों की उपलब्धियों के समान मानकश् की उद्घोषणा की गई थी। इसमें घोषित किया गया था कि सभी मानव ‘समान प्रतिष्ठा तथा समान अधिकारों के साथ स्वतंत्र रूप में जन्में हैं। इस घोषणा में अधिकारों के दो वर्ग बताए गए – नागरिक एवं राजनीतिक अधिकार तथा सामाजिक एवं आर्थिक अधिकार।
मानवाधिकार आन्दोलन ः मानवाधिकार आन्दोलन का अभिप्राय है ‘व्यक्ति को, राज्य के मनमाने तथा अतिचारी कार्य से सुरक्षित रखने हेतु मानकों संस्थाओं एवं प्रक्रियाओं का समन निकाय मानवाधिकार आन्दोलन, मूलतः, व्यक्ति के विरुद्ध राज्य की गतिविधियों पर नियंत्रण रखने और उनका प्रतिरोध करने के लिए जाग्रत हुए थे। इस आन्दोलन ने केन्द्रीय अधिकारों की धारणा का विकास किया है जिन्हें ‘पूर्ण‘ माना जाता है और जिनका उल्लंघन सर्वथा निषिद्ध माना जाता है। ये अधिकार हैं – उत्पीड़न, न्यायिक प्रक्रिया के बिना प्राणदंड, मनमाने ढंग से बंदी बनाने या बंदीगृह में रोके रखने, आदि से मुक्ति। अन्य अधिकार जिन्हें पूर्ण से कुछ कम माना जाता है, वे हैं – भाषण, सभा एवं साहचर्य की स्वतंत्रता तथा कानून की समुचित प्रक्रिया का अधिकार ये अधिकार ही वे आधार शिलाएँ है जिन पर प्रमुख गैर सरकारी संगठन टिके हुए हैं।
गैर सरकारी संगठन ः ये संगठन स्वयंसेवी (निजी) संघ हैं (जिन पर सरकारी नियंत्रण नहीं है) और मानवाधिकारों के समर्थन तथा संरक्षण के प्रति सक्रिय रूप से चिंतित रहते हैं।
भारत में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ः भारत में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग 1993 में स्थापित किया गया था जिसका उद्देश्य मानवाधिकारों को लागू कराना तथा सरकार द्वारा किए जाने वाले अतिचारों के आरोपों की स्वतंत्र रूप से जाँच करना था। सूचना देकर किसी जेल या अन्य संस्था का दौरा करने का, मानवाधिकारों को प्रभावी ढंग से लागू कराने के उपायों के निर्धारण, उपचारी उपायों के निर्धारण, मानवाधिकारों के अन्तर्राष्ट्रीय प्रपत्रों का अध्ययन करने तथा उन्हें लागू करने के लिए सिफारिशें करने, मानवाधिकारों के क्षेत्र में अनुसंधान कर, मानवाधिकारों के संबंध में जानकारी प्रसारित करने और गैर सरकारी संगठनों के प्रयासों को प्रोत्साहित करने के लिए उसे शक्तियाँ प्राप्त हैं।
कुछ उपयोगी पुस्तकें
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Maurice Cranston, ;1962), Human Rights Today, Ampersand London.
Abdulla Rahim ;ed.) ;1991), Essays on International Human Rights, Asian Vijaypur, New Delhi.
Chiranjivi J.k~ Nirmal ;2000) Human Rights in India, Historical, Social and Political Perspectives, Oxford.
David Solby ;1987), Human Rights, Cambridge University Press, Cambridge.
Robert G.k~ Patman ;ed.) ;2000), Universal Human Rights, Macmillan Press Ltd.k~ London Peter Schotrab, Adamantia Pallis, ;1982), Towards a Human Rights Framework, Praeger, New York.