water pollution, definition water pollution in hindi factor / pollutants & effects जल प्रदूषण क्या है , परिभाषा कारक / प्रदूषक व प्रभाव कारण , उपाय किसे कहते है ?
जल प्रदूषण (water pollution) :
जल के भौतिक रासायनिक तथा जैविक कारको में होने वाले अवांच्छित तथा हानिकारक परिवर्तनों को जल प्रदूषण कहते है।
जल प्रदूषण के कारण:-
1- घरेलू प्रवाहित जल
2- औद्योगिक बहिः स्त्राव
कारक/प्रदूषक(water pollution Factor / pollutant):-
जल में अपद्रव्यों की मात्रा 0.1 प्रतिशत होती है जिसमें मुख्य निम्न है:-
1 निलंबित पदार्थ जैसे बालू, रेत, कादा, चिकनी मिट्टी आदि।
2 कोलाइडी पदार्थ जैसे मल-मूत्र, जीवाणु, कागज एवं वस्त्र के रेशे।
3 विलिन ठोस जैसे नाइट्रेट, फास्फेट, अमोनिया आदि पौषक पदार्थ एवं कैद्रमियत, पारा, ताँबा, जिंक जैसी भारी धातुएँ।
प्रभाव(water pollution effects ):-
1- अवाँछित रोग जातकों के कारण अनेक प्रकार के रोग उत्पन्न होते है जैसे:- टाइफाइड, हैजा, पेचिस उल्टी, दस्त पीलियाँ आदि।
2- जल मार्गो का अवरूद्ध होना ।
जल प्रदूषण (water pollution) : सामान्यतया समुद्र के जल को छोड़ कुल जल का तीन चौथाई भाग कृषि और अन्य उद्योग धंधो , पीने तथा घरेलू जरूरतों में काम आता है। लेकिन विश्व की जनसंख्या में लगातार विकास और औद्योगीकरण दोनों ही के कारण जल की मांग दिन प्रतिदिन बढती जा रही है एवं जिस अनुपात में इन दोनों दिशाओं में वृद्धि हो रही है , उससे कही अधिक वृद्धि जल प्रदूषण में हो रही है। यह विनाशकारी प्रभाव नगरों में विशेष रूप से दिखाई देता है। जीवन को बनाये रखने के लिए पेय जल का स्वच्छ होना अनिवार्य रूप से आवश्यक है। जल में कुछ पदार्थ तो प्राकृतिक रूप से मिलते है जिनकी मात्रा अधिक होने पर वे प्रदूषक की भाँती कार्य करने लगते है , ऐसे पदार्थ निम्नलिखित है –
प्रमुख जल प्रदूषक
प्राकृतिक जल प्रदूषण : यह मुख्यतया भूमिगत जल में होता है। इसमें मुख्य है जल में लौह , मैंगनीज , आर्सेनिक , फ्लोराइड , क्षार आदि अकार्बनिक तत्वों की अधिक मात्रा में उपस्थिति जो जल को रंग , गंध , अस्वाद , धुंधलापन , खारापन , धातु पदार्थ आदि प्रदान करते है। अधिक मात्रा में होने से ये तत्व मानव को क्षति पहुंचा सकते है। इसके अलावा सल्फर उपचायी जीवाणु , लौह जीवाणु , विभिन्न कृमि , प्राकृतिक रेडियोधर्मिता भी प्राकृतिक जल प्रदूषक के कारण बन सकते है।
