human digestive system in hindi (मानव पाचन तंत्र) की परिभाषा क्या है , भाग , कार्यविधि , अंग

मानव पाचन तंत्र (human digestive system in hindi) , की परिभाषा क्या है , भाग , कार्यविधि , अंग , मनुष्य का पाचन तन्त्र , चित्र सहित व्याख्या ?

मानव का पाचन तंत्र (human digestive system) :  मनुष्य की पाचन क्रिया आहारनाल में होती है। पाचन की क्रिया में बहुत सारे अंग भाग लेते है जिनको प्रमुख रूप से दो भागों में बाँटा गया है –

  1. आहारनाल या पाचननाल
  2. पाचन ग्रन्थियां

भ्रूणीय उत्पत्ति के आधार पर कशेरुकियो की आहारनाल को तीन भागों में विभाजित किया जाता है –

(i) अग्रांत्र या स्टोमोडियम : यह एक्टोडर्मल होती है इसमें मुख गुहा आती है।

(ii) मध्यान्त्र या मीसोडियम : यह एंडोडर्म से बनी हुई होती है , इसमें ग्रसनी , ग्रसिका , आमाशय , छोटी आंत और बड़ी आंत शामिल होती है।

(iii) पश्चान्त्र या प्रोक्टोडियम : यह एक्टोडर्म से बनी हुई होती है , इसमें गुदा नलिका और गुदा शामिल होते है।

1. आहारनाल या पाचननाल

आहारनाल के भाग और उनकी औतकी –

मुख (mouth) : उपरी और निचले होंठो से घिरा हुआ अनुप्रस्थ छिद्र मुख कहलाता है।

इसके ऊपरी होंठ के मध्य में दो उभार और इन उभारों के मध्य वर्टिकल ग्रुव पाई जाती है जिसे फिल्ट्रम (Philtrum) कहते है।

प्रकोष्ठ (vestribule) : यह आगे की ओर होंठ और मसूड़ों के बिच और पीछे की ओर मसुडो और गालों के मध्य का संकरा स्थान है। इसकी सतह पर म्यूकस ग्रंथियाँ पाई जाती है। प्रकोष्ठ में ऊपरी सतह पर म्यूकस मेम्ब्रेन (झिल्ली) का बना छोटा मध्य उभार सुपीरियर लेबियल फ्रिनुलम होता है , जो ऊपरी होंठ के मध्य भाग को मसूड़ों से जोड़ता है जबकि इन्फीरियर लेबियल फ्रिनुलम नीचले होंठ को मसूड़ों से जोडती है।

मुख ग्रासन गुहिका (Buccopharyngeal cavity) : यह आगे की ओर स्ट्रेटीफाइड स्क्वेमस एपीथीलियम से ढकी मुख गुहा और पीछे की तरफ कोल्यूमनर एपीथिलीयम से ढकी ग्रसिका से मिल कर बनी होती है .इसको तीन भागो में विभाजित किया जाता है। फैरिक्स कोमल तालु के पीछे की ओर स्थित एक लम्बवत संरचना है जहाँ हवा और भोजन पथ आपस में मिलते है। फैरिंक्स को मुख्यतः तीन भागों में विभाजित किया जाता है – नेजोफैरिंक्स , ओरोफैरिंक्स और लैरिंगोफैरिक्स।

मुख ग्रासन गुहिका में बहुत सारी संरचनाएं पाई जाती है , जो निम्न प्रकार है –

(a) पैलेट (palate) : बक्कल कैविटी की छत पैलेट कहलाती है। मनुष्य और मगरमच्छ में प्रीमैक्सिला , मैक्सिला और पैलेटाइन अस्थियां आपस में मिलकर सैकेंडरी पैलेट का निर्माण करती है। यह मुख गुहा को नासामार्ग से पृथक करता है। पैलेट तीन भागों में बंटा रहता है –

(i) कठोर तालु (Hard palate) : यह पैलेट का अग्र भाग है , जो मनुष्य में मैक्सिला और पैलेटाइन से जबकि खरगोश में प्रीमैक्सिला , मैक्सिला और पैलेटाइन अस्थि से मिलकर बना होता है। हार्ड पैलेट में अनुप्रस्थ उभार पाए जाते है जिन्हें पैलेटाइन रगी कहते है। यह माँसाहारी जंतुओं में अधिक विकसित होते है। इनका कार्य भोजन ग्रहण करने के समय भोजन को दबाये रखना होता है ताकि यह गुहिका से बाहर न फिसल जाए।

