कम्पोजिटी या ऐस्टरेसी – कुल क्या है ? (compositae or asteraceae family in hindi) नाम लक्षण पौधे नाम

(compositae or asteraceae family in hindi)  कम्पोजिटी या ऐस्टरेसी कुल क्या है ? नाम लक्षण पौधे नाम किसे कहते है ?

कम्पोजिटी अथवा ऐस्टरेसी – कुल (compositae or asteraceae family) :

(सूर्यमुखी कुल , लेटिन , compositus = संयुक्त , पुष्पक्रम के सन्दर्भ में ग्रीक (Aster) = star अथवा तारा , अरीय मुंडक अथवा radiate heads)
वर्गीकृत स्थिति : बेन्थैम और हुकर के अनुसार –
प्रभाग : एन्जियोस्पर्मी
उपप्रभाग : डाइकोटीलिडनी
वर्ग – गेमोपेटेली
श्रृंखला : इनफेरी
गण – एस्टेरेल्स
कुल – एस्टेरेसी अथवा कम्पोजिटी।

कम्पोजिटी कुल के विशिष्ट लक्षण (diagnostic features of family compositae)

  1. अधिकांश सदस्य शाकीय , यदाकदा ही क्षुप अथवा कठलता अथवा वृक्ष।
  2. तेल अथवा लेटेक्स नलिकाएँ उपस्थित।
  3. पर्ण सम्मुख अथवा एकान्तर , अननुपर्णी।
  4. पुष्पक्रम मुंडक अथवा केपीटूलम।
  5. पुष्प पंचतयी , द्विलिंगी अथवा एकलिंगी अथवा बन्ध्य।
  6. बाह्यदल पुंज पूर्णतया रोम अथवा पैपस में रूपांतरित।
  7. दलपुंज नलिकाकार , द्विओष्ठी , कीपाकार अथवा जिव्हाकार।
  8. पुंकेसर पाँच , परागकोष युक्त कोषी।
  9. जायांग द्विअंडपी , अंडाशय अधोवर्ती , एककोष्ठीय , बीजांडविन्यास आधारीय।
  10. फल , सिप्सेला।

प्राप्तिस्थान और वितरण (occurrence and distribution)

यह न केवल द्विबीजपत्री पौधों , अपितु आवृतबीजी पौधों के सर्वाधिक महत्वपूर्ण और बहुत बड़े कुलों में से एक है। ऐस्टेरेसी आवृतबीजी पौधों का दूसरा सबसे बड़ा कुल है जिसमें लगभग 960 वंश और 20000 प्रजातियाँ सम्मिलित की गयी है जो कि पुष्पधारी पौधों की कुल संख्या का 10% से अधिक है। इस कुल के सदस्य प्राय: विश्व के सभी भागों में पाए जाते है। भारत में एस्टरेसी के लगभग 138 वंश और 708 प्रजातियाँ पायी जाती है जो मुख्यतः हिमालय और दक्षिणी पश्चिम भारत के पर्वतीय क्षेत्रों में उगती है। बेसी के अनुसार कम्पोजिटी अथवा एस्टेरेसी कुल पौधों में विकासीय प्रवृतियों की चरम सीमा निरुपित करता है। सभी दृष्टियों से इसे आवृतबीजी पौधों के सर्वाधिक विकसित कुलों में रखा जा सकता है।

कायिक लक्षणों का विस्तार (range of vegetative characters)

स्वभाव और आवास : इस कुल के अधिकांश सदस्य एकवर्षीय या बहुवर्षीय शाक है , कुछ सदस्य जैसे सूरजमुखी अथवा हेलियेन्थस एनुअस क्षुप है , लेकिन वृक्ष बहुत ही कम है जैसे – सेनेसियो मेग्नीफिकस , वरनोनिया आरबोरिया और ल्यूकोमेरिस। कुछ सदस्य जैसे मिकेनिया स्केंडेंस काष्ठीय आरोही होते है जबकि केजुलिया एक दलदली पादप है।
मूल : प्राय: शाखित मूसला जड़ पायी जाती है लेकिन डहेलिया में गुच्छित जड़ें पायी जाती है।
स्तम्भ : प्राय: शाखित , ठोस और बेलनाकार अथवा धारीदार और रोमिल होता है , कुछ पौधों के तनों में दुधिया रस पाया जाता है। हाथीचक अथवा में तना कंद में रूपांतरित हो जाता है।
पर्ण : प्राय: एकान्तरित , कभी कभी सम्मुख जैसे – एजेरेटम में चक्रिक जैसे – यूपेटोरियम में। अननपुर्णि , सरल , जालिकावत लेकिन कोरिम्बियम में समान्तर शिराविन्यास पाया जाता है।

