पर्यावरण के मुद्दे नोट्स कक्षा 12 जीव विज्ञान अध्याय 16 पीडीऍफ़ | environmental issues class 12 notes pdf

environmental issues class 12 notes pdf in hindi पर्यावरण के मुद्दे नोट्स कक्षा 12 जीव विज्ञान अध्याय 16 पीडीऍफ़ ?

अध्याय-16
पर्यावरण के मुद्दे (Environmental Issues)

 प्रदूषण – (Pollution)
पर्यावरण या वातावरण में उत्पन्न वह अवांछित परिवर्तन, जो सजीवों तथा पर्यावरण पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है, प्रदूषण कहलाता हैं।

 प्रदूषक – (Pollutants)
ऐसे पदार्थ जो वातावरण के किसी न किसी रूप में दूूषित करते हैं प्रदूषक कहलाते है ये दो प्रकार के होते हैं-

1. क्षयकारी प्रदूषक (Biodegradable Pollutants)
वे प्रदूषक पदार्थ जो सूक्ष्मजीवों द्वारा सरलता से अपघटित हो जाते है, क्षयकारी प्रदूषक कहलातें है, जैसे-कागज, कपड़ा, लकड़ी आदि।
2. अक्षयकारी प्रदूषक (Non-degradable)
वे प्रदूषक पदार्थ जो सूक्ष्मजीवों के द्वारा अपघटित नही होते है अक्षयकारी प्रदूषक कहलाते है जैसे- डी.डी.टी., कांच, प्लास्टिक, पारे के यौगिक आदि।
नोट- प्रदूषक अपने प्रकृति के आधार पर भी दो प्रकार के होते है-

1. प्राथमिक प्रदूषक (Primary Pollutants)
वैसे प्रदूषक पदार्थ जो जिस अवस्था में अपने स्त्रोतो से अलग होते है उसी अवस्था में वातावरण को प्रदूषित करते है प्राथमिक प्रदूषक कहलाते है जैसे- SO2, CO2, CO, NO2 आदि।
2. द्वितीयक प्रदूषक (Secondary Pollutants)
ऐसे प्रदूषक जो प्राथमिक प्रदूषकों एवं वातावरण के अन्य पदार्थो से क्रिया के फलस्वरूप वातावरण को दूषित करना शुुरू करते है द्वितीयक प्रदूषक कहलाते है जैसे- ओजोन (O3) एवं परऑक्सी एसिटिल नाइटेट (PAN)

 वायु प्रदूषण (Air Pollution)-
वायु के भौतिक, रासायनिक व जैविक गुणों में उत्पन्न अवांछित परिवर्तन जिसके कारण वायु दूषित हो जाती है, वायु प्रदूषण कहलातें है।
 धूल, कालिख, रेत के कण, कार्बन मोनोआक्साइड, सल्फर के आक्साइड, धुंआ, क्लोरीन, ब्रोमीन, आयोडीन आदि वायु प्रदूषण के मुख्य प्रदूषक हैं।

 वायु प्रदूूषण के प्रभाव-
वायु प्रदूषण के निम्न प्रभाव है जैसे- अम्ल वर्षा का होना, मानव में स्वास्थ्य रोग, त्वचा रोग, श्वसन रोग, नेत्र रोग, व पादपों मेें पर्णहरिम, पुष्पन एवं उनके वृद्धि पर प्रभाव आदि।
 SO2 पादपों के लिए सर्वाधिक हानिकारक हैं।
 अम्ल वर्षा (Acid Rain)-
NO2, SO2, NO, CO2 आदि गैंसे वातावरण में उपस्थित जल की बूंदों के साथ मिलकर पृथ्वी पर अम्ल (सल्फयूरस अम्ल, सल्फयूरिक अम्ल एवं नाइटिक अम्ल) के रूप में गिरती हैं जिसें अम्ल वर्षा कहा जाता हैे।
 SO2 के प्रभाव से ताजमहल पर खतरा बना हुआ है इससे ताजमहल का रंग पीला पड़ता जाता हैं।

