हिन्द स्वराज पुस्तक कब लिखी गई | हिंद स्वराज पुस्तक किसने लिखी hind swaraj book written by whom ?

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हिन्द स्वराज के बारे में गाँधी के विचार
गाँधी ने अपने राजनैतिक विचारों को कई भाषणों और लेखन में अभिव्यक्त किया है, जिसमें सबसे महत्वपूर्ण ‘‘हिन्द स्वराज’’ नामक वह पुस्तिका है जो उन्होंने गुजराती में सन् 1909 में लंदन से दक्षिण अफ्रीका वापस लौटने के दौरान ‘‘किल्दोनाम कैंसल’’ में लिखा था। यह सर्वप्रथम गाँधी जी द्वारा ही सम्पादित एवं प्रकाशित हुयी थी। इस लेख में गाँधी ने लंदन में रहने वाले एक भारतीय अराजकतावादी को संबोधित किया था। भारतीय अराजकतावादी भारत में विदेशी शासन के विरुद्ध आतंकवादी विधियों का प्रयोग करने के पक्षधर थे। इनके अनुसार, एक बार विदेशी शासन से भारत मुक्त होने पर आधुनिकता का वही पश्चिमी ढाँचा जारी रखा जा सकता है। ‘‘हिन्द स्वराज’’ लिखने के पीछे गाँधी जी का उद्देश्य अराजकतावादियों की हिंसक पद्धति एवं आधुनिक सभ्यता में सवोच्चता के दावों का विरोधी करना था।

गाँधी, उग्रवाद एवं बिटिश साम्राज्यवाद
जैसा कि हम लोगों ने पिछले खंड में देखा, गाँधी उन उग्रपंथियों के विचारों से सहमत थे जो । आधुनिक पश्चिमी सभ्यता के नैतिक एवं सांस्कृतिक सर्वोच्चता के दावे को गलत मानते थे। लेकिन गाँधी भारतीय परम्परा के प्रति उनके पुनरुत्थानवादी एवं प्रतिक्रियावादी विचारों से असहमत थे। आतंक एवं हिंसा की उनकी विधियाँ भी गाँधी को नागवार गुजरती थीं। गाँधी का कहना था कि हिंसक या आतंकवादी गतिविधियाँ भारत या ब्रिटेन को सच्चे स्वराज या सच्ची सभ्यता के रास्ते पर नहीं ले जा सकती। भारतीय परम्परा के प्रति उग्रवादियों के प्रतिक्रियावादी एवं पुर्नरुत्थानवादी रवैये के बारे में गाँधी का मानना था कि यद्यपि भारतीय परम्परा में अहिंसा और सच्ची सभ्यता का भाव अन्निहित रहा है, लेकिन यह परम्परा भी इतिहास में पथभ्रष्ट हुई है। गाँधी ने लिखा था, ‘‘हिन्दूवाद के दो पहलू हैं, एक ओर अश्पर्शयता, पत्थरों या मूर्तियों का अन्धविश्वासपूर्ण पूजन वाली प्रथा इत्यादि से लिपटा ऐतिहासिक हिन्दूवाद है, तो दूसरी ओर पंतजलि के योगसूत्र, उपनिषद् एवं गीता का हिन्दूवाद है, जिसमें सृष्टि की एकता और एक ही अखण्ड, अरूप अविनाशी ईश्वर के पूजन एवं अहिंसा पर जोर दिया गया है’’। सच्ची सभ्यता के आदर्श से च्युत भारतीय परम्परा के विचलन को रेखांकित करते हुए गाँधी ने अपने देशवासियों से आग्रह किया कि, ‘‘सिर्फ अंग्रेजों को दोष देना निरर्थक है। वे हम लोगों की वजह से ही यहाँ आए और हम लोगों की वजह से यहाँ टिके हुए भी हैं और वे यहाँ से तभी जायेंगे या अपने व्यवहार को तभी बदलेंगे जब हम अपने को बदलेंगे’’। विशेषकर उनका इस बात पर जोर था कि हम लोगों में अपने अज्ञान, पाखंड, दब्बपन से चिपके रहने एवं देश के लिए बलिदान करने की भावना का जो अभाव है, उससे तत्काल उबरने की आवश्यकता है। स्वराज एवं सत्याग्रह की उनकी जो अवधारणा थी, वह भारतीयों एवं उनके औपनिवेशिकों, दोनों को सभ्य बनाने के आदर्श से प्रेरित थी। दूसरे शब्दों में, गाँधी का उद्देश्य था उपनिवेशों को औपनिवेशिक दासता से मुक्ति दिलाना तथा औपनिवेशिकों को फिर से सभ्य बनाना।

