मत्स्य पालन (fisi culture in hindi) , मत्स्य की प्रजातियाँ , स्फुटन , मछलियों को पकड़ने की विधियाँ 

(fisi culture in hindi) मत्स्य पालन :

व्यावसायिक रूप से मछली को पालना मत्स्य पालन कहलाता है।

मछलियों के अतिरिक्त कुछ अन्य जलीय जीव जैसे Proum lobester तथा मोलस्क को पालना या संवर्धित करना जल कृषि कहलाता है।

मछली को एक सम्पूर्ण आहार के रूप में उपयोग किया जाता है क्योंकि इसे प्रोटीन का एक उत्तम स्रोत माना जाता है इसके अतिरिक्त मछली में उपयुक्त खनिज लवण व विटामिन की प्रचुर मात्रा जैसे विटामिन A व B तथा एक विशेष प्रकार का तेल cod liver oil पाया जाता है , इसके अतिरिक्त स्वास्थ्य वर्धक भी पाया जता है।

खाद्य मछली के रूप में उपयोग की जाने वाली मत्स्य की कुछ प्रजातियाँ निम्न है –

(A) अलवणीय जल स्रोत की कुछ प्रजातियाँ जैसे – Rohu , cothla , Lommoncarp आदि।

(B) लवणीय जल स्रोत की प्रजातियाँ – Hilsa , Sardyne , comphcet

नोट : सम्पूर्ण देश में मत्स्य प्रोटीन की पूर्ती हेतु लगभग एक करोड़ टन मछली उत्पादित करने की आवश्यकता है परन्तु प्रति वर्ष हम केवल 35 लाख टन मछलियाँ उत्पन्न कर पा रहे है।

नोट : उपरोक्त उत्पादन में वृद्धि हेतु भारत सरकार के द्वारा कई वैज्ञानिक विधि तथा नवीन तकनीक अपनाई गई है जिसके फलस्वरूप मत्स्य उत्पादन में अत्यधिक वृद्धि देखने को मिली है अत: यह वृद्धि नील क्रान्ति के नाम से जाना जाता है।

नील क्रान्ति के फलस्वरूप हमारे देश के मत्स्य उत्पादन में अत्यधिक वृद्धि देखने को मिली है जिसके परिणाम स्वरूप प्रति हेक्टर 85 हजार किलोग्राम मत्स्य उत्पादन देखने को मिला है जो एक सफल भविष्य का अच्छा सूचक है।

सम्पूर्ण भारत में लगभग 75 हजार हेक्टर अंत: जल स्रोत है जो देश के कुछ क्षेत्रफल का 2.34% भाग निर्मित करते है।

सम्पूर्ण भारत में मत्स्य पालन के अंतर्गत वृद्धि का उत्तरदायित्व केन्द्रीय अन्त: स्थलीय मत्सय शोध संसथान का है।

उपरोक्त संस्था के द्वारा कुछ विशिष्ट प्रकार की मत्स्य प्रजातियों को मत्स्य पालन हेतु तैयार किया गया है। ऐसी मत्स्य प्रजातियों को संवर्धन शील मछलियों के नाम से जाना जाता है।

मत्स्य पालन हेतु उपयोग की जाने वाली कुछ सवर्धनशील मछलियों के प्रकार निम्न है –

(A) कुछ देशज प्रजाति जैसे – major crap

(B) कुछ लवणीय प्रजाति जो अलवणीय जल में सवर्धन हेतु अनुकूलित हो गयी – channol तथा mulat है।

(C) विदेशी जातियां जैसे – mirror carp , chinese carp तथा common crap है। उपरोक्त संवर्धनशील मछलियों की प्रजातियों के अतिरिक्त एक अन्य विदेशी प्रजाति विशिष्ट रूप से पाली जाती है जिसे crucian carp के नाम से जाना जाता है।