पुष्पीय लक्षणों का विस्तार (range of floral characters)

पुष्पक्रम : इस कुल क लाक्षणिक पुष्पक्रम मुंडक होता है। यह एक विशेष प्रकार का रोचक पुष्पक्रम है जो असीमाक्षी पुष्पक्रम की एक श्रेणी कणिश अथवा शुकी से व्युत्पन्न हुए है। यहाँ पुष्पक्रम के आधारीय भाग में सहपत्रकी का एक परिचक्र पाया जाता है और पुष्पावलि वृंत के उर्ध्वाधर रूप से संपीडित हो जाने से यह चपटी , शंक्वाकार , उत्तल अथवा प्याले जैसी अवतल आकृति ग्रहण कर लेता है। प्राथमिक मुंडक प्राय: असीमाक्ष , समशिख अथवा संयुक्त मुंडकों में व्यवस्थित रहते है। मुंडकों के नीचे उपस्थित बन्ध्य सहपत्र चक्र एक सुरक्षात्मक वृत के रूप में कार्य करते है लेकिन विल्केसिया में बंध्य सहपत्रों का निचक्र अनुपस्थित होता है और सबसे बाहरी सहपत्रों के अक्ष में भी पुष्प होते है। उर्वर सहपत्र शल्की अथवा कागज जैसे होते है , इन्हें पेली (palae) कहते है। वरनोनीया में पेली अनुपस्थित होते है।
प्रत्येक मुंडक पर कुछ से लेकर असंख्य , अवृंत पुष्प लगे रहते है , जिनको पुष्पक अथवा florets कहते है।
एकाइनोप्स : के मुण्डक पर केवल एक ही पुष्पक पाया जाता है। पुष्पधर अथवा पुष्पासन विभिन्न प्रकार की संरचना प्रदर्शित करते है , जैसे –
(1) चपटा अथवा चौड़ा उत्तल – हेलियेंथस
(2) लम्बवत अथवा शंक्वाकार – रुडबेकिया।
(3) गहरा अवतल – इपाल्टिस।
(4) गोल गुम्बदाकार – स्पाइलेन्थस।
वैसे तो पुष्पासन स्पंजी होता है जैसे हेलियेन्थस में लेकिन यह ठोस जैसे – मैट्रिकेरिया में अथवा माँसल जैसे साइनेरा में अथवा खोखला जैसे टेजेटिस में हो सकता है।

केपीटूलम में पुष्पको का व्यवस्थाक्रम और प्रकार (types and arrangement of flowers in the capitulum)