(ii) कोमल तालु : पैलेट का पिछला भाग जो संयोजी उत्तक और पेशियों से मिलकर बना होता है।

(iii) तालु गंठिका या कौवा या अलिजिव्हा : यह कोमल तालु का भाग है , जो फैरिंग्स में लटका होता है। भोजन को निगलते समय यह आंतरिक नासाद्वार को बंद कर देता है।

(b) पैलेटाइन ग्रंथियाँ : कोमल तालु में बहुत सारी म्यूकस ग्रंथियां पाई जाती है , जो भोजन को चिकना बनाने में सहायता करती है।

(c) नैजोपैलेटाइन नलिका : एक जोड़ी नेजोपैलेटाइन नलिका खरगोश के कठोर तालु के अग्र भाग में खुलती है जिसमे जैकोब्सन अंग पाए जाते है। ये भोजन की गंध को पहचानने में सहायता करते है।

(d) मुच्छ : खरगोश के ऊपरी होंठ पर बालों का गुच्छा पाया जाता है जिसे वाइब्रिसी कहते है।

(e) हेयर कैलेफ्ट : खरगोश के ऊपरी होंठ के बीच में एक अवनमन या दरार जैसी संरचना पाई जाती है , जो उपरी होठ को दो भागो में विभाजित करती है।

(f) जिव्हा : एक्टोडर्म से निर्मित एक गुलाबी रंग की लम्बी और अत्यधिक पेशीय , फैलने योग्य संरचना मुख ग्रासन गुहिका के फर्श पर पायी जाती है। पूरी जिव्हा की सतह पर एंडोडर्म से निर्मित स्ट्रैटीफाइड स्क्वेमस एपीथीलियल कोशिकाएं पायी जाती है। एक गर्त जिसे सल्कस टर्मिनलिस कहते है , जिव्हा को ओरल (मुखीय) और फैरेंजियल दो भागो में विभाजित करती है। सल्कस टर्मिनेलिस की भुजा लेटरल (पाशर्व) में आगे बढ़ कर मध्य छिद्र का निर्माण करता है जिसे फोरामैन सीकम कहते है। जिव्हा का अग्र भाग मुक्त होता है , मध्य भाग मुख ग्रसन गुहिका की सतह से फ्रेनुलम लिंग्वी द्वारा नीचे जुडा होता है जबकि पश्च भाग एंडोडर्म से निर्मित व हायओइड से जुड़ा होता है। जिव्हा में दो विशिष्ट संरचनाएं लिंगुअल पैपिली और लिंगुअल ग्रंथियां (वेबर ग्रंथियाँ) पायी जाती है। लिंगुअल ग्रन्थियां मयूक्स का स्त्रावण करती है।

जिव्हा की पृष्ठ सतह पर बहुत सारे छोटे छोटे उभार पाए जाते है जिन्हें लिंगुअल पैपिली कहते है। सभी लिंगुअल पैपिली को सामान्य लिंगुअल पैपिली तथा और टेस्ट पैपिली में विभाजित कर सकते है।

टेस्ट पैपली सामान्यतया चार प्रकार के होते है –

(i) सरकमवैलेट : ये संख्या में 8-12 , गोल तथा सबसे बड़े आकार के पैपिली है , जो जिव्हा के पिछले भाग में पाए जाते है। ये जिव्हा की डोर्सल सतह से वेंट्रल सतह तक फैले रहते है और इनमे स्वाद कलिकाएँ पायी जाती है। ये सभी पैपिली में सबसे बड़े होते है।

(ii) फंजीफॉर्म : जिव्हा के अग्र भाग पर बहुत सारे , मशरूम के आकार के पैपिली पाए जाते है , जो स्वाद कलिकाओं युक्त होते है जिनकी संख्या 200 होती है।

(iii) फोलिएट : ये पत्ती के आकार के पैपिली है जो संख्या में कम (8-10) जिव्हा के पिछले किनारे पर पाए जाते है। ये मनुष्य में अनुपस्थित होते है एवं खरगोश में पाए जाते है।

(iv) फ़िलीफॉर्म : ये कोनिकल आकार के , अत्यधिक छोटे और स्वाद कलिका रहित पैपिली है जो जिव्हा की पूरी सतह पर फैले होते है।

