विधायिका किसे कहते हैं | विधायिका के कार्य क्या है | की परिभाषा बताइये काम vidhayika kya hoti hai

vidhayika kya hoti hai in hindi ki sanrachna विधायिका किसे कहते हैं | विधायिका के कार्य क्या है | की परिभाषा बताइये काम ?

विधायिका
तुलनात्मक राजनीतिशास्त्र में विधायिका को तकनीकी रूप से नियम-निर्माता विभाग कहा जाता है। विधायिका, जिसके लिए संसद नाम सबसे अधिक प्रचलित है, राजनीतिक संगठन का सबसे महत्वपूर्ण अंग है। ‘पार्लियामेंट‘ शब्द का अर्थ ‘बातचीत‘ है। यह फ्रांसीसी शब्द श्पार्ले‘ और लातीनी शब्द ‘पार्लियामेनूनी‘ के व्युत्पन्न है। कानून बनाना आज की विधायिकाओं का सबसे अहम काम है और अक्सर उन्हें उनके बनाए कानूनों की गुणवत्ता से ही पहचाना जाता है। फिर भी आज विधायिका को ‘राष्ट्र का दर्पण‘, ‘‘समुदाय की सामान्य इच्छा का साकार रूप‘‘, ‘शिकायतों की समिति‘, ‘रायों की कांग्रेस‘ आदि करने वाली आदर्शमूलक व्याख्याओं की जगह अनुभवाश्रित वक्तव्यों ने ले ली है जिनमें एक ‘बातचीज के अड्डे‘, शोषण और दमन के साधन, एक ‘मृत निकाय‘ आदि के रूप में उनके वास्तविक महत्व का संकेत दिया जाता है।

जनता का प्रतिनिधित्व
आधुनिक राज्यों में यूनानी नगर-राज्यों का प्रत्यक्ष लोकतंत्र असंभव है। इसलिए लोकतंत्र में जनता शासन के कामकाज चलाने के लिए अपने प्रतिनिधि चुनती है। प्रतिनिधित्व वास्तव में श्वह प्रक्रिया है जिसके जरिये पूरे नागरिक समुदाय या उसके एक भाग के रुझान, वरीयताएँ, दृष्टिकोण व मनोरथ उनकी स्पष्ट स्वीकृति के साथ उनकी तरफ से, और उनमें से एक छोटे समूह के हाथोंय सरकारी कार्रवाई का रूप लेते हैं और यह उन पर लागू होती है जिनका प्रतिनिधित्व किया जा रहा है।‘‘ माना जाता है कि विधायिकाएँ जनमत को प्रतिबिंबित करती हैं। परिवर्तन के लिए निश्चित अंतरालों पर चुनाव कराए जाते हैं। जनता के जो भाग समुचित प्रतिनिधित्व नहीं पाते उनके लिए आरक्षण या कार्यात्मक प्रतिनिधित्व की व्यवस्था की जाती है। उदाहरण के लिए भारत में विधायिका में और नौकरशाही में भी अनुसूचित जातियों व जनजातियों के लिए स्थान आरक्षित किए जाते हैं।

संसदीय लोकतंत्र में कार्यपालिका जनता द्वारा निर्वाचित होती है और जनता की प्रभुतासंपन्न इच्छा को व्यक्त करने की दावेदार विधायिका होती है। अलोकतांत्रिक राज्यों तक में कार्यपालिका ऐसे व्यक्ति-समूह पर भरोसा करती है जो उनकी राय में जनता की इच्छा को व्यक्त कर सकते हैं।

विधायिका का गठनः एकसदनीय और दो-सदनीय
विधायिकाएँ या तो एक-सदनी या दो-सदनी होती हैं। व्यवहार में दो सदनी व्यवस्था को अधिक महत्व प्राप्त है। एक-सदनी व्यवस्था में विधायिका का केवल एक सदन होता है। यह जनप्रतिनिधित्व पर आधारित होता है और विधि-निर्माण की पूरी जिम्मेदारी इसी पर होती है। एक-सदनी विधायिकाएँ न्यूजीलैण्ड, डेनमार्क, फिनलैण्ड और चीन जैसे कुछ देशों में पाई जाती हैं। ये पंजाब, हरियाणा, उड़ीसा और केरल जैसे कुछ भारतीय राज्यों में भी मौजूद हैं।

