मानव अधिकार क्या है | मानव अधिकार की परिभाषा किसे कहते है | मानव अधिकारों का महत्व विशेषता human rights in hindi

human rights in hindi in hindi what is definition in india and violations मानव अधिकार क्या है | मानव अधिकार की परिभाषा किसे कहते है | मानव अधिकारों का महत्व विशेषता ? सिद्धांत निबन्ध लिखिए |

प्रस्तावना
आज हम मानव अधिकारों के संबंध में चर्चाएं सुनते हैं, उसके बारे में अध्ययन करते हैं परन्तु क्या आप जानते हैं कि इन अधिकारों की उपज बहुत पहले ही पश्चिमी देशों में हो चुकी थी जिस पर उनकी तीखी पकड़ एवं वे प्राधिकारिक रूप से उनका व्यापक रूप से प्रयोग करते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि मानव अधिकारों से वे लोग बहुत पहले से परिचित हैं। इसके अतिरिक्त यह एक अलग बात हो सकती है कि अधिकार कमोबेस सभी संस्कृतियों और परम्पराओं में मौजूद रहे हैं। परन्तु यह भी सच है कि मानव अधिकारों की संकल्पना उनका मानकीकरण तथा उन पर विचार-विवेचना व विश्लेषण का जो महत्वपूर्ण कार्य संपन्न हुआ है वह विश्वभर में प्रसिद्ध है। यह पश्चिम पद्धति की महान देन है कि जिसने उदार एवं बहुत गहरी नींव पर मानव अधिकारों की पहचान करते हुए उन्हें व्यवस्थित रूप से विश्व के समक्ष रखे हैं। फिर भी हमारा यह मानना है कि जिस तरह से मानव अधिकारों के मूल्यों को आंका गया है वह अभी न तो समुचित है और न ही इन पर कार्य अभी पूर्ण हुआ है। आज विश्व में राजनीति एवं आर्थिक व्यवस्था में बुनियादी बदलाव आए हैं इसलिए मानव अधिकारों के संतुलित परिप्रेक्ष्य में गहन विवेचन एवं निष्पक्ष परीक्षा का व्यापक कार्य पूरा करना बाकी है। मानव अधिकारों को जो वास्तव में उन्हें महत्व मिलना अपेक्षित है वह केवल निम्नलिखित अध्यायों में प्रस्तुत विश्लेषण के माध्यम से ही समझा जा सकता है। तब ही उनके वास्तविक महत्व एवं उनकी आवश्यकताओं को समुचित रूप से आंका जा सकता है। इसलिए हमें चाहिए कि इस इकाई में दिए गए तथ्यों का ध्यानपूर्वक अध्ययन करके मानव अधिकारों की दिशा निर्देशों के अनुकूल इनके महत्व को समझने का प्रयास करें।

मानव अधिकारों का महत्व
‘‘मानव अधिकार‘‘ विषय पर जब हम चर्चा करते हैं तो हमें एक दृष्टि में ऐसा लगता है कि यह बहुत आसान एवं सरल धारणा है किंतु दूसरे ही क्षण जब हम गहन अध्ययन करते हैं तो पता लगता है कि यह बहुत जटिल एवं पेचीदा संकल्पना है। मानव अधिकारों का सर्वविदित या प्रसिद्ध कथन यह है कि यह मानव से संबंधित है। परन्तु जब हम इसका गंभीरता से विश्लेषण करते हैं तो हमें आसानी से पता लग जाता है कि यह अवधारणा बहुत जटिल भी है। इस अवधारणा या विचार को जटिल बनाने में दो महत्वपूर्ण घटक सहायक होते हैं। ये हैं। (क) इसके निर्णय राजनीतिक तर्कों सहित दार्शिनिक विशेषताएं रखते हैं तथा (ख) दूसरे इसकी शब्दावली को बहुत ही जटिल तथा अबोधपूर्ण बना दिया गया है जिससे इसकी अवधारणा को समझने में अवश्य ही कठिनाइयां सामने आई हैं।

इसके साथ ही यह विचारणीय विषय है कि चाहे कितनी भी मानव अधिकारों के अर्थों में जटिलता रही हो फिर भी उसके मूल सिद्धांतों के केन्द्र बिंदु से उसकी अवधारणा किसी भी प्रकार से अलग नहीं हो सकी है। अर्थात् प्रावधान, संरक्षणता एवं संवर्द्धन अथवा प्रोत्साहन जिसका वास्तविक मूल्यांकन ‘‘हम निश्चयपूर्वक दृढता से घोषित करते हैं कि हम सब एक मानव समुदाय के लोग हैं ।‘‘ के कथन में स्पष्ट झलकता है। इसके अतिरिक्त हम देखते हैं कि किसी भी अर्थ में इसका विवेचन करने पर हमें मानव प्रतिष्ठा के लिए उसके आदर की भावना उसके अत्यंत आवश्यक मुल्य है। जिसका सीधा अर्थ मानव अधिकारों के रूप में निकालना आवश्यक है। परन्तु जब मानव अधिकारों को व्यापक रूप से लागू करने का प्रश्न उठता है उस समय राजनीतिक निर्णय केंद्र बिंदु में स्थापित हो जाते हैं अथवा दूसरे शब्दों में हम यह कह सकते हैं कि मानव अधिकारों को लाग कराने के लिए हमें राजनीतिक व्यवस्था के प्रभाव क्षेत्र में जाना पड़ता है फिर उनके निर्णयों पर निर्भर रहना पड़ता है। मानव अधिकारों को लागू कराने में राजनीतिक लोगों के दखल को हम आज की दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति के रूप में वर्णन कर सकते हैं। इन सब मुद्दों के. अलावा हम 20वीं सदी के अंत के नजदीक पहुँच चुके हैं। इसलिए कुछ विवाद भी होंगे फिर भी सबसे प्रमुख विचार जो मानव अधिकारों का है वह 21वीं सदी के कार्य सूची में मौजूद है। और यह जो थोड़े से विवादित मुददे हैं अगली शताब्दी के प्रारंभिक वर्षों तक रहने की ही उम्मीद करनी चाहिए बाद के वर्षों में यह स्वयं ही आसानी से हल होने की संभावनाएँ बनी हुई हैं।

मानव अधिकारों के महत्व को नीचे दिए गए विकसित संकेतकों के माध्यम से दर्शा सकते हैं:
क) संयुक्त राष्ट्र संघ की पहल व प्रोत्साहन से जून 14 से 25, 1993 के दौरान वियना में मानव अधिकारों पर विश्व सम्मेलन का आयोजन किया गया था। इससे पहले इसी विषय पर सन 1968 में प्रथम अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन तेहरान में किया गया था। वियना में यह जीवंत सम्मेलन की प्रक्रिया दो सप्ताह तक चली थी जिसमें सर्वसम्मति से निर्णय लेकर वियना घोषणा एवं कार्य योजना की घोषणा की थी। उस समय संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव बॉतरोस बॉतरोस घाली ने इस घोषणा के समय यह उद्गार प्रस्तुत किए थे कि यह “आगामी सदी में मानव अधिकारों के लिए विश्व व्यापी कार्य योजना की एक नई दृष्टि व सोच है।‘‘ इसके बाद वर्ष 1995 में मार्च के महीने में आयोजित सामाजिक विकास के लिए विश्व सम्मेलन में विश्व के शीर्ष नेताओं ने एकमत से दस प्रतिबद्धताओं की सूची तैयार की जिसमें मानव अधिकार शामिल किए गए थे। उनकी मूल उद्घोषणा इस प्रकार थी:

‘‘सभी मानव अधिकारों की संवृद्धि एवं संरक्षण के मूल सिद्धांतों पर सामाजिक एकता को उन्नत किया जाए।‘‘
ख) उपर्युक्त लिए गए निर्णयों को लागू करने के उद्देश्य से सदस्य देशों ने निर्णयों को कार्य रूप देने के लिए सबसे अधिक आवश्यकता लोगों को मानव अधिकार संबंधी शिक्षा देने की समझी गई थी। इसी लिए अंतर्राष्ट्रीय मानव अधिकार शिक्षा दशाब्दी की घोषणा की गई थी और तब ही यानि 1995 से अपना कार्यविधिवत कर रही है। भारत ने सन 1993 में राष्ट्रीय मानव आयोग की स्थापना की और आयोग उसी समय से अपना काम बखूबी कर रहा है। यह अधिकारों की चेतना के प्रति लोगों को जागरूक बनाने के लिए राष्ट्र व्यापी कार्यों और अभियानों में जुटा हुआ है। इसके साथ साथ ही अपनी कार्यनीतियों के तहत “वर्ग अधिकारों‘‘ की जानकारी और चेतना को विकसित करने के लिए विशेष वर्गों जैसे कि महिलाओं, बच्चों, जनजातियों तथा दलितों, उपभोक्ताओं, बीमारी से पीड़ित लोगों एवं वृद्धों, अपंग व विकलांगों तथा अन्य लोगों को एकीकृत करने उनमें एक जुटता पैदा करने के लिए विशेष कार्यक्रमों एवं अभियानों को आरंभ करके अपने लक्ष्य की प्राप्ति में लगा हुआ है।
ग) युद्धोत्तर अंतर्राष्ट्रीय राजनीति की यदि हम गहन छानबीन करते हैं तो हम पायेंगे कि “निरंतर बदलती हुई, प्रायः विवादित परन्तु अनुदान नीति पर प्रमुख रूप से परा राष्ट्रीय घोषणाओं के द्वारा अपनी विशिष्ट चारित्रिक आचरणों में वृद्धि करती हुई राजनीति व्यवस्था का ताना बाना बनता रहा है (आर ई वुड)। राजनीतिक नेता यह सहायता अनुदान कूटनीति विकास के सवाल पर अपना ध्यान केंद्रित करती रही है। यदाकदा लोकतत्र, अच्छी सरकार एवं मानव अधिकारों के संबंध में मुददे उठाते रहे हैं, जो आज की स्थिति हमारे समक्ष बनी हुई है। इन दिनों में यह भी देखने में आया है कि शीत युद्ध के बाद के दिनों और सोवियत संघ के विखंडन तथा कम्यूनिष्ट गुट के बिखराव के बाद विशेष रूप से राजनीति दृष्टिकोण के केन्द्र बिंदु में सामयिक बदलाव आया है। यह तो बाद में ही स्पष्ट होगा कि जब । अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के शीत युद्ध के पश्चात के चरण में सदस्य देशों के अपने आचरण एवं व्यवहार में मानव अधिकारों की चेतना को अपरिहार्य बना दिया जायेगा या उनकी स्थितियाँ स्वयं इसके लिए बाध्य कर देंगी। इस लिए अभी से सभी अनुदान सहायता देने वाले देश एवं अभीकरण मानव अधिकारों को अपनी अनुदान सहायता अनुदान नीतियों में आवश्यक शर्तो में शामिल कर दिया गया है अर्थात् उन्होंने अपनी सहायता अनुदान नीति में इस पक्ष को अनिवार्य रूप से शामिल किया हुआ है जो एक महत्वपूर्ण विषय है।