दलपुंज की प्रकृति के अनुसार , कम्पोजिटी कुल में तीन प्रकार के पुष्पक , मुख्यतः मुंडकों में पाए जाते है , ये है –
1. नलिकाकार : इस प्रकार के पुष्पकों में नलिकाकार दलपुंज पाया जाता है जो ऊपरी सिरे पर पाँच स्पष्ट घटक अथवा दंत (5 fid) दर्शाता है , इसकी नलिकावत संरचना लम्बी होती है। उदाहरण – वरनोनिया।
2. जिव्हिकाकार : ऐसे पुष्पकों का दलपुंज पट्टी के समान अथवा जिव्हा के समान होता है , इनकी नलिकावत संरचना छोटी और पाँचों दलपत्र संयुक्त होकर एक चपटी पट्टी दर्शाते है। पट्टी ऊपरी भाग में पंच अथवा तीन दंती होती है। उदाहरण – लोनिया।
3. द्विओष्ठी : इस प्रकार के पुष्पक द्विओष्ठी दलपुंज युक्त होते है। ऊपरी ओष्ठ में 2 दल होते है जो ऊपरी सिरे पर द्विदन्ती और निचले ओष्ठ में तीन दल , अंतिम सिरे पर त्रिदन्ती पाए जाते है। उदाहरण – लगासिया की कुछ प्रजातियाँ।
मुंडक में उपस्थित पुष्पक द्विलिंगी अथवा एकलिंगी अथवा बन्ध्य हो सकते है।
यदि मुंडक पर उपस्थित सभी पुष्पक एक ही प्रकार के हो तो इसे समपुष्पी अथवा समांगी और यदि विभिन्न प्रकार के हो तो ऐसे मुंडक को विषमपुष्पी अथवा विषमांगी कहा जाता है। समपुष्पी मुंडक में सभी पुष्पक या तो नलिकाकार हो सकते है जैसे ऐजेरेटम और वरनोनिया में या जीभीकाकार हो सकते है जैसे – सोन्कस और लोनिया में। विषमपुष्पी मुंडकों में पुष्पकों के व्यवस्थाक्रम और संरचना में अनेक विविधताएँ पायी जाती है।
विभिन्न उदाहरणों में यह भी देखा गया है कि अनेक मुंडक , एकत्र अथवा संयुक्त होकर सुसंहत और यौगिक मुंडक बना लेते है। इसे संयुक्त पुष्पक्रम कहते है। संयुक्त मुंडक में पुष्पों की संख्या सिमित होती है , जैसे – फ्लेवेरिया में 20 , ऊँट कटेली अथवा इकाइनोप्स और लगासिया में केवल एक।
पौधे पर मुंडकों के व्यवस्थाक्रम में भी विविधता देखी जा सकती है। ट्राइडेक्स में एकल शीर्षस्थ मुण्डक पाया जाता है और सोन्कस में अनेक मुंडक द्विशाखी ससीमाक्षी क्रम में पाए जाते है जबकि लोनिया में यौगिक गुच्छ में अनेक मुंडक होते है।
पुष्प : अवृंत , सहपत्री अथवा असहपत्री , त्रिज्या सममित अथवा एकव्यास सममित , सामान्यतया पंचतयी , ऊपरीजायांगी , कोटुला में पुष्प चतुष्तयी , उभयलिंगी अथवा एकलिंगी या बंध्य।
बाह्यदलपुंज : अधोवर्ती अंडाशय के शीर्ष पर और दलपुंज नलिका के निचले हिस्से में समानित बाह्यदलपुंज शल्क अथवा रोम अथवा शूक या कंटकों में रूपान्तरित पाया जाता है। इन्हें पैपस (pappus) कहते है।
दलपुंज : दलपत्र सामान्यतया 5 , कभी कभी 4 , संयुक्त और विभिन्न आकृतियों जैसे नलिकाकार , कीपाकार , द्विओष्ठी अथवा जिभिकाकार पाए जाते है। संयुक्त होने के कारण दलों की संख्या , दलपुंज नलिका के उपरी सिरे पर उपस्थित दंतों की संख्या द्वारा निरुपित होती है। विन्यास कोरस्पर्शी कोटूला के मादा अरीय पुष्पकों और जैन्थियम के मादा पुष्पों में दलपुंज अनुपस्थित पाए जाते है।
पुमंग : पुंकेसर 5 , दललग्न और युक्तकोशी होते है अर्थात पुंकेसरों में पुंतन्तु एक दुसरे से स्वतंत्र लेकिन परागकोश संयुक्त एक दूसरे से जुड़ें हुए पाए जाते है। ये परागकोश , द्विकोष्ठी , आधारलग्न और अंतर्मुखी होते है।
जायांग : द्विअंडपी , युक्तांडपी , अंडाशय सदैव अधोवर्ती , एककोष्ठीय और आधारीय बीजांडविन्यास प्रदर्शित करता है। वर्तिका सरल और वर्तिकाग्र द्विपालित होता है। अंडाशय के ऊपर एक मकरंदधर चक्रिका पायी जाती है।
फल और बीज : सिप्सेला फल। यह सरल सिप्सेला फल। यह सरल , शुष्क एकीनीयल , चपटा और इसके शीर्ष पर शूक , रोम अथवा शल्क पाए जाते है। बीज अभ्रूणपोषी और एक सीधे भ्रूण युक्त होते है।
परागण और प्रकीर्णन : प्राय: कीट परागण पाया जाता है लेकिन कभी कभी परपरागण की अनुपस्थिति में स्वपरागण होता है। अधिकांशत: फलों का प्रकीर्णन वायु द्वारा होता है लेकिन कुछ सदस्यों जैसे जैन्थियम के फलों पर शूल होने से इनका प्रकीर्णन जंतुओं द्वारा होता है।
पुष्पसूत्र :
नलिकाकार उभयलिंगी पुष्पक –
जीभिकाकार उभयलिंगी पुष्पक –
जीभिकाकार बन्ध्य पुष्पक –
जीभिकाकार मादा पुष्पक –

