अग्रानुबंध और पश्चांनुबंध क्या है | अग्र अनुबंध और पश्च अनुबन्ध किसे कहते है सहलग्नता परिभाषा contract in hindi

contract in hindi meaning types अग्रानुबंध और पश्चांनुबंध क्या है | अग्र अनुबंध और पश्च अनुबन्ध किसे कहते है परिभाषा pre contract and post contract definition in hindi ?

सहलग्नता (अनुबंध) की प्रकृति
अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों के बीच विद्यमान सहलग्नता की पहचान निम्न रूप में की जा सकती है:
ऽ पश्चानुबंध (बैकवर्ड लिंकेज) और
ऽ अग्रानुबंध (फॉरवर्ड लिंकेज)
पश्चानुबंध का अभिप्राय, उद्योग अथवा फर्म और इसके आदानों के आपूर्तिकर्ताओं के बीच संबंध से है। उद्योग के उत्पादन में परिवर्तन का प्रभाव इराके आदानों के आपूर्तिकर्ताओं पर पड़ेगा तथा आदानों की माँग में परिवर्तन आएगा।

अग्रानुबंध का अभिप्राय, उद्योग अथवा फर्म और अन्य उद्योगों अथवा फर्मों जो इसके उत्पादन को आदान की भाँति उपयोग करते हैं, के बीच संबंध से है। उत्पादन अथवा मूल्य में परिवर्तन इसके उत्पादों के प्रयोगकर्ताओं पर टाल दिया जाता है।

अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्र-कृषि, उद्योग व्यापार, आधारभूत संरचना-पश्चानुबंध और अग्रानुबंध के माध्यम से एक दूसरे से नजदीकी रूप से जुड़े हुए हैं । हम अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों के बीच विद्यमान इन सहलग्नताओं की प्रकृति की विस्तारपूर्वक जाँच करेंगे।

 कृषि और उद्योग के बीच सहलग्नता
कृषि और औद्योगिक विकास दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं, और स्वतः ही अन्योन्याश्रित हैं। हम इनकी पूरकता और सहलग्नता पर दो भागों में चर्चा कर सकते हैं।
ऽ औद्योगिक विकास में कृषि क्षेत्र का योगदान।
ऽ कृषि क्षेत्र के विकास में उद्योगों का योगदान ।

औद्योगिक विकास में कृषि क्षेत्र का योगदान
साइमन कजनेत्स ने पाया कि समग्र आर्थिक विकास में कृषि क्षेत्र चार प्रकार से योगदान कर सकता है:
प) उत्पाद योगदान; अर्थात् खाद्य और कच्चा माल उपलब्ध कराना;
पपद्ध बाजार योगदान; अर्थात् गैर कृषि क्षेत्र में उत्पादक मालों और उपभोक्ता सामग्रियों के लिए बाजार उपलब्ध कराना;
पपप) उपादान योगदान; अर्थात् गैर कृषि क्षेत्र को श्रम और पूँजी उपलब्ध कराना;
पअ) विदेशी-मुद्रा योगदान; अर्थात् विविधिकृत आयातों के लिए अपेक्षित विदेशी मुद्रा अर्जित करना।

हम आगे के भागों में औद्योगिक विकास में कृषि क्षेत्र के योगदान को स्पष्ट करेंगे।

क) खाद्य आपूर्ति और औद्योगिकरण
औद्योगिकरण की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि इसके द्वारा कृषि उत्पादों के लिए माँग में भारी वृद्धि होती है और खाद्य आपूर्ति में वृद्धि न हो पाने की अवस्था में विकास की प्रक्रिया अवरुद्ध हो सकती है।

माँग में स्वतः परिवर्तनों से अलग माँग में वृद्धि की वार्षिक दर क्त्रद़मं है जहाँ द और ं क्रमशः जनसंख्या वृद्धि दर तथा प्रति व्यक्ति आय हैं और म कृषि उत्पादों के लिए आय माँग लोच है।

विकासशील देशों में खाद्य आय माँग लोच अधिक आय वाले राष्ट्रों की तुलना में काफी ज्यादा होता है। इसलिए, प्रतिव्यक्ति आय में वृद्धि के दिए गए दर का, कृषि उत्पादों की माँग पर, आर्थिक रूप से विकसित देशों की तुलना में काफी ज्यादा प्रभाव पड़ता है।