घ) आज की स्थिति में महत्वपूर्ण परिवर्तन यह हुआ है, जैसे कि जो देश अनुदान सहायता दिए जाने में मानव अधिकार चेतना विषय को उसमें शामिल करने के विरूद्ध रहे हैं वे देश भी आज के विश्व में मानव अधिकारों के महत्व को समझने लगे हैं और साथ ही इसके पक्ष में तर्कों सहित इसे स्वीकार करने के लिए पहलकदमी कर रहे हैं। यह एक अच्छे उदाहरण की शुरुआत है। ये देश अधिकतर पूर्व एवं दक्षिण पूर्व एशिया के हैं जो गैर पश्चिमी विश्व के हैं साथ ही यह देश पश्चिमी उदार व्यक्तिवाद के आवश्यक अंशदाता नहीं है। यह लोग भी इसके समक्ष ‘‘सांस्कृतिक सापेक्षवाद‘‘ को अपनाने के लिए तर्क प्रस्तुत करते हैं। संक्षेप में ‘‘सांस्कतिक सापेक्षवाद‘‘ का अर्थ यह है कि किसी देश की प्रमुख सांस्कतिक पद्धति को अपनाया जाना या उसमें शामिल किया जाने से है। इसके पीछे यह तर्क दिया जाता है कि सांस्कृतिक सापेक्षवाद भी मानवाधिकारों की संकल्पना-निर्धारण ही है। इसलिए इसे प्रभावी रूप से लागू करने के लिए हमें ध्यान में रखा जाना चाहिए। यह भी याद रहे कि किसी भी सांस्कृति सापेक्षवादी ने मानव अधिकारों के महत्व को नकारा नहीं है और न उसके विरूद्ध कभी कोई विपक्ष में सवाल ही खड़े किए हैं। अंत में हम कह सकते हैं कि कुछ भी हो ये देश भी मानव अधिकारों के वास्तविक रूप और उनको व्यवहारिक बनाने के लिए पश्चिमी देशों के साथ उनकी वकालत कर रहे हैं जो एक सुखद विषय है।

बोध प्रश्न 2
टिप्पणी प) अपने उत्तर के लिए नीचे दिए गए रिक्त स्थान का प्रयोग कीजिए।
पप) इस इकाई के अंत में दिए गए उत्तर से अपने उत्तर की तुलना किजिए।
1) आज मानवाधिकारों के महत्व को प्रदर्शित करने वाले विभिन्न विकसित संकेतकों का वर्णन कीजिए।
2) निम्नलिखित कथनों में कौन से सही हैं और कौन से गलत हैं। प्रत्येक के समक्ष सही या गलत लिखिए।
क) राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग की स्थापना सन 1995 में हुई। सही/गलत
ख) अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार शिक्षा का आरंभ सन 1993 में हुआ। सही/गलत
ग) मानव अधिकार विश्व सम्मेलन का आयोजन जून 1993 में हुआ। सही/गलत
घ) पिछले दिनों तक सहायता अनुदान नीतियों में विकास का मुद्दा उठाते रहे हैं किंतु वे लोकतंत्र एवं मानव अधिकारों को प्रारंभिक महत्व भी नहीं दे रहे थे। सही/गलत

संकल्पना: विकास एवं अर्थ
हम पिछले भाग में पढ़ चुके हैं कि मानव अधिकार बहुत महत्वपूर्ण है। यदि आज मानव अधिकार महत्वपूर्ण हो गए हैं तो, यहाँ पर यह बताना आवश्यक हो गया है कि इस संकल्पना का विकास तथा उनके व्यवहार में किस प्रकार से परिवर्तन आया है। इसके विकास का उतार चढ़ाव का इतिहास भी अनूठा है। आपको यह जानकर भी रूचिकर लगेगा कि आज हम मानव अधिकार के लिए जो शब्द प्रयोग में ला रहे हैं। इससे पूर्व इसकी यह शब्दावली नहीं थी। इसे विशिष्ट प्रकार से व्यक्ति के अधिकार अथवा प्राकृतिक अधिकारों के नाम से जानते थे। आज की ओर पहले की शब्दावली में जमीन-आसमान का अंतर है। उदाहरण के लिए थामॅस पेने ने सबसे पहले ‘‘मानव अधिकार‘‘ शब्द का प्रयोग किया था। हुआ यूं कि फ्रांस ने 1789 में व्यक्ति एवं नागरिक अधिकारों की घोषणा की। इन अधिकारों का अंग्रेजी में अनुवाद करते समय मानव अधिकार “शब्दावली‘‘ को अपनाया गया था। याद रहे इसी लेखक ने सन 1792 में मानव अधिकारों पर एक पुस्तक लिखी जिसका शीर्षक ‘‘राइटस आफ मैन‘‘ रखा था। इसी वर्ष यानि की 1792 में ही विश्व में पहली बार फ्रांस में ही मैरी वालस्टॉनक्राफ्ट ने अपनी प्रसिद्ध सांस्कृतिक पुस्तक “ए विन्डीकेशन ऑफ दि राइट्स आफ वूमन‘‘ में महिलाओं को समान अधिकार देने के लिए जोरदार तर्क एवं मुददे उठाए थे। यह पुस्तक महिलाओं के अधिकारों की वकालत करने वाली विश्व की प्रथम पुस्तक तो है ही बल्कि महिलाओं को समानता के अधिकार के परिप्रेक्ष्य में यह इतिहास में मील का पत्थर भी सिद्ध हुई है। सन 1947 में एलीन रूजवेल्ट ने “व्यक्ति के अधिकार‘‘ के स्थान पर इसका “मानव अधिकार‘‘ नाम रखने का सुझाव दिया था जिसे सर्वसम्मति से स्वीकार कर लिया गया था। उसी दिन से इस नाम के लिए एकरूपता अपनाई गई थी। इसके बाद 10 दिसम्बर, 1948 को संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा ने मानव अधिकारों की सार्वजनिक घोषणा करते समय इसी नाम को सहर्ष अपनाया था जो आज विश्व में इसी नाम से चर्चित है।

प्राचीन यूनानी एवं स्टोइक दार्शनिक
मानव अधिकारों की यदि तह में देखा जाए तो इसका आधार अत्यंत प्राचीन है। क्योंकि विश्व के विभिन्न धर्मों ने इस अधिकार की व्याख्या एवं शिक्षा किसी न किसी रूप में प्रस्तुत की है। परन्तु मानव अधिकारों की संकल्पना-निर्धारण में जो सबसे अधिक प्राधिकृत शब्द सांस्कृतिक एथेनिया लोकतंत्र में आसानी से खोजी जा सकती है तथा इसके सामाजिक प्रभाव को रोम के विधिशास्त्रों से सरलता से पता लगाया जा सकता है। इस शब्दावली को यहाँ के दार्शनिकों के दर्शनों में तथा नियमों में मौजूदगी है। साथ में यह जानकार आश्चर्य होना चाहिए कि आदर्शी नीतिपरक संकल्पना से ही मानव अधिकारों का उद्गम हुआ है जिसे राजनीतिक सिद्धांत को अपना सर्वगुणार्थ माना है या अपनाया है। यही सिद्धांत आज तक यानि की आधुनिक मूल स्रोत माना गया है। प्राचीन यूनानियों का विचार था कि “प्रकृति‘‘ ही “मानव सामाजिक आचरण के निर्देशों के लिए उद्देश्यपरक लक्ष्य एवं स्तर है।‘‘ जो आचार के व्यवस्थित विवरण के माध्यम से प्राकृतिक नियमों को जाना जाता है जिसे समाज में “कर्तव्य करने की भावना‘‘ उत्पन्न होने को कहा जाता है। इसे राजनीति दृष्टि से इस प्रकार कह सकते है। इसका अर्थ है नगर राज्य में प्रत्येक व्यक्ति को प्राकृतिक अधिकार प्राप्त नहीं हो सकते हैं। वास्तव में इसका सीधा आशय नागरिकों से लिया गया है जिसका मायना है कि प्राकृतिक कानूनों का लाभ नागरिकों के अतिरिक्त अन्य किसी को प्राप्त नहीं है। परन्तु यह निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि इस तरह की असमानताओं की प्रतिरक्षा के लिए प्लैटों और अरस्तू ने समानता की अनेक संकल्पनाएं प्रस्तुत की हैं जिनको विश्व भर में ख्याति प्राप्त हुई है जिन्हें आज के मानव अधिकारों के सिद्धांतों में प्रमुख तत्व स्वीकार किए जाते हैं। इन विश्व विख्यात विद्वानों के प्रमुख सिद्धांतों के कुछ तत्वों को आपकी जानकारी के लिए नीचे दे रहे हैः
– सभी नागरिकों को समान आदर (प्ैव्ज्प्डप्।)
– विधि के समक्ष सब समान है (प्ैव्छव्डप्।)
– राजनीतिक शक्ति में समान अधिकार या हिस्सा (प्ैव्ज्ञत्।ज्प्।)
– मताधिकार में समानता (प्ैव्च्ैम्च्भ्प्।) तथा
– नागरिक अधिकारों की समानता (प्ैव्च्व्स्प्ज्प्।)

परंतु हम पहले ही स्पष्ट कर चुके हैं कि उपर्युक्त लाम केवल नागरिकों को ही प्राप्त थे और इस अधिकार क्षेत्र में आने वाले लोग एथेन्स में रहने वालों की आधी जनसंख्या ही शामिल की गई थी। क्योंकि उस समय सब को नागरिकता का अधिकार प्राप्त नहीं था। जहाँ तक समानता की रोम की संकल्पना का सवाल है, इसका क्षेत्र एथेन्स से व्यापक रहा है जिसमें अधिकारों को लागू किया जाता था। इस तरह हम देखते हैं कि प्राकृतिक विधि सिद्धांत को स्टोइक दार्शनिकों ने स्थापित करने में अपना विशेष सहयोग प्रदान किया है। यदि हम प्राचीन यूनानी विचारों का अवलोकन करें तो पता चलता है कि वे ‘‘प्रकृति‘‘ को वैचारिक दृष्टि से देखते थे तथा प्रकृति को “विधि की सार्वजनिक व्यवस्था‘‘ के रूप में मानते थे। याद रहे यही विचार रोम के समाज में व्याप्त है। इसलिए उनकी मान्यता है कि सभी विवेकपूर्ण मानव समान नागरिक स्तर अथवा समान अधिकारों के हकदार हैं। रोम के प्राकृतिक विधि के सिद्धांत ने यूनान के इस छोटे से विचार की विस्तृत व्याख्या करके प्रस्तुत किया जिससे विधि के क्षेत्र में एक क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ। यूनान के इस स्थानीय अवधारणा को व्यापकता से देखा गया तथा उसके प्रभाव का अर्थ यह माना गया कि सभी व्यक्ति समान हैं तथा विश्व समुदाय के सदस्य हैं। विश्व समुदाय मानव का एकमात्र लक्ष्य है। अर्थात् यही वह वैचारिक बिंदु हैं जहाँ से कुछ पाठ यहाँ से सीखे होंगे। कहने का तात्पर्य यह है कि विशिष्ट बहुलवाद के साथ सार्वजनिक सोच का सहअस्तित्व इसमें ही मौजूद है। यही आज की सोच यानि मानव अधिकारों का वैचारिकरण एवं व्यवहार में महत्वपूर्ण तत्व उभर कर सामने आया और अपना विशेष स्थान स्थापित करते हुए अपनी विश्वव्यापी मान्यता हासिल की।

