a person who goes on a pilgrimage is called in hindi तीर्थ यात्रा करने वाला व्यक्ति को क्या कहते हैं ?
शब्दावली
प्रति संरचना (Antistructure) ः यह संरचना का उलटा नहीं बल्कि तमाम सामाजिक संरचनाओं का स्रोत है।
विधान (Canon) ः कोई भी निर्धारित कथन, नियम या मानदंड। नियम या मान्यता आधारित शास्त्रों के विधान का अर्थ है पुस्तकों की एक नियत सूची जो पवित्र शास्त्रों से संबंधित है।
बिरादरी (Communitas) ः तीर्थयात्रा के संबंध में बिरादरी का अर्थ होता है दूसरे तीर्थयात्रियों के साथ एकत्व की भावना कायम करना और तमाम सामाजिक प्रतिबंधों से वर्ग या पंथ से मुक्ति। यह तब तक चलता है जब तक तीर्थयात्री पवित्र स्थल में रहता है।
सांक्रांतिक (Liminal) ः तीर्थयात्रा पर होने, तीर्थ स्थल में जाने और लौटने की स्थिति । हम यह कह सकते हैं कि तीर्थयात्रा सांक्रांतिक वातावरण में होती है अर्थात घर और तीर्थ स्थल के दो स्थानों के बीच में होती है।
पुण्य (Merit) ः ऐसी धार्मिक रीतियाँ या प्रथाएँ जिनका उददेश्य व्यक्ति के अपने और दूसरों के भावी आध्यात्मिक कल्याण को बेहतर बनाना होता है।
पुनः एकत्रीकरण (Reaggregation) ः इसे घर आना या उस स्थान की वापसी भी कह सकते है जहाँ तीर्थयात्रा का समापन होता है।
तीर्थयात्रा (Tirtha Yatra) ः यह हिंदुओं में प्रचलित शब्द है। इसका शाब्दिक अर्थ होता है नदी के घाटों की यात्रा करना।
कुछ उपयोगी पुस्तके
अग्रवाल, बी.सी., 1980 ‘‘कल्चरल कंटूर्स ऑफ रिलीजन एंड इकॉनॉमिक्स इन ए हिन्दू यूनीवर्स‘‘, नेशनलः नई दिल्ली
झा, माखन (संपा.) 1985, ‘‘डाइमेंशंस ऑफ पिलग्रिमेज‘‘, इंटर इंडिया पब्लिकेशन: नई दिल्ली
मदान, टी.एन. (संपा.) 1991, ‘‘रिलीजन इन इंडिया‘‘, ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेसः दिल्ली
सरस्वती, वैद्यनाथ, 1975, ‘‘काशी: मिथ एंड रियलटी ऑफ ए क्लासिकल कल्चरल ट्रैडीशन, इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ एडवांस्ड स्टडी: शिमला ।
उद्देश्य
इस इकाई का उद्देश्य आपको तीर्थयात्रा के अर्थ और उसकी प्रकृति से अवगत कराना है, इस इकाई को पढ़ने के बाद, आपः
ऽ किसी एक व्यक्ति के व्यवहार और एक सामाजिक-सांस्कृतिक संस्था अर्थात दोनों को धार्मिक भावना की अभिव्यक्ति के रूप में समझते हुए तीर्थयात्रा का अर्थ और उसकी प्रकृति को समझ सकेंगे,
ऽ तीर्थयात्राओं के सामाजिक महत्व अर्थात एक कौम के सामाजिक-आर्थिक जीवन पर तीर्थयात्रा के प्रभाव और लोगों की सामाजिक एकात्मता और एकता पर तीर्थयात्रा के प्रभाव की विवेचना कर सकेंगे, और
ऽ आप व्यापक रूप से जान पाएंगे कि किस तरह से, विशेषकर भारत में, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में आए बदलाव के प्रत्युत्तर में इतिहास में से तीर्थयात्रा का उदय हुआ।
प्रस्तावना
इस इकाई की शुरुआत हम इस प्रश्न से कर रहे हैं कि तीर्थयात्रा क्या है ? फिर हम तीर्थयात्रा की परिभाषा देंगे, उसके बाद हम विभिन्न परंपराओं की तीर्थयात्राओं का विवरण देंगे, फिर हम मंदिर दर्शन सहित विभिन्न संदर्भो और विशेषताओं में तीर्थयात्राओं की संवीक्षा करेंगे। फिर हम तीर्थयात्रा के पुण्य देने वाले पक्षों की संवीक्षा करेंगे। उसके बाद हम तीर्थयात्रा के संस्थात्मक पक्ष और उससे जुड़ी पवित्रता का विवेचन करेंगे। फिर हम तीर्थस्थलों और उनकी सांक्रांतिकता और तीर्थयात्रा में शुभध्अशुभ की प्रकृति की संवीक्षा करेंगे।
अगला अनुभाग तीर्थयात्राओं की सामाजिक-ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के विषय में है। उसमें तीर्थयात्राओं के वर्गीकरण की संवीक्षा दी गई है और ष्हजष् शब्द के अर्थ की विभिन्न व्याख्याएँ दी गई हैं। इसमें भारत में तीर्थयात्राओं की निरंतरता की भी संवीक्षा की गई है। हमने तीर्थयात्राओं के सामाजिक महत्व की भी संवीक्षा की है। हमने कला और शिक्षा, भौतिक संस्कृति और अर्थव्यवस्था, और सामाजिक-राजनीतिक पक्ष में तीर्थयात्रा की संवीक्षा की है। इसकी शुरुआत हमने यात्रा के सामाजिक एकीकरण के पक्ष से की है।
सारांश
इस इकाई में हमने यह जाना की तीर्थयात्राएँ क्या हैं? इसमें तीर्थयात्राओं की परिभाषा, मंदिर जाना और पुण्यजनक पक्ष आदि पर भी हमने गौर किया। इसमें हमने तीर्थ के संस्थात्मक पक्षों और उसकी पवित्रता पर भी चर्चा की। तीर्थस्थलों, तीर्थ में शुभ-अशुभ के विचार और उसकी सांक्रांतिकता के विषय की भी समीक्षा की गई। फिर हमने टर्नर के तीर्थयात्राओं के वर्गीकरण, भारत में तीर्थयात्राओं और हज की व्याख्याओं पर भी विचार किया । अंत में हमने तीर्थयात्राओं के सामाजिक महत्व पर ध्यान केद्रित किया। इसमें टर्नर की अभिधारणा, सांक्रांतिक एकीकरण, कला एवं शिक्षा को शामिल किया गया। इसके अंतर्गत तीर्थयात्राओं के सामाजिक, राजनीतिक पक्ष और अर्थव्यवस्था को भी लिया गया । इस प्रकार हमने इस विषय पर पर्याप्त चर्चा की है।