मनुष्य में स्वाद का ज्ञान सरकमवैलेट और फंजीफ़ार्म पैपली की सहायता से किया जाता है। मनुष्य में जिव्हा का अग्र भाग मीठे , पश्च भाग कडवे , किनारे का भाग खट्टे और पीछे का कुछ हिस्सा और अग्र भाग नमकीन स्वाद के ज्ञान में सहायक होते है।

जिव्हा के कार्य

जिव्हा (जीभ) के प्रमुख कार्य निम्नलिखित है –

  • यह टूथब्रश की तरह दांतों की सफाई करने में सहायता करती है।
  • बोलने में सहायता करती है।
  • भोजन को निगलने में सहायता करती है।
  • भोजन में लार को अच्छी तरह से मिलाने में सहायता करती है।
  • बहुत से जन्तुओं में कंघे की तरह शरीर की सफाई करती है।
  • जीभ स्वाद ज्ञान में सहायक होती है।
  • कुत्ते शरीर के तापक्रम को नियंत्रित करने में जीभ की सहायता लेते है , इस क्रिया को पेंटिंग (panting) कहते है।
  • मेंढक और कुछ अन्य जंतुओं में शिकार को पकड़ने में सहायक होती है।

(g) दांत (Teeth) : यह जीवित संरचनाएं है जो कई प्रकार के होते है। भ्रूणीय उत्पत्ति के आधार पर दांत दो प्रकार के होते है –

(i) हॉर्नी / एक्टोडर्मल / एपीडर्मल या असत्य दांत : ये दांत सिर्फ एक्टोडर्म से निर्मित होते है। उदाहरण : साइक्लोस्टोम्स , एम्फीबियन्स (मेंढक के लार्वाओं में) प्रोटोथीरियन स्तनियो में।

(ii) सत्य दांत : वे दांत जो कि एक्टोडर्म एवं ज\मिजोडर्म दोनों से विकसित होते है। उदाहरण : मछली , उभयचर , सरीसृप और युरिथिन स्तनी आदि।

दांतों का विभेदीकरण

मार्फोलोजी के आधार पर दांत दो प्रकार के होते है – होमोडोंट और हैटरोडोंट।

(i) होमोडॉन्ट दांत : ऐसे दांत जो संरचनात्मक और कार्यात्मक दोनों दृष्टि से समान होते है। उदाहरण : मेटाथीरिया और युथिरिया के अतिरिक्त सभी कशेरुकियो में।

(ii) हैटरोडॉन्ट दांत : जब दांत संरचना और कार्य दोनों दृष्टि से असमान हो। ये चार प्रकार के है , इन्साइजर , कैनाइन , प्रीमोलर और मोलर। उदाहरण : मेटाथीरिया और यूथीरिया स्तनी।

(a) इन्साइजर : यह आगे की तरफ उपरी जबड़े में प्रीमैक्सिला और निचले जबड़े में डेंटरी अस्थि पर निकलते है। ये मोनोकस्पिड (एक जड़ वाले) , लम्बे मुड़े हुए नुकीले सिरों युक्त होते है। ये भोजन को कुतरने और काटने में सहायक होते है।

(b) कैनाइन : ये अत्यधिक नुकीले सिरे युक्त दांत है जो ऊपरी जबड़े में मैक्सिला और निचले जबड़े में डेंटरी अस्थि पर निकलते है। ये चीरने , फाड़ने और सुरक्षा करने में सहायक होते है। इनमे एकल जड़ पायी जाती है और मोनोकस्पिड होते है।

(c) प्रीमोलर : ऊपरी जबड़े के पहले प्रीमोलर में दो जड पायी जाती है तथा दो कस्प (बाईकस्पिड) युक्त दांत है जो भोजन को तोड़ने , पिसने और चबाने में सहायता करते है।

(d) मोलर : इनमे दो से अधिक जड़े (उपरी जबड़े के मोलर में तीन जड़े और निचे वाले जबड़े के मोलर में दो जड़े होती है। ) तथा 4 कस्प होते है।

दाँतो का जुड़ना

जबड़े की अस्थियो के आधार पर दांतों के जुड़ने के प्रकार पर दाँतो को निम्न में विभाजित किया जा सकता है –

(i) एक्रोडोंट : इस प्रकार के दांत जबड़े की अस्थि के स्वतंत्र तल या शिखर से संलग्न रहते है जैसे शार्क और मेंढक में। ऐसे दाँतो में आसानी से टूटने की प्रवृति होती है लेकिन वे पुनः उग जाते है।

