चिश्ती सिलसिला का संस्थापक कौन था , चिश्ती सिलसिला का संक्षिप्त परिचय दीजिए who is the founder of chishti silsila in hindi

who is the founder of chishti silsila in hindi in india चिश्ती सिलसिला का संस्थापक कौन था , चिश्ती सिलसिला का संक्षिप्त परिचय दीजिए ?

भारत में विभिन्न सूफी संप्रदाय
मध्यकालीन भारत में कई सूफी संप्रदाय अस्तित्वमान थे क्योंकि ये लोगों में अत्यधिक लोकप्रिय थे। कुछ प्रमुख सूफी संप्रदाय इस प्रकार थे:

चिश्ती सिलसिला
मध्यकाल में लोकप्रिय सूफी संप्रदाय चिश्ती सिलसिला था। इसका भौगोलिक प्रसार राजस्थान से लेकर दक्कन तक था। इसकी स्थापना 1192 ईस्वी में हेरात में ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती ने की थी। इसका मुख्य केन्द्र अजमेर के आसपास था और वे समाज के सबसे गरीब वर्गों के बीच काम करते थे। उनकी शाला में कई प्रसिद्ध सफी संत थे जैसे-शेख निजामुद्दीन औलिया, नौरंगाबाद के शेख हमीदुद्दिन तथा कई अन्य जो उतने ही आसाधारण थे जितने कि ये लोग।
सामान्यतः वे राज्य सत्ता से दूर रहना चाहते थे, लेकिन वे तब आंतरिक रूप से जुड़ गए जब दूर-दराज के क्षेत्रों में विस्तार और पुनर्वास हुआ क्योंकि उन्हें अपनी दरगाहों और खानकाहों के लिए बंगाल और मुल्तान में बहुत सारी भूमि मिली थी। राजनीति इतनी गहराई से धर्म के साथ संलिप्त थी कि सुल्तान इल्तुतमिश ने अपने वास्तुशिल्पीय आश्चर्य कुतुबमीनार को अपने संत, ख्वाजा कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी को समर्पित कर दिया।
अगले ऐतिहासिक व्यक्तित्व जिनके जीवन के माध्यम से हम दक्कन में सूफियों के भाग्य के लेखाजोखा की खोज करते है वे सैयद मुहम्मद हुसैनी गेसू दराज (1321- 1422) थे। अन्य महत्वपूर्ण चिश्ती संतों में लोकप्रिय रूप से नसीरूद्दीन चिराग-ए-दिल्ली या दिल्ली के चिराग के रूप में विदित शेख नसीरूद्दीन महमूद थे। पंद्रहवीं सदी में दिल्ली पर इस सिलसिले का प्रभाव कम होने लगा और वे पूर्वी और दक्षिणी भारत में प्रचार एवं प्रसार में लग गए।

सूफी आंदोलन
भारत में सूफी परंपराओं की दीर्घ आयु इस तथ्य से समझी जा सकती है कि लोग अभी भी बीमारियों या व्यक्तिगत समस्याओं से मुक्ति के लिए बार-बार दरगाहों पर जाते हैं। सूफी गीत आज के लोकप्रिय हिन्दी संगीत में बहुत लोकप्रिय हो रहे हैं और दरवेश व फकीर अभी भी दान-पुण्य और निःस्वार्थता के जीवन के हमारे विचारों के एक भाग का निर्माण करते हैं।

उद्भव
साधारण शब्दों में कहा जाए तो सूफी मत रहस्यमय दर्शन का एक रूप है जिसका उद्देश्य नैतिक और रहस्यमय दर्शन की प्राप्ति करना है। इस शब्द की जडें ऊन के लिए अरबी शब्द ‘‘सूफ‘‘ में निहित हैं जो संन्यासियों और यहां तक कि नबियों पैगम्बरो द्वारा पहने जाने वाले मोटे ऊन के वस्त्र की ओर संकेत करता है। दसवीं शताब्दी से सृजित (रचित) होने वाला सूफी मत का साहित्य मध्यकालीन भारत के सामाजिक-सांस्कृतिक परिदृश्य को समझने में हमारी सहायता करता है। सूफी मत का सामाजिक संदर्भ सूफी सम्प्रदायों में व्यक्त होता है, सूफी संत के मकबरे के चारों ओर खानकाह और दरगाह जैसे कई संस्थानों का निर्माण हुआ है।
भारत में प्रथम सूफी धार्मिक स्थलों में से एक बाबा फरीद के रूप में लोकप्रिय शेख फरीद अल-दीन गंज-ए शकर (1265 ई.) से संबंधित है। उनकी दरगाह अजोधन/पाकपट्टन शहर पाकिस्तान में स्थित है। चूंकि बाबा फरीद पंजाबी में लिखते थे इसलिए पंजाब में सूफी मत के स्वदेशीकरण और प्रसार के पीछे उन्हें प्रमुख व्यक्ति माना जाता है।

