तानसेन के गुरु कौन थे ? संगीत सम्राट तानसेन के गुरु कौन थे who is the guru of tansen in hindi

who is the guru of tansen in hindi तानसेन के गुरु कौन थे ? संगीत सम्राट तानसेन के गुरु कौन थे ?

उतर : तानसेन के गुरु का नाम “स्वामी हरिदास” था जो  वृंदावन के बाबा थे |

प्रश्न: ‘‘मुगलकाल में संगीतकला ने उन ऊंचाइयों को छू लिया जो बाद के समय के लिए एक पैमाना बन गया।‘‘ कथन की विवेचना कीजिए।
उत्तर: कला एवं स्थापत्य की दृष्टि से यह युग अत्यन्त विकसित था। यह विकास क्रमिक चरणों में हुआ। समय तथा मुगल सत्ता में परिवर्तन के साथ-साथ कला व स्थापत्य के क्षेत्र में भी परिवर्तन दिखाई देते हैं। कला में सम्मिलित रूप से चित्रकला एवं संगीत के विभिन्न मिश्रित लक्षण प्राप्त होते हैं। बाबर अपने साथ मध्य एशिया का संगीत लाया था। बाबर ईरानी तंबूरा बजाने में माहिर था तथा सूफियाना संगीत का अच्छा जानकार था।
अकबर के काल में संगीत का विकास
अकबर का काल संगीत कला की दृष्टि से सर्वोत्तम काल था। संगीत कला में हिन्दू-मुस्लिम शैली का प्रयोग अमीर खसरों से ही प्रारम्भ हुआ जो कि मुगल काल में अकबर के काल में भी विकसित हुई। साथ ही भारतीय राजाओं के दरबार में भी संगीत कला में विदेशी प्रभाव विद्यमान थे। अकबर, जहाँगीर व शाहजहाँ के काल में संगीत अपने चरम पर था। दरबारी संगीतकारों के अतिरिक्त बड़े-बड़े नौबत भी बने। बीन, तम्बूरा, सितार, सुरमण्डल, रबाब आदि प्रमुख वाद्य यंत्र थे। अबुल फजल के अनुसार अकबर के दरबार में 36 शासकों को राजाश्रय प्राप्त था जिनमें अकबर के दरबार में तानसेन व बाजबहादुर (मालवा का शासक) प्रसिद्ध संगीतकार थे। प्रमुख संगीतज्ञ ‘तानसेन‘ था जो ध्रुपद शैली का गायक था। तानसेन ने ध्रुपद गायन को विकसित किया जिसमें भारतीय संगीत की विशेषताएँ विद्यमान थीं। तानसेन अकबर के नवरत्नों में से एक था, जिसे अकबर को रीवां के राजा रामचन्द्र ने भेंट किया था। वृंदावन के बाबा हरिदास तानसेन के गुरू थे। तानसेन का पुराना नाम रामतनु पाण्डेय या तन्ना मिस्र था। अकबर ने तानसेन को ‘कण्ठाभरणवाणीविलास‘ की उपाधि प्रदान की। अबुल फजल ने लिखा है कि ‘तानसेन के समान गायक पिछले हजार वर्षों से भारत में नहीं हुआ।‘
दूसरा प्रसिद्ध संगीतकार बाजबहादुर मालवा का शासक था। उसे अकबर ने 2000 का मनसब प्रदान किया। अबुल फजल ने बाजबहादुर के बारे में लिखा है कि ‘वह संगीत विद्या एवं हिन्दी गीतों में अपने समय का सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति था। अकबर के काल में तानसेन तथा बाजहादुर के अतिरिक्त बैज बख्श, कुलवन्त, गोपाल, हरिदास, रामदास, सुजान खाँ, मियाँ चाँद, मियाँ लाल तथा बैजू बावरा अन्य प्रसिद्ध संगीतकार थे। बैजू बावरा अकबर के दरबार से संबंधित नहीं था तथा यह तानसेन की टक्कर का संगीतकार था। अकबर स्वयं बहुत अच्छा नक्कारा (नगाड़ा) बजाता था।
अकबर के समय ध्रुपद गायन की चार शैलियां प्रचलित थी। 1. नौहार वाणी, 2. खण्डारवाणी, 3. गौवरहारी या गौरारी वाणी, 4. डागुर वाणी। बाद में ध्रुपद का स्थान ‘ख्याल गायन शैली‘ ने ले लिया।
