आर्य समाज की स्थापना कब और किसने की थी , संस्थापक का नाम क्या है arya samaj was founded by in hindi

arya samaj was founded by in hindi when and who is founder of आर्य समाज की स्थापना कब और किसने की थी , संस्थापक का नाम क्या है ?

आर्य समाज की स्थापना (Foundation of Arya Samaj)
1875 में अपने बम्बई के दौरे के समय स्वामी दयानन्द ने सबसे महत्वपूर्ण एवं दूरगामी निर्णय लिया । यह निर्णय ‘‘आर्य समाज‘‘ की स्थापना के बारे में था । इस संगठन का उद्देश्य, उनके प्रवचनों का प्रचार करके उसकी जड़े जमाना एवं उत्तरी भारत में दृढ़तापूर्वक सुधार लाना था। इससे हिन्दू धर्म तथा भारतीय राष्ट्रवाद के विकास पर बहुत बड़ा प्रभाव पड़ा। स्वामी दयानन्द के मस्तिष्क में एक संगठन का विचार काफी समय से था। उसने पहले कई बार एक संस्था के गठन करने का प्रयास सन् 1874 में बनारस में किया था परन्तु दोनों प्रयास प्रायः असफल रहे थे। 16 जनवरी, 1875 में, उसने राजकोट में, आर्य समाज को स्थापित किया, परन्तु यह विकसित नहीं हो पाया । सन् 1875 में ही दोबारा उसने अहमदाबाद में आर्य समाज को स्थापित किया, परन्तु यह प्रयास भी असफल रहा। फिर 10 अप्रैल, 1875 में उसने बम्बई में आर्य समाज को स्थापित किया । यह प्रयास बहुत ही सफल रहा। बम्बई में अनेक घटकों के योगदान के फलस्वरूप उसके प्रयासों के लिए उचित वातावरण की प्राप्ति हुई। इसका एक कारण यह भी था कि पहले की अपेक्षा इस बार स्वामी दयानन्द ने इस संगठन के लिए ज्यादा अच्छी तरह से तैयारी की थी। सुधार के बारे में उसके विचार पूर्ण रूप से परिपक्व हो गये थे। उसके द्वारा लिखी गई पुस्तक ‘‘सत्यार्थ प्रकाश‘‘ भी मौजूद थी, जिसमें उन्होंने शिक्षा के अपने दर्शन से शुरुआत की थी। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि माता-पिता का यह कर्तव्य है कि वे अपने बच्चों को शिक्षित एवं सच्चरित्र बनाएं। उन्होंने प्रस्ताव किया कि 5 वर्ष की आयु से ही बच्चों को संस्कृत, हिन्दी तथा साथ ही विदेशी भाषाएं सीखना शुरू कर देना चाहिए। इस तरह उन्होंने त्रिभाषा-फार्मूला प्रस्तुत किया। वे यह भी मानते थे, कि माता-पिता अपने बच्चों को अनुशासित रखें और विधिवत रूप से सामाजिक प्राणी बनाएं। दयानन्द लड़कियों व लड़कों दोनों के लिए 8 वर्ष की आयु से गंभीर रूप से शिक्षा दिये जाने के पक्ष में थे, किन्तु वे उनके सह-शिक्षा संस्थानों के पक्षधर नहीं थे। सभी विद्यार्थियों से आशा की जाती थी कि वे ब्रह्मचर्य का पालन करें। दयानन्द हालांकि, शिक्षा के माध्यम से पुरुष व स्त्री की समानता के पक्षधर थे। उन्होंने बाल-विवाह का दृढ़ता के साथ विरोध किया और कहा कि लड़कियों का विवाह 16 वर्ष तथा लड़कों का विवाह 25 वर्ष की आयु से पहले नहीं किया जाना चाहिए।

स्वामी दयानन्द ने, जो सबसे महत्वपूर्ण एवं गैर परंपरागत कदम उठाये थे, उनमें से एक वह प्रस्ताव था कि जिन हिन्दुओं ने ईसाई एवं इस्लाम धर्म इत्यादि को स्वीकार कर लिया था उन्हें वापस हिन्दू धर्म में सम्मिलित किया जाए। इसको प्रायः शुद्धि संस्कार द्वारा बहुसंख्या में एक साथ किया गया।