 वायु प्रदूषण का नियन्त्रण –
वायु प्र्रदूषण को निम्नविधियों द्वारा नियंत्रित किया जा सकता है-
 स्वचालित वाहन से उत्पन्न धुऐं कों निर्वात नाल पम्प पर छन्ना (Filter) तथा पश्च ज्वलक आदि लगाकर कम लिया जा सकता है।
 पेटोल मेें बेरियम यौगिक डालने से धुंआ कम निकलना हैं।
 पेटोल से लेड तथा सल्फर को निकाल कर इनके द्वारा होने वाले प्रदूषण को कम किया जा सकता है।
 वायु प्रदूषण के नियंत्रण हेतु वाहनों में उत्प्रेेरक संपरिवर्तक के प्रयोग को सुनिश्चित करना चाहिए।
 वाहनों के अतिरिक्त दहन इंजनों की संरचना में इनके निर्माताओं को कुछ ऐसे सुधार करने चाहिए जिससे ईंधन का सम्पूर्ण दहन हो ताकि प्रदूषण करने वाले पदार्थ कम मात्रा में उत्पन्न हों।
 रेल यातायात में कोयले तथा डीजल से चलने वाले इंजनों केे स्थान पर विद्युत इंजनो का प्रयोग किया जाना चाहिए।
 अधिक से अधिक पेड़ पौधों को उगाना चाहिए व वनोन्मूलन को कम करना चाहिए।

 जल प्रदूषण एवं उसका नियंत्रण –
 जलप्रदूषण-
जल पौधों व जन्तुओं सभी के लिए आवश्यक है जल में विभिन्न पोषक तत्व, कार्बनिक अर्काबनिक पदार्थ एवं गैसे धुली होती है यदि जल में ये पदार्थ आवश्यकता से अधिक मात्रा में एकत्रित हो जाए अथवा इसमें अन्य पदार्थ एकत्रित हो जाएं जो साधारण जल उपस्थित नही होता तो जल हानिकारक हो जाता है प्रदूषित जल कहलाता है।
 जल प्रदूषण के कारण-
1. घरेलू अपमार्जक- रसोई घर में बर्तन माजने, स्नानघर में कपड़े धोने एवं धोबियों द्वारा अनेक प्रकार के अपमार्जक उपयोग में लायें जाते हैं जो नालों के द्वारा तालाबों नदियो व अन्य जलाशयों तक पहुँचते है इन अपमार्जकों में विभिन्न प्रकार के फास्फेट, नाइटेट, अमोनिया यौगिक, ऐल्किल बेन्जींन, सल्फोनेट धातु, हानिकारक अम्ल व क्षार नदियों पहुंचकर इसें दूषित करते हैं।
2. वहित मल जल-
प्रायः सभी बड़े शहरों की गन्दगी बन्द नालों के सहारे नदियों में गिराई जाती है वाहित मल जल के गिरने से जल में आक्सीजन की मात्रा कम हो जाती है और BOD (Biochemical oxygen demand) बहुत अधिक हो जाता है। वाहित मल में कार्बनिक पदार्थ एवं जैव प्रदूषक बहुत अधिक मात्रा में पायें जाते है इनकी उपस्थिती जीवाणुओं एवं कवकों की संख्या में वृद्धि करती है इन जीवों द्वारा कार्बनिक पदार्थो के अपघटन के लिए आक्सीजन की आवश्यकता पड़ती है जिससे धीरे-धीरे जलाशय में आक्सीजन की मात्रा में कमी हो जाती है।
 इसके चलते अनेक जलीय जीवों एवं मछलियो की मृत्यु भी हो सकती हैं।
3. औद्योगिक अपशिष्ट –
विभिन्न प्रकार के औद्योगिक अपशिष्ट सीधे नदियों में पहंुचकर उसके जल को दूषित करते हैं।
4. कृृषि स्त्रोत एवं उर्वरक-
अधिकाधिक उपज की प्राप्ति के लिए कृषि में अत्यधिक उर्वरकों का प्रयोग हो रहा है। उर्वरकों में नाइटेट, फास्फेट, पौटेशियम आदि का बहुत ज्यादा समावेश होता है जो वर्षा जल के साथ स्त्रोतों से निकट जलाशयों में पहंुचकर वहां के जल को दूषित करते हैं।
5. भारी धातुएं-
औद्योगिक अवशिष्टों, पीड़कनाशियांे एवं खनन से विभिन्न प्रकार की धातुुएं निकट की जलाशयों में पहंुुच जाते है जो जलाशयों को दूषित करती हैं।
 जापान मेनिमेटा की खाड़ी में एक कारखाने द्वारा फेंकें जाने वाले पारे के कारण, दूषित मछलियां खाने से अनेक लोगों की मृत्यु होने की घटना प्रसिद्ध है।

