पुष्टि मार्ग संप्रदाय क्या है | पुष्टिमार्ग की स्थापना किसने की , संस्थापक , प्रवर्तक कौन है कब हुई

पुष्टिमार्ग की स्थापना किसने की , संस्थापक , पुष्टि मार्ग संप्रदाय क्या है प्रवर्तक कौन है कब हुई ?

उत्तर : पुष्टि मार्ग संप्रदायः यह वल्लभाचार्य द्वारा लगभग 1500 ईस्वी में स्थापित वैष्णव संप्रदाय है। उनका दर्शन है कि परम सत्य केवल एक एवं एकमात्रा ब्रहम है। उनकी भक्ति भगवान कृष्ण के लिए शुद्ध प्रेम पर आधारित है। सभी अनुयायियों से कृष्ण के अपने व्यक्तिगत प्रतीक की पूजा-अर्चना करने की अपेक्षा की जाती है।

भारत में धर्म
परिचय
भारतीय उप-महाद्वीप में विविध धर्मों की एक विस्तृत शंृखला उपस्थित हैं, जिनके द्वारा यहाँ रहने वाले लोगों के नैतिकता और आचार सबंध्ंाी मूल्यों का निर्धारण होता है। कई समदुाय आपस मंे मिल-जूल कर रहते हंै तथा हमंे भांित-भाति के धर्म देखने को मिलते हैं। जैसा कि वर्ष 1893 में स्वामी विवेकानंद ने शिकागो के विश्व धर्म संसद में उद्घोषित किया थाः
‘‘मुझे उस धर्म का अनुयायी होने पर गर्व है जिसने सम्पूर्ण विश्व को सहिष्णुता तथा
वैश्विक मैत्री का पाठ पढ़ाया है और हम केवल सार्वभौमिक सहिष्णुता में ही विश्वास
नहीं करते, बल्कि हम सभी धर्मों की सत्यता को स्वीकार भी करते हैं।’’
प्रत्येक धर्म की आध्यात्मिकता पवित्रा ग्रंथों तथा उन मूर्त स्थलों में निहित है जहां लोग प्रार्थना करने को एकत्रा होते हैं। धर्म, शक्ति संपन्न लोगों के हाथ में एक ताकतवर हथियार बन गया है तथा इसका उपयोग वे साम्प्रदायिक सम्बन्धों को बनाने तथा बिगाड़ने में किया करते हैं, किन्तु भारतवर्ष साम्प्रदायिक तनावों की तुलना में धार्मिक शान्ति के अधिक वर्षों का साक्षी रहा है।

हिन्दू धर्म
हिन्दू धर्म देश के विशालतम धर्मों में से एक है, किन्तु इसकी परिधि में विभिन्न प्रकार के मत तथा पंथ पाए जाते हैं। हिंदुत्व शब्द की उत्पत्ति ‘हिन्दू’ नामक शब्द से हुई है जिसे सिन्धु नदी के आस-पास के भौगोलिक क्षेत्रा में निवास करने वाले लोगों को संबोधित करने के लिए प्रयुक्त किया गया था। मूल रूप से हिन्दू धर्म के मुख्य सिद्धांतों को पूर्व-वैदिक तथा वैदिक धार्मिक दर्शनों से लिया गया है।
श्रुतियां मनीषियों तथा ट्टषियों द्वारा उद्घाटित हुई थीं। प्राचीनतम वेद ऋग्वेद है तथा इसमें अग्नि, इंद्र, वायु, सोम इत्यादि देवताओं की स्तुति में गाए गए 1000 स्त्रोत्र हैं। सामवेद का विषय-वस्तु संगीत तथा भजन है यजुर्वेद में ऋग्वेद से संबंधित यज्ञीय स्त्रोत्र दिए गए हैं। अथर्ववेद में जादू तथा औषधियों के विषयों पर प्रकाश डाला गया है। सभी वेदों से संबंधित कुछ टीकाओं की रचना की गयी है जैसे कि ब्राह्मण साहित्य वेदों पर लिखी गयी टीका ही है। आरण्यक और उपनिषद वेदों से संबंधित अन्य साहित्य है, जहाँ आरण्यक में रहस्यवाद से संबंधित विचार शामिल हंै वहीं उपनिषदों में मनुष्य और उसके वास्तविक स्वरूप के संबंध में चिंतन किया गया है
ये धार्मिक यज्ञ तथा बलियां मुक्ताकाश में की जाती थीं किन्तु बाद में पूजा या देवी प्रतिमाओं की आराधना आरम्भ हो गयी। शीघ्र ही मंदिरों के निर्माण की आवश्यकता होने लगी, तथा बहुत-से विचारों के मिश्रण के फलस्वरूप हिंदुत्व पवित्र ग्रंथों, पूजा क्षेत्रों तथा ईश्वर से तादात्म्य स्थापित करने वाले पुजारियों के साथ एक वास्तविक धर्म बन गया। हिन्दू परम्पराओं के अनुसार, काम (आमोद-प्रमोद, कभी-कभी यौन संबंधी) तथा अर्थ की प्राप्ति के लिए प्रयत्न किया जाना चाहिए, किन्तु इन्हें प्राप्त करने के पश्चात् व्यक्ति को धर्म (साधुता) को अपना लक्ष्य बनाना चाहिए।
उपनिषदों में स्पष्ट किया गया है कि जीवन की चार अवस्थाएं होती हैंः ब्रहमचर्य (अविवाहित विद्यार्थी) जो, बाद में गृहस्थ (गृहस्वामी) बन जाता है। एक निश्चित आयु के पश्चात् वह वानप्रस्थ (एकांतवास) धारण कर लेता है तथा जीवन की अंतिम अवस्था संन्यासी (तपस्वी) की होती है। एक बार संन्यासी बन जाने के पश्चात्, व्यक्ति मुक्ति या निर्वाण की प्राप्ति की चेष्टा में रत हो जाता है। मध्यकाल में हिन्दू धर्म भक्ति आन्दोलन से आंदोलित हुआ। संतों ने संस्कृत के मूल-ग्रंथों को स्थानीय भाषाओं में अनुवादित किया तथा देवताओं के प्रति भक्ति के सन्देश को जन-जन तक पहुंचाया।