आर्य समाज के संस्थापक से अनेक महत्वपूर्ण प्रश्न उभर के आते हैं। समाज में आर्य समाज की भूमिका का विचार स्वामी दयानन्द के मस्तिष्क में किस प्रकार आया एवं उसने आर्य समाज में स्वयं अपनी भूमिका को किस रूप में देखा था? इस संगठन में सम्मिलित होने के इच्छुक व्यक्ति कौन थे एवं किन कारणोंवश वे ऐसा करने को प्रेरित हुए थे? किस प्रकार की संस्था बन के तैयार हुई एवं इसके अनुरूप संस्थाएं कौन-कौन सी थी? अब हम इन प्रश्नों पर विचार करेंगे।

इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि स्वामी दयानन्द ऐसे समस्त हिन्दुओं को एक सूत्र में बांधना चाहते थे। जो कुछ आम मुद्दों के बारे में एक मत थेः प) धार्मिक एवं सामाजिक सुधारों के प्रति निष्ठाय पप) वैदिक धर्म के पुनः प्रचलन के माध्यम से हिन्दू धर्म में सफलता प्राप्त करने का दृढ़ संकल्प। एक समाज के रूप में संगठित किये जाने से, ये व्यक्ति सारे समाज पर प्रभाव डालने में एक-दूसरे की सहायता करने में अधिक प्रयत्नशील एवं प्रभावकारी होंगे। अपने विचारों का प्रचलन या प्रचार करने के लिए स्वामी दयानन्द अपने अनुयायियों की संस्था बनाने के इच्छुक नहीं थे। उनकी मान्यता थी कि सुधार जनसाधारण द्वारा स्वयं किये जाने चाहिए। अपने व्यक्तिगत जीवन में सुधार लाना एवं अपने समाज को ऊपर उठाने का दायित्व स्वयं व्यक्तियों को होता है। व्यक्तिगत रूप से या अपने प्रकाशनों के माध्यम से स्वामी दयानन्द व्यक्तियों को सदैव सलाह प्रदान करता रहेगा। परन्तु वह उनका नेता नहीं बनेगा। उसको अपने स्वयं के ज्ञान की सीमाओं का आभास था ऐवं उन्होंने अपने अनुयायियों के किसी वर्ग या किसी भी एक व्यक्ति का गुरू बनना अस्वीकार कर दिया था।

स्वामी दयानन्द के अनेक व्याख्यानों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि शुरू से ही उन्होंने यह धारणा बना ली थी कि आर्य समाज में वह प्रमुख के बजाय किसी भी अन्य रूपं में अपनी भूमिका निभाएंगे। उनका यह विचार नहीं था कि आर्य समाज कुछ खास व्यक्तियों का अंतरंग स्वर्ग बन जाए, बल्कि वह चाहते थे कि यह एक ऐसा विस्तृत एवं खुला हुआ संगठन बने जिसमें वेदों में धार्मिक आस्था रखने वाले समस्त हिन्दू एक हो जाएं। कुछ वर्षों के पश्चात जब समाज विकसित होकर, अधिक प्रबल हो गया तो आर्य समाज के प्रति स्वामी दयानन्द के इन मूल विचारों में धीरे-धीरे और अधिक दृढ़ता आ गई। समाज की स्थापना के लिए जो गोष्ठियां एवं चर्चाएं हुई थी उनमें स्वामी दयानन्द ने अपना अधिक समय नहीं दिया क्योंकि यह समय अधिकांश रूप से उसके सामान्य कार्यों में व्यतीत होता था। अपने प्रवचनों एवं प्रचार के लिए जन संबोधन को उन्होंने मुख्य साधन के रूप में उपयोग किया था । अपने जन संबोधनों में वह प्रमुख रूप से सकारात्मक मुद्दों पर अधिक जोर देते थे। आर्यों का इतिहास वेदों के बारे में ईश्वरीय ज्ञान, परमात्मा एवं आत्मा का संबंध, आचार शास्त्र एवं राष्ट्र का उत्थान। अपने भाषण में किसी प्रकार के अवरोध एवं उसके पश्चात अधिक प्रश्नोत्तरों के किसी भी सत्र का वह सदैव विरोध करते थे।