 जल प्रदूषण के प्रभाव-
 जल में पारा होने से मछलियां दूषित हो जाती है, दूषित मछलियां खाने से मनुष्य में मेनिसेटा रोग उत्पन्न होता है जिसमें उसका तंत्रिका तंत्र प्रभावित होता है।
 घरेलू अपमर्जक साबुुन क्षार आदि का पानी में झाग उत्पन्न होता है जिससे जल की गुणवत्ता में हास होता है।
 प्रदूषित जल के स्नान से एलर्जी, त्वचा रोग व आंखो में संक्रमण आदि रोग उत्पन्न हो सकते हैं।

 जल प्रदूषण का नियंत्रण-
 अपमार्जको में ऐल्किल वेन्जीन सल्फोनेट के स्थान पर लीनियर ऐल्किल सल्फोनेट का प्रयोग किया जाना चाहिए क्योंकि इसका निम्नीकरण अत्यधिक सरलता से होता है।
 घरांे से निकलने वालेे मालित जल को एकत्रित करके संशोधन संयत्रों के द्वारा इसके पूर्ण उपचार उपरान्त ही यह जलाशयों में विसर्जित किया जाना चाहिए।
 कुछ मछलियां हानिकारक जीवों के लार्वा तथा अण्डों को खाकर उनकी संख्या को कम करती है इसलिए इन्हंें जल स्त्रांेतों में पालना चाहिए जैसे- गैम्बूसिया मछली सूक्ष्म जीवों के लार्वा तथा अण्डो को खाती हैं।
 कृषि में उर्वरकों, पीड़कनाशी व कीटनाशी आदि का प्रयोग जरूरत से ज्यादा नही करनी चाहिए।
 किसी भी मृत जीवों के शवों को नदी मेें नही छोड़ना चाहिए।

 सुपोषण (Eutrophication)
जलाशयों में अपशिष्ट जल के आने से तथा कार्बनिक अपशिष्टों के अपघटन से पोषकों की मात्रा बढ़ती है जल पोषकों की अधिक प्राप्ति से जलीय पौधों व शैवालों की वृद्धि तीव्रता से होती है। शैैवालों मेें अत्यधिक वृद्धि के कारण शैवाल उफान शैवालों का समूह का निर्माण होता है ये शैवाल प्रायः जल में विष मुक्त करते है जिससें नदी के जल में व्2 की कमी हो जाती है जिसके कारण जलीय जीवों की मृत्यु हो जाती है।
 इस सम्पूर्ण घटनाक्रम को सुपोषण ;म्नजतवचीपबंजपवदद्ध की संज्ञा दी जाती है।