तीव्र औद्योगिकरण से प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि होती है। यदि माँग में वृद्धि के अनुरूप खाद्य आपूर्ति नहीं बढ़ती है तो खाद्य के मूल्यों में अत्यधिक वृद्धि होगी जिससे मजदूरी दर में वृद्धि करने के लिए दबाव बढ़ेगा और इसका दुष्प्रभाव औद्योगिक लाभ, निवेश और वृद्धि पर पड़ेगा।

यह संभव है, कि आंतरिक माँग-आपूर्ति संतुलन को बनाए रखने के लिए आयात द्वारा खाद्यान्नों की घरेलू आपूर्ति का अंतर पूरा किया जाए। किंतु इस तरह के कार्य से एक अन्य असंतुलन पैदा होता है जिससे इस बार अर्थव्यवस्था के बाह्य क्षेत्र में असंतुलन पैदा होता है जिसका घरेलू क्षेत्र पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। खाद्यान्न आयात का देश के भुगतान-संतुलन पर भारी दबाव पड़ सकता है। इसका अर्थ यह भी हुआ कि एक देश को पूँजीगत माल जैसे मशीनों, तकनीकी ज्ञान इत्यादि का अधिक जरूरी आयात छोड़ने पर बाध्य होना पड़े। यदि ऐसा होता है तो इससे विकास की संभावना और क्षीण हो जाएगी।

ख) उद्योग के लिए आदान
उद्योग के लिए आवश्यक दो महत्त्वपूर्ण आदान सिर्फ कृषि क्षेत्र से प्राप्त किए जा सकते हैं। ये हैं:
(प) कच्चा माल और (पप) श्रम।

सभी प्रौद्योगिकीय और वैज्ञानिक परिवर्तन के बावजूद भी उद्योगों के लिए यह संभव नहीं है कि वे कृषिगत कच्चे मालों जैसे कपास, जूट, गन्ना, चर्म इत्यादि की आपूर्ति के बिना काम चला सकें। यह निश्चितता के साथ कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि किसी विशेष वर्ष के दौरान कृषि फसलों का बर्बाद हो जाना उद्योग के लिए भी विनाशकारी होता है क्योंकि परिणामस्वरूप कच्चे मालों की आपूर्ति ठप पड़ जाती है।

इसी प्रकार, विकासशील अर्थव्यवस्था के कृषि क्षेत्र में जनसंख्या का अधिकांश हिस्सा नियोजित होता है। औद्योगिकरण की प्रक्रिया जैसे-जैसे आगे बढ़ती है, श्रम की आवश्यकता भी बढ़ती जाती है तथा इस आवश्यकता को केवल कृषि क्षेत्र से श्रम निकाल कर ही पूरा किया जा सकता है। यदि मजदूरों को कृषि क्षेत्र से निकाल कर उन्हें औद्योगिक क्षेत्र में लगाना है तो कृषि उत्पादकता बढ़ाना अत्यधिक जरूरी है ताकि उन्हें वहाँ से निकालना संभव हो सके। ज्यों-ज्यों अधिक से अधिक मजदूर कृषि क्षेत्र से बाहर निकलते जाते हैं; शेष मजदूरों को अपनी उत्पादकता जरूर बढ़ानी चाहिए, ताकि आवश्यक खाद्यान्न आपूर्ति को बनाए रखा जा सके।

ग) पूँजी विनिर्माण के स्रोत
एक विकासशील देश में राष्ट्रीय आय का मुख्य अंश कृषि क्षेत्र से उत्पन्न होता है। यदि कृषि क्षेत्र सुविकसित है, तो यह औद्योगिक क्षेत्र में पूँजी विनिर्माण में शुद्ध योगदान कर सकता है। इस दृष्टिकोण के समर्थन में तीन तर्क दिए जाते हैं:

प) उद्योग की तुलना में कृषि में पूँजी-उत्पादन अनुपात, सापेक्षिक रूप से कम है इसलिए कृषि क्षेत्र में केवल अल्प पूँजी निवेश करके उत्पादकता बढ़ाने की गुंजाइश अधिक है।
पप) क्षेत्रगत व्यापार की स्थिति (टर्स ऑफ ट्रेड) की कृषि के पक्ष में और सुधारने की जोरदार प्रवृत्ति होती है जिसके फलस्वरूप गैर-कृषि आय की तुलना में कृषि आय में वृद्धि अपेक्षाकृत अधिक होती है।
पपप) खेतिहर जनसंख्या का परम्परागत रूप से उपभोग स्तर सामान्यतः कम होता है, और इसमें कृषि विकास के फलस्वरूप आय में होने वाली वृद्धि के अनुरूप बढ़ोत्तरी होने की संभावना नहीं होती है।