जल में फ्लोराइड का 0.8-1.0 मिग्रा/लीटर मात्रा में होना मानव के लिए लाभदायक है लेकिन भारत के कई प्रदेशों में भूमिगत जल में फ्लोराइड की मात्रा 1.5 मिलीग्राम/लीटर से अधिक है .इसका दुष्प्रभाव दांत और हड्डियों पर पड़ता है जिसे फ्लोरोसिस कहते है। भारत के 8600 से ज्यादा गाँवों में जल में फ्लोराइड की मात्रा अधिक है। असम के जिन स्थानों में भूमिगत जल का अधिक प्रयोग किया जाता है उन स्थानों के जल में लौह तत्व की मात्रा ज्यादा है। इसका मुख्य कारण है पानी में अधिक कार्बन डाइ ऑक्साइड का होना जो कि प्राकृतिक और लौह पादप से लौह के घुलन में सहायक होती है। लौह के 2 मिग्रा/ली. से अधिक होने पर पानी का रंग लाल हो जाता है और पानी में लौह भक्षी जीवाणु के कारण स्लाइम उत्पन्न होती है। जिन स्थानों में भूमिगत जल में लौह पाया जाता है वहां पर मैंगनीज भी अक्सर पाया जाता है।
आर्सेनिक द्वारा जल प्रदुषण का प्रमुख औद्योगिक अपशिष्ट अथवा आर्सेनिक युक्त कीटनाशकों का कृषि में प्रयोग है। लेकिन पश्चिम बंगाल में आर्सेनिक द्वारा भूमिगत जल प्रदुषण का कारण है वहां पर जमीन के अन्दर फेरस आर्सेनिक पायराईट खनिज का होना। इसके प्रभाव से कई प्रकार के चर्म रोग , फेंफड़ो का कैंसर आदि भयानक बीमारियाँ हो जाती है।
खनन क्षेत्रों में जल प्रदूषण का प्रमुख कारण लौह जीवाणु और सल्फर जीवाणु है जो कि जल का पी.एच. (pH ) मान कम कर देते है और जल के ऊपर स्लाइम पैदा करते है।
1. लवण : जल चाहे किसी भी स्रोत से प्राप्त किया गया हो – नदी , तालाब , बावड़ी , कुआं या ट्यूबवेल से , उसमे कुछ न कुछ लवण घुले रहते है जिनमे सोडियम , पोटेशियम , कैल्शियम , मैग्नीशियम के क्लोराइड , कार्बोनेट , बाइकार्बोनेट और सल्फेट प्रमुख है। इनके अतिरिक्त लोहा , मैंगनीज , सिलिका , फ्लुओराइड , नाइट्रेट , फास्फेट आदि तत्व कम मात्रा में पाए जाते है। इनकी पारस्परिक मात्रा का अनुपात स्थानीय भू रचना और स्थितियों पर निर्भर करता है। जब इन लवणों की मात्रा एक निश्चित सीमा से अधिक हो जाती है तो वे शारीरिक प्रक्रियाओं को प्रभावित करने लगते है जिससे स्वास्थ्य पर दुष्प्रभाव पड़ता है। यदि ऐसे पानी से सिंची गयी चारे की फसल जानवरों को खिलाई जाए तो उसको भी अनेक बीमारियाँ हो सकती है। उदाहरण के लिए फ्लुओराइड की अधिकता (10 लाख में दो अथवा तीन भाग) के कारण राजस्थान , हरियाणा तथा आंध्रप्रदेश में अनेक नर नारी फ्लुओरोसिस की बीमारी से ग्रस्त पाए गए है।
सैकड़ो गाँव ऐसे है जहाँ पर पीने का पानी फ्लुओराइड , नाइट्रेट , लौहा तथा मैंगनीज , घुलनशील ठोस और भारी धातुओं आदि के लिए निर्धारित मानकों के अनुरूप नहीं होता। इस समस्या की भयंकरता का अनुमान देश के विभिन्न गाँवों के असंख्य कुओं से प्राप्त संदूषित पीने के पानी में रसायनों की सांद्रता से किया जा सकता है। ऐसे गाँवों में जानपदिक स्तर पर रोग फैलने तथा लगातार ऐसा प्रदूषित जल पीने से शरीर क्रिया पर पड़ने वाले प्रभाव के आंकड़े उपलब्ध नहीं है।
50 के दशक में जापान में मिनामाटा विकृतियों के लिए पानी में पारे की उपस्थिति और इटाई-इटाई व्याधि के लिए कैडमियम की उपस्थिति को उत्तरदायी पाया गया है।