मत्स्य पालन कार्यक्रम का प्रबन्धन

मत्स्य पालन एक जटिल प्रक्रिया है जिसके अंतर्गत मत्स्य की प्रजाति से लेकर जल स्रोत पर्यावरणीय कारक , भौतिक कारक तथा रासायनिक कारक आदि ध्यान में रखे जाते है।

इस प्रकार के पालन के अन्तर्गत अपनाए जाने वाले कुछ प्रमुख चरण निम्न प्रकार से है –

(A) प्रजनन : मत्स्य पालन के अंतर्गत अपनाया जाने वाला पहला चरण प्रजनन के नाम से जाना जाता है।

इस चरण हेतु प्राकृतिक जल स्रोतों के निकट विशिष्ट कुण्डो का निर्माण किया जाता है इन्हें प्रजनन कुण्ड के नाम से जाना जाता है।

इसके अतिरिक्त यह कुण्ड कृत्रिम रूप से भी तैयार किये जा सकते है अत: मत्स्य पालन के अन्तर्गत प्रजनन सामान्यत: दो प्रकार से संपन्न किया जा सकता है –

(a) प्राकृतिक प्रजनन : इस प्रकार के प्रजनन के अंतर्गत निषेचन की क्रिया स्वत: संपन्न होती है इस हेतु निर्मित किये जाने वाले प्रजनन कुण्ड प्राकृतिक जल स्रोतों के निकट निर्मित किए जाते है तथा निर्मित किये जाने वाले प्रजनन कुण्डो में जल की प्रचुर मात्रा की सुविधा उपलब्ध करायी जाती है।  निषेचन की क्रिया सामान्यतया निर्मित किये जाने वाले कुण्डो के छिलछिले जल में संपन्न होती है यह क्रिया अंडजनन या spowning के नाम से जानी जाती है। प्राकृतिक प्रजनन संपन्न करवाने हेतु निर्मित किये जाने वाले बंध सामान्यत: तीन प्रकार के होते है –

(i) गीला बन्ध (wet Dam) : इस प्रकार के बंध में वर्षभर अत्यधिक मात्रा में जल पाया जाता है तथा ऐसे बन्ध में अधिक जल की मात्रा के निकास हेतु निकास द्वार पाया जाता है।

ऐसे बन्ध में अंडजनन की किया बन्ध के छिलछिले जल में संपन्न होती है।

(ii) सुखा बंध (dry Dam) : इस प्रकार के बन्ध को मौसमी बंध के नाम से जाना जाता है , इस प्रकार के बंध सामान्यत: वर्षा ऋतु में जल युक्त पाए जाते है तत्पश्चात यह सुख जाते है।

(iii) स्थायी बंध (permanent Pam / modern Pam) : इस प्रकार के बंध को आधुनिक बन्ध के नाम से भी जाना जाता है , इस प्रकार के बंध में अत्यधिक जल की मात्रा के निकास हेतु निचले स्तर में निकास द्वार पाया जाता है।

इस बंध की दीवारे पक्की होती है तथा प्रत्येक अंडजनन के पश्चात् निकास द्वार की सहायता से सम्पूर्ण जल को निष्कासित कर दिया जाता है।

नोट : मत्स्य की विभिन्न प्रजातियों के भिन्न प्रजनन की क्रिया के अनुसार प्राकृतिक प्रजनन के अन्तर्गत उपयुक्त बंध का उपयोग किया जाता है।

(b) प्रेरित प्रजनन : इसे कृत्रिम प्रजनन के नाम से भी जाना जाता है।

इस विधि के अंतर्गत सर्वप्रथम मादा मत्स्य को अंड प्रेरित इंजेक्शन दिया जाता है जिसे सामान्यत: oviprim के नाम से जाना जाता है।  इसके फलस्वरूप 72 घंटो के भीतर मादा मत्स्य में अंडजनन की क्रिया प्रेरित होती है तथा ऐसे मादाओं को कृत्रिम रूप से पकड़कर मुख से उदर की ओर दबाते हुए किसी विशिष्ट बर्तन में अन्डो को एकत्रित किया जाता है।