आर्थिक महत्व (economic importance)

I.  खाद्य पदार्थ –
  1. लेक्टूका सैटाइवा – सलाद , इसकी पत्तियाँ प्रयुक्त की जाती है।
  2. हेलियेंथस ट्यूबेरोसस – हाथीचक , इसके कंद खाए जाते है।
  3. ट्रेगोपोगोन पोरीफोलियम – इसकी जड़ें खाने के काम आती है।
  4. डहेलिया ट्यूबरोसा – इसकी कंदिल मूल को सब्जी बनाने में प्रयुक्त किया जाते है।
  5. साइकोरियम इंटाइबस – इसकी जड़ों में चिकोरी नामक पाउडर बनता है जो कॉफ़ी में मिलाने के काम आता है।
  6. टेरेक्सेकस आफीसिनेल – इसके भुने हुए बीज कॉफ़ी के स्थान पर प्रयुक्त होते है।
II. रंजक :
कार्थेमस टिंक्योरियस – कुसुम अथवा करडी के पुष्पों से लाल नारंगी रंजक प्राप्त होता है जो कपडा रंगने में काम आता है।
III. औषधियाँ :
  1. आर्टीमीसिया साइना से सेंटोनिन नामक औषधि प्राप्त होती है जो आँतों के कीड़े निकालने के काम में आती है।
  2. साइनेरा स्कोलीमस – से इन्सुलिन प्राप्त होती है जो मधुमेह की प्रभावी औषधि है।
  3. स्पाइलेन्थस केल्वा – गोलघुंडी के मुंडक दांत दर्द की प्रभावी औषधि है।
  4. ट्राइडेक्स प्रोकम्बेन्स – घाव पत्ता और ब्लूमिया लेसरा ककरौंदा की ताजा पत्तियाँ घाव से बहते खून (रक्त स्त्राव) को रोकने में प्रभावी होती है और कीटाणुनाशक का कार्य करती है।
  5. वरनोनिया साइनेरिया – सहदेवी की पत्तियों का रस पेट दर्द और उदर रोगों का प्रभावी उपचार है।
IV. कीटाणुनाशक :
1. पाइरेथ्रम सिनेरीफोलियम सूखे पाउडर किये मुंडकों से पाइरेथ्रम नामक कीटनाशी प्राप्त होता है।
इस कुल के अनेक पौधों जैसे टेजेटिस पेटुला , गेंदा आदि की जड़ों से कृमिनाशक स्त्राव होता है। अत: राजस्थान और उत्तरी भारत के किसान निमेटॉड कृमि से फसलों को बचाने के लिए इनको अपने खेत की मेड़ों पर लगाते है।
V. तेल :
  1. हेलियेन्थस एनुअस – सूरजमुखी के बीजों से खाद्य तेल प्राप्त होता है।
  2. कार्थेमस टिन्क्टोरियस – करडी अथवा कुसुम के बीजों से प्राप्त तेल ह्रदय रोगियों के लिए लाभदायक होता है। इस तेल का प्रयोग रंग रोगन और साबुन उद्योग में भी किया जाता है।
  3. एक्लिप्टा एल्बा – भांगरा अथवा भृंगराज – इस पौधे से प्राप्त तेल बालों के लिए औषधिक महत्व का है।
  4. मेट्रिकेरिया कमोमिला – इसके सुगन्धित तेल प्राप्त होता है जो इत्र के रूप में प्रयोग किया जाता है।
VI. सजावटी पौधे :
  1. टेजेटिस पेटुला – गैंदा।
  2. कोसमोस बाइपिन्नेटस – हजारा।
  3. डहेलिया पिन्नेटा – डहेलिया।
  4. क्राइसेंथिमम केरीनेटम – गुलदाउदी।
  5. जिनिया इलेगेन्स – बादशाह पसंद।
  6. हेलियेन्थस एनुअस – सूरजमुखी।
  7. एस्टर ग्रेन्डीफ्लोरस – एस्टर।
  8. केलेन्डुला आफीसिनेलिस – पेपर फ्लावर।
VII. चारा और पशु आहार :
1. साइकोरियम इन्टाइबस – कासनी की पत्तियों और कोमल टहनियों को पशु चारे के रूप में प्रयुक्त किया जाता है।
VIII. अन्य :
ब्लूमिया बालसेमीफेरा के तने से चीनी कपूर प्राप्त किया जाता है।