सुधार की आवश्यकता (Need For Reform)
दयानन्द का जन्म सन् 1824 में हुआ था, उस समय भारत में अंग्रेजों का शासन था। दयानन्द ब्राह्मण माता-पिता की संतान थे। उनकी शिक्षा पांच वर्ष की उम्र में शुरू हुई और आठ वर्ष की अवस्था में उनका यज्ञोपवीत संस्कार कराया गया। दयानन्द का धार्मिक तौर पर रूपान्तरण उस समय हुआ जबकि चैदह वर्ष की आयु में उनसे शिवरात्रि का व्रत रखने के लिए कहा गया। दयानन्द व उनके पिता इसके लिए एक मंदिर में गये और मध्य रात्रि तक प्रार्थना व मंत्रों का जाप होता रहा। दयानन्द ने जब एक चूहे को शिव की मूर्ति पर छलांग लगाते और प्रसाद खाते हुए देखा, तो उस घटना ने उनकी धार्मिक खोज की पृष्ठभूमि तैयार कर दी। उन्होंने महसूस किया कि मूर्ति स्वयं में ईश्वर नहीं हो सकती। यह ऐसा युग था, जब यातायात एवं संचार के माध्यम अपेक्षाकृत रूप में आदिकालीन थे। छापेखाने या अच्छे समाचार पत्र बहुत कम संख्या में थे। ब्रिटिश सरकार को असली भय इस बात का था, कि छापेखानों एवं आधुनिक शिक्षा से राजद्रोह की स्थिति उत्पन्न हो जाएगी। उस काल में अंग्रेजों ने, अंग्रेजी शासन व्यवस्था को चलाने के लिए आर्थिक रूप से सस्ते, अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त लिपिकों को बड़े पैमाने पर उत्पन्न करने की नीति को अपनाया हुआ था। इस नीति का मूल उद्देश्य, अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त व्यक्तियों को सांस्कृतिक एवं मानवीय रूप से पतन का शिकार बनाना था।

अंग्रेजी शासन के द्वारा पैदा की गई समस्याएं तथा भारत औपनिवेशिक उत्पीड़न से उत्पन्न अनेक प्रकार की बुराइयां, उस समय की महत्वपूर्ण समस्याएं थीं। भारतीयों का बहुसंख्या में ईसाई मत में परिवर्तित होना, छुआछूत की कुरीतियां जिससे शूद्रों का जीवन अमानवीय स्तर का हो गया था। गिरा हुआ महिलाओं का स्तर, पर्दा-प्रथा, बाल-विवाह, निरक्षरता तथा सबसे आर्थिक दुर्भाग्यपूर्ण सती प्रथा प्रमुख समस्याएं थी। इन समस्याओं ने स्वामी दयानन्द को विकल एवं बेचैन कर दिया था। इसके अतिरिक्त भारत को औद्योगीकरण किये गये इंग्लैंड के एक कृषि उपनिवेश में परिवर्तित करने की नीति के फलस्वरूप उत्पन्न बहुसंख्या में बढ़ती हुई गरीबी एक समस्या थी।

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दयानन्द ने वैदिक शिक्षा प्राप्त की थी और उनके पिता, उनके शिक्षकों में से एक थे। उनकी शिक्षा यजुर्वेद से आरंभ हुई। (जो कि चार वेदों में से एक है) तथा व्याकरण के नियमों तथा उनके प्रयोग को सीखते हुए संस्कृत में ही आगे शिक्षा जारी रही। तर्कशास्त्र, दर्शन, विधि तथा आचार-शास्त्र आदि की शिक्षा भी दी गई। किन्तु दयानन्द महज एक विद्यार्थी ही नहीं बल्कि उससे कुछ अधिक थे। वे ज्ञान प्राप्त करने को उत्सुक थे। उन्होंने जीवन और मृत्यु की समस्या पर चिंतन किया।

अपनी चिंतनशीलता से मुक्ति पाने में उनकी मदद करने के लिए उनका दूसरी बार विवाह निश्चित किया गया, किन्तु अपने विवाह की तिथि से एक सप्ताह पहले 21 वर्ष की आयु में वे घर से भाग निकले। वे साधु बन गये और इस बात का उन्हें कभी भी पछतावा नहीं हुआ। 15 वर्ष तक (1845 से 1860 ई. तक) दयानन्द ने समूचे भारत का भ्रमण किया और अनेक दूसरे साधुओं व पंडितों से भेंट करके ज्ञान की अपनी खोज जारी रखी। दयानन्द की शिक्षा तब पूरी हुई जब कि उनकी मुलाकात स्वामी विरजानन्द सरस्वती से हुई। स्वामी विरजान्द ने हिन्दू धर्म में व्याप्त तमाम कुरीतियों को दूर करने का दायित्व स्वामी दयानन्द को सौंपा। उन्होंने दयानन्द से कहा कि उन्हें दुनिया में एक मुक्त शिक्षक के रूप में प्रवेश करना चाहिएं। उन्होंने दयानन्द को इस बात की शपथ दिलाई कि वह अपना जीवन सत्य का प्रचार-प्रसार करने हेतु समर्पित करेंगे। इसके बाद से दयानन्द ने अपना सारा जीवन अपने गुरू को दिये गये वचन को निभाते हए बिताया।