(ii) प्लूरोडॉन्ट : ऐसी स्थिति सामान्यतया यूरोडेल्स और छिपकलियों में पायी जाती है। इस दिशा में दांत अपने आधार पर जबड़े की अस्थि के भीतर पाशर्व तल पर जुड़े होते है।

(iii) थिकोडॉन्ट : ऐसे दांत स्तनियों के विशिष्ट लक्ष्ण में से है। दाँतो में भलीभांति विकसित जड़े होती है। जिनसे वे जबड़े की अस्थि में बने अलग अलग गहरे गड्डो या एल्वियोलाई में धँसे होते है। थीकोडॉन्ट दांत मगरमच्छ , आर्किओप्टेरिक्स और कुछ मछलियों में भी पाए जाते है।

दांतों का अनुक्रम

अपने स्थायित्व या प्रतिस्थापन या अनुक्रम के आधार पर दाँतो को तीन श्रेणियों में विभाजित कर सकते है –

  1. पोलीफायोडॉन्ट
  2. डाइफायोडॉन्ट
  3. मोनोफायोडॉन्ट
  4. पोलीफायोडॉन्ट: निम्न कशेरुकियो (उदाहरण : मेंढक और डॉगफिश) में दांत जीवन में कई बार टूटते और दोबारा उगते है। उदाहरण : एम्फीबिया , रेप्टिलिया।
  5. डाइफायोडॉन्ट: अधिकांश स्तनियो में दांत दो बार उगते है। इस दशा को डाइफायोडॉन्ट कहते है। दाँतों का पहला सेट डीसीडूअस या लैक्टेल्स या दूध के दांत कहलाता है। और दूसरा सेट स्थायी या परमानेंट दांत कहलाता है।
  6. मोनोफायोडॉन्ट: कुछ स्तनियो जैसे – प्लेटिपस , मार्सूपिएल्स , मोल्स , साइरीनियन्स , दंतयुक्त व्हेल आदि में दांतों का सिर्फ एक सेट विकसित होता है। यह दशा मोनोफायोडॉन्ट कहलाती है।

कपोल दाँतों के प्रकार

(i) ब्यूनोडॉन्ट : ये मिश्रित आहार ग्रहण करने वाले स्तनियो जैसे मनुष्य , बन्दर , सूअर आदि में पाए जाते है। इन दांतों के कस्प गोल तथा चिकने होते है।

(ii) सिकोडॉन्ट : यह दशा माँसाहारीयो में पायी जाती है जिनमे मांस चीरने तथा काटने के लिए दांतों के किनारे तेज धार वाले होते है।

(iii) लोफोडॉन्ट : यह दशा हाथियों में पाई जाती है जिसमे इनैमल और डेंटिन के बड़े बड़े वलन या उभार पाए जाते है। ये घासों सहित बड़े बड़े पौधों को पिसने के लिए अनुकूलित होते है।

(iv) सिलीनोडॉन्ट : शाकाहारी चरने वाले स्तनियों में इस प्रकार के दांत होते है। उदाहरण : गाय , भेड़ , बकरी आदि। यह दो प्रकार के होते है –

  • ब्रैकिओडॉन्ट : इसमें क्राउन छोटे व जड का भाग बड़ा होता है। उदाहरण : मैदानी गिलहरी , मवेशी।
  • हिप्सोडॉन्ट : घोड़े और बड़े चरने वाले स्तनियों में पाए जाते है। जिनमे क्राउन का भाग बड़ा व जड़ का भाग छोटा होता है। उदाहरण : घोडा।

दांतों की संरचना

दाँतों को तीन भागो में विभाजित किया जाता है –

(i) जड़ : जबड़े की अस्थि के सॉकेट या गर्त या एल्विओलस में धंसा हुआ दांत का निचला भाग जो सीमेंट (हायल्युरोनिक एसिड) की सहायता से जुड़ा होता है।

(ii) ग्रीवा : जड़ और शिखर के मध्य का छोटा सा भाग जो मसुडो से घिरा होता है। मसूडो से घिरा होता है। मसूडे दांतों को मजबूती प्रदान करते है।

(iii) शिखर या क्राउन : मसूड़े से ऊपर जबड़े की अस्थि से बाहर निकला हुआ सफ़ेद चमकीला भाग है।