अंडो के एकत्रण के पश्चात् नर मछलियों को कृत्रिम रूप से पकड़कर पुन: उपरोक्त क्रिया दर्शायी जाती है जिसके फलस्वरूप विशिष्ट बर्तन में उपस्थित अंडाणुओं पर शुक्राणु एकत्रित किये जाते है , तत्पश्चात अंडाणु तथा शुक्राणुओं को किसी विशिष्ट लकड़ीनुमा या कांच की छड की सहायता से आपस में मिलाया जाता है जिसके फलस्वरूप निषेचन की क्रिया संपन्न होती है।

विशिष्ट बर्तन में निर्मित युग्मनजो को बहते जल के पात्र में रखा जाता है जिसके फलस्वरूप दृढीकरण की क्रिया संपन्न होती है तथा मत्स्य बीज का निर्माण होता है।

नोट : प्राकृतिक प्रजनन उपलब्ध होने के पश्चात् भी प्रेरित प्रजनन की आवश्यकता क्यों होती है ?

प्राकृतिक प्रजनन के फलस्वरूप ऐसे मत्स्य बीज निर्मित होने की सम्भावना बनी रहती है जो परभक्षी मत्स्य के होते है तथा ऐसे बीजो से निर्मित होने वाले मत्स्य पौने दुसरे निर्मित होने वाले पौनो को नष्ट कर सकती है अत: ऐसी स्थिति से बचने हेतु प्रेरित प्रजनन का उपयोग किया जाता है।

प्राकृतिक प्रजनन के अंतर्गत प्राकृतिक जल स्रोतों के मोड़ वाले स्थान से सीधे ही मत्स्य बीज भी एकत्रित किया जा सकते है।

उपरोक्त विधि के अन्तर्गत प्राकृतिक जल स्रोतों के मोड़ वाले स्थान पर एक गमझा बांधकर या एक प्रकार के जाल shooting net या Benching net की सहायता से मत्स्य बीज एकत्रित किये जाते है।

उपरोक्त तकनीक को गमझा तकनीक के नाम से जाना जाता है तथा इस तकनीक का सामान्यत: उपयोग कुछ प्रमुख नदियों जैसे गंगा , यमुना , बेदबा , ब्रहापुत्र , घाघरा , गोमती आदि के मोड़ वाल स्थानों से मत्स्य बीज एकत्रित किये जाते है।

(B) स्फुटन (Hatching)

मत्स्य पालन के इस चरण के अंतर्गत निर्मित मत्स्य बीजो से मत्स्य पौने या fishfries का निर्माण करवाया जाता है। इस चरण को संपन्न करवाने हेतु छोटे छोटे कुण्ड नुमा संरचनाओं का निर्माण किया जाता है जिन्हें स्फुटन गर्त या hatching pits के नाम से जाना जाता है।

उपरोक्त स्फुटन गर्तों में मत्स्य बीजों को रखा जाता है जिनमे 2 से 15 घंटो के भीतर या 72 घंटो के भीतर निषेचित अंडे से मछली पौने या fish fries का निर्माण होता है।

नोट : स्फूटन गर्तो के निर्माण के समय निम्न बातो को ध्यान में रखा जाना चाहिए –

स्फुटन गर्त का निर्माण प्रजनन स्थल के निकट किया जाना चाहिए।

निर्मित किये जाने वाले स्फुटन गर्त आकार में छोटे होने चाहिए।

स्फूटन गर्त में केवल इतनी ही मात्रा में जल भरा जान चाहिए जो एक या दो महीने के भीतर सूख जाए।

निर्मित किये जाने वाले स्फुटन गर्तों की संख्या अधिक होनी चाहिए।

स्फुटन हेतु सामान्यत: दो प्रकार के स्फुटन गर्तो का उपयोग किया जाता है –

(i) स्फूटन शाला : इन्हें Hasturies के नाम से जाना जाता है।

इस प्रकार के स्फुटन गर्त आकार में छोटे होते है तथा इनमे स्थानांतरित किये जाने वाले निषेचित अन्डो से 2 से 15 घंटो के भीतर मत्स्य पौने या fishfry का निर्माण हो जाता है।