 कृषि रसायन एवं उनकेे प्रभाव
 हरितक्रान्ति के आने के पश्चात् फसलों के उत्पादन को बढ़ाने के अकार्बनिक उर्वरकों तथा पीड़कनाशियों का प्रयोग कई गुना बढ़ गया है।
 आज के समय में कवकनाशी व शाकनाशी आदि का प्रयोग बढ़ गया है।
 ये पदार्थ मृदा की गुणवत्ता को ही नही बल्कि मृदा में उपस्थित जीवों, मृदा जल, सतह जल को भी प्रभावित करते हैं।
 कीटनाशी विस्तृत स्पेक्टम के होते है, जो अधिकतर कीटो का नाश कर देते है।
 एक कीटनाशी जिसका नाम डी.डी.टी. है इसका प्रयोग भारत में प्रतिबन्ध कर दिया गया हैै किन्तु आज भी इसका प्रयोग मलेरिया के उपचार में किया जाता है।
 जैविक आवर्धन (Biological Magnification)
 लगभग अधिकांश कीटनाशी, खरपतवारकाशी एवं क्लोरीनेटड, हाइडोजन लम्बें समय तक मृदा व जल में बने रहते है इनका जीवधारियों द्वारा जैविक अपघटन नही होता अतः ये अक्षयकारी होते है।
 ये पदार्थ खाद्य श्रंृखला के द्वारा पौधों व जन्तुओं के शरीर में जाते है और वही पर संचित होते है।
 इनकी सांद्रता प्रत्येक पोषी स्तर पर बढ़ती जाती है व उच्च उपभोक्ता में सबसे ज्यादा हो जाती है इस प्रक्रिया को जैविक आवर्धन कहते हैं।
 जलीय खाद्य श्रंृखला में डी.डी.टी. का आवर्धन-

नोट- DDT. (Diechlore diephiny trichroethane) o BHC (Beæing lexachloride) वसा में घुलनशील होते अतः ये मनुष्यों व जन्तुओं के वसा उतक में संचित हो जाते है।

 श्वसन क्रिया में वसा के आॅक्सीकरण में ये रूधिर वाहिनियों में प्रवेश करके विषैला प्रभाव दिखाते है इनसे कैंसर जैसी घातक बिमारियों हो सकती है।

 ठोस अपशिष्ट-
 ठोेस अपशिष्ट में वे सभी चीजें सम्मिलित हैं जो कूड़ा कचरा में फेंक दी जाती हैं।
 नगरपालिका के ठोस अपशिष्टों में घरों, कार्यालयों, भंडारों, विद्यालय आदि से रद्दी में फेंकी गई सभी चीजें आती हैं जो कि नगरपालिका द्वारा इकट्ठा किया जाता है ओर उनका निपादन किया जाता है।
 नगरपालिका के ठोस अपशिष्ट में कांच, धातु, रबड़ चमड़ा, प्लास्टिक, वस्त्र आदि होते है।

 ठोेस अपशिष्ट के निपटाने का प्रबन्ध-
 साधारणयता अपशिष्टों को एक जगह एकत्रित करके जला दिया जाता है किन्तु इनकों जलाने से अपशिष्ट के आयतन में कमी आ जाती है किन्तु यह सामान्यता पूरी तरह नही जलता।
 खुले मेें इसे फेंकनें से यह चूहों एवं मक्खियों के लिए प्रजनन स्थल का कार्य करने लगता है।
 इस कारण अपशिष्टों को जलाने के बदले सैनेटरी लैंडफिल्स अपनाया जाता है।
 सैनेटरी लैंडफिल्स मेें अपशिष्ट को गड्ढे या खाई में डाला जाता जिसे उपर से धूल व मिट्टी से ढक दिया जाता है।

 प्लास्टिक अपशिष्टो का निपटारा-
 प्लास्टिक अपशिष्टों के निपटारें की एक कारगर विधि बंगलौर मे प्लास्टिक की बोरी के उत्पादनकर्ता अहमद खान द्वारा खोजी गई।ं
 अहमद खान ने पुनश्चक्रित प्लास्टिक का पालिल्लेंड नामक महीन पाउडर को तैयार किया ।
 इस पाउडर का प्रयोग सड़क बनाने में बिटुमन के साथ मिलाकर किया।
 बिटुमेन व पाॅलिब्लेंड से निर्मित सड़क का जल विकर्षण गुण बढ़ जाता है इसके फलस्वरूप सड़क की उम्र तीन गुनी बढ़ गई।