कम्पोजिटी कुल के प्रारूपिक पादप का वानस्पतिक विवरण (botanical description of typical plant from compositae)

हेलियेन्थस एनुअस लिन. (helianthus annuus linn) :
स्थानीय नाम – सूरजमुखी।
प्रकृति और आवास – वार्षिक , शाक , प्राय: 5 से 7 फीट ऊँचा , बगीचों में सुन्दर पीले मुंडकों के लिए उगाया जाता है।
मूल – शाखित मूसला जड़।
तना : उधर्व , शाकीय लेकिन नीचे कठोर , बेलनाकार , अरोमिल , शाखित।
पर्ण : स्तम्भीय और शाखीय , सवृंत , अननुपर्णी , सरल , अंडाकार ह्र्दयाकार , दांतेदार , एकान्तरित , निशिताग्र , अल्परोमिल , खुरदरी , शिराविन्यास एकशिरीय जालिकावत।
पुष्पक्रम : मुंडक प्रकार का होता है , जिसमें दो तरह के पुष्पक पाए जाते है। अरीय या रश्मि पुष्पक जो जीभिकाकार औ बन्ध्य होते है और बिम्ब पुष्पक जो नलिकाकार और द्विलिंगी होते है , पुष्पकों के बीच छोटे और शल्कवत सहपत्र , जिनको पेली कहते है , पाए जाते है , अर्थात मुंडक अथवा केपिटूलम पेलियायुक्त होता है।
रश्मि पुष्पक अथवा अरीय पुष्पक : सहपत्री , अवृन्त , अपूर्ण , अनियमित , एकव्याससममित , जीभिकाकार , बन्ध्य।
बाह्यदलपुंज : अनुपस्थित , शल्कवत पैपस में रूपान्तरित।
दलपुंज : पीले रंग के 3 अथवा 5 , संयुक्तदली , जिभिकाकर।
पुमंग : अनुपस्थित।
जायांग : अनुपस्थित।
बिम्ब पुष्पक – पर्ण , अवृंत , उभयलिंगी , नियमित , त्रिज्यासममित , उपरिजायांगी , नलिकावत।
बाह्यदल पुंज : समानित अथवा अनुपस्थित , पैपस में रूपांतरित , चिरलग्न।
दलपुंज : दल 5 , संयुक्त दलीय , नलिकाकार दंतिल , 5 दंत दलों की संख्या निरुपित करते है , विन्यास कोरस्पर्शी।
पुमंग : पुंकेसर 5 , दल लग्न और युक्तकोशी , पराग कोष द्विकोष्ठी , आधारलग्न और अंतर्मुखी।
जायांग : द्विअंडपी , युक्तांडपी , अंडाशय , अधोवर्ती , एककोष्ठीय , बीजांडन्यास आधारीय , वर्तिका सरल और लम्बी , वर्तिकाग्र द्विशाखित।
फल : सिप्सेला , एकिन।
पुष्प सूत्र :
रश्मि पुष्पक –
बिम्ब पुष्पक –
कम्पोजिटी या एस्टेरेसी को द्विबीजपत्री पौधों का सर्वाधिक उन्नत या आधुनिक कुल कहा जाता है क्योंकि –
  1. इसकी सदस्य संख्या सर्वाधिक है अर्थात इस कुल में लगभग 20000 प्रजातियाँ सम्मिलित की गयी है जो कि विश्व में प्रत्येक प्रकार की जलवायु और आवासों में पायी जाती है।
  2. इस कुल के अधिकांश सदस्य शाक है , वनस्पतिशास्त्रियों के अनुसार शाकीय पादप , वृक्षों और क्षुपों की तुलना में प्रगतिशील माने जाते है।
  3. इस कुल के सदस्यों में पर्ण सामान्यतया अननुपर्णी होती है।
  4. पर्ण प्राय: सम्मुख अथवा चक्रीय पर्णविन्यास में पायी जाती है।
  5. मुंडक पुष्पक्रम की उपस्थिति संभवतः इस कुल का सर्वाधिक उन्नत लक्षण है , यहाँ अनेक छोटे छोटे पुष्प मिलकर एक बड़े पुष्प जैसी आकृति धारण कर लेते है और इनमें श्रम विभाजन भी पाया जाता है। रश्मि पुष्पक परागण के लिए कीटों को आकर्षित करते है , जबकि बिम्ब पुष्पको का मुख्य कार्य फल और बीज का निर्माण करने का होता है।
  6. पुष्प अक्सर एक व्यास सममित होते है।
  7. पुष्प उपरिजायांगी होते है।
  8. बाह्यदलपुंज समानित और पैपस में रूपान्तरित होता है।
  9. दलपुंज संयुक्त और विन्यास कोरस्पर्शी होता है।
  10. पुंकेसर संख्या में सिमित अर्थात केवल 5 होता है और ये दललग्न और युक्तकोशी होते है।
  11. अंडपों की संख्या भी सिमित केवल दो , अंडाशय एककोष्ठीय और अधोवर्ती और आधारीय बीजांडविन्यास की उपस्थिति।
  12. परागण के लिए परागकणों की उचित सुरक्षा व्यवस्था , मकरंद इस प्रकार का होता है कि केवल विशेष प्रकार के कीट ही यहाँ परागण कर सकते है।
  13. पुष्पों के पास पास होने से एक ही कीट , एक बार में ही सैंकड़ो पुष्पों का परागण होता है।
  14. फलों के प्रकीर्णन के लिए पैपस की व्यवस्था।
अत: उपर्युक्त विशिष्टताओं के कारण इस कुल को द्विबीजपत्री पौधों का सर्वाधिक उन्नत अथवा आधुनिक कुल कहा जाता है।