जहांगीर कालीन प्रमुख संगीतज्ञ थे।
जहांगीर के काल में प्रमुख संगीतज्ञों में तानसेन का पुत्र बिलास खां तथा हमजान परवेज दाद, मक्खू खां, खुर्रमदाद, छत्रखाँ, मजहद तथा जहांगीर प्रमुख थे। जहांगीर ने एक गजल गायक शौकी को ‘आनन्द खाँ‘ की उपाधि दी थी।
शाहजहाँ के काल में संगीत का विकास
शाहजहाँ संगीत मर्मज्ञ था। वह बहुत अच्छा गायक था तथा सूफियाना नृत्य का अच्छा जानकार था। उसके काल में दीवाने खास में प्रतिदिन वाद्यवादन व संगीत हुआ करता था। शाहजहाँ के समय खुशहाल खाँ व बिसराम खाँ ‘टोड़ी राग‘ के विशेषज्ञ थे। शाहजहाँ की संगीत प्रियता इस बात से प्रणाणित होती थी कि एक बार उसके दरबारी गायक खुशहाल खाँ ने ‘टोड़ी राग‘ गाकर शाहजहाँ को ऐसा मंत्र मुग्ध कर दिया कि उसने मुर्शिद खाँ को औरंगजेब के साथ दक्षिण भेजने के राजकीय आदेश पर बिना पढ़े ही हस्ताक्षर कर दिया। यद्यपि बाद में दण्डस्वरूप दोनों संगीतकारों को दरबार के आनुवांशिक अधिकार से वंचित कर दिया। शाहजहाँ के काल के प्रमुख संगीतकार लाल खाँ (बिलास खाँ के दामाद) खुशहाल खाँ, बिसराम खाँ, जगन्नाथ, रामदास, सूखसेन, दुरंग खाँ, प. जगन्नाथ, तथा प. जनार्दन भट्ट थे। शाहजहाँ ने लाल खाँ को ‘गुण समुंद्र‘ की उपाधि प्रदान की।
औरंगजेब के काल में संगीत का विकास
औरंगजेब संगीत का विरोधी था तथा उसने संगीत को इस्लाम विरोधी घोषित कर उस पर पाबन्दी लगा दी जबकि वह स्वयं महान् वीणाकार था। औरंगजेब द्वारा संगीत पर पाबन्दी लगाने के कारण संगीत प्रेमियों ने इस पाबन्दी का विरोध अनोखे तरीके से किया। संगीत प्रेमियों ने ‘तबला व तानपूरे‘ का जनाजा औरंगजेब के महल के सामने से निकाला तो औरंगजेब ने कहा कि ‘इसकी (संगीत की) कब्र इतनी गहरी दफनाना, ताकि आवाज आसानी से बाहर न निकल सके।‘ औरंगजेब के काल के प्रमुख संगीतज्ञ रसबैन खाँ, सुखी सेन, कलावन्त, हयात सरस नैन, किरपा थे।
धार्मिक कट्टरता की वजह से संगीत को संरक्षण न देने के बावजूद भी औरंगजेब संगीत के सिद्धान्त पक्ष का ज्ञाता था। औरंगजेब के काल में फारसी भाषा में ‘भारतीय शास्त्रीय संगीत‘ पर सर्वाधिक पुस्तकें लिखी गई। फकीरूल्लाह ने ‘मानकुतूहल‘ का अनुवाद ‘रागदर्पण‘ नाम से करके उसे औरंगजेब को अर्पित किया। मिर्जा रोशन जमीर ने ‘अहोबल‘ के ‘संगीत-परिजात‘ का अनुवाद 1666 ई. में औरंगजेब के आश्रय में रहकर किया।
मुगल काल में संगीत का सर्वाधिक विकास 18 वीं शताब्दी में मुगल बादशाह मुहम्मद शाह ‘रंगीला‘ (1719-48 ई.) के समय हआ। मुहम्मद शाह के दरबार में नेमत खाँ. सदारंग व उसका भतीजा अदारंगप्रमुख संगीतकार थे। इसी समय तराना, दादरा, गजल, आदि संगीत विधाएँ विकसित हुई। दरबारी संगीत में लोक संगीत को भी शामिल किया गया( जैसे – ठुमरी, टप्पा आदि।
प्रश्न: मुगलकालीन चित्रकला एवं संगीतकला के विकास को समझाते हुए, इसमें हिन्दू तत्वों के प्रभाव की विवेचना कीजिए। क्या इसे ‘इण्डो-इस्लामिक‘ संस्कृति कहा जा सकता है ?