 अस्पतालों के अपशिष्टों का निवारण-
 शहर में फेंकते अनेक नर्सिंग होम्स व अस्पतालों के अपशिष्ट जैसे-संक्रमित सूईया, प्लास्टर आफ पेेरिस ;च्व्च्द्ध, संक्रमित पट्टिया, रक्त मानव शरीर केे कटे हिस्से, खाली बोतलें विभिन्न दवाइयों आदि प्रतिदिन निकलते हैं।
 इन अपशष्टो को यहां-वहां फेंक दिया जाता है इसके साथ-साथ अनेक सूक्ष्मजीव भी इन अवशिष्टों के साथ वायुमण्डल में फेल जातंे है जो मानव व जन्तुओं के लिए अनेक रोगों के कारण बनते हैं।
 अतः इन अपशिष्टों का समुचित निपटारा आवश्यक है इन अपशिष्टांे को एकत्रित करके अस्मक या इंसिनेरेटर अत्यधिक तापमान पर जला दिया जाना चाहिए।

 रेडियो सक्रिय अपशिष्ट-
रेडियोएक्टिव तत्वों के उत्सर्जन जो जैव समुदाय को हानि पहंुचाता है रेडियोधर्मी अपशिष्ट या प्रदुषण कहलाता है।
रेडियो सक्रिय पदार्थो के परमाणु केन्द्रक के टूटने से एल्फा , बीटा  व गामा  किरणें उत्सर्जित होती हंै।

 वातावरण में रेडियोसक्रिय अपशिष्टोें के स्त्रोंत-
वातावरण में रेडियोसक्रिय अपशिष्टों के प्रमुख दो स्त्रोत है जो निम्न हैं-

1. प्राकृतिक स्त्रोत- प्राकृतिक स्त्रोत में अंतरिक्ष से आने वाले विकिरण व रेडियो न्यूक्लिइयस से विकिरण पृथ्वी पर आते हैं। रेडियोन्यूक्लियस जैसे- यूरेनियम -232, यूरेनियम-238, पोटैशियम-40 आदि।
2. मानव निर्मित स्त्रोत- विकिरण प्रदूषण के मानव निर्मित स्त्रोत भी होते है जैसे- प्लूटोनियम एवं थोरियम का खनन एवं थोरियम का खनन एवं शु़िद्धकरण, नाभिकीय शस्त्रों का प्रयोग व उत्पादन, न्यूक्लियर उर्जा घर एवं ईधन, रेडियांे धर्मी पदार्थो आइसोटोय का निमार्ण आदि।
 नाभिकीय शस्त्रांे के विस्फोट से सम्बन्धित क्रियाओं की आनियंत्रित श्रृंखला बनती है जो आस-पास के पदार्थो को भी रेडियोधर्मी बना देती है।

 रेडियो सक्रिय अपशिष्टों के प्रभाव या रेडियोधर्मी प्रदुषण के प्रभाव-
 विकिरण की मात्रा से शरीर के अंग तथा उसके कार्य को बहुत हानि होती है लेकिन शरीर में इसकी उच्च मात्रा से जीव जन्तुओं की तुरन्त मृत्यु हो सकती है।
 अधिक समय अथवा बार-बार रेडियोधर्मी अपशिष्ट के विकिरण से रक्त कैंसर हो सकता है।
 विकिरण से जीवों में उत्परिवर्तन की दर बढ़ जाती है।
 पराबैंगनी विकिरणों में अधिक समय तक रहने केे कारण त्वचा सम्बन्धी रोग उत्पन्न हो सकता है।
 रेडियोधर्मी विकिरणों से दृष्टि दोष तथा बंध्यता (संतान न उत्पन्न कर सकने वाला) भी हो जाती है।

 रेडियोसक्रिय अपशिष्टों का प्रबन्धन-
 रेडियोएक्टिव अपशिष्टों को नष्ट करने के लिए सबसे सरल उपाय यह है कि इस अवशिष्ट को भूमि से लगभग 5 सौ मी. नीचे या और अधिक नीचे गाड़ दिया जाना चाहिए।
 परन्तु यह ध्यान रखना चाहिए कि वह स्थान मानव रहित हांे।