आज का प्रमुख सिद्धांत
आज का प्रमुख सिद्धांत अथवा अवधारणा का मूल स्रोत यानि की मानव अधिकारों का जन्म प्राकृति विधि दर्शन से माना गया सिद्धांत है। इस सिद्धान्त के वास्तविक देन दार पश्चिमी सभ्यता और संस्कृति है। आज भी यदि मानव अधिकारों पर दस्तावेज बनता है अथवा तैयार होता है तो वह यूनानी एवं रोम के विचारों के प्रभाव के बिना नहीं बन सकता है। इसलिए यह कहने में कतई झिजक नहीं होनी चाहिए कि यह पश्चिमी सभ्यता और संस्कृति की एकमात्र देन है। जिसे समयानुसार परिवर्तन करके मानव अधिकारों के रूप में प्रयोग कर रहे हैं। अतः मानव अधिकारों को सार्वजनिकीकरण करने तथा उसे संभावित व्यावहारिक रूप देने के लिए स्थानीय भिन्नताओं को ध्यान में रख कर उनका विवेचन किया जाना आवश्यक है तथा उनका व्यापक प्रयोग करना आज की अत्यन्त आवश्यकता है।

आदर्शतः मानव अधिकारों को मानव की समान प्रतिष्ठा, उसका गौरव-सम्मान के मुद्दों से जोड़ना चाहिए और ऐसा करते समय किसी अन्य आदर्श तथा राजनीति एवं आर्थिक व्यवस्था से संबंधित अड़चने सामने नहीं आनी चाहिए या फिर उन्हें इन सब से अलग रख कर देखा जाना बहुत आवश्यक है। ताकि कठिनाइयों का समाधान निकाला जा सके। इसके साथ ही मानवता के अन्य पक्षों का भी अध्ययन किया जाना चाहिए। परिणामस्वरूप उनकी भी प्रतिष्ठा को संरक्षित एवं सशक्त बनाने में सहयोग और सहायता दी जा सके। ऐसा करना सम्पूर्ण विश्व के मानव के लिए यही एकमात्र सरल पथ या उपाय होगा।

अपने सभी मतभेदों एवं भिन्नताओं को भुलाकर केवल एक मानव समुदाय का निर्माण किया जाना चाहिए जिसमें विश्व का प्रत्येक व्यक्ति गर्व से कह सके कि मैं इसी वैश्विक समुदाय का सदस्य हूँ। किंतु यह सब तभी संभव हो सकता है जब हम मानव अधिकारों में प्रमुखता से सामाजिक सीमेंट का तत्व इसमें शामिल कर सकें। यह सामाजिक तत्व ‘‘अखंडनीय मानव तत्व‘‘ बन सकता है और मानव अधिकारों की नींव को मजबूत बनाने में अपना विशेष सहयोग दे सकता है। प्रत्येक धर्म तथा सामाजिक लोकाचार अपनी विविधता को संरक्षित करते हुए अथवा उसे सुरक्षित रखते हुए यह सब संभव हो सकता है जैसे कि भारत में अनेकताओं में एकता का प्रसार होता है जिसे हम “वसुधैव कुटुम्बकम‘‘ नाम से पुकारते हैं। परन्तु आज हम इन दिनों में आर्थिक एवं वित्तीय व्यवस्था का जिस आक्रामक गति से भूमंडलीकरण हो रहा है उसमें समानता के मूल्यों का विश्व व्यापीकरण तथा समान स्वतंत्रता के तत्व कहीं दूर तक भी नजर नहीं आ रहे हैं। इसका अर्थ यह है कि विश्व में र्थक व्यवस्था का साम्राज्य स्थापित करने के लिए भयंकर मारामारी चल रही है जिसमें मानव अधिकारों का कहीं नामोनिशान दिखाई नहीं देता है। इस दौड़ ने मानव अधिकारों को गौण बना दिया है।

हमने एक सामान्य विद्यार्थी के ज्ञानार्थ मानव अधिकारों का एक चित्र प्रस्तुत किया है जिसका निर्माण विषय के विशेषज्ञों ने तैयार किया है। हमारा मानना है कि इस सामग्री से आपको अवश्य ही लाभ होगा तथा आपके ज्ञान में संवृद्धि होगी। तथापि हम इसके विपरीत कुछ ऐसे विचारों को भी प्रकट करना चाहते हैं जो पूर्वाग्रहों से पीड़ित हैं और ऐसे विचारों को भी वे विचारक मानव अधिकारों के तुल्य समझते हैं ये हैं:
क) नागरिक एवं राजनीतिक अधिकारों का संरक्षण तथा उन्नयन करना।
ख) समयानुसार आक्षेपण के साथ आर्थिक अधिकारों के लिए माँग करना।
ग) पश्चिमी विश्व में अपनाई जाने वाली लोकतंत्रता और इससे भी अधिक उदार लोकतंत्र की व्यवस्था को स्वीकार करने की अपेक्षा करना।
उपर्युक्त विषय पर पश्चिमी देशों के नीति निर्धारक तथा विद्वानों का तर्क है कि यह सब अमरीका के राष्ट्रपति जिम्मी कार्टर के नेतृत्व में किया जा रहा है तथा उनका मानना भी है कि अभी वास्तव में मानव अधिकारों का संचलन आरंभ हुआ है। इसके बाद उनके अनुसार मानव अधिकार अब अंतर्राष्ट्रीय अधिकारों का जुड़ाव विश्वव्यापी संदर्भ में स्थापित हो चुका है।

विकास के मील के पत्थर
मानव अधिकारों के क्षेत्र में जो निरंतर विकास हुआ है वह वास्तव में प्रतिमान साबित हुए हैं। यह एक अलग मुद्दा है कि लोकतंत्र और मानवाधिकारों की संकल्पना अब पुरानी हो गई है किंतु यह तो भूला नहीं जा सकता है कि जिम्मी कार्टर के इन शब्दों की शब्दावली के साथ सरकारी तौर पर व्यवहार करने की मान्यता दी है। कुछ भी हो वर्ष 1977 तथा 1981 के बीच उनके अध्यक्षीय अवधि अधिकार उनके आधार बने थे। यह याद रखना चाहिए कि ‘‘लोकतंत्र‘‘ यानि की ‘‘डेमोक्रेसी‘‘ शब्द पहली बार सोलहवी सदी में अंग्रेजी शब्दकोश में शामिल किया गया था। कहने का तात्पर्य यह है कि इस सदी में अंग्रेजी भाषा का शब्द बना था। यह अलग विषय है कि इस अवधारणा का अंग्रेजी भाषा में शामिल हुआ था। इसी प्रकार 1688 में इंगलिश बिल राइट्स के माध्यम से स्वतंत्रता को पवित्रीकरण किया गया था अर्थात् स्वतंत्रता को प्रमुखता से स्वीकार करते हए उसे अपनाया गया था। इसी क्रम में 1776 अमरीका की स्वतंत्रता की घोषणा तथा 1789 (फ्रांस) में व्यक्ति और नागरिक के अधिकारों की घोषणा की गई। यह सब घटनाएँ यह सिद्ध करती हैं कि मानव अधिकार एवं समानता व स्वतंत्रता की संकल्पना का जन्म पश्चिमी विश्व में ही हआ है। यह और अधिक महत्वपूर्ण विषय है कि यहाँ जितनी भी घोषणाएँ हुई हैं वे सब राष्ट्र राज्यों के इर्द गिर्द हुई हैं। फिर भी हम कह सकते हैं कि दूसरे विश्व युद्ध के बाद अधिकारों का सवाल उठाए गए और सर्वमुक्तिवादी दृष्टिकोण का जन्म हुआ। इसका प्रथम उदाहरण 1945 में संयुक्त राष्ट्र संघ ने अपने घोषणा पत्र में “सब के लिए अधिकारों एवं मूल अधिकारों की स्वतंत्रता के लिए अनुपालन हेतु व्यापक आदर तथा मान्यता दिए जाने’’ की घोषणा की। इसके साथ ही ‘‘लोगों के समान अधिकारों के सिद्धांत तथा स्व निर्धारण के अधिकारों के अनुपालन के अनुसार राष्ट्रों के बीच मित्रतापूर्ण संबंधों को विकसित करने की भी घोषणा की गई थी। इस घोषणा के तीन वर्ष बाद यानि की दिसम्बर 10, 1948 को (यह तारीख मानव अधिकार दिवस के रूप में मनाया जाता है) संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव ने मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा (यू डी एच आर) सभी – सदस्यों के मतैक्य से की थी। यह अलग मुद्दा है कि इस समय सोवियत गुट के राष्ट्र, दक्षिण अफ्रीका और साउदी अरब जैसे देश इस घोषणा के समय तटस्थ रहे थे। इस घोषणा ने मानव अधिकारों की पिछली संकल्पना को बुरी तरह से ध्वस्त कर दिया था। उस समय संयुक्त राष्ट्र संघ के सदस्य देशों में से केवल एक चैथाई देशों ने ही यू डी एच आर को अपनाया था। इसके बाद के वर्षों में बहुत सारे राष्ट्रों ने अंतर्राष्ट्रीय संधियों के माध्यम से मानवाधिकारों को आदर सहित स्वीकार किया और उनका समुचित पालन भी किया था। इस तरह से विश्व की अनेक घोषणाओं के माध्यम से आज के मानवाधिकारों की यात्रा पूर्ण हुई है जो वास्तव में एक लम्बे समय और अनेक घटनाओं के साक्षी भी रहे हैं। यह हैं मानव अधिकार ।
इस संदर्भ में कुछ समझौतों/संधियों का विवरण इस प्रकार हैः
क) आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक अधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय प्रसंविदा पत्र (प्रतिज्ञा पत्र) (आई सी ई एस सी आर) तथा नागरिक एवं राजनीतिक अधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय प्रसंविदा पत्र, ये क्रमशः 1966 तथा 1976 में लागू किए गए।
ख) मानव अधिकारों पर यूरोपिय सम्मेलन (1950), 1953 में लागू किए गए।
ग) मानव अधिकारों पर अमरीकी सम्मेलन (1969), 1978 में लागू किए गए।
घ) हेलसिंकी का समझौता (1975 में अपनाया गया)।
ड.) आम लोग तथा मानव अधिकारों पर अफ्रिका की घोषणा यह 1986 में लागू हुआ।
यू डी एच आर (मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा) के साथ दोनों संविदा पत्र (आई सी सी पी आर तथा आई सी ई एस सी आर) तथा इनके विकल्प दस्तावेज तैयार किए गए जिन्हें इंटरनेशनल बिल ऑफ राइट्स (आई बी आर) अर्थात् अंतर्राष्ट्रीय अधिकार बिल के नाम से जाना जाता है। वास्तव में आई बी आर संकल्पनात्मक प्रारूप इसी के आधार पर निर्मित किए गए हैं। इसलिए आई बी आर की दो विशिष्ट विशेषताओं का जिकर करना आवश्यक है। पहली विशेषता यह है कि 1948 में घोषणा के समय इसमें ऐसी शर्तों एवं उपबंधों का समावेश कर दिया था कि इस दस्तावेज में हस्ताक्षर करने वाले देश इसकी सभी शर्तों का शक्ति से पालन करेंगे। इसके साथ ही दूसरी । शर्त यह जोड़ दी गई कि इन देशों में कहीं मानव अधिकारों का हनन तो नहीं हो रहा है या फिर उनका समूचित पालन हो रहा है अथवा नहीं। इसकी निगरानी का अधिकार भी साथ में होगा। अर्थात जब भी ऐसी कोई घटना घटी या फिर इस तरह की संभावनाएं हुई तो संबंधित देश को संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रतिनिधियों को जांच करने का अधिकर है और वह संबंधित देश जांच एवं निगरानी में अपनी सहमति एवं सहयोग देगा।

