एककालिक की परिभाषा क्या है | एक कालिक किसे कहते है at a One time in hindi meaning definition

at a One time in hindi meaning definition एककालिक की परिभाषा क्या है | एक कालिक किसे कहते है ?

शब्दावली
जाति: जसकी अखिल भारतीय वर्ण योजना के प्रति आस्था समेत कई एक प्रदत्त समू विशेषताएं हैं।
एककालिक: घटना या विश्लेषण जो किसी अन्य घटना या विश्लेषण के साथ-साथ हो या किया जाए।

कुछ उपयोगी पुस्तकें
बेटीली, आंद्रे, 1965, कास्ट, क्लास ऐंड पॉवर, बंबई, ऑक्सफर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस
घुरये. जी.एस., कास्ट, क्लास ऐंड ऑक्यूपेशन, बंबई, पॉपुलर बुक डिपो, इससे पूर्व यह पुस्तक कास्ट. ऐंड रेस और कास्ट ऐंड क्लास शीर्षक के तहत छपी थी।
सिंह, योगेन्द्र, 1973, मॉडर्नाइजेशन ऑफ इंडियन ट्रेडिशन, थॉमसन प्रेस (इंडिया) लि.. फरीदाबाद ।
श्रीनिवास. एम.एन.. 1966, सोशल चेंज इन मॉडर्न इंडिया, बर्कले. कैलीफोर्निया यूनिवर्सिटी प्रेस।

भारत में जाति और वर्ग
इकाई की रूपरेखा
उद्देश्य
प्रस्तावना
जाति-मॉडल की मूल विशेषताएं
ढांचागत परिवर्तन
आर्थिक संबंध
सत्ताधिकार और प्रभावी जाति
जाति और वर्ग में गठजोड़
एककालिक विश्लेषण
नियामक व्यवस्था के रूप में जाति
अनुभवजन्य वास्तविकता के रूप में जाति
जाति चुनाव
जाति और गतिशीलता
वर्ग की व्याख्या
जाति-क्रम परंपरा और वर्ग-संघर्ष
हिंसा और शोषण की घटनाएं
सारांश
शब्दावली
कुछ उपयोगी पुस्तकें
बोध प्रश्नों के उत्तर

उद्देश्य
सामाजिक स्तरीकरण की प्रक्रिया को पूरी तरह से समझने के लिए जाति और वर्ग दोनों बेहद जरूरी हैं। इस इकाई को पढ़ने के बाद आप:
ऽ जाति मॉडल की बुनियादी विशेषताओं को समझ जाएंगे और फिर यह समझा सकेंगे कि सामाजिक स्तरीकरण में वर्ग किस तरह भूमिका अदा करता है,
ऽ यह जान जाएंगे कि जाति और वर्ग किस तरह गठजोड़ बनाकर असमानताओं को प्रबलता प्रदान करते हैं,
ऽ यह बता पाएंगे कि समाज में जाति कुछ निश्चित कार्यों के निर्वाह में एक बुनियादी इकाई के रूप में किस तरह काम करती है,
ऽ भारतीय समाज जाति स्तरीकरण किस तरह से ‘वर्ग संघर्ष‘ या ‘सर्वहारा चेतना‘ को कुंद करती है, और,
ऽ जाति सामाजिक गतिशीलता और वर्ग संबंधों को किस तरह प्रभावित करती है, यह समझ सकेंगे।

प्रस्तावना
इस इकाई में जाति के विश्लेषण में उठने वाले कई कठिनाइयों को समझने का प्रयास किया गया है। असल में इस विषय पर जो भी साहित्य उपलब्ध है वह इन कठिनाइयों को सुलझाने के बजाए और संदेह, शंकाएं उत्पन्न करता है। जहां इसमें वर्ण और जाति में स्पष्ट भेद नहीं मिलता, वहीं विश्लेषण के एक पहलू पर दूसरे पहलू की एवज में अलग-अलग किस्म के परिप्रेक्ष्य उभरते हैं। आनुमानिक सिद्धांतों की औपनिवेशिक नृजातिकारों (जातीयताओं का अध्ययन करने वाले विद्वानों) के लेखन में कमी नहीं है जिन्हें प्रमाणों की पुष्टि के लिए आज भी प्रयोग किया जाता है। अनेक अध्ययनकर्ताओं ने भारतीय समाज में मौजूदा स्थितियों की गति को अनदेखी करके उसे एक ‘जाति समाज‘ के रूप में प्रचारित किया है। इस जाति को वर्ग व्यवस्था का तार्किक विलोम माना गया, जो व्यक्तिवाद और विशेषकर पश्चिम से जुड़ा है।