 ग्रीनहाउस प्रभाव और वैश्विक तपन-
 ग्रीनहाउस प्रभाव-
 पृथ्वी पर उर्जा का एकमात्र स्त्रोत सूर्य है।
 सूर्य की उष्मा से गर्म होने के बाद जब पृथ्वी ठण्डा होने लगती है तब उष्मा पृथ्वी से बाहर विकसित होती है लेकिन
 CO2,CFC (क्लोरोपलोरो कार्बन) , N2O नाइटिक आक्साइड तथा मेथेन आदि अन्य उष्मारोधी गैेसे इस उष्मा का कुछ भाग अवशोषित कर लेती है एवं शेष बची उष्मा को पुनः धरातल पर भेज देती है।
 इस प्रक्रिया में वायुमण्डल के निचले भाग में अत्यधिक उष्मा एकत्रित हो जाती हैं।
 विगत कुछ वर्षो में इन उष्मारोधी गैसों की मात्रा वायुमण्डल में बढ़ जाने के कारण वायुमण्डल के औसत ताप में वृद्धि हुई है इसे ही ग्रीन हाउस प्रभाव कहा जाता हैं।
 प्रकाश संश्लेषण क्रिया ग्रीन हाउस प्रभाव को कम करती है तथा वनांे का विनाश होने ब्व्2 की मात्रा वायुमण्डल बढ़ रही है जिसकी वजह से ग्रीन हाउस प्रभाव भी बढ़ेगा।

 ग्रीन हाउस प्रभाव के कारण-
 ग्रीन हाउस प्रभाव के मुख्य कारण उष्मारोधी गैंसे है जो निम्न है-
CO2,CFC , CH4 , N2O
 इन गैसों को सम्मिलित रूप से ग्रीनहाउस गैसें भी कहा जाता हैं।
 ग्रीन हाउस प्रभाव में इन गैसों की भागीदारी निम्न है-
CO2, – 60%
CFC, – 14%
CH4, – 20%
N2O – 6%

 वैश्विक तपन – (Global Warming)
 ग्रीन हाउस प्रभाव के कारण वायुुमण्डल में अबतक लगभग 36 लाख टन ब्व्2 की वृद्धि हो चुकी है एवं वायुमंडल से लगभग 24 लाख टन O2 आक्सीजन समाप्त हो चुकी है।
 वायुमण्डल CO2 की मात्रा में वृद्धि के कारण विगत 50 वर्षो में वायुमण्डल के औसत तापक्रम में 1oC की वृद्धि हो चुकी है।
 अनुमान है कि ग्रीन हाउस प्रभाव की यही स्थिति रही तो सन् 2100 तक पृथ्वी के तापमान में लगभग 4oC तक वृद्धि हो जायेगी।
 ध्रुवीय क्षेत्रों में यह वृद्धि लगभग 9oC तक हो सकती है।
 यदि पृथ्वी के तापमान में 3.6oC की ही वृद्धि हो जायेे तो आर्कटिक व अंटार्कटिक के हिमखंड पिघल जायेंगे जिससे समुद्र के जल स्तर मेें 10 इंच से 56 टी तक वृद्धि हो जायेगी जिसका परिणाम यह होगा कि सभी समुद्र तटीय नगर समुुद्र में डूूब जायेगें इस स्थिति मुम्बई, कोलकत्ता, चेन्नई, पणजी, विशाखापट्नम, कोच्चि तिरवंतपुरूम आदि भारतीय नगर भी समुद्र में डूब जायेगें।
 ग्रीन हाउस प्रभाव को कम करने का उपाय-
 जीवाश्म ईधनों का कम से कम प्रयोग।
 हाइड्रोजन ईंधन का अतिशीघ्र प्रयोग।
 वृक्षारोपण पर विशेष जोर देना चाहिए।
 वनोन्मूलन को कम किया जाना चाहिए वनोन्मूूलन अर्थात् वनों की कटाई को कम करना चाहिए।
 ग्रीन हाउस प्रभाव उत्पन्न करने वाली गैसों को अन्य रासायनों से प्रतिस्थापित करना चाहिए।