हिन्दू धर्म के अंतर्गत चार पंथ
1. वैष्णववादः अनुयायी विष्णु को सर्वोच्च भगवान मानते हैं। इस परम्परा की उत्पति ईसा पूर्व पहली शताब्दी में भगवावाद के रूप में हुई थी, इसे कृष्णवाद भी कहा जाता है। वैष्णव परम्परा के कई समुदाय या उप-शाखाएं हैं।
2. शैववादः इसमें शिव को सर्वोच्च भगवान माना जाता था। शैववाद की उत्पत्ति, वैष्णवाद से पहले ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी में वैदिक देवता रूप के रूप मानी जाती है।
3. शक्तिवादः इसमें स्त्राी या देवी को सर्वोच्च शक्ति माना जाता है। इसे तन्त्र की विभिन्न उप-परम्पराओं के लिए जाना जाता है।
4. स्मार्तवादः यह पुराणों की शिक्षाओं पर आधरित है। ये पांच देवताओं की घर में ही पूजा पर विश्वास करते हैं और सभी को समान माना जाता है। वे देवता हैं-शिव, शक्ति, गणेश, विष्णु और सूर्य। स्मार्तवाद में ब्राह्मण की दो अवधरणाओं को स्वीकार किया जाता है-सगुण ब्राह्मण यानी गुणयुक्त ब्राह्मण और निर्गुण ब्राह्मण यानी गुणों से रहित।
इन चार प्रमुख परंपराओं के अंतर्गत अनेकों पंथ या संप्रदाय हैं। ये संप्रदाय स्वायत्त प्रथाओं और मठ केंद्रों से युक्त शिक्षण परंपराएं हैं जिनमें अनुयायियों की क्रमिक पीढियों द्वारा विचारों को विकसित एंव संचारित किया जाता है। आइए हम वैष्णव और शैव परंपराओं के अंतर्गत आने वाले प्रमुख संप्रदायों की विस्तारपूवर्क चर्चा करते हैंः
वैष्णव परंपरा के अंतर्गत प्रमुख संप्रदाय
वरकरी पंथ या वरकरी सम्प्रदायः इस समुदाय के अनुयायी भगवान विष्णु के विठोबा के रूप में हुए अवतार के भक्त होते हैं और इनकी पूजा पद्धति का केन्ण् महाराष्ट्र के पंढरपूर में स्थित विठोबा का मंदिर है। इस संप्रदाय में शराब और तंबाकू के प्रति कठोर निषेध होता है। उनकी वार्षिक तीर्थयात्रा वारी में रोचक आयोजन होते हैं। वारी में, वारकरियों द्वारा समाधि से पंढरपुर तक संतों की पादुकाएं ले जाई जाती हैं। तीर्थयात्रा के दौरान रिंगन एवं धवा के आयोजन होते हैं। रिंगन के अंतर्गत, तीर्थयात्रियों की पंक्तियों के बीच पवित्रा घोड़ा दौड़ता है, जो उसके द्वारा उड़ाई धूल को पकड़ने का प्रयास करते हैं और उसे अपने माथे पर लगाते हैं। इस संप्रदाय के अंतर्गत प्रमुख व्यक्तियों में ज्ञानेश्वर (1275- 1296), नामदेव (1270-1350), एकनाथ (1533-1599), और तुकाराम (1598-1650) सम्मिलित हैं।
रामानंदी संप्रदायः वे अद्वैत विद्वान रामानंद की शिक्षाओं का अनुपालन करते हैं। यह एशिया में हिंदू धर्म के भीतर सबसे बड़ा मठ समूह है, एवं इन वैष्णव साधुओं को रामानंदी, वैरागी या बैरागी कहा जाता है।
वे राम की पूजा करते हैं जो विष्णु के दस अवतारों में से एक हैं। ये तपस्वी ध्यान करते हैं और तपस्वियों की कठोर प्रथाओं का पालन करते हैं, लेकिन उनका यह भी मानना है कि मुक्ति प्राप्त करने के लिए ईश्वर की कृपा आवश्यक होती है। वे मुख्य रूप से गंगा के मैदानों के आसपास बसे हैं। इनके दो उप-समूह त्यागी और नागा हैं।
ब्रह्म संप्रदायः यह पार-ब्रह्म या सार्वभौम निर्माता भगवान विष्णु (इसे भ्रमवश इष्टदेव ब्रह्मा नहीं समझा जाना चाहिए) के साथ संबंद्ध है। इसके संस्थापक माध्वाचार्य थे। चैतन्य महाप्रभु द्वारा प्रचारित गौड़ीय वैष्णव ब्रह्म संप्रदाय से संबद्ध है। इस्काॅन इस संप्रदाय से संबंधित है।
