निर्धनता के परिणाम क्या है लिखिए | effect of poverty on economy in hindi impact results culture

effect of poverty on economy in hindi impact results culture निर्धनता के परिणाम क्या है लिखिए ?

निर्धनता और उसके परिणाम
नीचे के उप-भाग में निर्धनता तथा उसके परिणामों की चर्चा की जा रही है। सबसे पहले निर्धनता की संस्कृति का विवेचन किया जा रहा है। हमने यह विवेचन भारत में गरीबी के संदर्भ में किया है। अंत में आय के वितरण में असमानता पर चर्चा की जाएगी।

 निर्धनता की संस्कृति
पिछले अनुच्छेदों में गरीबी के कारणों का विश्लेषण किया गया है। ढाँचागत अथवा दुष्चक्र सिद्धांत में यह माना गया है कि गरीबों को अपनी स्थिति से बाहर निकलना लगभग असंभव लगता है। फिर लोग इन कष्टपूर्ण स्थितियों में जीते कैसे हैं? एक व्याख्या यह है कि निर्धनता उन्हें आचरण की ऐसी पद्धतियाँ विकसित करने के लिए विवश करती है, जिनके बल पर वे गरीबी की शोचनीय स्थितियों में भी जी लेते हैं? आचरण की इस पद्धति को ‘‘निर्धनता की संस्कृति‘‘ नाम दिया गया है। यह अवधारणा एक मानव-विज्ञानी ऑस्कर लेविस ने मेक्सिको में अपने अध्ययन के आधार पर विकसित की। उनका कहना है कि गरीब लोग अपनी अलग संस्कृति बल्कि उप-संस्कृति विकसित कर लेते हैं, जो उस समाज की मूल्य व्यवस्था अथवा आचरण पद्धति का अंग नहीं होती, जिसमें वे रहते हैं। लेविस के अनुसार गरीब सामाजिक दृष्टि से अलग-थलग होते जाते हैं। परिवार के सिवाय, चाहे वे किसी भी वर्ग से संबंधित हों, उनका दृष्टिकोण संकुचित रहता है। वे स्वयं को न तो अपने समाज से जोड़ते हैं और न देश के अन्य भागों के निर्धन लोगों से। इस संस्कृति में पलने वाले व्यक्ति में भाग्यवाद, असहायता, पर-निर्भरता तथा हीनता के भाव कूट-कूटकर भरे होते हैं। वे वर्तमान के लिए ही चिंतित रहते हैं, भविष्य के बारे में सोच ही नहीं पाते। संक्षेप में कहा जा सकता है कि निर्धनता की संस्कृति गरीबों द्वारा अभाव की स्थिति के अनुकूल स्वयं को ढालने की प्रक्रिया भी है और प्रतिक्रिया भी। यह निराशा तथा हताशा की भावना से उबरने का प्रयास है, क्योंकि गरीब को इस बात का एहसास है कि उच्च समाज के मूल्यों के अनुसार उसके लिए सफलता प्राप्त करना लगभग असंभव है। उनके अलग-थलग पड़ने का अर्थ है समाज की राजनीतिक सामाजिक एवं आर्थिक गतिविधियों में उनकी भागीदारी का अभाव । यह भी कहा जाता है कि बच्चों को इसी संस्कृति में संस्कारित किया जाता है, जिससे वे अपनी स्थिति सुधारने से अवसरों का लाभ नहीं उठा पाते क्योंकि वे नई स्थिति में स्वयं को असुरक्षित महसूस करते हैं।