जल में पारा एक विशेष शैवाल द्वारा मिथाइल मर्करी में परिवर्तित कर दिया जाता है , जो कि शैवालभक्षी मछलियों में संचित होकर मछली खाने वाले लोगो के शरीर में प्रविष्ट कर जाता है। मिथाइल मर्करी द्वारा अनेक मौतों का प्रसंग जापान में मछलियों के माध्यम से काफी मिल रहा है। डाइफिनाइल मर्करी से उपचारित गेहूं के बीज के पानी में बहाए जाने के फलस्वरूप पारे द्वारा प्रदुषण ईराक में अधिकता से फ़ैल रहा है। जिससे अनेक मौतें भी हुई है तथा हो रही है।
सीसा : सीसे की सूक्ष्म मात्रा (1 मिग्रा/लीटर) से कई गंभीर बीमारियाँ उत्पन्न होती है। सीसे की यह प्रवृत्ति होती है कि वह जैविक तंतुओं में संचयित होता जाता है और एक स्थिति ऐसी आती है कि शरीर के कुछ महत्वपूर्ण अंग अपने कार्यो को सक्षमता से नहीं कर पाते और धीरे धीरे क्षीण होने लगते है। सीसा प्रमुख रूप से यकृत , गुर्दे और मस्तिष्क की कोशिकाओ को अधिक प्रभावित करता है। सीसा हड्डियों में संचित होकर उन्हें नष्ट कर देता है।
आर्सेनाइट (AsO3) के रूप में उपस्थित आर्सेनिक के सभी अकार्बनिक लवण अत्यधिक विषैले होते है। आर्सेनिक युक्त जल (0.1 से 1.0 मिलीग्राम/लीटर) के निरंतर सेवनसे मनुष्यों में गंभीर त्वचीय विकृतियाँ उत्पन्न होती है। पूर्वी भारत (पश्चिम बंगाल) , ताइवान और बांग्लादेश आदि क्षेत्रों में सामान्य पेयजल में उपस्थित आर्सेनिक की 2 से 5 मिग्रा/लीटर के निरंतर सेवन से श्याम पत्र व्याधि का विस्तृत प्रकाप उभरा है। भारत के पश्चिम बंगाल प्रान्त के लगभग 10 पूर्वी जिलों में श्याम पत्र का प्रकाप अत्यधिक मिला है। बांग्लादेश का 70 प्रतिशत से अधिक भाग आज आर्सेनिक प्रदूषण की विभषिका से जूझ रहा है। आर्सेनिक युक्त जल के सेवन से स्नायुतंत्रीय , यकृतीय , त्वचीय , आन्त्रिय विकृतियाँ उत्पन्न होती है।
विश्व की कई जानी मानी वैज्ञानिक संस्थाओं ने अनुसन्धान करके यह परिणाम दर्शाया है कि पेयजल में फ्लोराइड की उपस्थिति 1.5 मिग्रा/लीटर से अधिक होने पर अस्थि सम्बन्धी विकृतियाँ जैसे दंत फ्लोरोसिस अथवा कंकालीय फ्लोरोसिस उत्पन्न हो सकती है। हमारे देश में राजस्थान राज्य के जोधपुर , भीलवाडा , बीकानेर , जयपुर और उदयपुर जिलो में फ्लोरोसिस काफी हद तक फ़ैल चुकी है। इसलिए विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा पूरे विश्व में फ्लोराइड की वांछित मात्रा 0.5 मिग्रा/लीटर और अधिकतम मात्रा 1.5 मिग्रा/लीटर निर्धारित की गई है। पेयजल में फ्लोराइड की अधिकता से नॉक-नी सिण्ड्रोम होता है। जिसके कारण जोड़ो और घुटनों में काफी भयानक दर्द उत्पन्न होता है , जो पारालाइसिस का कारण भी हो सकता है।
कृत्रिम या मानव निर्मित जल प्रदूषण