इस तरह से आई सी पी आर की घोषणा के समय 121 देशों ने हस्ताक्षर किए थे और आई सी ई एस आर की घोषणा के समय 123 देशों ने सहमति प्रकट करते हुए हस्ताक्षर किए थे। भारत सरकार ने इन दोनों घोषणाओं की 10 अप्रैल, 1979 को अभिपुष्टि की। इस समय जनता सरकार थी और इसके मुख्य मोरारजी देशाई थे। इस संदर्भ में दूसरी खास विशेषता यह है कि हजारों संधिया संयुक्त राष्ट्र संघ में पंजीकृत की गई जिनमें 5 प्रतिशत बहु पश्चातीय संधियां थी। जहां तक मानव अधिकारों के क्षेत्र से संबंधित हैं वहां यह कहा जा सकता है कि इसका विरोध किया गया था। वह कहीं तक ठीक था। वास्तव में तथ्य यह है कि जितने भी मानव अधिकार संधियों का । गठन हुआ है वे सभी बहु पश्चातीय है। इसलिए प्रस्तुत तथ्यों से स्पष्ट होता है कि पूरे विश्व में मानव अधिकारों का भरपूर पालन विश्व स्तर पर किया गया है। तथा मानव अधिकारों की व्यापकता उनके प्रति आदर भावना एवं पालन की दृढ प्रतिज्ञा हमारे सामने मौजूद है।

उपर्युक्त इन घटनाओं को ध्यान में रखते हुए विचार करने से पता चलता है कि व्यक्तिगत अधिकारों में दो नए आयाम और जुड़ गए जो सन 1945 तक इनके बारे में सोचा तक नहीं गया था। आज अंतर्राष्ट्रीय अधिवक्ता एवं टीकाकार इन आयामों को बहुत ही दृढता से स्वीकार करते हुए इन का समर्थन करतें हैं। तथा ये विषय विशेषज्ञ लोग कहते हैं कि सभी राष्ट्र राज्य संयुक्त राष्ट्र संघ के सदस्यों के साथ साथ इन समझौतों को भी स्वीकार करने में शामिल रहे हैं। वे राष्ट्र पूर्णरूप से प्रभुसत्ताधारी हैं। इसलिए यह प्रश्न ही नहीं उठता कि वे अपने नागरिकों के साथ कुछ ऐसा बर्ताव करेंगे जो मानव अधिकारों की संकल्पना के विरूद्ध हो। दूसरा तथ्य यह है कि अब लोगों के स्वयं निर्धारण या स्वयं निर्णय के अधिकार को कानूनी मान्यता मिल चुकी है और इस तरह से मानव अधिकारों का सम्मान करना, उनको स्वीकार करना एवं हनन होने की स्थिति होने पर उनकी सुरक्षा करने का अब सदस्य देशों का कानूनी अधिकार के साथ साथ कानूनी बाध्यता भी सामने है।

उपर्युक्त तथ्यों के साथ इस मुद्दे को भी नोट कर लेना चाहिए कि संयुक्त राष्ट्र संघ ही एक ऐसा स्थान है जहां पर मानव अधिकारों की अंतर्राष्ट्रीय राजनीति का खेल खेला जाता है। इसके साथ ही यह एक दूसरी कहानी है कि इस असमतल विश्व पर अपने प्रभाव को स्थापित करने या फिर विश्व में अपना प्रभुत्व स्थापित करने के लिए राजनीतिक कूटनीति एवं अन्य लोग चालें चलते रहें हैं। परन्तु इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता है कि व्यक्तिगत एवं समुदाय के अधिकार अब स्थापित हो चुके हैं और संयुक्त राष्ट्र संघ के महत्वपूर्ण नेतृत्व में आवश्यक संस्थानों एवं कार्य तंत्र का निर्माण हो चुका है। साथ ही उनको स्वीकार करने, लागू करने के मानक भलि भांति बन कर सामने आ चुके हैं। फिर भी हम कह सकते हैं कि मानव अधिकारों के संबंध में यह कहना कि यह पूर्णरूप से सफल है या असफल है, यह दोनों स्थितियां ही सच नहीं हैं। जहां तक अनैतिक राजनीतिक गतिविधियों के चलते मानव अधिकारों की सीमाएं सीमित हुई हैं तथा उनके अनुपालन में अड़चने आई हैं। किन्तु इन सब कार्यकलापों के विरूद्ध भी बहु पश्चातीय संधियों, घोषणाओं, संकल्पों और समझौतों के होने से और इसी तरह से क्षेत्रीय शासन की सशक्त अभिव्यक्ति व गैर सरकारी संगठनों के पनपने और उनका विकास होने के कारण जिसमें संबंधित देशों की सरकारों का भी समर्थन प्राप्त है। इसलिए एक बेहतरीन संतुलन स्थापित हुआ है। साथ ही मानव अधिकारों का महान उद्देश्य भी स्पष्ट होकर विश्व के समक्ष उभरा है। अतः हम कह सकते हैं कि सब कुछ मिलाकर मानव अधिकारों का ही पलड़ा भारी है। तथा मानव अधिकारों को ही सबसे अधिक महत्त्व मिला है, जो सराहनीय तो है ही साथ में आज की आवश्यकता भी है।

मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा के दस्तावेज में एक प्रस्तावना है और 30 अनुच्छेद हैं। जिसमें संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा में घोषणा की जिसके शब्द “सभी लोगों एवं सभी राष्ट्रों के लिए सामान्य स्तर और समान उपलब्धियांष् हैं। भारतीय संविधान ने इन सबको अपनाते हुए इस देश के नागरिकों को अधिकारों एवं कर्तव्यों की घोषणा की हैं। अब सवाल उठता है कि क्या हमारे संविधान में दिए गए अधिकार और कर्तव्य संयुक्त राष्ट्र संघ की घोषणाओं के समान हैं। (कृप्या संधि के क्षेत्र का अवलोकन करें और भारतीय संविधान में दिए गए अधिकारों तथा कर्तव्यों को मानव अधिकारों की सर्वाभौम घोषणा के साथ परिशिष्ट-1 में दी गई सूची के साथ मिलान कीजिए। याद रखें कि अधिकारों एवं कर्तव्यों को संक्षिप्त यदि संकेतात्मक क्रम में दिए गए हैं।)

वर्ष 1968 में तेहरान में मानव अधिकारों पर प्रथम विश्व सम्मेलन का आयोजन किया गया। उस सम्मेलन में सिद्धांतों को स्वीकार किया गया जिसकी संयुक्त राष्ट्र संघ ने स्वीकृति दी थी। आपको यह याद रखना हितकर रहेगा कि संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा ने 1950 में घोषणा की थी कि ‘‘नागरिक एवं राजनीतिक स्वतंत्रता का इस्तेमाल करना और आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक अधिकार एक दूसरे से संबंद्ध है और एक दूसरे पर निर्भर करते हैं।‘‘ यह मानव अधिकारों की दोनों विशेषताएं अर्थात् ‘‘अहस्तांतरणीय एवं अतः निर्भर होने के कारण ही इन्हें अलग नहीं किया जा सकता है। इनका विखंडन नहीं किया जा सकता है। एक तरफ नागरिक और राजनीतिक अधिकार एवं आर्थिक सामाजिक व सांस्कृतिक अधिकार दूसरी और हैं जिनकी आबद्धता बहुत ही मजबूत है। इसलिए यह महत्वपूर्ण तथ्य है कि उपर्युक्त अधिकारों की भावनाओं एवं उसके मूल विषयों को मध्यनजर रखते हुए वर्ष 1993 में वियाना में मानव अधिकारों पर द्धितीय विश्व सम्मेलन का आयोजन किया गया था जिसमें सभी अधिकारों को एकमत से स्वीकार कर लिया गया था। इस विश्व सम्मेलन के पश्चात मानव अधिकारों की प्रकृति, विषय एवं महत्व के संबंध में कोई विवाद बाकी नहीं रहा है।