दांत खोखली डेन्टाइन पल्प गुहा या पल्प गुहा से मिलकर बने होते है। इसमें रुधिर वाहिनी , लसिका वाहिनी , तंत्रिका तन्तु और संयोजी उत्तक पाए जाते है , जो ओडोन्टोब्लास्ट या ओस्टिओब्लास्ट कोशिकाओं को पोषण प्रदान करते है। ओड़ोन्टोब्लास्ट कोशिकाओं की उत्पत्ति मिजोडर्म से होती है। ये कोशिकाएं पल्प गुहा (कैविटी) को घेर कर रखती है। ये कोशिकाएँ डेन्टाइन (आईवरी) का स्त्रावण करती है। स्तनियों में दांतों का उभार डेन्टाइन  का बना होता है। डेन्टाइन अकार्बनिक पदार्थो (62 से 69%) की परत है जो ओडोन्टोब्लास्ट कोशिकाओं के चारो ओर पायी जाती है। सबसे बाहरी परत इनैमल से निर्मित होती है। इनैमल परत एक्टोडर्मल एमिलोब्लास्ट कोशिकाओं के द्वारा बनाई जाती है। इसका निर्माण 92% अकार्बनिक पदार्थो से होता है और यह मनुष्य के शरीर का सबसे कठोर उत्पाद या भाग है। इसमें कैल्शियम फास्फेट (85%) , कैल्शियम हाइड्रोक्साइड और कैल्शियम कार्बोनेट नामक अकार्बनिक पदार्थ पाए जाते है।

सीमेंट या सीमेंटम के द्वारा दाँतो की जड़े अस्थि पर जुडी होती है।

दन्त सूत्र

स्तनियों की प्रत्येक प्रजाति में दाँतो की एक निश्चित संख्या और विन्यास होता है। अत: डेन्टीशन का टैक्सोनॉमिक महत्व है। यह दंत सूत्र द्वारा दर्शाया गया है –

i = इनसाइजर

c = कैनाइन

pm = प्रीमोलर

m = मोलर

घोडा या सूअर के लिए दंत सूत्र = (3.1.4.3/3.1.4.3) x 2 = 44

बिल्ली = (3.1.3.1/3.1.2.1) x 2 = 30

कुत्ता = (3.1.4.2/3.1.4.3) x 2 = 42

गिलहरी = (1.0.2.3/1.0.1.3) x 2 = 22

लीमर = (2.1.3.3/2.1.3.3) x 2 = 36

चूहा = (1.0.0.3/1.0.0.3) x 2 = 16

मनुष्य = (2.1.2.3/2.1.2.3) x 2 = 32

हाथी = (1.0.0.3/0.0.0.3) x 2 = 14

गाय = (0.0.3.3/3.1.3.3) x 2 = 32

दूध के दांत (मानव में) = (2.1.0.2/2.1.0.2) x 2 = 20

ग्रासनली (Oesophagus)

  1. बाह्य आकारिकी: ग्रासनली एक एण्डोडर्मल , ट्रेकिया की पृष्ठ सतह पर 25 cm लम्बी नलिका है जो वक्षगुहा में पायी जाती है। उदर गुहा के नीचे स्थित आमाशय में खुलती है और ऊपर की ओर फैरिक्स में गलेट नामक छिद्र द्वारा खुलती है। यह नीचे की तरफ कार्डियक ओरिफिस द्वारा आमाशय में खुलती है।
  2. औतिकी: इसमें सिरोसा (बाह्य स्तर) के स्थान पर ट्यूनिका एडवेंटीशिया पायी जाती है। इसोफैगस के अग्र भाग पर पेशीय पर्त एच्छिक जबकि पश्च भाग पर अनैच्छिक होती है।

इसकी एपीथीलियल मेम्ब्रेन कैरेटिनरहित स्ट्रेटीफाइड स्क्वेमस एपीथीलियल कोशिकाओं की बनी होती है जिसमे गॉब्लेट कोशिकाएं पाई जाती है।

कार्य : भोजन का संवहन

आमाशय (Stomach)

  1. संरचना: आमाशय एक लम्बी , यूनीलोब्ड संरचना है जो डायफ्राम में निचे उदर गुहा में स्थित होता है। मनुष्य में इसके तीन भाग होते है – कार्डियक/फंडिग (अग्रभाग पर) , कार्पस/बॉडी (मध्य/मुख्य भाग) , पायलोरिक (पश्च भाग)