गाँधी, नरमपंथी एवं ब्रिटिश साम्राज्यवाद
भारत के अर्थतंत्र के साम्राज्यवादी निर्गम के संदर्भ में नरमपंथियों ने जो आलोचना की थी, गाँधी उससे सहमत थे लेकिन उनके द्वारा ब्रिटेन की आधुनिक सभ्यता की तथाकथित सांस्कृतिक सर्वोच्चता को स्वीकार करना गाँधी को मान्य नहीं था। उन्होंने हिन्द स्वराज में आधुनिक सभ्यता को सच्ची सभ्यता का ठीक प्रतिगामी माना था, क्योंकि सच्ची सभ्यता मानव के अच्छे व्यवहार एवं एक का दूसरे के प्रति नैतिक दायित्व का ही दूसरा नाम है। इस प्रतिमान पर देश की सभ्यतागत स्थिति को परखते हुए गाँधी ने लिखा था कि भारत पर जो शासन करने वाले अंग्रेज ‘‘यहाँ आए थे, वे ‘‘अंग्रेजी राष्ट्र के अच्छे नमूने नहीं थे‘‘, ठीक उसी तरह जैसे अर्द्ध अंग्रेजीदां भारती सच्चे भारतीय राष्ट्र के अच्छे नमूने नहीं थे।

स्वराज पर गाँधी के विचार
गाँधी की स्वराज की अवधारणा अंग्रेजों के बगैर अंग्रेजी शासन की अवधारणा नहीं थी, बल्कि जैसा कि उन्होंने स्वीकार किया स्वराज और सच्ची सभ्यता की उनकी अवधारणा ऐडम स्मिथ, मिल या स्पेंसर जैसे आधुनिक पश्चिमी चिंतकों की धारणाओं के बदले थोरू, रस्किन एवं टौल्सटॉय जैसे आधुनिक पश्चिमी चिंतकों एवं पारम्परिक भारतीय विचार श्रेणियों से उत्पन्न है। भारतीय चिन्तन परम्परा से गाँधी ने सत्य और अहिंसा के संज्ञानात्मक मूल्यांकनपरक सिद्धांतों को ग्रहण किया जो हमारे राजनैतिक, आर्थिक, वैज्ञानिक एवं तकनीकी गतिविधियों में भी होने . चाहिये। ऐसा गाँधी का मानना था। उन्होंने अपनी जीवनी ‘‘सत्य के प्रयोग’’ में लिखा था, ‘‘सत्य मेरे लिए एक सर्वप्रमुख सिद्धांत है, जिसमें सैकड़ों दूसरे सिद्धांत समाहित हैं। इस सत्य का मतलब सिर्फ शब्दों की सच्चाई नहीं है, बल्कि विचारों में भी सच्चाई है, हमारी अवधारणाओं का सिर्फ सापेक्षिक सत्य नहीं है, बल्कि यह सत्य निरपेक्ष है, शाश्वत है जो कि ईश्वर है’’। गाँधी के अनुसार, जब हमारा आचार सत्य और अहिंसा से अनुप्रणित होता है, तब यह धार्मिक आचार बन जाता है जो जीवन के एक्य को प्रतिष्ठित करता है तथा हर प्रकार के शोषण को अपनी सीमा से बाहर रखता है।

बोध प्रश्न 2
टिप्पणीः 1) उत्तर के लिए रिक्त स्थानों का प्रयोग करें।
2) अपने उत्तर का परीक्षण इकाई के अंत में दिए गए उत्तर से करें।
1) संक्षेप में गाँधी की स्वराज की अवधारणा का वर्णन करें।