विकास का अधिकार
मानव अधिकारों के क्षेत्र में विकास का अधिकार एक महत्वपूर्ण अधिकार है। इस अधिकार को स्वीकार करने में 1950 से 1993 तक एक लम्बी यात्रा तय करनी पड़ी है जिसमें इस मुद्दे को स्वीकार किया जाए अथवा नहीं। इस संबंध में एक लम्बे विवाद के बाद तीसरी दुनिया की स्थिति जो कि वास्तव में आर्थिक एवं सामाजिक व सांस्कृतिक अधिकार की अत्यावश्यकता से जुड़ी थी इसमें मुख्य रूप से यह मांग थी कि नागरिक और राजनीतिक अधिकारों के साथ साथ इन अधिकारों को उसी तरह की मान्यता दी जाए। इस विवाद ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विकासशील देशों के प्रयासों पर प्रभाव डाला था जिसके पीछे सोवियत संघ की “विकास का अधिकार‘‘ की सकल्पना पूरी तरह से काम कर रही थी। इस मांग को राष्ट्र संघ के सभी सदस्य स्वीकार करने के योग्य मानते थे। परन्तु इस मांग का विरोध करते हुए पश्चिमी पूंजीपति देशों ने इसे अस्वीकार कर के सामूहिक अधिकारों‘‘ का दोषारोपण करते हुए ‘‘भूमंडलीय आर्थिक सुधारों‘‘ को प्रस्तुत किया और तीसरी दुनिया के देशों को कुछ रियायतें दे दी गई और कुल मिला कर मानव अधिकारों को कम कर दिया या फिर उनके प्रभाव क्षेत्र पर रोक लगा दी। दूसरे शब्दों में इसे यूं कहा जा सकता है कि विकास के अधिकार को पश्चिम के उदारवादियों ने मूल राजनीतिक एवं नागरिक अधिकारों में शामिल करने में सहमत हो गए किंतु अलग से इस अधिकार को रखने के सवाल पर अपना विरोध प्रकट करते रहे थे। इन सब विरोधों के बावजूद 1986 में महासभा ने विकास के अधिकार की घोषणा करके विरोधी पक्षों, यानि पश्चिमी पूंजीवादी देशों को सहमति दे दी। उनके तर्को को अमान्य करार दे दिया था। याद रहे इस अधिकार के विरोधियों को शांत करने तथ इसका मसौदा तैयार करने में संयुक्त राष्ट्र संघ को वर्षों तक कसरत करनी पड़ी थी। यह विकास का अधिकार घोषणा के अनुसार निम्न प्रकार से हैः
‘‘यह एक ऐसा अधिकार है, वास्तव में जिससे प्रत्येक व्यक्ति, मानव तथा सभी लोगों को वंचित नहीं रखा जा सकता है क्योंकि संपूर्ण मानव जाति भाग लेने, सहयोग देने तथा आर्थिक, सामाजिक सांस्कृतिक एवं राजनीतिक विकास की हकदार है। प्रत्येक का इसमें अधिकार बनता है। इसलिए सभी मानव अधिकार एवं मौलिक स्वतंत्रता इस अधिकार के बिना पूर्ण नहीं माने जा सकते हैं।‘‘

उपर्युक्त विकास की परिभाषा विश्वव्यापी स्तर पर स्वीकार की गई है। वह एक अलग मुद्दा है कि एक लम्बे समय के पश्चात यह परिभाषा 1997 में स्वीकार की गई है। अर्थात् कह सकते हैं कि इस प्रक्रिया में 30 वर्ष से भी अधिक समय लगा है। क्योंकि आई सी ई एस सी आर की घोषणा पर सन 1966 में हस्ताक्षर हुए थे।

बोध प्रश्न 2
टिप्पणी प) अपने उत्तर के लिए नीचे दिए गए रिक्त स्थान का प्रयोग कीजिए।
पप) इस इकाई के अंत में दिए गए उत्तर से अपने उत्तर की तुलना कीजिए।
1) कालक्रम के अनुसार एक तालिका बनाएं जिसमें मानव अधिकारों की संकल्पना तथा व्यवहार के विकास में विकास के मील के पत्थरों को दर्शाते हुए प्रमुख तारीखों का भी उल्लेख कीजिए। इस तालिका का आरंभ महान घोषणा पत्र मैग्ना कार्टा से आरंभ कीजिए जिसमें अंग्रेज बैरोन के दबाव में आकर सम्राट जोहन ने हस्ताक्षर किए थे। यह महत्वपूर्ण तिथि 1215 ई. थी। तालिका के अंत में वर्ष 1993, में इस संबंध में घटी दो घटनाओं का विवरण दीजिए।
2) निम्नलिखित कथनों पर सही या गलत का चिन्ह लगाइये।
क) एलीनर रूजवेल्ट ने ‘‘व्यक्ति के अधिकार‘‘ (राइटस ऑफ मैन के स्थान पर ‘‘मानव अधिकार‘‘ नाम परिवर्तन करने का सुझाव दिया था। सही/गलत
ख) प्लैटो और अरस्तु के अनुसार नगर राज्य में प्रत्येक व्यक्ति के प्राकृतिक अधिकार नहीं दिए जाने चाहिए। सही/गलत
ग) मानव अधिकारों की प्रमुख अवधारणा का जन्म पश्चिमी देशों में हुआ था। शेष अन्य समाज तो केवल उनका मात्र अनुकरण कर रहे हैं। सही/गलत
घ) प्रायः मध्ययुग के अंत तक एक शिल्पकार के औजारों को शिल्पी के शरीर के अंगों के समान समझा जाता था। सही/गलत

सार्वभौम बनाम सांस्कृतिक सापेक्षवाद
मानव अधिकारों में सांस्कृतिक सापेक्षवाद का बहुत महत्व है। इस तरह से व्यक्ति के विभिन्न संकल्पना-निर्धारण प्रत्ययवादीकरण के अंतर्गत एशियाई देशों ने जो मानव अधिकारों को अपनाया है उनमें तो मौजूद है किंतु ये मूल मानव अधिकारों से भिन्न अर्थ नहीं देते हैं और न ही किसी तरह से विपरीत है। 1993 में आयोजित वियना कांग्रेस के अधिवेशन के समय चीन के प्रतिनिधि ने बहुत ही महत्वपूर्ण विचार सभा के समक्ष रखे थे। उनका कहना था कि उनकी शासन व्यवस्था में मानव अधिकार बहुल रूप में विद्यमान हैं और हम उसका समर्थन करते हैं किंतु उदार व्यक्तिवाद के पश्चिमी विचारों का विरोध करते हैं चाहे वे प्रत्यक्ष या फिर अप्रत्यक्ष रूप से ही लागू क्यों न होते हों।

‘‘मानव अधिकारों की संकल्पना का उदगम ऐतिहासिक विकास की कहानी है। सभी देशों की विभिन्न विकास की स्थिति उनके सार विविध ऐतिहासिक परम्पराएं एवं सांस्कृतिक पृष्ठभूमि में मानव अधिकारों की आपसी समझ तथा उनके व्यवहार हमेशा मौजूद रहे हैं। इसलिए किसी को भी यह सोचना नहीं चाहिए कि कुछ खास ही देशों के मानव अधिकारों स्तर और नमूने ही बेहतर हैं। इसलिए उनके यहां अपनाए जाने वाले मानव अधिकार ही एक मात्र उपयुक्त हैं। अतः इन्हीं मानव अधिकारों को ही अन्य बाकी देशों के द्वारा पालन होना चाहिए। यह सोचना गलत तो है ही साथ में न वास्तविक है और न ही इसको कार्यरूप दिया जा सकता है। अतः ऐसे अधिकारों के थोपने के लिए अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक सहायता देना अथवा अंतर्राष्ट्रीय सहयोग शर्तों को जबरन मनवाना दोनों ही वास्तविक तथ्यों एवं आचरण के विरूद्ध हैं।‘‘

इस तथ्य को ध्यान में रखना चाहिए कि चीन मानव अधिकारों के कतई विरोध में नहीं है किंतु वह इस विचार का घोर विरोधी है कि कोई प्रमुख देश या शासक एक ही तरह के मानव अधिकारों को अन्य किसी देश पर जबरन थोपना चाहता हो। इस विचार का व्यापक रूप से विकासशील देशों ने समर्थन किया। इसी आधार पर वियाना कांग्रेस ने अपनी घोषणा के पांचवे पैरा में विधिवत इस सिद्धांत को स्वीकार करते हुए उसमें शामिल किया था। यह सिद्धांत निम्न प्रकार से स्वीकार किया गया हैः

‘‘राष्ट्रीय एवं क्षेत्रीय विशिष्ट विशेषताओं और विभिन्न ऐतिहासिक, सांस्कृतिक तथा धार्मिक पृष्ठभूमियों के महत्व को विशेष रूप से दिमाग में रखना चाहिए जब मानव अधिकारों को लागू किया जा रहा हो। यह देखना विभिन्न राज्यों का काम है कि वे मानव अधिकारों और मौलिक स्वतंत्रताओं का संरक्षण करे। ऐसा करते समय इन देशों को अपने राजनीतिक, आर्थिक तथा सांस्कृतिक व्यवस्थाओं को स्थापित करना या फिर उन्हें उन्नत करने के लिए किसी देश विशेष पर दबाव डालना नीति के विरूद्ध माना जाएगा।‘‘ इस पैरागाम में जो विशेष प्रकार का जोर दिया है वह महत्वपूर्ण है कि सामाजिक आर्थिक के विभिन्न स्तरों पर राज्यों की सामाजिक सांस्कृतिक विशिष्ट विशेषताओं को ध्यान में रखा जाना चाहिए। यह साफ तौर पर संयुक्त राज्य अमरीका फ्रांस तथा अन्य विकसित देशों की ओर संकेत देती है जो हमेशा उनकी विदेश नीतियों के व्यापार के आधार पर बनाते हैं। इसीलिए ये देश चीन पर दोषारोपण करते हैं कि वह मानव अधिकारों के पालन संबंधी रिकार्डो को सुव्यवस्थित एवं सुनियोजित नहीं रखता है। इसी वर्ष एशियाई गैर सरकारी संगठनों की बैठक में जो बैंकांक क्षेत्रीय मानव अधिकार सम्मेलन के समानांतर सत्र में सांस्कृतिक भिन्नताओं के संबंध में दस्तावेज तैयार किया गया था। यह दस्तावेज मानव अधिकारों के विश्वव्यापी सामान्य सेट के विकास के विरूद्ध एक तथ्यपूर्ण तार्किक उत्तर माना गया है। ।

‘‘सार्वभौम मानव अधिकार स्तर की जड़े विभिन्न संस्कृतियों के गर्भ से निकली हैं। हम उन मानव अधिकारों की सार्वभौमिकता को दृढ़ता से स्वीकार करते हैं जो संपूर्ण मानवता को अपने दायरे में समेटता है उनके अधिकारों का संरक्षण करता है जिसमें विशेष समूहों अर्थात् महिलाओं, बच्चों, अल्पसंख्यकों तथा विभिन्न देशों के देशज लोग, कामगार, शरणार्थी एवं विस्थापित, अपंग, विकलांग और वृद्धों को शामिल किया गया हो। जब सांस्कृतिक बहुलवाद की वकालत की जा रही है। उस समय उन सांस्कृतिक व्यवहारों को प्रतिबंधित किया जायेगा जहां पर ऐसी संस्कृतियां विश्वव्यापी मूल मानव अधिकारों के विरूद्ध खडी हों। इसलिए किसी भी स्थिति में महिलाओं के अधिकारों की। अनदेखी को स्वीकार नहीं किया जायेगा और न ही इस तरह के अधिकारों को किसी तरह की हानि को सहन किया जायेगा।‘‘