दो-सदनी विधायिका में दो सदन होते हैंरू (अ) ऊपरी सदन और (ब) निचला सदन। आमतौर पर निचला सदन अधिक प्रतिनिधिक होता है और विधि-निर्माण में इसे अधिक अधिकार प्राप्त होते हैं। निचले सदन सीधे निर्वाचित होते हैं, जैसे भारत, ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी आदि में। कुछ देशों में ऊपरी सदन भी सीधे चुने जाते हैं, जैसे अमेरिका में सीनेट। ब्रिटेन में ऊपरी सदन अर्थात् हाऊस ऑफ लार्ड्स के सदस्य नामजद होते हैं। भारत में राज्यसभा नाम का ऊपरी सदन अप्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित होता है। दो सदनी व्यवस्था में दलगत राजनीति बहुत चलती है तथा विधि-निर्माण की प्रक्रिया बहुत अधिक पेचीदा होती है क्योंकि विधेयकों पर दोनों सदनों की सहमति आवश्यक होती है। संघ की सदस्य इकाइयों को ऊपरी सदन में प्रतिनिधित्व प्राप्त होता है। इससे संसद में उनका दृष्टिकोण पहुँचता रहता है और वे अपने अधिकारों की सुरक्षा भी कर सकती हैं। दो सदनी व्यवस्था केन्द्र और संघ की सदस्य इकाइयों के बीच आसानी से संतुलन बनाए रखती है जो संघीय व्यवस्था के सफल कार्यकलाप के लिए बहुत आवश्यक है।

कुछ ऊपरी सदनों में (जैसे भारत में) साहित्य, कला, विज्ञान और समाज-सेवा को प्रतिनिधित्व देने के लिए विद्धान और सुख्यात व्यक्तियों को मनोनीत करने की व्यवस्था भी है। भारत में राष्ट्रपति राज्यसभा में 12 सदस्य मनोनीत कर सकता है। इस तरह कुल मिलाकर विधायिका उनके अनुभवों और बुद्धि से लाभान्वित हो सकती है। वास्तव में ऊपरी सदन जनता द्वारा निर्वाचित निचले सदनों पर अंकुश लगा सकते हैं। लेकिन व्यवहार में यह बताना बहुत कठिन है कि क्या ऊपरी सदन सचमुच अधिक गंभीर, कम पक्षपाती और राज्यों के अधिकारों के बेहतर संरक्षक हैं। अनेक राज्यों में उनकी उपयोगिता की बजाय उनके अस्तित्व का औचित्य परंपरा प्रदान करती है।

विधायिका के कार्य
क्रियात्मक दृष्टिकोण से विधि-निर्माता निकायों के स्थान और महत्व ‘प्रभुतासंपन्न‘ ब्रिटिश पार्लियामेंट से लेकर भूतपूर्व सोवियत संघ की प्रभुताहीन सर्वोच्च सोवियत तक, अमेरिका की ‘शक्तिशाली‘ कांग्रेस से लेकर स्पेन की कोर्तिस अर्थात् ‘शासक की हाँ में निरीह ढंग से हाँ मिलाने वाली‘ संस्था तक अलग अलग होते हैं। विधायिकाओं के कार्यों का एक समन्वित लेखाजोखा लेते हुए कर्टिस ने इन्हें इस प्रकार रखा हैः
1) विधायिकाएँ राज्य-प्रमुख का चयन करती हैं, महाभियोग चलाकर उसे हटा सकती हैं, या उसके उत्तराधिकार या चुनाव संबंधी कानून को बदल सकती हैं। मिसाल के लिए ब्रिटिश पार्लियामेंट उत्तराधिकार के कानून या सत्ता-त्याग की विधि को बदल सकती है। भारत और इजराइल की संसदें राष्ट्रपति का चुनाव करती हैं, और अमेरिका में अगर राष्ट्रपति के चुनाव में कोई भी उम्मीदवार स्पष्ट बहुमत नहीं पाता तो प्रतिनिधि सभा को राष्ट्रपति चनने का अधिकार है। अमेरिका और भारत की विधायिकाएँ महाभियोग चलाकर अपने राष्ट्रपतियों को हटा भी सकती हैं। कनाडा, न्यूजीलैण्ड और ऑस्ट्रेलिया की संसदें ब्रिटेन की रानीध्राजा के आगे तीन नामों की सिफारिश करती हैं तथा राजा या रानी द्वारा उनमें से किसी एक को संबंधित देश का गवर्नर-जनरल नियुक्त किया जाता है।