जल प्रदूषण की रोकथाम : जल प्रदूषण रोकने के लिए औद्योगिक इकाइयों से निकले अपशिष्ट जल को प्रमुख जल स्रोतों में विसर्जन करने से रोकना चाहिए। इस जल का पुनः चक्रण करना अति आवश्यक है। भारत जैसे गर्म जलवायु वाले देशों में उपचार के लिए सूक्ष्मजीवों का अधिकाधिक प्रयोग होना चाहिए। वैज्ञानिक संस्थाओं को ऐसी तकनिकी का विकास करना चाहिए जो कम खर्चीली और पर्यावरण के हित में है।
उद्योगों में नवीनीकरण कर उन्हें आधुनिक तकनीके अपनानी चाहिए जो पर्यावरण को कम प्रदूषित करें।
शक्ति संयंत्रों , उर्वरक संयंत्रों आदि से सल्फर और नाइट्रोजन ऑक्साइड के उत्सर्जन को कम करके अम्लीय वर्षा को रोका जा सकता है। यह दो प्रकार से किया जा सकता है। पहले तो SO2 और NO2 के अंशो का हटाने के लिए चूने के रिसाव को फ़िल्टर किया जाना चाहिए और कोयला तापीय शक्ति स्टेशनों में कोयले के साथ चूने का उपयोग किया जाना चाहिए जो कोयले में उपस्थित सल्फर के साथ क्रिया कर कैल्शियम सल्फेट बनाता है जो एक ठोस पदार्थ है।
चमड़ा उद्योग में खाल से बाल निकालने और उसे नर्म करने की क्रिया में प्रोटियेस एंजाइम का प्रयोग करना चाहिए। इस तकनीक से कम जल की आवश्यकता होती है और सल्फेट , टैनिन , अमोनिया , क्रोमियम जैसे रसायन का कम उपयोग होता है।
कपडा और अन्य उद्योग जिसमे रंगों का प्रयोग होता है उनके रंगीन जल में रंगों का शोषण करने के लिए लिग्निन का प्रयोग करना चाहिए जो कागज के अपशिष्ट जल में बहुधा पाया जाता है। विभिन्न खाद्य सामग्री बनाने वाले उद्योगों को सौर ऊर्जा की सहायता से अपशिष्टों का उपचार करना चाहिए। इस अपशिष्ट जल से मछलीपालन और सिंगल सेल प्रोटीन का उत्पादन करना चाहिए और इससे बचे जल को सिंचाई में प्रयोग लाना चाहिए।
तेल से बने कीचड़ को बायोरेमिडीयेशन तकनीक द्वारा साफ़ करना चाहिए। कीचड़ को मिट्टी के साथ मिलाकर उसकी आद्रता , तापमान बनाये रखते हुए उसमे यूरिया और फास्फेट आदि मिलाकर उसे खाद में परिवर्तित करना चाहिए। कीटनाशकों के प्रयोग पर एकदम प्रतिबन्ध लगाना चाहिए। कई देशो में यह पहले ही हो चुका है। इनके स्थान पर जैवनाशियों जैसे बैसिलस और ऐसे विषाणु का प्रयोग करना चाहिए जो सिर्फ कीटाणु का नाश करे। इसके अलावा जैव उर्वरकों का प्रयोग करना चाहिए जैसे राइजोबियम , एजाटोबेक्टर , माइकोराइजा आदि। इस क्षेत्र में वैज्ञानिकों द्वारा तथा अनुसन्धान करने की जरुरत है।
जल संसाधन परियोजनाओं को बनाने के पूर्व उससे होने वाले पर्यावरण प्रभाव का आंकलन करना आवश्यक है। जैव प्रौद्योगिकी और जेनेटिक इंजीनियरिंग द्वारा अनेक नयी तकनीकों का प्रयोग कर ऐसे सूक्ष्म जीवों का निर्माण करना चाहिए जो विषैले अपघटित पदार्थो को जल में अपघटित कर सके।
जल प्रदुषण को रोकने के लिए हमारी केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा जल प्रदूषण निवारण के लिए बनाये गए कानूनों का सख्ती से पालन करना चाहिए। विभिन्न वैज्ञानिक संस्थाओं के माध्यम से जल प्रदूषण का उपचार करना चाहिए और आम जनता में प्रदूषण और उससे पड़ने वाले दुष्परिणाम के प्रति जागरूकता पैदा करना आवश्यक है।