घ) विदेशी मुद्रा का स्रोत
अपने शैशवावस्था में उद्योग न सिर्फ नगण्य विदेशी मुद्रा अर्जित करता है वरन् इसे इसकी आवश्यकता भी अधिक होती है । उद्योग को स्थानीय स्तर पर उत्पादित नहीं हो रहे मशीनों, प्रौद्योगिकी और अन्य आदानों की भी आवश्यकता होती है और जिसके लिए विदेशी मुद्रा की जरूरत पड़ती है। यदि कृषि प्राथमिक उत्पादों के निर्यात बिक्री से विदेशी मुद्रा नहीं अर्जित करता है, तो देश को फिर भुगतान संतुलन की समस्या का सामना करना पड़ेगा जिससे औद्योगिकरण का कार्यक्रम बाधित होगा।

ङ) औद्योगिक उत्पादों के लिए बाजार
उद्योग कुशलतापूर्वक कार्य कर सके इसलिए सुदृढ़ और सुविकसित बाजार की आवश्यकता होती है। ऐसे अनेक उद्योग हैं जिनके लिए समकालीन प्रौद्योगिकी और बड़े पैमाने की मितव्ययिता का लाभ उठाने के लिए न्यूनतम व्यवहार्य आकार का होना आवश्यक है।

विकासशील देशों में औद्योगिक मालों की थोक माँग कृषि पर प्रत्यक्ष रूप से निर्भर जनसंख्या से आता है। यदि कृषि क्षेत्र में लोगों की आय उनकी जीवन निर्वाह आवश्यकताओं से अधिक नहीं होती है, तो वे उद्योग की आवश्यकताओं के अनुरूप बाजार उपलब्ध नहीं करा सकेंगी। जो कि इसकी स्थापना और सतत् विकास के लिए जरूरी है। औद्योगिक उपभोक्ता सामग्रियों की माँग को कृषि क्षेत्र दो प्रकार से प्रभावित करता है:
प) बढ़ा हुआ कृषि उत्पादन और बढ़ रही आय औद्योगिक वस्तुओं के माँग में वृद्धि को उत्प्रेरित करती है।
पप) उद्योग पर कृषि का प्रभाव भी ‘‘व्यापार की स्थिति‘‘ (ज्मतउे व िज्तंकम) के माध्यम से कार्य करता है। कृषि के पक्ष में व्यापार की स्थिति में सुधार से शहरी क्षेत्रों में गैर खाद्य मदों के लिए माँग पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा, ग्रामीण क्षेत्र में व्यापार की स्थिति का प्रभाव आवश्यक रूप से एक दिशा में नहीं होगा। कम आय समूहों के मामले में, शहरी क्षेत्र की भाँति ही प्रभाव होगा, अधिक आय समूहों के मामले में माँग पर नकारात्मक प्रभाव को कृषि वस्तुओं के मूल्यों में बढ़ोत्तरी से आय में हुई वृद्धि को निष्प्रभावी किया जा सकता है। व्यापार की स्थिति में वृद्धि का समग्र प्रभाव जनसंख्या के सभी वर्गों के लिए संयुक्त प्रभाव पर निर्भर करेगा।

इस प्रकार, कृषि क्षेत्र में निष्पादन, उत्पादन परिणाम और ‘‘व्यापार की स्थिति‘‘ प्रभावों दोनों के माध्यम से औद्योगिक उपभोक्ता वस्तुओं के माँग को प्रभावित कर सकता है।

संक्षेप में, औद्योगिकरण के कार्यक्रम में बढ़ती हुई कृषि उत्पादकता का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है और यह एक महत्त्वपूर्ण शर्त है जिसे किसी अर्थव्यवस्था के आत्मधारित विकास की प्रक्रिया के लिए तैयार होने से पूर्व पूरा किया जाना अनिवार्य है।

बोध प्रश्न 1
1) आप अर्थव्यवस्था के संरचनात्मक रूपान्तर से क्या समझते हैं?
2) अर्थव्यवस्था के विकास के साथ इसकी संरचना में किस प्रकार के परिवर्तन होते हैं?
3) अग्रानुबंध और पश्चांनुबंध के बीच भेद कीजिए?
4) विकासशील अर्थव्यवस्था में तीव्र औद्योगिकरण की प्रक्रिया में कृषि क्षेत्र के चार योगदानों का
उल्लेख कीजिए।