2) कुछ देशों में विधायिकाएँ प्रधानमंत्री व उसके मंत्रियों के चयन का अनुमोदन भी करती हैं। अमेरिका में राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत सभी मंत्रियों (सचिवों) का सीनेट द्वारा अनुमोदन आवश्यक है। इजराइल में नेस्सेत (संसद) मंत्रिमंडल के सदस्यों की सूची का अनुमोदन करती है। स्विट्जरलैण्ड की फेडरल असेंबली फेडरल कौंसिल के सात प्रेसिडेंट चुनती है। जापान में सम्राट द्वारा नामजद प्रधानमंत्री का डायट (संसद) द्वारा अनुमोदन आवश्यक है। फ्रांस में राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत प्रधानमंत्री को संसद में विश्वास मत प्राप्त करना पड़ता है। ब्रिटेन और भारत जैसे देशों में जहाँ मंत्रिमंडलीय शासन प्रणाली है, मंत्रीगण तभी तक अपने पद पर रहते हैं जब तक उन्हें विधायिका का विश्वास प्राप्त हो। हाल में वाजपेयी सरकार संसद में विश्वास का मत प्राप्त नहीं कर सकी। सैद्धान्तिक अर्थ में यही प्रावधान रुस और चीन जैसे देशों पर भी लागू होता है।

3) विधायिकाएँ सरकार के व्यवहार को भी प्रभावित या नियंत्रित कर सकती हैं, या कार्यपालिकाओं को जवाबदेह बना सकती हैं। अविश्वास प्रस्ताव, भर्त्सना प्रस्ताव, विप्रश्न (इंटरपेलेशन) की प्रक्रिया, सरकार के बजटों तथा प्रमुख नीतियों पर बहस, महाभियोग की प्रक्रिया आदि अनेक ऐसे साधन हैं जिनके द्वारा सांसद सरकार पर नियंत्रण स्थापित कर सकते हैं। अमेरिकी कांग्रेस ने 1998 में बिल क्लिंटन के खिलाफ महाभियोग चलाया। ब्रिटेन में 1949 में प्रधानमंत्री पद से एटली, 1956 में इडेन और 1968 में मैकमिलन के निष्कासन इसी तथ्य की पुष्टि करते हैं कि संसद के हाथ में नियंत्रण की शक्ति है। इस तरह विधायिकाएँ कुछ न्यायिक कार्य भी करती हैं। भारत में उन्हें राष्ट्रपति, सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश आदि पर महाभियोग चलाने का अधिकार प्राप्त है।
4) विधायिकाएँ अपने पदाधिकारी चुन सकती और उन्हें हटा भी सकती हैं। वे साबित ‘दुर्व्यवहार‘ या भ्रष्टाचार या देशद्रोह या विशेषाधिकारों के हनन के आरोप में उन्हें सदस्यता से वंचित भी कर सकती हैं। विधायिकाएँ ही स्पीकर और डिप्टी स्पीकर चुनती हैं तथा अविश्वास प्रस्ताव के जरिये उन्हें हटा सकती हैं।
5) विधायिकाओं का सबसे अहम काम नियम बनाना है क्योंकि ये ही सरकार के नियम-निर्माता विभाग हैं। विधेयक पेश किए जाते हैं, उन पर बहसें होती हैं और फिर वे संशोधनों के साथ या उनके बिना पारित किए जाते हैं। ‘लोकतांत्रिक विधायी कामकाज वाले अधिकांश देशों में विधेयकों का तीन-तीन बार वाचन होता है। अकसर विधेयकों को और विस्तृत छानबीन के लिए संसदीय समितियों के हवाले कर दिया जाता है। चीन जैसे कम्युनिस्ट देश में विधायिका नहीं बल्कि उसकी एक छोटी सी समिति ही शासक पार्टी के अगोच इशारे पर पहले विधेयक को पारित करती है, और फिर उसे विधायिका में पारित कराया जाता है। संसद का सत्र जब न जारी हो तब राज्य के प्रमुख द्वारा जारी अध्यादेश को सत्र के आरंभ से छः सप्ताह के अंदर विधायिका में अनुमोदित कराना पड़ता है।
6) एक विधायिका अकसर राजकोष को भी नियंत्रित करती है। वार्षिक बजट पर या नए कर लगाने के लिए उसका अनुमोदन आवश्यक है। समितियों के जरिये वह सरकार के व्यय की जाँच-परख भी करती है। भारत में यह काम लोक लेखा समिति (पब्लिक एकाउंट्स कमेटी, पी.ए.सी.) करती है।