इस अवधारणा की कई तरह से आलोचना की गई है। एक प्रश्न यह है कि क्या निर्धनता की संस्कृति की अवधारणा ग्रामीण परिस्थितियों पर भी लागू होती है? लेविस ने अपनी अवधारणा स्लम क्षेत्रों में किए गए अध्ययनों के आधार पर विकसित की है। इस बात के कुछ सबूत मिलते हैं कि ग्रामीण क्षेत्रों में भी गरीब लोगों ने अपने इर्द-गिर्द उपसंस्कृति तथा सुरक्षा तंत्र के कारण नहीं, बल्कि इसलिए शरीक नहीं होते क्योंकि समाज एक प्रकार से उन्हें इससे रोकता है। सामाजिक संस्थाओं में भागीदारी के लिए साधनों के एक निश्चित स्तर की आवश्यकता होती है, जो निर्धन लोगों के पास नहीं होते (उदाहरण के लिए, धार्मिक आयोजन)। इस अवधारणा में एक दोष यह है कि इसमें गरीबी होने के लिए गरीबों को ही दोषी ठहराया गया है और सामाजिक प्रणाली को इसके लिए जिम्मेदार नहीं माना गया है। पहले हम यह चर्चा कर चुके हैं कि समाज में विषमता को किस प्रकार पुष्ट किया जाता है। उसमें यह भी कहा गया है कि निर्धनता की संस्कृति गरीबी का कारण नहीं बल्कि उसका परिणाम है।
सोचिए और करिए 2
किसी कुम्हार, धोबी या बर्तन माँजने वाली के घर जाइए। उनसे पूछिए कि क्या उनकी कोई मित्र मंडली है? निर्धनता की संस्कृति का पता लगाने का प्रयास कीजिए। अपने अनुभव को दो पृष्ठों में लिखिए तथा अपने अध्ययन केंद्र में अन्य विद्यार्थियों के साथ उस पर विचार-विमर्श कीजिए।

 भारत में गरीबी
1960 के आसपास जब से दाण्डेकर तथा रथ ने गरीबी की रेखा के नीचे रहने वाले लोगों की संख्या की ओर ध्यान आकर्षित किया, तब से भारत में गरीबी पर काफी विचार हुआ है। उस समय उन्होंने अनुमान लगाया था कि यदि प्रति व्यक्ति प्रतिमाह आय 20 रुपये से कम हो तो वह व्यक्ति गरीबी की रेखा से नीचे माना जाएगा। शहरी तथा ग्रामीण क्षेत्रों के लिए आय की राशि अलग-अलग बताई गई है। (बम्बई के लिए 1990 में यह राशि 200 रुपये प्रतिमाह बताई गई।) यह राशि प्रति व्यक्ति प्रतिदिन 2400 कैलोरी खरीदने के लिए आवश्यक धन के आधार पर आँकी गई है। ग्रामीण क्षेत्रों के लिए यह राशि 1988 में 122 रुपये थी। ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी की रेखा से नीचे के लोगों की संख्या के संबंध में भिन्न-भिन्न अनुमान हैं। 1977-78 में यह आँका गया कि 51 प्रतिशत ग्रामीण आबादी (25 करोड़ 20 लाख) गरीबी की रेखा से नीचे है। 1987-88 में यह अनुमान लगाया गया कि लगभग 45 प्रतिशत ग्रामीण जनता ( 26 करोड़ 10 लाख) गरीबी की रेखा से नीचे थी। यद्यपि प्रतिशत की दृष्टि से कमी आई, किन्तु जनसंख्या में वृद्धि के कारण कुल संख्या के हिसाब से गरीबी की रेखा के नीचे रहने वालों में बढ़ोत्तरी हो गई। संख्या के बारे में अलग-अलग अनुमान होने के बावजूद यह सर्वमान्य तथ्य है कि गरीबी के शिकार लोगों की संख्या बहुत अधिक है। शहरों में गरीबी से नीचे रहने वाले लोगों की संख्या 1987-88 में 7 करोड़ 70 लाख (प्रतिशत) आँकी गई। 1990 में ग्रामीण तथा शहरी दोनों तरह के क्षेत्रों में गरीबी की रेखा से नीचे के लोगों की संख्या लगभग 35 करोड़ बताई गई है।