 ओजोन अवक्षय (Ozone Depletion) –
 ओजोन गैस (O3) , आक्सीजन गैस (O2) की ही एक अवस्था है जिसमेें एक आक्सीजन परमाणु की अधिकता होती है।
 ओजोन गैस समताप मण्डल (स्टेटोस्फीयर) मेें एक परत की तरह (लगभग 16कि.मी. में 50 कि.मी. उंचाई वाले क्षेत्र) मेें पायी जाती है।
 यह परत सूर्य से निकलने वाली पराबैंगनी किरणों को अवशोषित करने वाले कवच की तरह काम करती हैं।
 सजीवों के डी.एन.ए व प्रोटीन पराबैंगनी किरणों को अवशोषित करते है और इसकी उच्च उर्जा इन अणुओं के रासायनिक आबन्ध को भंग करती हैै।
 ओेजोन के परत की मोटाई को डी.यूू. डाॅबसन यूनिट से मापा जाता है।
 आण्विक ऑक्सीजन पर पराबैंगनी किरणों की क्रिया के फलस्वरूप ओजोन गैस सतत बनती रहती है और समताप मण्डल में ही इसका आण्विक ऑक्सीजन में निम्नीकरण होता रहता है।ं
 समताप मण्डल में ओजोन के उत्पादन या निम्नीकरण संतुलित होना चाहिए हाल ही में CFC की अधिक मात्रा के कारण इसका संतुलन बिगड़ गया।
 वायुमण्डल के निचले भाग में उत्सर्जित CFC उपर की और उठता है और यह समताप मण्डल में पहुँचता है समताप मण्डल में उपस्थित पराबैंगनी किरणों के क्रिया के फलस्वरूप ब्प् परमाणु का मोचन होता है क्लोरीन परमाणुु के कारण ओजोन का निम्नीकरण होता है जिसके पश्चात् आण्विक ऑक्सीजन का मोचन होता है। इस क्रिया में क्लोरीन परमाणु का उपभोग भी नही होता है क्योंकि यह सिर्फ उत्प्रेरक का कार्य करता है इसलिए समताप मण्डल मेें जो भी CFC जुड़ते जाते है उनका ओजोन स्तर पर स्थायी और सतत प्रभाव पड़ता है।
 CFC से अलग हुआ क्लोरीन (cl) का एक परमाणु ओजोन के 1 लाख अणुओं को नष्ट करता है।

 

 यद्यपि वायुमण्डल में ओजोन का अवक्षय विस्तृत रूप से होता रहता है लेकिन यह अवक्षय अंटार्कटिका क्षेत्र में विशेष रूप से अधिक होता है जिसके कारण यहां ओजोन परत बहुत पतली हो गई है जिसे ओजोेन छिद्र नाम दिया।

 यूनाइटेड नेशन्स पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP)
(United Nations Enviornmental Programe)-1972 सक्रिय . 1983 में
स्टाकहोम, स्वीडन में 1972 में यूनाइटेड नेशन द्वारा मानव-पर्यावरण का आयोजन किया गया जिसे (UNEP) कहा गया-
 UNEP ने पर्यावरण समस्याओं के अध्ययन एवं निवारण हेतु 1983 मेें एक आयोग विश्व पर्यावरण एवं विकास का गठन किया।

 वियना सम्मेलन (VienA- Conservetion)
इसका आयोजन 1985 में किया गया इसमेें ओजोन स्तर पर सुरक्षा की विशेष गतिविधयों पर जोर दिया।

 माण्टियल प्रोटोकोल (16 सितम्बर -1987)
इसमें 27 देशों ने माण्टियल (कनाडा) में एक अन्तर्राष्टीय संधि पर हस्ताक्षर किये जिसें माण्टियल प्रोटोकाल कहा जाता है यह ओेजोन अवक्षय को कम करनेे वाली गतिविधियों में शामिल था।
इसका मुख्य उद्देश्य CFC का प्रयोग कम करना था।

 पृथ्वी शिखर सम्मेलन (Earth Summit) – 1992
इसे यूनाटेड नेशन्स का पर्यावरण और विकास सम्मेलन (UNCED)
United nations conference on Enviornment & Devlopment
कहा गया जो रियो-डी-जिनेरियों ब्राजील में 1992 में सम्पन्न हुआ।
इसमें 154 देश शामिल हुये और कहा गया कि वर्तमान 1990 के दशक जैसा ही ग्रीन हाउस गैसों का स्तर भविष्य में भी इससे ज्यादा न हो अर्थात उतना ही बना रहें।
 क्योटो प्रोटोकाल-
क्योटोे, जापान में दिसम्बर 1997 में विभिन्न राष्टों से यह वादा किया गया कि ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन के स्तर को 1990 के दशक से भी 5-10 प्रतिशत कम किया जाना चाहिए।