विशेषताएं
सूफी संत, फकीर (गरीब आदमी) या दरवेश (भिक्षा के लिए दरवाजे पर खड़ा)। कुछ इतिहासकारों के अनुसार, सूफी मत के इतिहास में तीन चरण हैं:

चरण अवधि स्वरूप
पहला चरणः खानकाह 10वीं सदी सुनहरे रहस्यवाद का युग भी कहा जाता है
दूसरा चरणः तरीक 11-14वीं सदी जब सूफीवाद संस्थागत हो रहा था
तीसरा चरणः तरीफा 15वीं सदी के बाद से और परंपराएं और प्रतीक इससे जुड़ने लगे थे।

ये तीनों चरण एक साथ ही आरंभ हुए और तब तक हुए, जब तक कि सूफी संत के उत्तराधिकारी भी उसकी “बरकत‘‘ और ‘‘करामत‘‘ से जुड़े नहीं । सूफी के आध्यात्मिक अधिकार और राजा के राजनीतिक अधिकार के अधीन आने के बाद वह भूमि जो युद्ध स्थल थी, शांति स्थल (दार-अल-इस्लाम) बन गई।
सूफीवाद की मूल विशेषताओं में ‘पवित्रता‘ की ‘अवधारणा‘ सम्मिलित थी। सूफीवाद हृदय की शुद्धि (तस्फियत अल-कल्ब) की प्रक्रिया बन गया। इसका आशय ध्यान अभ्यास पर आधारित कठोर नैतिक अनुशासन होता थ। सूफी दर्शन में मूलभूत बिंदु आंतरिक सत्यता की प्रधानता और यह विश्वास करना है कि ईश्वर आदि, अंत और अंतर व बाह्य है।
ईश्वर के साथ अपने अनुभव का वर्णन करते हुए अधिकांश सूफी प्रेम और आत्मीय स्नेह की शब्दावली का प्रयोग करते हैं। ईश्वर या अपने सूफी स्वामी के प्रेमी के रूप में जाना जाना सूफी के लिए सम्मान का तमगा होता था। उन्हें ‘अहल-ए-दिल‘ या ‘हृदय का स्वामी‘ भी कहा जाता था।

सूफी खानकाह भी पदानुक्रम के बिना नहीं थी। जहां सूफी संत ने विलाया या संतत्व का इस्लामी सिद्धांत प्राप्त कर लिया था जिसने उसे ईश्वर के निकट पहुंचाया था और ईश्वर की कृपा से संरक्षित बनाया, वहीं पीर शेख जैसे शिक्षक और मार्गदर्शक के लिए कई शब्द थे जिनका मुख्य कार्य छात्रों यानी मुरीदों में शिक्षाओं का संचार करना था। मुख्य शिष्य को गुरु के उत्तराधिकारी (खलीफा) या प्रतिनिधि (मुकद्दम) के रूप में कार्य करने के लिए चुना जाता था। सूफी संतों की मूक और अदृश्य आध्यात्मिक व क्षेत्रीय सत्ता होती थी। साधारण वर्गों और जातियों से संबंध रखने वाले सभी लोगों ने मुरीदों की तरह सम्मान प्राप्त किया लेकिन वे मुरीद नहीं थे।

उद्देश्य
सूफी रहस्यवादी चिंतन में दो अलग-अलग दर्शन हैं। पहला, वहदत-अल-वजूद या ‘अस्तित्व की एकता‘ की अवधारणा है जिसे इब्नअरबी द्वारा आविष्कृत किया गया था। यह दर्शन बल देता है कि ‘परम सत्य (ईश्वर) को छोड़कर कोई सत्य का अस्तित्व नहीं है‘ और यह कि ब्रह्मांड के भीतर एकमात्र (सत्य) ईश्वर है और यह कि सभी चीजें एकमात्र ईश्वर के भीतर ही अस्तित्वमान हैं।
दुसरी अवधारणा वहदत उल – शुहूद या ‘प्रतीति की एकता‘ की है। इस शाखा की नींव भारत में अहमद सरहिंदी सहित अनेकानेक अनुयायियों को आकर्षित करने के लिए अला अल-दौला सिम्नानी ने डाली थी। अहमद सरहिंदी ने भारतीय उप-महाद्वीप में इस सिद्धांत के सबसे व्यापक रूप से स्वीकार्य कुछ सूत्रों का प्रतिपादन किया। उन्होंने माना कि ईश्वर और सृष्टि एकसमान नहीं हैं, बल्कि, सृष्टि दैवीय नाम की छाया या प्रतिबिंब है और तब आरोपित होती है जब वे अपनी विपरीत गैर-सत्ताओं के दर्पण में प्रतिबिम्बित होते हैं।