तालिका 1: ग्रामीण-शहरी स्थिति द्वारा गरीबी व्याप्तता अनुपात: सम्पूर्ण भारत और 14
प्रमुख राज्य (1993-94 से 1999-2000) (गरीबी की रेखा से नीचे जनसंख्या का प्रतिशत)
राज्य ग्रामीण शहरी
1993-94 1999-2000 1993-94 1999-2000
सम्पूर्ण भारत 39.36 36.35 30.37 28.76
आन्ध्र प्रदेश 27.97 25.48 35.44 32.28
असम 58.25 61.78 10.13 12.45
बिहार 64.41 58.85 45.03 45
गुजरात 28.62 26.22 28.86 21.7
हरियाणा 30.52 14.86 13.4 13.79
कर्नाटक 37.73 38.5 32.41 24.55
केरल 33.95 26.5 28.2 31.89
मध्य प्रदेश 36.93 39.35 46.02 46.29
महाराष्ट्र 50.21 50 33.52 32.16
उड़ीसा 59.12 62.67 36.99 34.27
पंजाब 17.61 14.24 6.79 6.74
राजस्थान 25.92 15.01 30.6 24.36
तमिलनाडु 37.27 39.37 37.83 29.82
उत्तर प्रदेश 39.08 29.87 34.23 36.39
पश्चिम बंगाल 54.15 56.16 20.97 16.74

टिप्पणियाँ: 1993-94 के लिए राज्य विशिष्ट गरीबी रेखाओं को कृषि-श्रमिक उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (ग्रामीण जनसंख्या के लिए और उद्योग-श्रमिक उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (शहरी जनसंख्या के लिए) का संदर्भ लेकर मुद्रास्फीति हेतु समायोजित किया गया है।

स्रोत: सुन्दरम् , के., ‘‘इम्प्लॉयमण्ट एण्ड पॉवर्टी इन 1990‘‘ज: फर्दर रिजल्ट्स फ्रॉम एन.
एस.एस. 55थ राउण्ड इम्प्लॉयमण्ट-अनइम्प्लॉयमण्ट सर्वे, 1999-2000, इकान्मिक
एण्ड पॉलिटिकल वीकली, 11 अगस्त 2001, पृष्ठ 3039-49।

हाल के वर्षों में अखिल भारतीय स्तर पर गरीबी की रेखा से नीचे रहने वाले लोगों के अनुपात में गिरावट आयी है। तथापि, राज्यों के बीच अनेक क्षेत्रीय भिन्नताएँ हैं। पुनः, कुछ राज्यों में जबकि शहरी गरीबी का विस्तार कम हुआ है, ग्रामीण गरीबी बढ़ी है। उदाहरण के लिए, कर्नाटक, उड़ीसा, तमिलनाडु तथा पश्चिम बंगाल में। तथापि, हरियाणा व केरल के मामले में जबकि ग्रामीण गरीबी घटी है, शहरी गरीबी अंशतः बढ़ी है। असम और मध्य प्रदेश के उदाहरण में, ग्रामीण व शहरी दोनों ही क्षेत्रों में गरीबी का विस्तार बढ़ा है।