इरादा यह था कि भारत केवल ब्रिटिश कारखानों के लिए कच्चा माल पैदा करेगा और मशीन से बने उनके माल के लिए एक बंधुआ बाजार के तौर पर काम करेगा। यह सब भारत के पिछड़ेपन, अंधविश्वासों, अनेक पंथों और उपमतों की मौजूदगी के चलते, जो कि एक दूसरे पर कीचड़ उछाल रहे थे, संभव हो सका। और अंततः ब्राह्मण पुरोहितों का वर्चस्व था, जिन्होंने भक्ति जैसे अन्य आन्दोलनों को अपने विरोध द्वारा शुरू में मुश्किलों में डाल दिया। था, समस्याओं का यह पहाड़ दयानन्द को हमेशा अखरने लगा और उन्होंने महसूस किया कि उन्हें इसके लिए कुछ करना चाहिए। आर्य समाज की उत्पत्ति के बारे में उचित जानकारी प्राप्त करने के लिए हमें मानसिक रूप से उस काल में जाना आवश्यक है जब उपनिवेशवाद अपनी चरम सीमा पर था।

भारत पर विदेशियों का शासन एक हजार वर्षों से भी अधिक काल तक रहा है, इतने लंबे काल की गुलामी ने भारत की आत्मा को कुचल के रख दिया था। दक्षिण में मराठों, पेशवाओं और राजपूतों की उन्नति के कुछ उज्ज्वल उपवादों एवं चाल्लुकों, चोलों और पंजाब में महाराजा रणजीत सिंह के उत्थान को छोड़ कर सम्पूर्ण सहस्त्र वर्षीय काल पतन एवं रक्त सोखने वाली गतिविधियों से भरा हुआ था। विदेशी शासन ने भारतीयों को बुरी तरह आश्रित बना डाला था। कर्मकांडों व रीतिरिवाजों समेत सभी मामलों में ब्राह्मण पुरोहितों को सर्वशक्तिमान निर्णायक माना जाता था। कोई भी गृहस्थ ब्राह्मण पुरोहित की सलाह के बिना कोई कार्य नहीं कर सकता था। यह पुरोहित प्रायः ज्यादा शिक्षित नहीं होता था, परन्तु अपना “पत्रा‘‘ एवं ‘‘पंचाग‘‘ साथ लिए फिरता था एवं कोई भी व्यक्ति उसकी पुस्तक या उसके स्वयं के अधिकार को चुनौती नहीं दे सकता था। जन्म से लेकर मृत्यु तक जितने संस्कार होते थे, उनमें इस पुरोहित की बात को सर्वमान्य माना जाता था। इस पुरोहित को अच्छे व्यंजन एवं अच्छा पारितोषक देकर प्रसन्न रखा जाता था। हालांकि यह रेखांकित किया जाना चाहिए कि सभी भारतीय ब्राह्मणों के अंधे शासन के अधीन नहीं थे, और इस काल में भक्ति, सूफीवाद तथा वीरशैववाद जैसे आन्दोलन उभरे और फले-फूले।

हिन्दू रूढ़िवादियों में छुआछूत का प्रधान शासक था। वे अपने लाखों शूद्र भाइयों को नहीं छूते थे। यदि वे ऐसा करते थे तो उन्हें सफाई करने के लिए स्नान करना पड़ता था। उनके साथ भोजन करने का तो प्रश्न ही नहीं उठता था। हिन्दु अनेक मतों एवं उपमतों में विभाजित थे और उन सबके अपने-अपने पुरोहित एवं मुख्य धर्म ग्रंथ अलग हुआ करते थे। प्रश्न करने या पूछताछ करने का नियम नहीं था, उनके धर्म ग्रंथों में जो कुछ लिखा होता था एवं उसका जो भी अनुवाद उनका पुरोहित करता था, वही उनका धर्म बन जाता था। ये आलेख अति पवित्र माने जाते थे, हालांकि कोई भी चालाक पंडित मूल लेखक या ऋषि के नाम से स्वयं अपने अथवा अपने गुट के निहित स्वार्थी या विशेषाधिकारों को बढ़ावा देने के लिए अपने द्वारा ईजाद किये मतों को इन आलेखों में सम्मिलित कर सकता था। इस प्रकार के प्रक्षेप यद्यपि कम होते थे, परन्तु उन्होंने मूल पाठ के अर्थ का अनर्थ करके भारी भ्रम पैदा कर दिये और इन पाठ्यों की व्याख्या को गुमराह कर दिया। स्वामी दयानन्द ने समस्त हिन्दुओं को वेदों के अन्तर्गत एक करने की चेष्टा की। उसने सोचा कि वेदों में प्रक्षेप करना असंभव था।