जब मानव अधिकार संकल्पना तथा व्यवहार के लिए ‘‘सांस्कृतिक सापेक्षवाद‘‘ के लिए तर्क प्रस्तुत किए जा रहे हों, उस समय हम अपने अधिकारों को भी स्वीकार करते हैं उसे तथ्यपर्क समझते हैं। इस तरह के संदर्भ विशिष्ट सीमाओं का सख्ती के साथ समझना आवश्यक है ताकि मानव अधिकारों को विश्वव्यापी स्तर पर शक्ति से उन्नत करने में सफलता प्राप्त हो। यह विश्व व्यापकता की संकल्पना इस तरह से समाविष्ट है कि तीसरी दुनिया के देश इस अखंड सिद्धांत तथा अंत निर्भरता अधिकार वास्तव में एक एवं सबके अधिकारों के लाभ के लिए कार्य करता है। इसलिए ये देश इस अधिकार की अपनी व्यापक दृष्टि से अवलोकन करके इसकी संपुष्टि करते हैं जो बहुत ही महत्वपूर्ण तत्व है।

कारेल वास्क के अधिकारों की तीन पीढियां
कारेल वास्क ने फ्रांस की क्रांति के इस नारे “स्वतंत्रता, समानता एवं बंधुता‘‘ के अनुसार मानव अधिकारों के ऐतिहासिक विकास का वर्गीकरण किया है। सबसे पहले उन्होंने स्वतंत्रता को लिया है जिसे उन्होंने प्रथम पीढ़ी का अधिकार का नाम दिया है। इसका अर्थ स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि स्वतंत्रता का मुख्य उद्देश्य “से स्वतंत्रता या मुक्ति था न कि किसी प्रकार के अधिकार की मांग करना अर्थात् सबसे पहले स्वतंत्रता की मांग की गई न की अधिकार की। दूसरी श्रेणी में समानता अथवा दूसरी पीढ़ी के अधिकार माना गया है। इसमें उन्होंने कहा है कि यह समान रूप से आर्थिक सामाजिक एवं सांस्कृतिक अधिकारों के संरक्षण की मांग करते हैं। उनका कहना है कि इस अधिकार के तहत राज्य को अपने व्यक्तित्व को संवारने संभालने और विकास के लिए समान रूप से अधिकतम अवसर उपलब्ध कराये जायें। बंधुत्व या तीसरी पीढ़ी का अर्थ है ‘‘सामूहिक‘‘ या ‘‘समूह‘‘ के अधिकार यह अधिकार नए तरीके के हैं। इन अधिकारों को तीसरी दुनिया के राज्य मांग करते हैं। ये राज्य अंतर्राष्ट्रीय कानून एवं अर्थव्यवस्था के निर्माण के लिए मांग करते हैं जिसमें विकास का अधिकार, दुर्घटना होने पर सहयोग व सहायता, शांति और अच्छे तथा स्वच्छ पर्यावरण उपलब्ध कराने के अधिकार उपलब्ध कराने की गारंटी दी जानी चाहिए। इसके साथ ही इन की जिम्मेदारी आंतरिक संवैधानिक उपायों के स्थान पर अंतर्राष्ट्रीय सहयोग पर पूरी तरह से निर्भर होने चाहिए। इस तरह हम देखते हैं कि श्री कारेल वासक ने स्वतंत्रता समानता एवं बंधुत्व के अधिकारों का वर्गीकरण बहुत ही तथ्यपूर्ण एवं ऐतिहासिक किया है जो वास्तव में सराहनीय है। आशा है इसके अध्ययन कर्ताओं को अवश्य ही पसंद आयेगा।

 दो प्रसंविदा (करार) पत्रों में अंतर
वर्ष 1956 में दो प्रसंविदा (करार) पत्रों अर्थात आई सी सी पी आर और आई सी ई एस सी आर पर हस्ताक्षर हुए थे। परन्तु यह दोनों संविदा पत्र 1976 तकं प्रभावी नहीं हुए थे। इन दोनों प्रसंविदा पत्रों की प्रस्तावना और अनुच्छेद 1, 3, 5 एक जैसे ही थे यद्यपि दोनों की घोषणाएं समान रूप से थी। इन दोनों में नीति निदेशक अंतर यह है कि आई सी सी पी आर का अनुच्छेद 2 कहता है कि अधिकारों का संरक्षण करेगा एवं उनका आदर करते हुए शीघ्र निश्चित निर्णय उपलब्ध करायेगा। जबकि आई सी ई एस सी आर के अनुच्छेद 2 में साधारण प्रावधान रखे हैं कि राज्यों के. अधिकारों को मान्यता दी जानी चाहिए एवं विशिष्ट कार्यक्रमों के अनुसार उनका पालन किया जाना चाहिए। तत्पश्चात, जैसा कि आई सी सी पी आर ने मानव अधिकार समिति (एच आर सी) स्थापित की और प्रसंविदा को उसकी निगरानी में लागू करने की शर्ते जोड़ दी और यह प्रावधान भी शामिल कर दिया कि एच आर सी में व्यक्तिगत रूप से भी याचिका दायर की जा सकती है। आई सी ई एस सी आर ने साधारणतया इसके कार्यों की निगरानी का कार्य राष्ट्रसंघ की एक राजनीतिक निकाय ई सी ओ एस ओ सी को सौप दिया था जो वास्तव में 1976 तक सफल नहीं हुआ था।

संयुक्त राष्ट्र संघ के विशेष सम्मेलन
यह जान लेना आवश्यक है कि मानव अधिकारों के संरक्षण तथा संवर्द्धन या उन्नति के लिए सार्वभौमिक व्यवस्था स्थापित करने में ढेर सारी कठिनाईयों का सामना करना पड़ा है। इसलिए मानव अधिकारों के विशिष्ट पक्षों सहित कानूनी बाध्यता पूर्ण साधन या उपाय करने के लिए मसौदा की निरंतर प्रक्रिया के लिए राष्ट्र संघ संघर्ष करता रहा है। इन्होंने विश्व स्तर पर मानव अधिकारों को निर्मित करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर सहयोग और सहायता प्रदान की थी। इस तरह के कुछ सहयोग का विवरण परिशिष्ट प्प् में दिया गया है।

 संयुक्त राष्ट्र संघ एवं उपनिवेशीकरण
मानव अधिकारों के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय घटना यह कि संयुक्त राष्ट्र संघ ने उपनिवेशकरण को समाप्त करने के लिए लगातार संघर्ष किया है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने आदेश पत्र को भी स्थानांतरित कर दिया था जिसे लीग ऑफ नेशन्स ने तैयार किया था। यह वास्तव में ट्रस्टीशिप व्यवस्था थी जिसे ट्रस्टीशिप काउंसिल के अधीन स्थापित करना था। इसके तहत जो उपनिवेशों पर शासन कर रहे थे जहां पर वहां के मूल निवासियों का शासन नहीं था जैसे कि भारत पर ब्रिटिश राज्य होता था जिसे अंग्रेजों की उपनिवेशी राज्य माना जाता था। इस तरह के शासकों को आदेश था कि वे निरंतर वहां के लोगों के प्रति किए जाने वाले कार्य बाध्यताओं के ब्यौरे संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव को रिपोर्ट भेजेंगे। यद्यपि यह सही है कि संयुक्त राष्ट्र संघ ने अपने घोषणा पत्र में स्व-निर्धारण का सिद्धांत प्रस्तुत किया था जो वास्तव में स्व-निर्धारण का सिद्धांत नहीं था और न ही उसका अधिकार था। अब आम तौर पर यह माना जाने लगा है कि ऐसा अधिकार अंतर्राष्ट्रीय कानून में बाकायदा मौजूद है। अब यह विचार महासमा संकल्प 2625 तथा अनुच्छेद 1 में पुनः जोर दिया गया है कि सभी लोगों को स्व निर्धारण का अधिकार है। इन दोनों का अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों में भी घोषित किया गया है। इस अधिकार को शामिल करने के बाद औपनिवेशीकरण को समाप्त करने पर बल देते हुए सामूहिक अधिकारों को प्रभावित किया है। परन्तु यही स्वंय निर्धारण का अधिकार एक बार फिर से उपनिवेशीकरण समाप्त करने का अधिकार बन गया था अथवा अल्पसंख्यकों के शासन को समाप्त करने के लिए एक खुला प्रश्न खड़ा हो गया था। इस तरह से स्पष्ट होता है कि यह अधिकार व्यापक रूप से उपनिवेशीकरण को समाप्त करने के लिए प्रयोग में आया वहीं पर पूर्व उपनिवेशी शासकों ने स्वतंत्र हुए नए राज्यों के समूहों का गठन कर लिया या फिर नए गुट बना लिए जो तीसरी पीढ़ी के अधिकारों की मांग करने लगे। याद रहे हम पहले कारेल वास्क के तीन पीढ़ियों के सिद्धांतों का वर्णन कर चुके हैं जिसमें फ्रांस के स्वतंत्रता समानता एवं बंधुत्व के विशेष ऐतिहासिक विवरण दिए गए हैं।

बोध प्रश्न 3
टिप्पणी प) अपने उत्तर के लिए नीचे दिए गए रिक्त स्थान का प्रयोग कीजिए।
पप) इस इकाई के अंत में दिए गए उत्तर से अपने उत्तर की तुलना कीजिए।
1) सांस्कृतिक सापेक्षवाद क्या है। इस पहलू पर वियना घोषणा का क्या मत था।
2) कारल वास्क द्वारा निर्मित पीढ़ियों से कम से कम दो पीढ़ियों की पहचान कीजिए।
3) वियना कांग्रेस भी उस पर खुले रूप में अडिग रही थी परन्तु कम से कम एक अधिकार वियना घोषणा पत्र में शामिल करने के लिए सहमति नहीं हुई थी। वह कौन सा अधिकार था ?