सारांश
जाति के ढांचागत पहलुओं विशेषकर इसके आर्थिक और राजनीतिक आयामों को अभी तक कम करके आंका गया है। इसलिए सामाजिक स्तरीकरण के सांस्कृतिक पहलुओं के विश्लेषण से हमें भारत के सामाजिक ढांचे की गहरी जानकारी मिल सकती है दोनों क्योंकि एक दूसरे से अभिन्न हैं। जैसा कि हमने बताया, है वर्ग जाति के परिप्रेक्ष्य में ही काम करते हैं और जाति संघर्ष वर्ग या किसान संघर्ष भी है। ऊंची और निम्न जातियों के बीच विभाजन और टकराव काफी हद तक भूस्वामियों और बटाईदारों या खेतिहर मजदूरों के बीच होने वाले संघर्षों के रंग में ही होते हैं।

जाति और वर्ग संबंधों और उनके रूपांतर को समझने के लिए चार बुनियादी बातें ध्यान में रखी जानी चाहिए। ये हैंः (प) द्वंद्वात्मकता (पप) इतिहास, (पपप) संस्कृति और (पअ) संरचना।

द्वंद्वात्मकता समाज के संज्ञानात्मक ढांचे में विभाजन को ही नहीं कहते हैं । द्वंद्वात्मकता उन प्रभावशाली धारणाओं को कहते हैं, जो अंतर्विरोध उत्पन्न करते हैं। यह समाज के असमान टुकड़ों और महिला और पुरुष के बीच संबंधों को उजागर करता है। इतिहास किंवदंतियों, शास्त्रों और आदर्शवादी रचनाओं पर आधारित अनुमान नहीं होता, बल्कि यह मौजूदा कार्य स्थिति और संबंधों का महत्वपूर्ण दस्तावेज होता है । इसी प्रकार संस्कृति में सिर्फ सांस्कृतिक प्रथाएं, अनुष्ठान, मृत्यु कर्मकांड इत्यादि ही शामिल नहीं होते. बल्कि खेल के नियमों. संपन्न. विशेषाधिकार प्राप्त लोगों और वंचितों के संबंधों की प्रकृति और प्रतिरोध या सहमति की विधियों-रीतियों को परिभाषित करता है। सामाजिक ढांचा निस्संदेह द्वंद्वात्मक अंतर्विरोधों, ऐतिहासिक शक्तियों और खेल के नियमों की उपज है। मगर यह उभरता है तो यह ‘संघटन बन जाता है और फिर यह भी इतिहास की धारा को तय करने वाली एक तरह की शक्ति बन जाता है। इस तरह सामाजिक ढांचा एक निश्चित काल में समाज के विभिन्न खंडों के बीच संबंध ही नहीं है बल्कि उससे कहीं ज्यादा यह एक ऐतिहासिक उत्पाद और वास्तविकता है। इन तत्वों को संरचनात्मक-ऐतिहासिक दृष्टिकोण के केन्द्र में रखकर हम जाति और वर्गीय ढांचे में होने वाले बदलावों को ‘‘रचनांतरण प्रक्रिया‘‘ मान सकते है।

उपरोक्त निदर्शनात्मक व्याखाओं से ढांचागत परिवर्तन की जो प्रक्रियाएं निकलती हैं उन्हें हम इस प्रकार नोट कर सकते हैंः

प) अधोगामी गतिशीलता और सर्वहाराकरण
पप) ऊर्ध्वगामी गतिशीलता और बुर्जुआकरण
पपप) ग्रामीण लोगों के लिए शहरी आमदनी और गांव में गतिशीलता
पअ) ग्रामीण गैर-कृषि आमदनी और गतिशीलता।

अगर हमें भारत में जाति और वर्ग को पूरी तरह से समझना है तो इन्हीं विषयवस्तुओं पर अधिक ध्यान देना होगा।