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स्वामी दयानन्द ने हिन्दूवाद के बारे में अपने दृष्टिकोण से प्रवचन देना शुरू किया। उसने अनेक विद्वान पंडितों के साथ, अनेक वाद-विवाद किये। उसने संपूर्ण उत्तर भारत में काफी दूर-दूर तक भ्रमण किया। सन् 1872 में ब्रह्म समाज के नेताओं के साथ हुई एक गोष्ठी के फलस्वरूप उसने अपने प्रवचन संस्कृत भाषा के बजाय हिन्दी भाषा में देना शुरू कर दिया, जिससे उसको हिन्दू समुदाय के मध्य वर्गीय व्यक्तियों से अधिक अच्छी प्रतिक्रिया प्राप्त हुई। हिन्दी बोलने वाले, मध्य वर्गीय व्यक्तियों की सहायता से उसने स्कूलों एवं मासिक पत्रिकाओं की स्थापना की। बहुत संख्या में पुस्तकों एवं पर्यों को छपवाया गया। सन् 1875 में बम्बई में आर्य समाज की स्थापना की गई (इस इकाई का अनुभाग 26.3 देखें)। इसका अस्तित्व हालांकि वहां बना रहा परन्तु उत्तरी भारत में स्वामी दयानन्द के विचारों का स्वागत किया गया।

आर्य समाज का संगठन (Organisation of Arya Samaj)
आर्य समाज का एक प्रभावशाली सांगठनिक ढांचा था। आर्य समाज की प्रत्येक शाखा अपने आप में एक इकाई है और ये गांवों, कस्बों व शहरों में स्थित हैं।

प) सदस्यता के तहत 10 सिद्धांतों अथवा नियमों को स्वीकार करना शामिल है। (इनकी व्याख्या के लिए अनुभाग 26.3.2 देखें), साथ ही उद्देश्य के लिए मासिक अथवा वार्षिक आमदनी का एक प्रतिशत हिस्सा संगठन को देने तथा आम सहयोग व बैठकों में भागीदारी आदि भी शामिल हैं। इस तरह की साप्ताहिक बैठकों में हवन, भजन तथा प्रार्थनाएं आदि की जाती हैं। कोई साधारण व्यक्ति, चाहे उसकी जाति कुछ भी क्यों न हो, इन बैठकों का संचालन करता है।
पप) आर्य समाज के मसलों का संचालन कार्यकारिणी समिति करती है। पांच पदाधिकारी होते थे तथा उनके अतिरिक्त अन्य सदस्य होते थे, सभी का चुनाव सदस्यों द्वारा ही किया जाता था। पदाधिकारी हैं: क) अध्यक्ष, ख) उपाध्यक्ष, ग) सचिव, घ) लेखाकार, ड) पुस्तकालयाध्यक्ष । इन सदस्यों से समाज की गतिविधियों में बढ़ चढ़ कर भाग लेने की आशा की जाती है। जैसा कि कहा जा चुका है कि इन सदस्यों का चुनाव वार्षिक मतदान द्वारा होता है और पुनः निर्वाचन की इजाजत है।
पपप) इसके बाद एक प्रान्तीय सभा है जहां समाज के प्रतिनिधि एक अहम भूमिका निभाते हैं। प्रत्येक आर्य समाज को अपनी कुल आमदनी का दस प्रतिशत हिस्सा सभा को देना होता है। सभा स्वयं भी विधियाँ इकठठा कर सकती है।
पअ) सर्वोच्च निकाय है, अखिल भारतीय सभा, यह सभी प्रान्तों के प्रतिनिधियों से मिलकर बनती है और इन्हें आप में जोड़ती है। युवाओं के आर्य समाज भी हैं जो कि ऐसे सदस्यों को भर्ती करने के मामले में उदार रहते हैं जो ईश्वर में आस्था रखते हैं तथा सदस्यता के लिए मामूली मासिक शुल्क अदा करते हैं।
अप) यह इंगित किया जाना चाहिए कि समाज के अपने सभा स्थल होते हैं, वह उन्हें कहीं भी आयोजित कर सकता है, चाहे वे स्वयं उनके भवन हों अथवा अन्य कोई स्थान हो, जोकि उपयुक्त हों और उपलब्ध हो सकें।