 मानव अधिकार, विकास एवं लोकतंत्र
जैसा कि आप भाग 20.3.2 में मानव अधिकारों की प्रमुख धारणा के संबंध में अध्ययन कर चुके हैं जिसमें मुक्त बाजार आधारित विकास और लोकतंत्र के दो अन्य तथ्यों को स्पष्ट कर चुके हैं। यह एक दूसरे से आबद्ध हैं। परन्तु मानव अधिकारों पर विशेष बलाघात या उसके महत्व, उसके अर्थ एवं व्यवहार का वास्तविक निर्माण भूमंडलीय राजनीतिक अर्थव्यवस्था में शीतयुद्ध के बाद से आरंभ हुआ है। इस तथ्य को मानव अधिकारों का अध्ययन करते समय विशेष रूप से ध्यान में रखना आवश्यक है।

 मानव अधिकारों पर अमरीकी नीति
अमरीका मानव अधिकारों के संबंध में हमेशा डींग हाका करता है कि जिस तरह से वह मानव अधिकारों को सुरक्षित एवं संरक्षित करता है उसके समान विश्व में कोई अन्य नहीं करता है, कहने का अर्थ है कि उसका मानव अधिकारों के प्रति प्रेम बेजोड़ है। परन्तु मानव अधिकारों के मूल्यांकन अमरीकी नीतियों के तहत करते हैं और उसके मानव अधिकार संबंधी सम्मेलनों की जांच परख । करते हैं। उस समय कहानी उल्टी नजर आने लगती है। वास्तव में वह मानव अधिकारों की आड़ में अपने आत्म विश्वास के साथ साम्यवाद पर पूंजीवादी व्यवस्था को स्थापित करने का लक्ष्य है। इसे यूं भी कह सकते हैं कि अंतर्राष्ट्रीय राजनीतिक अर्थव्यवस्था को विश्व पर थोपने का प्रयास मात्र है। इस तरह से वह कई बार घोषित भी कर चुका है कि न्यूयार्क पर वाशिंगटन अर्थात् वह यह कह कर बताना चाहता है कि संयुक्त राष्ट्र संघ के यू एन डी पी आदि व्यवस्था पर विश्व बैंक एवं आई एम एफ जैसी शक्तियां अपना आधिपत्य रखती हैं। इसी लिए इन दिनों सभी देशों में मानव अधिकारों के मूल्यांकन की नीति की राष्ट्रीय स्थिति स्पष्ट दिखाई देती है। यह बात अलग है कि वह दिखावे के लिए मानव अधिकारों की उन्नति के कार्यों को अमरीका की विदेश नीति में प्रमुखता से रखता है। यह स्थिति और अधिक स्पष्ट तब होती है जब हम मानव अधिकार संबधी अमरीका की नीति को चीन के संदर्भ में अखबार पढ़ते हैं कि उसने व्यापारिक समझौते स्थापित करने के लिए किस प्रकार से अधिकारों को ताक पर रख दिया जाता है। व्यापारिक समझौते स्थापित करते हुए मानव अधिकारों को नजर अंदाज कर देता है और खास तौर पर जब इस तरह के समझौते चीन के साथ करते समय । क्योंकि अमरीका का केवल उद्देश्य यह होता है कि साम्यवाद पर पूंजीवाद व्यवस्था स्थापित करना है। इसे प्रमुख उदाहरण के रूप में देखा जा सकता है। इस संदर्भ में दि अमरीकन जरनल ऑफ इंटरनेशनल ला अपने संपादकीय टिप्पण में अमरीका के विरूद्ध अपने विचारों को बहुत ही सटीक ढंग से प्रस्तुत करता है। उसकी टिप्पणी का विवरण संलग्न मूल्यांकन जो उसने प्रत्येक आरक्षण, आपसी समझ तथा घोषणा (आर यू डी) के माध्यम से मूल्यांकन करके प्रस्तुत किया है। इसको जानने के पश्चात् तो वे लोग भी अब अमरीका की आलोचना करने लगे हैं जो अमरीका के समर्थक हैं।

यह संरक्षण, समझौता और घोषणा (आर यू डी) ने मानव अधिकार सम्मेलन के मूल्यांकन को बहुत अच्छी तरह से स्थापित किया है जिनको निम्नलिखित सिद्धांतों के अंतर्गत मार्ग दर्शित किया गया है। ये हैं:
1) अमरीका उस संधि या समझौते को न तो स्वीकार करेगा और न ही उसे आदर देगा यदि वह उसके संविधान के प्रावधानों के विपरीत है।
2) यदि इस तरह के संधिध्समझौते ऐसे लगते हैं कि वे मौजूदा अमरीकन कानून और उनके व्यवहारों में परिवर्तन करने का वायदा करते हैं उन पर प्रभाव डालते हैं ऐसी स्थिति में अमरीका उनका निश्चित रूप से विरोध करेगा।
3) मानव अधिकार सम्मेलन के उद्देश्यों को स्पष्ट करने या उनको लागू करते समय उठते विवादों को सुलझाने के लिए अमरीका कभी भी ऐसे विवादों को अंतर्राष्ट्रीय न्यायिक न्यायालय के कानूनी क्षेत्र में प्रस्तुत नहीं करेगा।
4) प्रत्येक संधि जो मानव अधिकारों से संबंधित हो वे संघवाद धारा की घोषणा के तहत हो तथा उन अधिकारों को लागू करने की जिम्मेदारी व्यापक रूप से राज्यों के अधिकार क्षेत्र में होनी चाहिए।
5) प्रत्येक अंतर्राष्ट्रीय मानव अधिकार संधि गैर स्वतः कार्यचालक होनी चाहिए, इसका अर्थ है कि इससे पूर्व कि वे अपने हितों को लागू नहीं कर सकते हैं।

इस तरह अमरीका ने झिझक एवं संरक्षण की राष्ट्रीय नीतियों को अपनाया है। अतः यह कोई आश्चर्यजनक विषय नहीं है कि उसने 1995 तक केवल उसने निम्नलिखित पांच प्रमुख संधियों को ही स्वीकार किया है (यद्यपि द्वितीय क्लीटन प्रशासन (1996-2000) लगता है इस दिशा में अधिक दृढ़ दिखाई दे रहा है। यह संधिया निम्न प्रकार से हैं:
1) जातिसंहार सम्मेलन 1948 में लागू हुआ था और इसे अमरीका ने 1989 में स्वीकार किया।
2) आई सी सी पी आर सम्मेलन 1966 में अपनाया गया था किंतु इसे अमरीका ने 1992 में अपनाया था।
3) यातना के विरूद्ध सम्मेलन 1984 में संपन्न हुआ किंतु इसे 1994 में अपनाया गया।
4) जातीय विभेद के सभी रूपों के बहिष्कार पर सम्मेलन 1965 में हुआ और लागू माना गया परन्तु अमरीका ने इसे 1994 में जाकर माना था।
5) महिलाओं के विरूद्ध विभेद के सभी रूपों के बहिष्कार पर सम्मेलन 1979 में संपन्न हुआ परन्तु अमरीका ने इसे सन 1995 में स्वीकार किया था।

सम्पादकीय टिप्पणी के अनुसार उसने आगे कहा है कि “यह रिपोर्ट प्राप्त हुई है कि क्लींटन प्रशासन आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक अधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन (1966) में हुआ, मानव अधिकारों पर अंतर अमरीकी सम्मेलन (1969 में संपन्न हुआ) तथा बाल अधिकारों पर सम्मेलल (1980 में हुआ) को स्वीकार करने के लिए सीनेट से मंजूरी प्राप्त करेगा तब जाकर अमरीका इन महत्वपूर्ण मानव अधिकार निर्णयों को लागू करेगा। यहां पर यह अवश्य ही बता देना । चाहिए कि इन अधिकारों के संबंध में लिए जाने वाले निर्णयों में अत्याधिक विलम्ब हुआ है, हो। सकता है कि इसके अपनाने की प्रक्रिया में कुछ कानूनी रूकावटे आती हैं जिनका अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र एवं दायित्वों को लागू करने की व्यापक जिम्मेदारी उसके समक्ष आती रही हो। परन्तु कुछ भी हो चाहे तकनीक बाधाएं ही क्यों न हो फिर भी सम्पादकीय आलोचना आज की तारीख तक तो उन्हें ठीक और सही ही माना जायेगा। अमरीका इसे अतिरिक्त उग्र नेतृत्व करने की होड़ में आगे रहता है और इसी संदर्भ में उसने यूरोपीय पुनर्निर्माण एवं विकास बैंक (यूरोपीयन बैंक ऑफ रीकंष्ट्रक्शन एवं डवलपमेंट) (ई बी आर डी) की स्थापना की है जो मध्य और पूर्वी यूरोप के देशों को मुक्त बाजार स्थापित करने में सहयोग तो देगा ही साथ में पुनः प्रतिष्ठित लोकतंत्र तथा इसी तरह के कार्यों को हेती में रोकने के लिए उनमें बाधा डालने के रूप में इस बैंक का प्रयोग करेगा। इसके साथ ही आश्चर्यजनक विषय यह भी है कि ई बी आर डी की स्थापना 1991 में हुई थी जिसका स्वरूप अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थान की तरह था और उसका मुख्य कार्य मानव अधिकारों को तीव्र गति प्रदान कराना था जबकि इतने वर्षों के पश्चात मुख्य उद्देश्य में तो कोई प्रगति नहीं हुई और न ही उस दिशा में कोई कार्य किंतु इस बैंक का प्रयोग मुक्त बाजार को मजबूत बनाने में अवश्य ही प्रयोग किया जायेगा।

 मानव अधिकारों पर वियना घोषणा की विशेषताएं
समकालीन अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में मानव अधिकारों के अर्थों को समझने के लिए अभी तक शब्दावली में कितनी भी असमानताएं क्यों न रही हों परन्तु फिर भी मानव अधिकारों के महत्व को मानवता के संदर्भ में कभी भी साधारण नहीं समझा जा सकता है। फिर भी यह हमारे लिए बहुत ही महत्वपूर्ण एवं लाभदायक होगा कि हम वियना में मानव अधिकारों के संबंध में सम्मेलन हुआ जिसमें लिए गए निर्णयों को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकार किया गया है। आइए अब हम मानव अधिकारों की एक मुश्त सार्वभौमिक स्वीकृति की विशेषताओं का संक्षिप्त रूपरेखा प्रस्तुत करते हैं जो निम्न प्रकार हैः
1) मानव अधिकार और स्वतंत्रता की सार्वभौमिक प्रकृति सर्वमान्य है और सवालों से परे है। जबकि ऐशियाई देशों (चीन, इंडोनेशिया, मलेशिया, ईरान उत्तरी कोरिया परन्तु भारत नहीं) ने इन मानव अधिकारों की घोषणा पर अपनी असहमति प्रकट की है परन्तु शेष देशों ने मानव अधिकारों को सार्वभौमिक रूप से एक मत से स्वीकार किया है। इस संदर्भ में यह ध्यान रखना चाहिए कि पश्चिमी देशों ने पहली बार आर्थिक और सामाजिक अधिकारों को समान वरीयता देते हुए औपचारिक रूप से स्वीकार किया है। इसके साथ साथ इन देशों ने विकास के अधिकार को भी मान्यता प्रदान की है जिसे यह हमेशा ही मानव अधिकारों का सार समझते रहे हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि विकास के अधिकार को सिविल और राजनीतिक अधिकार के समान ही इन्होंने उसे मान्यता प्रदान की है जो पश्चिमी देशों के लिए एक उदाहरण हो सकता है।

2) मानव अधिकार अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर घोषित किए गए तथा अधिकतर देशों ने स्वीकार किया तथा आपस में किसी की भी प्रमुखता स्वीकार नहीं की गई और उन्हें अखंडनीय तथा अंतर निर्भरता के रूप में व्यापकता से स्वीकार किए गए।