 वनोन्मूलन (Deforestation)
 वन क्षेत्र में उपस्थित विभिन्न प्रकार के पेड़-पौधों को काटकर वन रहित क्षेत्रों में परिवर्तित करना वनोन्मूलन कहलाता है।
 वनोन्मूलन का एक मुख्य कारण है कि वन प्रदेश को कृषि भूमि में बदला जा रहा है। जिससे मनुष्य की बढ़ती हुई जनसंख्या के लिए भोजन की व्यवस्था बनी रहें।
 ब्रिज, इमारती लकड़ी, पशु फार्म आदि उद्देश्य की पूर्ति के लिए भी वनों की कटाई की जाती है।
 झूम खेती या स्थानातंरण खेती व कारो और जलाओं खेती होने के कारण भारत के उत्तर पूर्व भाग में वनों क्षेंत्र मेें कमी आई है।

 वनोन्मूलन का प्रभाव-
 मानवीय क्रियाकलापो व प्राकृतिक आपदाओं के कारण विश्व मेें प्रतिवर्ष लगभग 7 करोेड़ हेक्टेयर भूमि से वनों का सफाया हो रहा है।
 वनों की सफाई की गति इसी तरह बनी रही हो तो शताब्दी के अन्त तक पृथ्वी के मात्र 5 प्रतिशत भू-भाग पर ही बन रह जायेगें।
 इसके कारण शताब्दी के अन्त तक 20 प्रतिशत से वन क्षेत्र की जातियां भी विलुप्त हो जायेगी।

 अम्ल वर्षा (Acid Rain)
 विभिन्न औद्योगिक संस्थानों की चिमनियों स्वचालित वाहनों केे धुएं एवं विभिन्न प्रकार के ईंधन के जलने से CO2, सल्फर व नाइटोजन के आक्साइड वायुमण्डल मेें मुक्त हो रहें हैं।
ये गैंसे वायुमण्डल में कुछ दिन उपस्थित रहने के बाद वायुमण्डल की नमी जल से क्रिया करके सल्पयूरिक अम्ल (H2SO4) नाइटिक अम्ल (HNO3) बनाती है।
ये सभी अम्ल वर्ष जल के साथ अम्ल वर्षा के रूप में पृथ्वी पर बरसने लगते है।
 अम्ल वर्षा – पौधों, जन्तुओं व इमारतों के लिए हानिकारक होती है।
 ताजमहल का पीलापन होेना अम्ल वर्षा का उदाहरण है।
 03 दिसम्बर 1984 को भोपाल में स्थित यूनियन कार्बाइड कम्पनी में मिथाइल आइसोसाइनेट के रिसाव के कारण आस-पास लगभग 2000 से अधिक लोगों की अकाल मृत्यु हो गई थी इस घटना भोपाल गैस त्रासदी कहा गया।
 मिनिमाता रोग – पारा मर्करी के कारण होता है।

 वन सरंक्षण में लोगो भागीदारी-
 चिपको आन्दोेलन-
डा0 सुन्दरलाल बहुुगुणा की अगुआयी में यह आन्दोलन शुरू हुआ। सन् 1974 में हिमालय के गहड़वाल में जब ठेकेदारों के द्वारा वृक्षांे को काटने की प्रक्रिया आरम्भ की गई तो इन्हे बचाने के लिए स्थानीय महिलाओं ने साहस का परिचय दिया वे वृक्षों से चिपकी रहीं वह वृक्षों को काटे जाने से रोेकने मेें सफल रहीं।
 विश्नोई परिवार-
राजस्थान के जोधपुर के राजा ने वनों की कटाई कर अपने महल के निर्माण करने का आदेश दिया जिसमें अमृता देवी विश्नोई के अगुआयी सैकड़ो लोगों वृक्षों से चिपकर अपने प्राण त्याग दिये थें।

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