जबकि खरगोश का आमाशय बाईलोब्ड होता है और कार्डियक (अग्र भाग) , फंडिग (मध्य भाग) , पाइलोरस या चीफ (पश्च ) भागो में विभाजित होता है। अमाशय में दो वाल्व पाए जाते है। ग्रासनली और आमाशय के मध्य कार्डियक स्फिन्क्टर वाल्व जबकि आमाशय और ड्यूओडिनम के मध्य पायलोरिक स्फिन्क्टर वाल्व पाया जाता है।

  1. औतिकी: सबसे बाहरी स्तर सिरोसा है। माँसपेशिया स्तर तीन स्तरों से मिलकर बना होता है – बाहरी लम्बवत , मध्य गोलाकार और आंतरिकी तिर्यक।

माँसपेशिया अनैच्छिक और अरेखित होती है। उपकला स्तर सरल स्तम्भाकार उपकला कोशाओं से बना होता है और आमाशयी ग्रंथियों में विशिष्ट कोशायें पायी जाती है। गैस्ट्रिक ग्रन्थियो का नामकरण आमाशय के विभिन्न भागों के आधार पर किया जाता है। इसमें पायी जाने वाली विभिन्न प्रकार की गैस्ट्रिक ग्रन्थियां और कोशिकाएं इस प्रकार है।

(i) अग्रभाग : खरगोश और मनुष्य के कार्डियक भाग में पायी जाने वाली ग्रंथियां – म्यूकस नेक कोशिकाएं है जो म्यूकस का स्त्रावण करती है।

(ii) मध्य भाग : खरगोश के फंडिग और मनुष्य के कार्पस भाग में चार विशिष्ट ग्रन्थियाँ पायी जाती है। जो निम्न प्रकार है –

  • पेप्टिक या जाइमोजिनिक , चीफ या सेन्ट्रल कोशिकाएं : ये कोशिकायें दो पाचक प्रोएंजाइम पेप्सीनोजन और प्रोरेनिन का स्त्रावण करती है।
  • ओक्सीन्टिक या पैराइटल कोशिकाएं : ये एचसीएल का और कैसल्स इंट्रेसिक फैक्टर का स्त्रावण करती है। यह विटामिन B12 के अवशोषण में सहायक है। यदि अधिक मात्रा में गैस्ट्रिक जूस (एचसीएल) का लम्बे समय तक स्त्रवण होता रहे तो हाइपरएसिडिटी की शिकायत हो जाती है।
  • म्यूकस नेक कोशिका : क्षारीय म्यूकस का स्त्रावण करती है।
  • आर्जेन्टोफिन या कुल्टचिटस्की या इन्टरोक्रोमाफिन कोशिकाएं : ये वैसोकोस्ट्रक्टर सिरेटोनिन के स्त्रावण हेतु जिम्मेदार होते है।

(iii) पश्च भाग : मनुष्य और खरगोश में पायलोरिक गैस्ट्रिक ग्रंथियों में म्यूकस नेक कोशिका जो म्यूकस का स्त्रावण करती है और G या गैस्ट्रिन , कोशिकाएँ पायी जाती है जो गैस्ट्रिन हार्मोन का स्त्रवण करती है। यह हार्मोन गैस्ट्रिक भित्ति की गतियो को और उनके स्त्रावण को बढ़ा देता है।

कार्य :

  • भोजन का संग्रहण
  • चर्निंग मूवमेंट द्वारा गैस्ट्रिक जूस और भोजन को अच्छी तरह मिलाना।
  • गैस्ट्रिक जूस के कार्य (अमाशयी रस के साथ वर्णित)

चारा चरने वाले जंतुओं का आमाशय (रुमिनेंट्स का अमाशय)

पशुओं के आमाशय में चार भाग होते है – रुमेन (पल्च) , रेटिकुलम (हनीकाम्ब) ओमेसम (सल्टीरियम) और एबोमेसम (रिनेट)

कुछ लोग मानते है कि प्रथम तीन भाग ग्रासनली का रुपान्तरण है और चौथा भाग वास्तविक अमाशय है जो एंजाइम और एचसीएल का स्त्रावण करता है। भ्रूणीय अध्ययन से हमें पता चला कि ये सभी भाग वस्तुतः आमाशय के ही है।

ऊँट और हिरण में ओमेसम नहीं पाया जाता। रेटिकुलम आमाशय का सबसे छोटा भाग है। इसकी कोशिकाएं जल थैलियां युक्त होती है ताकि मेटाबोलीक जल को एकत्र कर सके।