विधायिकाएँ ‘तनाव‘ भी कम करती हैं, आश्वस्त करती हैं तथा सामान्यतः सरकार की नीतियों व कार्यक्रमों पर संतोष का भाव जगाती हैं। वे हितों की अभिव्यक्ति की संभावना भी पैदा करती हैं। वे ‘निकास का मार्ग‘ भी प्रदान करती हैं अर्थात जब क्योंकि राजनीतिक व्यवस्था में गतिरोध आ गया है और सामान्य निर्णय प्रक्रिया इस स्थिति से निकलने का मार्ग नहीं दिखाती तो ऐसे किसी निर्णय के अंतःतत्व या स्वरूप या दोनों के लिए अभिजात वर्ग विधायिका से मदद मांगते हैं जो व्यवस्था को उस गतिरोध से निकाले। वे देश के भावी नेतृत्व के लिए प्रशिक्षणशाला के काम भी करती हैं। इसके अलावा वे “सहमतिमूलक संस्थांगत निरंतरता‘‘ को बल पहुँचाती हैं और अकसर देश में प्रशासनिक विहंगावलोकन का एकमात्र साधन होती हैं।

विकासशील देशों में विधायिकाएँ इन्हीं कार्यों के कारण एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। मगर पैकेनहैन जैसे लेखक विधायिकाओं की अवरोधक भूमिका की बात भी करते हैं। वे श्लोकतांत्रिक राजनीति तक में पूरी दुनिया में कार्यपालिकाओं की अपेक्षा अधिक रुढ़िवादी व संकीर्ण हितों का प्रतिनिधित्व करती हैं। संसदीय के विपरीत राष्ट्रपतीय शासन प्रणाली में यह बात खास तौर पर सच दिखाई देती है। जिन समाजों में परिवर्तन की आवश्यकता और इच्छा है और जहाँ राजनीतिक आधुनिकीकरण की परिभाषा सतत रूपांतरण पैदा करने और उसे झेलने की इच्छा और क्षमता के रूप में की जा सकती है वहाँ जो संस्था परिवर्तन का विरोध करे उसकी निर्णयकारी शक्ति को बढ़ाने का कोई खास अर्थ नहीं होता।‘

पूरी दुनिया में विधायिकाएँ काम में दक्षता और समय की बचत के लिए समिति व्यवसाय का उपयोग करती हैं। व्यवहार में विधायिका के निकाय को उसकी समिति से ही जाना जाता है। जैसा कि लेखक, मोटे का संकेत हैः ‘कुछ समितियों की सहायता के बिना कोई भी विधायिका कारगर ढंग से कामकाज नहीं कर सकती। ब्यौरों पर विचार-विमर्श एक बड़ी मीटिंग में असंभव है जो इतनी भारी-भरकम होती है कि मुख्य सिद्धान्तों के अलावा किसी बात पर बहस कर ही नहीं सकती। इसी कारण से सभी लोकतांत्रिक विधायिकाएँ विषयों पर विस्तृत विचार-विमर्श के लिए छोटे-छोटे समूहों का चुनाव करती हैं और ये समूह अपने विचार-विमर्श के परिणाम को निर्णय के लिए वृहत्तर निकाय के सामने लाते हैं।

विधायिका का ह््रास
विधायिकाओं के कार्यों और उनकी शक्तियों की आलोचनात्मक छानबीन से इस बात की पुष्टि होती है कि कार्यपालिकाओं में पुराने अविश्वास की जगह उनके नेतृत्व में एक नया विश्वास पैदा हुआ है। एक संसदीय शासन प्रणाली में प्रधानमंत्री के नेतृत्व में कार्यरत मंत्रिमंडल की मजबूत स्थिति रैम्जे म्यूर के इस विचार की पुष्टि करती है कि एक शक्तिशाली मंत्रिमंडल के उदय ने एक उल्लेखनीय सीमा तक संसद की शक्ति और स्थिति को कमजोर किया है, उसकी कार्यवाहियों का महत्व घटाया है, और ऐसा दिखने लगा है कि संसद मुख्य रूप से सर्वशक्तिमान मंत्रिमंडल की आलोचना ही करती रहती है। मंत्रिमंडल ऐसा प्रमुख मंच बनकर उभरा है जहाँ नीतियों पर विचार करके उन्हें अंतिम रूप दिया जाता है जबकि संसद उन पर कमोबेश एक औपचारिकता के रूप में बहस करती है। संसद में अगर मंत्रिमंडल को पूर्ण बहुमत प्राप्त हो तो वह इस स्थिति में भी नहीं होती कि इन नीतियों को बदल सके। संसदीय शासन प्रणाली में आखिरी आवाज मंत्रिमंडल की ही होती है। यह बात अंग्रेजी मॉडल पर आधारित सभी विधायिकाओं पर लागू होती है। एक ओर राष्ट्रपति के अंकुश तथा दूसरी ओर न्यायिक समीक्षा की शक्ति के कारण अमेरिकी कांग्रेस अपनी विधायी स्वायत्तता को काफी हद तक खो चुकी है। कम्युनिस्ट देशों की विधायिकाओं को इतनी मामूली सत्ता भी प्राप्त नहीं, बल्कि उनका उपयोग प्रचार के कार्यों के लिए किया जाता है। वे ‘राजनीतिक व्यवस्था में कहीं और किए गए फैसलों पर मुहर लगाती हैं।