जल प्रदूषण से हानियाँ या नुकसान
जल प्रदुषण से जीव जन्तुओं तथा वनस्पतियों को अनेकों हानियाँ होती है। घरेलू कचरे के प्रदूषित जल से हैजा , पीलिया , टाइफाइड , पायरिया आदि घातक बीमारियाँ फैलती है।
शुद्ध पीने के पानी को छोड़ दूसरे तरह के जल के माध्यम से जो रोग जिन कारणों से फैलते है वे निम्नलिखित है –
1. वाहितमल (sewage) द्वारा प्रदूषित जल से पकड़ी जाने वाली या उसमे इक्कठी की जाने वाली शेलफिश से टाइफाइड , पैराटाइफाइड अथवा दण्डाणुज अतिसार हो जाता है।
2. मानव उत्सर्गो (अर्थात मलमूत्र) , वाहितमल तथा अवमल के संसर्गो में आकर संदूषित हुए फलों तथा सब्जियों के माध्यम से टाइफाइड , पैराटाइफाइड , विभिन्न प्रकार के अतिसार परजीवी कीड़े अथवा संक्रामक यकृतशोथ (पीलिया) हो जाता है।
3. मानव मलमूत्र खाने वाली मक्खियों आदि द्वारा संदूषित होने वाले सभी प्रकार के खाद्यों के सेवन से मनुष्य को टाइफाइड , पैराटाइफाइड या हैजा हो जाता है।
4. मानव मल मूत्र द्वारा संदूषित मिट्टी के संसर्ग में आने पर हुकवर्म हो जाता है।
5. प्रदूषित जल में साफ़ किये गए बर्तनों में रखे गए दूध के संदूषित हो जाने पर टाइफाइड अथवा दंडाणुज अतिसार हो जाता है।
6. प्रदूषित जल में नहाने धोने आदि के कारण वाइल रोग और सिस्टोटोम बीमारी हो जाती है। जैसे राजस्थान के अस्पतालों में से निकलने वाले वाहितमल द्वारा सींचे गये चारागाहों में चरने वाली गायें इसी कारण तपेदिक से पीड़ित हो जाती है तथा उनके दूध का सेवन करने से संक्रमण की एक श्रृंखला प्रारंभ हो जाती है।
7. औद्योगिक कचरे में अनेकों विषैले रसायन तथा सूक्ष्म धातुकण होते है , जिनसे यकृत , गर्दो और मस्तिष्क सम्बन्धी अनेकों रोगों के अतिरिक्त प्राणलेवा कैंसर रोग हो रहे है , इसे समझने के लिए जापान में 1973 की एक घटना का उदाहरण पर्याप्त है। चीसू कॉर्पोरेशन नामक उद्योग की नालियों से बहता हुआ एसिटल्डीहाइड रसायन समुद्र में मिलता था। इस प्रदूषित जल में रहने वाली मछलियों को भोजन के रूप में ग्रहण करने वाले जापानी नागरिक सदैव के लिए अंधे , गूंगे तथा बहरे हो गए तथा अनेकों अकाल मृत्यु के शिकार भी हो गए।
8. कृषि के उपयोग में आने वाले उर्वरकों से बच्चो में रक्त की घातक बीमारी मीथेमोगलोबिनेमा हो जाती है , जिसमे ऑक्सीजन की कमी से बच्चा मर जाता है। टेक्सटाइल कपडा उद्योग में एजो-डाई का उपयोग होता है , जिससे कैंसर हो सकता है।
9. डी.डी.टी. तथा बी.एच.सी. जैसे कीट तथा खरपतवार नाशक प्रदूषण जल के माध्यम से गर्भवती माताओं के रक्त में पहुंचकर गर्भ धारण क्षमता को नष्ट करने के अतिरिक्त गर्भस्थ शिशु में विकृतियाँ उत्पन्न कर सकते है। यह रहस्योंदघाटन लखनऊ स्थित इंडस्ट्रीयल टोक्सीकोलोजी रिसर्च सेंटर के वैज्ञानिकों ने किया है।