3) इसी प्रकार नए संबंधों को भी व्यर्थ घोषित कर दिया। इस घोषण के अनुसार ‘‘लोकतंत्र विकास और मानव अधिकार तथा मौलिक स्वतंत्रता जो एक दूसरे पर अंतः निर्भर है उनका आदर करना तथा आपस में मिलकर उन्हें लागू करने के लिए दबाव बनाना है‘‘।

इस घोषणा के अंतर्गत विशेष घटना यह हुई कि मानव अधिकार आयोग की स्थापना हुई जिसने अपने निर्देशन में विकास के अधिकार को जो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकार किया गया है उसका निर्माण करने के लिए एक स्थायी कार्य समूह की विधिवत स्थापना की जो एक मील का पत्थर साबित होगी।

4) अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के अधिकार जिनका संबंध किसी भी देश में मानव अधिकारों के व्यवहारों से था, सबने एक मत से स्वीकृति प्रदान की। इस प्रकार हमारा मानना है कि राज्य प्रभुसत्ता की संकल्पना में एक छिद्र कर दिया है।

5) अब यहां पर संप्रभु राज्यों के अंतर्राष्ट्रीय उत्तरदायित्वों का और अधिक तेजी से आह्वान किया गया है जो प्रथागत या रिवाजी है। यह राज्य के न्यायधिकरण से बाहर की वस्तु है। राज्यों की अंतर्राष्ट्रीय उत्तरदायित्वता का केंद्र बिंदु, का मुख्य क्षेत्र घरेलू हिंसात्मक गतिविधियों से संबंधित होगा जिसका संबंध महिलाओं और सामाजिक हिंसाओं से जुड़ा होगा जैसे कि प्रजातिवाद, जातीय परिमार्गन, विदेशी द्वेष और अन्य विषयों से होगा अर्थात् इस तरह के उल्लंघन होने पर वह घरेलू कारवाई कर सकेगा।

6) घोषणा का आह्वान अंतर्राष्ट्रीय समुदाय और राष्ट्रीय सरकारों को संस्थानिक रूप से एकत्रित होने, संगठित होकर निरक्षरता को दूर करना तथा मानव अधिकारों की शिक्षा देने के लिए लोगों को उत्साहित करना है। विश्व सम्मेलन की सिफारिशों के बाद अंतर्राष्ट्रीय मानव अधिकार शिक्षा दशक (1995-2004) की घोषणा एक लम्बे विवाद के बाद की गई। मानव अधिकारों के लिए उच्च आयोग की स्थापना करने का कार्य अंतिम रूप से अनुमोदित हो गया। इस उच्च आयोग का मुख्य कार्य संयुक्त राष्ट्र संघ के मानव अधिकार कार्यक्रमों को लागू करने की होगी।

मानव अधिकार संरक्षण के समक्ष उभरती चुनौतियां
इस विषय के विद्यार्थियों की, अंतर्राष्ट्रीय मानव अधिकारों की उन्नति एवं संरक्षण संबंधी दो परम्पराएं देखने में आती हैं जिन्हें ध्यान में रखा जाना चाहिए। यह हैंः एक और पूरे विश्व में लोकतांत्रिक सरकारों की स्थापना के लिए विशेष रूप से आंदोलन चल रहा है। सभी राज्य राजनीतिक दबावों के कारण अपने नागरिकों को अंतर्राष्ट्रीय स्तर के अनुसार तैयार करना अपना कानूनी उत्तरदायित्व मानते हैं और उसको लागू करने का प्रयास करते है। आज अधिकतर लोग अपने अधिकारों के प्रति जागरूक होते जा रहे हैं। इसका मुख्य कारण व्यापक रूप से गैर सरकारी संगठनों को सरकारों की ओर से प्रोत्साहन देना तथा उनके कार्यक्लापों में आम लोगों को शामिल करने के साथ ही इन संगठनों का मानव अधिकारों के संरक्षण संबंधी गतिविधियों में उनके सरोकार तथा उनकी महत्वपूर्ण भूमिका को श्रेय जाता है।

दूसरी ओर अब यह परम्परा चल पड़ी है कि मानव अधिकारों के अतिक्रमण एवं हिंसात्मक घटनाओं में लगातार वृद्धि हो रही है। जिससे आज का समाज विशेष रूप से प्रभावित है। फासीवाद तथा अलोकतांत्रिक विचारों के पुनः उभरने से जैसे कि युरोप, उत्तरी अमरीका, अफ्रीका तथा एशिया में कट्टर पंथियों के पुनःउ भरने से जातीय परिमार्जन की काली छाया पड़ने लगी है। अतरू मानव अधिकारों के हनन की घटनाओं में वृद्धि हुई है। इस तरह के उदाहरणों में चाहे बोसनिसा या रवांडा अथवा अफगानिस्तान हो, यहां पर जो मानव अधिकारों का हनन हुआ है वह एक गन्दी और अधम कहानी है जिसे सीधे सीधे शब्दों में यहां व्यक्त नहीं किया जा सकता है। यह सच्ची कहानी अवर्णनीय है। विश्व में मानव अधिकारों की स्थिति का जायजा लेने के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ के जिनेवा स्थित केन्द्र की ओर निहारना पड़ेगा जिसने वियना सम्मेलन को प्रस्तुत किया है, उसके बाद का दृश्य निम्न प्रकार है:

‘‘कम से कम विश्व के आधे लोग, उनके आर्थिक सामाजिक, सांस्कृतिक, नागरिक या राजनीतिक अधिकारों से वंचित हैं एवं उनके अधिकारों का अतिक्रमण बहुत ही भयंकरता से किया जा रहा है। इन अतिक्रमणों की परिधि यातनाएं, प्रादण्डित करना, बाल शोषण, बलात्कार, मनमाने ढंग से बंदी बनाना, हिंसा तथा अदृश्य व गायब करना, घोर गरीबी, दासता, दुर्भिक्ष या अकाल पड़ना, कुपोषण और शुद्ध पेय जल की नितांत कमी, स्वच्छता या सफाई व्यवस्था और स्वास्थ्य देखभाल की सीमाओं में आती है। इस तरह से विश्व की आधी जनसंख्या मानव अधिकारों से वंचित ही नहीं है अपितु अत्यंत आवश्यक यानि जीवन रक्षा के अधिकार प्राप्त करने के लिए अधर में लटकी हुई है।‘‘

अधिकतर तीसरी दनिया के देशों की सरकारें आर्थिक और राजनीतिक स्थाईत्व को बनाए रखने के लिए स्वयं ही कटिबद्ध हैं। क्योंकि यह सरकारें आर्थिक स्थिति खराब होने के कारण भयंकर कष्टों में है जबकि उद्योगीकृत देश बहुत समय के बाद दूसरी पीढ़ी के अधिकारों को संरक्षण देने के लिए अपना उत्तरदायित्व निभाने के लिए सामने आ रही हैं जिसकी गति बहुत ही धीमी है वे तीसरी दुनिया के शासकों को आर्थिक पंगुपन से उभारने के लिए महत्वपूर्ण सहयोग प्रदान कर रहे हैं।

इसके साथ ही राजनीतिक कार्यक्षम इच्छा शक्ति और दायित्वपूर्ण शक्ति इन देशों को प्राप्त होगी जिससे ये राज्य विश्व में मानवता के सुखद अधिकारों को महसूस कराने एवं लोकतंत्र तथा विकास को आगे बढ़ाने में सहयोग प्रदान करने में समर्थ होंगे। इन मानव अधिकार का यह एजेंडा तीन युक्तिसंगत तत्वों को अपने में समेटे हुए हैं। यह तीन एजेंसियों को चेतना, सतर्कता और समर्थन के साथ प्रयोग करता है। ये है रू व्यक्तिगत चैकसी एवं चेतन रहना होगा। दूसरी और गैर सरकारी संगठनों से सतर्क रहते हैं। उनसे लाभ लठाना और संयुक्त राष्ट्र संघ से इनको लागू कराने के लिए समर्थन प्राप्त करना है। इस तरह से आशा की जाती है कि व्यक्तिगत रूप से भागीदारी एन जी ओ को संगठनात्मक संवर्द्धन तथा यू एन ओ के नेतृत्व को विश्व में व्यापक बनाना है। ऐसा करने से कार्य निष्पादन करने वाली एजेंसियों पर राजनीतिक और आर्थिक दबाव पड़ेगा जिससे विश्व में लोकतंत्र, मानवाधिकार एवं विकास का अंतर्राष्ट्रीय सुखद परिदृश्य निर्माण में सहयोग मिलेगा।

बोध प्रश्न 4
टिप्पणी क) अपने उत्तर के लिए नीचे दिए गए रिक्त स्थान का प्रयोग कीजिए।
ख) इस इकाई के अंत में दिए गए उत्तर से अपने उत्तर की तुलना कीजिए।
1) वियना सम्मेलन के चार अविवादित उपलब्धियों की पहचान कीजिए और कम से कम रिपोर्टिड दस मानव अधिकारों के अतिक्रमण की सूची बनाइए।
2) निम्नलिखित कथनों पर सही या गलत का संकेत दीजिए।
क) ई बी आर डी की स्थापना 1991 में हुई थी जो एक अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थान है और वह मानव अधिकारों को संरक्षित करने के लिए प्रतिबद्ध है। सही/गलत
ख) अंतर्राष्ट्रीय मानव अधिकार संधियां एवं उत्तरदायित्व अमरीका में लागू किए जा सकते हैं और वे इसी तरह से भारत में भी कर सकते हैं (उदाहरण दीजिए।) सही/गलत
ग) विश्व में मुद्रित माध्यम परिचालन के क्षेत्र में विदेशी सूचना व समाचारों को चार एजेंसियां नियंत्रित करती हैं और पूर्व में स्थित हैं। सही/गलत
घ) केवल शीतयुद्ध के बाद की अवधि में अंतर्राष्ट्रीय अखाड़े में मानव अधिकारों ने केंद्रीय स्थिति प्राप्त कर ली सही/गलत

बोध प्रश्नों के उत्तर
बोध प्रश्न 1
1) भाग 20 को देखिए।
2) क) गलत, ख) गलत
ग) सही घ) सही

बोध प्रश्न 2
1) भाग 20 को देखिए। वियना कांग्रेस की अंतिम दो घटनाएं (जून) तथा एन एच आर सी (अक्तूबर) 1993।
2) ग) के अतिरिक्त सभी सही हैं।

बोध प्रश्न 3
1) भाग 20 देखिए। (वियना घोषणा पांचवा पैरा के संदर्भ में)
2) स्व-निर्धारण का अधिकार।

बोध प्रश्न 4
1) भाग 20 देखिए।
2) 13 के अतिरिक्त सभी सही हैं।