(ii) स्फूटन हापा (hatching happas) : इन्हें hatching happas भी कहते है।

इस प्रकार के स्फुटन गर्त का निर्माण प्राकृतिक जल स्रोत में किया जाता है जहाँ चार बल्लियों की सहायता से एक मोटे कपडे को आयता कार लूप में बाँधा जाता है , तथा इस कपडे के भीतरी सतह पर मच्छर दानी लपेटी जाती है , इसके फलस्वरूप निर्मित संरचना आयताकार टफ प्रकार की होती है , इसकी औसतन लम्बाई , गहराई तथा चौड़ाई निश्चित होती है।

निर्मित किये जाने वाले इस स्फुटन गर्त में लगातार जल के बहाव के कारण खुलित ऑक्सीजन की मात्रा का स्तर बना रहता है। इसके फलस्वरूप अधिकतम मत्स्य बीजो से मत्स्य पौनो का निर्माण होता है।

नोट : मत्स्य बीज से मत्स्य पौनों के निर्माण के पश्चात् इन्हें सवर्धन तालाब में या कुण्ड में स्थानांतरित किया जाता है परन्तु इस क्रिया के दौरान मत्स्य पौनो की मृत होने की सम्भावना अधिक होती है अत: ऐसी स्थिति में बचने हेतु मत्स्य पौनो को alcothene से निर्मित थैलों में सवर्धन कुण्ड तक स्थानांतरित किया जाता है।

(C) सवर्धन / पारिचर्या

मत्स्य पालन के अंतर्गत अपनाया जाने वाला यह चरण Norishment के नाम से जाना जाता है। इस चरण के अंतर्गत सवर्धन तालाब का उपयोग किया जाता है जिसका निर्माण सामान्यत:स्फुटन की क्रिया संपन्न होने से पूर्व कर लिया जाता है क्योंकि मत्स्य बीजो से मत्स्य पौनो के निर्माण के तुरंत पश्चात् इन्हें सवर्धन तालाब में स्थानांतरित कर दिया जाता है।
सवर्धन की क्रिया के अंतर्गत निम्न बातो का ध्यान रखना चाहिए –
  • सवर्धन तालाब में जल का निकास तथा प्रवेश नियंत्रित मात्रा में होना चाहिए।
  • संवर्धन तालाब में परभक्षी मछलियाँ उपस्थित होनी चाहिए।
  • सवर्धन तालाब में मत्स्य पौनो के भोजन के रूप में पादप पलवको के निकास हेतु उचित मात्रा में रासायनिक तथा प्राकृतिक उर्वरको का उपयोग किया जान चाहिए।
  • सवर्धन तालाब में मत्स्य पौनो की मृत्यु दर बढ़ जाती है अत: पूर्ण रूप से सावधानी बरती जानी चाहिए।
सवर्धन तालाब में मत्स्य पौनो या मत्स्य जीरो अवस्था की लम्बाई 10 से 15 सेंटीमीटर होने पर ऐसे मत्स्य पौनो को पालन पोषण कुण्ड में स्थानांतरित किया जाना चाहिए।