रुमेन में भोजन का विघटन यांत्रिक और रासायनिक विखण्डन से होता है। पूर्ण मंथन के द्वारा होने वाला यांत्रिक विखण्डन पेशीय संकुचन के द्वारा होता है जिसमे विलाई की क्रेटीनाइज्ड सतह भी सहायता करती है जबकि रासायनिक विखण्डन में सहजीवी सूक्ष्मजीवो (बैक्टीरिया और सिलिएट्स) से स्त्रावित एन्जाइम्स द्वारा संपन्न कराया जाता है। इन ओर्गेनिज्म द्वारा स्त्रावित सेल्युलेज एंजाइम सेल्युलोज को छोटी वसा अम्लो की श्रृंखला में जैसे – एसिटिक अम्ल , ब्युटाइरिक अम्ल , प्रोपीयोनिक अम्ल आदि में तोड़ देता है। इस पाचन की विधि को सूक्ष्मजीवी पाचन कहते है।

छोटी आंत

  1. संरचना: उदर गुहा में पाया जाने वाला एण्डोडर्म से निर्मित , आहारनाल का सबसे लम्बा भाग है जो मीसेन्टरीज के द्वारा सधा होता है। जेजुनम और इलियम में पाए जाने वाले सर्कुलर और स्पाइरल फोल्ड को कर्करिंग फोल्ड या वाल्व्युली कोनीवेन्टिस कहते है। आंत में अंगुली जैसे छोटे छोटे उभार पाए जाते है जिन्हें विलाई कहते है। ये अन्दर की सतह के क्षेत्रफल को आठ गुना बढ़ा देते है। मनुष्य में छोटी आंत का पिछला भाग बड़ी आंत में इलियोसीकल वाल्व द्वारा खुलता है जबकि खरगोश में इलियोसिकल वाल्व और सैक्युल्स रोटेंड्स दोनों पाए जाते है।
  2. भाग: मनुष्य में यह लगभग 3 मीटर लम्बी होती है जो मनुष्य में तीन भागो में विभाजित होती है।

छोटी आँत के भाग निम्न है –

  • अग्र भाग (ड्यूओडिनम) : 25 सेंटीमीटर लम्बा जेजुनम से मिलने से पूर्व U आकार का लूप बनाती है। इस लूप में पेन्क्रियाज स्थित होती है।
  • मध्य भाग (जेजुनम) : यह एक मीटर लम्बा और चार सेंटीमीटर चौड़ा भाग है। दिवार मोटी और अत्यधिक संवहनी होती है। विलाई मोटे और जीभ के आकार के होते है। प्लिकी अत्यधिक विकसित होती है। पेयर्स पैचेस नहीं होते है।
  • पश्च भाग (इलियम) : 2 मीटर लम्बा और 3.5 सेंटीमीटर चौड़ा भाग है। दिवार पतली एवं कम संवहनी होती है। विलाई पतले एवं अंगुली के आकार के होते है।
  • प्लिकी कम विकसित होती है। पेयर्स पैचेस पाए जाते है।
  1. औतिकी: सिरोसा सबसे बाहरी परत है उसके अन्दर अरेखित , अनैच्छिक पेशीय पर्त स्थित होती है। इसकी एपीथिलियम सामान्य कोल्यूमनर कोशिकाओं की बनी होती है जिसमे अन्दर की तरफ बहुत सारे ब्रुश जैसे विलाई और माइक्रोविलाई निकले होते है जो अवशोषण सतह के क्षेत्रफल को बढ़ा देते है। इसमें लम्बवत वलन पाए जाते है जिन्हें कर्करिंग वलन या वालव्यूली कोनीवेंटिस कहते है। इसमें पाई जाने वाली गॉब्लेट कोशिकाएं म्यूकस का स्त्रवण करती है। एपीथिलियम स्तर और लैमिना प्रोपिया के मध्य अंडाकार या गोल लिम्फैटिक उत्तकों का समूह पाया जाता है जिसे पेयर्स पैचेस कहते है। ये लिम्फोसाइट्स का निर्माण करते है। ब्रुनर्स या ड्यूओडिनल ग्रंथियां बहुकोशिकीय म्यूकस ग्रंथियाँ है जो सिर्फ ड्यूओडिनम में ही पायी जाती है। एवं म्यूकस का स्त्रावण करती है। इसके अलावा यहाँ विशिष्ट प्रकार की एरोगाइरोफिल कोशिकाएं भी पायी जाती है।
  2. छोटी आंत की ग्रंथियाँ: छोटी आंत में विभिन्न ग्रन्थियां पायी जाती है। प्रत्येक ग्रंथि में तीन प्रकार की कोशिकाएं पाई जाती है –