प्रश्न और उत्तर

प्रश्न 1 : पैपस पाया जाता है –
(अ) हेलियेन्थस में
(ब) माल्वा
(स) पाइसम
(द) कोरियेन्ड्रम में
उत्तर : (अ) हेलियेन्थस में
प्रश्न 2 : आधारीय बीजांड विन्यास मिलता है –
(अ) सोलेनेसी में
(ब) एस्टेरेसी में
(स) ब्रेकीकेसी
(द) माल्वेसी
उत्तर : (ब) एस्टेरेसी में
प्रश्न 3 : एस्टेरेसी का प्रमुख लक्षण है –
(अ) शाकीय स्वभाव
(ब) उपरिजायांगी अवस्था
(स) मुंडक पुष्पक्रम
(द) कीट परागण
उत्तर : (स) मुंडक पुष्पक्रम
प्रश्न 4 : लेक्ट्यूका सदस्य है –
(अ) रेननकुलेसी
(ब) लेग्यूमिनोसी
(स) मालवेसी
(द) ऐस्टेरेसी का
उत्तर : (द) ऐस्टेरेसी का
प्रश्न 5 : ऐस्टेरेसी का चारा उत्पादक पौधा है –
(अ) सइकोरियम
(ब) ऐजेरेटम
(स) ऐस्टर
(द) जीनिया
उत्तर : (अ) सइकोरियम