(D) पालन पोषण

मत्स्य पालन के अन्तर्गत अपनाए जाने वाले इस चरण को पालन पोषण या rearing के नाम से जाना जाता है। यह चरण पालन पोषण कुण्डो में संपन्न किया जाता है जहाँ स्थानांतरित किये जाने वाले मत्स्य पौनो का पूर्ण पोषण तथा स्वास्थ्य का ध्यान रखा जाता है।
इस चरण हेतु उपयोग किया जाने वाले उपरोक्त कुण्ड बारह मासी या मौसमी हो सकते है।
पालन पोषण कुण्ड में मत्स्य पौनो या अंगुलिनुमा की लम्बाई लगभग 20 सेंटीमीटर तक होने पर संग्रहण कुण्ड में स्थानान्तरित कर दिया जाता है।
नोट : विकसित होने वाले मत्स्य पौने जिनकी औसतन लम्बाई 20 cm हो चुकी है के संग्रहण कुंड में स्थानांतरित करने हेतु एक विशिष्ट पात्र का उपयोग किया जाता है।  सामान्यतया इस पात्र का आयतन 1000 लीटर होती है तथा इस पात्र की आंतरिक सतह थर्मापोल के द्वारा निर्मित की जाती है जिसके फलस्वरूप ऐसे मत्स्य पौनो की स्थानांतरित करते वक्त चोट तथा धक्को से बचाया जा सके।  इसके अतिरिक्त इन पात्रो में ऑक्सीजन पूर्ण व्यवस्था होता है जिसके फलस्वरूप ऐसे मत्स्य पौनों की मृत्यु दर में कमी आती है।

(E) संग्रहण

मत्स्य पालन के अन्तर्गत अपनाया जाने वाला यह अंतिम चरण है।
इसे संग्रहण तालाब या कुण्ड से संग्रहण किया जाता है।  इस तालाब में मत्स्य पौनो को स्थानांतरित करने से पूर्व पादप पलवक तथा जन्तु पल्लवम के रूप में मत्स्य पौनों की भोजन की व्यवस्था पूर्ण की जाती है।  इस हेतु ऐसे तालाब में पर्याप्त मात्रा में पोषक पदार्थ डाले जाते है।  इसके अतिरिक्त ऐसे तालाबों को परभक्षी मछलियों से मुक्त रखा जाता है , इसके फलस्वरूप बिना किसी हानि के मत्स्य पौने व्यस्क मत्स्य में परिवर्तित हो जाते है।
मत्स्य पौनो की लम्बाई में पर्याप्त वृद्धि के पश्चात् उन्हें पकड़ने की क्रिया संपन्न की जाती है तथा व्यावसायिक रूप से इन्हें बाजार में बेचा जाता है।
नोट : ऐसे मत्स्य पौने जिनका विकास पर्याप्त रूप से नहीं होता है उनके पूर्ण विकास हेतु उन्हें पुनः पोषण कुण्ड या संग्रहण कुण्ड में स्थानांतरित कर दिया जता है।

मछलियों को पकड़ने की विधियाँ

मछलियों को पकड़ने हेतु उपयोग में ली जाने वाली अनेक प्रकार की विधियाँ सामूहिक रूप से फिशिंग या मत्स्यन कहलाती है।
मत्स्य हेतु उपयोग ली जाने वाली कुछ प्रमुख विधियाँ निम्न प्रकार से है –
  1. तली मत्स्यन
  2. बंशी मत्स्यन
  3. फंदा मत्स्यन
  4. उलीचने से मत्स्यन
  5. उत्पादक जाल के द्वारा मत्स्यन
  6. धधरिया जाल के द्वारा मत्स्यन
  7. परस जाल के द्वारा
  8. कलोंग जाल के द्वारा
  9. संकर्ष जाल के द्वारा
  10. विद्युत मत्स्यन
नोट : मत्स्यन की क्रिया संपन्न होने के पश्चात् पकड़ी गयी मछलियों के लम्बे उपयोग हेतु उन्हें परिरक्षित किया जाता है तथा इस कार्य हेतु निम्न विधियों का उपयोग किया जाता है –
  1. प्रशीतन
  2. गहन हिमशीतन या गहन हिमीकरण
  3. हिमीभूत करके सुखाना
  4. धुप में सुखाना मौना उपचार
  5. नम उपचार
  6. लवणन धुमन
  7. डिब्बा बन्दी
नोट : उपरोक्त परिरक्षण की क्रिया के फलस्वरूप पकड़ी गयी मछलियों को शीघ्र अपघटित होने से बचाया जाता है।