उत्तर: मुगल काल में चित्रकला की नींव वास्तविक रूप से हुमायूँ के काल में पड़ी। अपने ईरान प्रवास के दौरान वह फारसी चित्रकला से प्रभावित हुआ और मीर सैयद अली व अब्दुल समद को भारत लाया और हम्जनामा या दस्ताने-अमीर-हम्जा का चित्र संग्रह बनवाया। इनके चित्रों में राजस्थानी या उत्तर भारतीय शैली का भी मिश्रण दिखाई देता है। अकबर के काल में हिन्दू व फारसी शैलियों की मिली-जुली चित्रकला का विकास हुआ। इस काल की कृतियों में शैली के अलावा विषय-वस्तु भी हिन्दू धर्म से ली गई। फारसी कहानियों को चित्रित करने के साथ-साथ महाभारत (रज्मनामा), रामायण (रम्जनामा) आदि से संबंधित विषयों पर भी चित्र बनाए गए। भारतीय दृश्यों पर चित्रकारी करने के रिवाज के बढ़ने से चित्रकारी पर ईरानी प्रभाव कम हुआ। अकबर ने चित्रकारी के विकास हेतु एक अलग विभाग ‘तस्बीर खाना‘ का निर्माण करवाया। इस युग की चित्रकला की विषय-वस्तु प्राकृतिक दृश्य, फारसी व हिन्दू पौराणिक गाथाओं पर आधारित, दरबारी घटनाएँ, छवि चित्र आदि थे। फिरोजी, लाल आदि रंगों का प्रयोग बढ़ा तथा ईरानी सपाट शैली की जगह भारतीय वृत्ताकार शैली पनपी। यूरोपीय कला के समावेश से प्रकाश व छाया अंकन विधि का भी प्रयोग बढ़ा। इस युग में भित्ति चित्रों का पहली बार प्रारम्भ हुआ। फतेहपुर सीकरी के भवनों के भित्ति चित्रों पर बौद्ध प्रभाव दृष्टिगत होता है। अकबरनामा, रज्मनामा, तूतीनामा, अनवर-ए-सुहैली, खानदान-ए-तैमूरिया आदि मुख्य चित्रांकित ग्रंथ है। जहाँगीर के शासनकाल में देशी व विदेशी मिश्रित शैलियों से बनी मुगल चित्रकारी के लिए प्रयोग की पद्धति का महत्त्व कम होकर उसके स्थान पर छवि चित्र, प्राकृतिक दृश्यों व व्यक्तियों के जीवन से संबंधित चित्रण की परम्परा आरम्भ हुई। इस तरह छवि चित्रण की तुलना में पाण्डुलिपि चित्रण का महत्व कम हुआ। रूपवादी शैली के अन्तर्गत यथार्थ चित्रों को बनाए जाने का प्रयत्न किया गया। चित्रों में चैड़े हाशिए का प्रयोग प्रारम्भ हुआ जिसमें फूल-पत्तियों, मानव आकृतियों से अलंकरण होता था। बिशनदास, मंसूर, अबुल हसन, मनोहर आदि प्रमुख चित्रकार थे। शाहजहाँ के युग में स्थापत्य कला की तुलना में चित्रकला को कम महत्व दिया गया किन्तु रेखांकन व बॉर्डर बनाने में उन्नति हई। चित्रकारी में रंगों की चमक व अलंकरणों की अधिकता से भव्यता बढ़ी किन्तु मौलिकता, सजीवता कम हुई। औरंगजेब ने चित्रकला को इस्लाम के विरुद्ध कहकर बन्द करवाया। 17वीं शताब्दी के अन्त में दक्षिण में मुगलों के प्रवेश के साथ वहां जिस शाही शैली का विकास हुआ (वह दक्कनी कलम के नाम से प्रसिद्ध हुई। मुहम्मदशाह ‘रंगीला‘ के काल में चित्रकला का फिर से उत्थान हुआ। इसके अलावा मुगल काल में क्षेत्रीय कलाओं; जैसे – राजपूत शैली व पहाड़ी शैली का विकास हुआ। मुगल कला व क्षेत्रीय कला ने परस्पर एक-दूसरे को प्रभावित किया।
संगीत कला में हिन्दू-मुस्लिम शैली का प्रयोग अमीर खुसरो से ही प्रारम्भ हुआ जो कि मुगल काल में अकबर के समय में भी विकसित हुई। साथ ही भारतीय राजाओं के दरबार में भी संगीत कला में विदेशी प्रभाव विद्यमान थे। अकबर, जहाँगीर व शाहजहाँ के काल में संगीत अपने चरम पर था। दरबारी संगीतकारों के अतिरिक्त बड़े-बड़े नौबत भी बने। इस युग में तानसेन व मालवा शासक बाजबहादुर प्रसिद्ध थे। तानसेन ने ध्रुपद गायन को विकसित किया जिसमें भारतीय संगीत की विशेषताएँ विद्यमान थीं। बीन, तम्बूरा, सितार, सुरमण्डल, रबाब आदि प्रमुख वाद्य यंत्र थे। शाहजहाँ के समय खुशहाल खाँ व बिसराम खाँ ‘टोडी राग‘ के विशेषज्ञ थे। धार्मिक कट्टरता की वजह से संगीत को संरक्षण न देने के बावजूद भी औरंगजेब संगीत के सिद्धान्त पक्ष का ज्ञाता था। उसके समय ‘मान कौतूहल‘ व ‘संगीत परिजात‘ का फारसी में अनुवाद हुआ। मुहम्मदशाह के काल में संगीत का अभूतपूर्व विकास हुआ। वह स्वयं प्रसिद्ध गायक था और उसने अनेक ख्यालों की रचना की। सदारंग व अदारंग दोनों ख्याल गायकी के महान् प्रवर्तक थे। इसी समय तराना, दादर, गजल आदि संगीत विधाएँ विकसित हुई। दरबारी संगीत में लोक संगीत को भी शामिल किया गया( जैसे – ठुमरी, टप्पा आदि।