(i) अविभेदित एपीथीलियम कोशिकाएं

(ii) आर्जेंटाफिन (एंटोरोक्रोमाफिन) कोशिकाएं

(iii) जाइमोजन (पेनिथ) कोशिकाएँ

छोटी आंत की ग्रंथियाँ :-

ब्रूनर्स ग्रंथियाँ : सिर्फ ड्यूओडिनम में पाए जाते है। यह म्यूकस स्त्रावित करती है इसलिए इन्हें म्यूकस ग्रंथि भी कहते है।

पेयर्स पैचेस : ये लिम्फ नोड्स है। ये लिम्फोसाइट्स का निर्माण करते है। लिम्फोसाइट्स फैगोसाइट प्रकृति की होती है और नुकसानदायक बैक्टीरिया को नष्ट करती है।

क्रीट्स ऑफ़ लिवरकुहन : इन्हें आंत्रिय ग्रंथि भी कहते है। ये सिर्फ ड्यूओडिनम और इलियम में पायी जाती है। सक्कम एंटेरिकस या आन्त्रिय रस स्त्रावित करती है। इनका निर्माण लैमिना प्रोपिया के उभार से होता है।

 कार्य : भोजन का पाचन और अवशोषण

बड़ी आंत

इसके बड़े आकार के कारण इसे बड़ी आंत कहते है।

  1. संरचना: यह एंडोडर्म से निर्मित 1.5 से 1.75 मीटर लम्बी होती है।
  2. भाग: बड़ी आंत को तीन भागो में विभाजित किया जाता है।

(i) सीकम : मनुष्य में सर्पिलाकार मुड़ी हुई 6 सेंटीमीटर लम्बी सीकम पायी जाती है जिसकी लम्बाई खरगोश में 45 सेंटीमीटर होती है। इसके पिछले भाग में एक अंध कोश पाया जाता है जिसे वर्मीफॉर्म अपेंडिक्स कहते है। यह अवेशेषी अंग है परन्तु इसमें लिम्फैटिक उत्तक पाए जाते है। मनुष्य में सीकम भोजन मार्ग के रूप में उपयोग होता है। खरगोश में इसका कार्य सेल्युलोज का पाचन और भोजन का संवहन दोनों होते है।

(ii) कोलन : एण्डोडर्म से बनी एक लम्बी ट्यूब जैसी संरचना है जिसकी लम्बाई 1.3 मीटर होती है। इसमें चार लिम्ब एसेन्डिंग , ट्रांसवर्स , डिसेन्डिंग और पेल्विक (सिग्मोइड) होते है। कोलन में दो विशिष्ट संरचनाएं टिनी जो कोलन के मध्य में पायी जाती है और हास्ट्रा जो कि ढीले पॉकेट जैसी संरचना और टिनी को घेरे हुई होती है , पायी जाती है। कोलोन अपचित भोज्य पदार्थो में उपस्थित 5% जल , लवण , विटामिन्स आदि के अवशोषण में भाग लेता है। अत: यह मल के निर्माण में भाग लेता है। कोलोन के बैक्टीरिया विटामिन्स B12 और K+ का संश्लेषण भी करते है।

(iii) रेक्टम : रेक्टम मनुष्य में एक छोटी , ढीली , बैग जैसी संरचना है जबकि खरगोश में बड़ी , गाँठदार संरचना है जो मल संग्रह का कार्य करती है। रेक्टम की दिवार पर स्फिन्क्टर पेशियाँ पायी जाती है जो आंत और मलद्वार को नियंत्रित करते है। मल त्याग न होने के दौरान यह बंद रहता है।

(iv) कार्य : बिना पचे हुए भोजन से जल का अवशोषण।

मल गुहिका और मलद्वार

मल गुहिका रेक्टम से जुडी होती है। इसकी लम्बाई 3 सेंटीमीटर होती है। मलद्वार आहारनाल का अंतिम भाग है जो आंतरिक अनैच्छिक स्फिंक्टर और बाह्य एच्छिक स्फिंक्टर द्वारा नियंत्रित होता है।