आय वितरण में विषमता
आय के वितरण में घोर विषमता मौजूद है। ग्रामीण क्षेत्रों में कुल आय में नीचे के 20 प्रतिशत लोगों का हिस्सा केवल 4 प्रतिशत है, जबकि ऊपर के 10 प्रतिशत लोगों का 36 प्रतिशत आय पर अधिकार है। इसी प्रकार, शहरों में नीचे के 20 प्रतिशत लोगों का हिस्सा मात्र 9 प्रतिशत है, जबकि ऊपर के 10 प्रतिशत लोगों का हिस्सा 42 प्रतिशत है। यह स्थिति अमीरों तथा गरीबों के बीच मौजूद चैड़ी खाई की द्योतक है। उपभोग व्यय के मामले में भी यही स्थिति दिखाई देती है। देश में ऊपर के 20 प्रतिशत लोग 42 प्रतिशत भाग का उपभोग करते हैं, जबकि नीचे के 20 प्रतिशत लोग केवल 10 प्रतिशत उपभोग के हकदार हैं। भूमि वितरण की पद्धति से भी ‘‘सम्पन्न‘‘ तथा ‘‘विपन्न‘‘ के बीच व्यापक अंतर की पुष्टि होती है। देश की कुल कृषि योग्य भूमि का 50 प्रतिशत हिस्सा लगभग 15 प्रतिशत किसानों के पास है, जबकि 50 प्रतिशत किसानों के हाथों में 20 प्रतिशत से भी कम भूमि है। यद्यपि आँकड़ों की पूर्ण सत्यता पर आपत्ति की जा सकती है, किन्तु इसमें कोई संदेह नहीं है कि संपदा, आय, भूमि तथा उपभोग के बँटवारे के मामले में घोर असंतुलन व्याप्त है। धन-सम्पत्ति के दोषपूर्ण बँटवारे के फलस्वरूप एक-तिहाई जनसंख्या के पास इतने साधन भी नहीं रहते कि वे अपनी बुनियादी जरूरतें पूरी कर पाएँ। इसका सीधा परिणाम यह निकलता है कि बड़ी संख्या में लोग या तो गरीबी की रेखा से नीचे अथवा इस रेखा के करीब जीवन बिताने को विवश हैं और दूसरी ओर थोड़े से लोग धन-सम्पत्ति जमा कर रहे हैं। इस स्थिति को देखते हुए यह आशंका होती है कि गरीब तथा अमीर का यह अंतर क्या कभी दूर हो भी पाएगा? उत्पादन के साधनों – सम्पत्तियों, भूमि, स्वामित्व तथा अतिरिक्त साधनों के असमान वितरण से गरीबी पैदा होती है तथा आर्थिक, राजनीतिक और नौकरशाही ताकतों एवं निहित स्वार्थों से बने सत्ता ढाँचे के द्वारा इसे बराबर पुष्ट किया जाता है। निर्धनता के कारणों की चर्चा करते हुए असमानता को एक प्रमुख कारण बताया गया था। इसी प्रकार निर्धनता केवल आर्थिक विषय नहीं है, बल्कि इसके राजनीतिक तथा समाजशास्त्रीय आयाम भी हैं।

सारांश
निर्धनता के वैचारिक तथा व्यावहारिक दोनों पक्ष प्रस्तुत करने के उद्देश्य से इकाई को विभिन्न भागों में विभाजित किया गया है। निर्धनता की परिभाषा में यह भी बताया गया है कि गरीबी का आकलन कैसे किया जाता है निर्धनता के कारणों तथा परिणामों पर भी प्रकाश डाला गया है। इस इकाई में अंतिम भाग में भारत में गरीबी की व्यापकता तथा उसे दूर करने की नीतियाँ और कार्यक्रमों का संक्षेप में उल्लेख किया गया है। निर्धनता पर प्रायः आर्थिक दृष्टि से विचार किया जाता है। इस इकाई में यह भी बताया गया है कि गरीबी के कई आयाम हैं। यहाँ विशेष बल निर्धनता के समाजशास्त्रीय पहलू पर दिया गया है। इसलिए निर्धनता की समस्याओं को हल करने के लिए बहु-आयामी दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है। यहाँ इन पर भी चर्चा की गई है।

प्रश्न : 1) निर्धनता तथा उसके परिणामों की व्याख्या कीजिए। अपना उत्तर पाँच-सात पंक्तियों में लिखिए।

उत्तर : 1) निर्धनता के कई परिणाम हैं। इनमें से एक परिणाम है निर्धनता की संस्कृति। इस संस्कृति में गरीब लोग शोचनीय स्थितियों में रहना सीखते हैं। उनकी यह उप-संस्कृति उस समाज की संस्कृति से भिन्न होती है, जिसमें वे रहते हैं। उसके अलावा निर्धन लोग प्रायः गरीबी की रेखा से नीचे जीवन बिताते हुए सामाजिक दृष्टि से अलग-थलग होते जाते हैं।