पुष्टि मार्ग संप्रदायः यह वल्लभाचार्य द्वारा लगभग 1500 ईस्वी में स्थापित वैष्णव संप्रदाय है। उनका दर्शन है कि परम सत्य केवल एक एवं एकमात्रा ब्रहम है। उनकी भक्ति भगवान कृष्ण के लिए शुद्ध प्रेम पर आधारित है। सभी अनुयायियों से कृष्ण के अपने व्यक्तिगत प्रतीक की पूजा-अर्चना करने की अपेक्षा की जाती है।
निम्बार्क संप्रदायः इसे हंस संप्रदाय एवं कुमार संप्रदाय के नाम से भी जाना जाता है, इसके अनुयायियों द्वारा राधा और कृष्ण जैसे इष्टदेवों की पूजा की जाती है।
शैव परंपरा के अंतर्गत प्रमुख संप्रदाय
सिद्धः वे व्यापक रूप से सिद्धों, नाथों, तपस्वियों, साधुयों, या योगियों के रूप में संदर्भित किए जाते हैं, क्योंकि वे सभी साधना का अभ्यास करते हैं। सिद्धों द्वारा कथित रूप से आध्यात्मिक पूर्णता के माध्यम से शारीरिक अमरता प्राप्त किए जाने की बात कही जाती है।
नाथपंथीः इन्हें सिद्ध सिद्धांत के रूप में भी जाना जाता है, वे गोरखनाथ और मत्स्येन्द्रनाथ की शिक्षाओं का पालन करते हैं एवं शिव के एक रूप आदिनाथ की उपासना करते हैं। अपने शरीर को निरपेक्ष वास्तविकता के ज्ञान से जागृत चेतना में रूपांतरित करने के लिए वे हठ योग की तकनीक का प्रयोग करते हैं। ये साधु एक ही स्थान पर लंबे समय के लिए कभी नहीं रहते हैं एवं निरंतर भ्रमण करने वाले यायावरों के समूह होते हैं। वे लंगोटी और धोती पहनते हैं और अपने शरीर को राख से आवृत भी करते हैं, अपने बालों को जटा-जूट के रूप में बांधते हैं, और जब वे भ्रमण करना बंद करते हैं तो धूनी नामक पवित्रा अग्नि को निरंतर जीवंत रखते हैं।
लिंगायतः इसे वीर शैव संप्रदाय के रूप में भी जाना जाता है। यह शैव परंपरा का भेद है जो कि एकेश्वरवाद में विश्वास करता है। इनकी उपासना पद्धति लिंग के रूप में भगवान शिव पर केन्द्रित होती है। यह वेदों की सत्ता और जाति व्यवस्था को नकारता है। इस परंपरा की स्थापना 12 वीं सदी में बसवण्णा द्वारा की गई थी।
दशनामी सन्यायीः वे अद्वैत वेदांत परंपरा से संबंद्ध हैं एवं आदि शंकराचार्य के शिष्य हैं, उन्हें ‘‘दश नाम सन्यायी’’ भी कहा जाता है क्योंकि वे आगे दस समूहों में विभाजित हैं।
अघोरीः वे शिव के भैरव अवतार के भक्त हैं, एवं ऐसे साधु हैं जो श्मशान भूमियों में साधना करके एवं अपने जीवन से इंद्रिय सुख, क्रोध, लोभ, मोह, भय और घृणा जैसे बंधनों को समाप्त कर पुनर्जन्म के चक्र से मुक्ति प्राप्त करने का प्रयास करते हैं। वे अतिशय तामसिक अनुष्ठान प्रथाओं में लगे रहते हैं।
सिद्धर या सिद्धः सिद्धर तमिलनाडु मूल के संत, चिकित्सक, रसायनज्ञ और रहस्यवादियों का सर्वसमावेशी वर्ग था। वे लंबे समय तक ध्यान बनाए रखने में सक्षम होने हेतु श्वास-प्रश्वासों की आवृत्ति कर करने वाले प्राणायाम के एक प्रकार के साथ-साथ, अपने शरीर को सक्षम करने के लिए विशेष गुप्त रसायनों का प्रयोग कर, आध्यात्मिक पूर्णता प्राप्त करते हैं। सिद्धरों के पास अष्टसिद्धियाँ होने की बात कही जाती थी। सिद्धरों को वर्मम नामक आत्म रक्षा की युद्ध शैली एवं चिकित्सा उपचार की संयुक्त पद्धति का संस्थापक भी माना जाता है।