विधायिका के ह््रास के आरोप की पुष्टि निम्नलिखित बातों से होती है। एक, जो सत्ता मूलतः विधायिकाओं के हाथ में होती थी उसे कार्यपालिकाओं ने छीन लिया है। बहत सारी बातों का फैसला मंत्रिमंडल करता है, जैसे संसद का सत्र बुलाना और विसर्जित करना, राज्य के प्रमुख द्वारा दिए जाने वाले उद्घाटन भाषण का पाठ लिखना, सदन के सत्र की समय-सारणी तैयार करना और ऐसे बहुत से दूसरे कार्य करना जो संसद के कार्यकलाप के अंग होते हैं। अमेरिका जैसे देश में विधायिका भले ही कार्यपालिका से अलग हो, राष्ट्रपति कांग्रेस द्वारा पारित किसी विधेयक को अपनी सोच के अनुसार रद्द कर देता है। वह कांग्रेस को ‘संदेश‘ भी भेज सकता है और अपने ‘मित्रों‘ की सहायता से कुछ विधेयक पारित करा सकता है। फ्रांस जैसे एक देश में जहाँ हमें संसदीय व राष्ट्रपतीय प्रणालियों का मिश्रण दिखाई देता है, राष्ट्रपति तो संसद को भंग करने की सीमा तक भी जा सकता है।

दूसरे, किसी विधेयक की संविधानिक वैधता को परखने की अदालतों की शक्ति ने भी विधायिकाओं की शक्ति को प्रभावित किया। यह बात ब्रिटेन पर लागू नहीं होती, लेकिन अमेरिका पर होती है जहाँ संघीय न्यायपालिका को न्यायिक समीक्षा की शक्ति दी गई है। इसके अंतर्गत संघीय न्यायपालिका अगर किसी कानून को देश के संविधान के अनुकूल नहीं पाती या उससे संविधान का हनन होते देखती है तो उसे रद्द घोषित कर सकती है।

आखिरी बातद्य आधुनिक विधायिकाओं की सत्ता को वास्तव में जिस चीज ने कमजोर किया है वह दलगत राजनीति की भूमिका। पार्टी के सर्वोच्च नेता सदस्यों को सख्त नियंत्रण में रखते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि सदस्यों के पास आधिकारिक लाइन को मानने के अलावा और कोई रास्ता नहीं बचता।

हालांकि विधायिकाओं की शक्ति और प्रतिष्ठा में कमी आ रही है, पर फिर भी वे कम या अधिक शक्ति के साथ काम कर ही रही हैं। हरेक राजनीतिक व्यवस्था में विधायिका को आज भी एक औपचारिक केन्द्र के रूप में महत्व दिया जाता है। इसलिए यह बात सही ही कही गई है कि ‘ह््रास तो देखनेवाले की निगाह में है और उसके विश्लेषण के परिप्रेक्ष्यों पर निर्भर है।‘

बोध प्रश्न 2
नोटः क) अपने उत्तरों के लिए नीचे दिए गए स्थान का प्रयोग कीजिए।
ख) इस इकाई के अंत में दिए गए उत्तरों से अपने उत्तर मिलाइए।
1) एक सदनी और दो सदनी विधायिकाओं में उदाहरण देकर अंतर बतलाइए।
2) विधायिकाओं के कोई तीन कार्य बतलाइए।
3) विधायिकाओं के ह््रास के कारण बतलाइए।

बोध प्रश्न 2
1) आधुनिक लोकतांत्रिक विधायिकाएँ या तो एक सदनी हैं, जैसे चीन में जहाँ राष्ट्रीय जन कांग्रेस जनता की प्रतिनिधि है तथा कोई और सदन उसकी शक्तियों में साझीदार नहीं है, या दो सदनी है जिनमें विधायिका के दो सदन होते हैं। ब्रिटेन, अमेरिका, भारत, स्विट्जरलैण्ड आदि में दो सदनी विधायिकाएँ हैं। निचला सदन हमेशा जनता द्वारा निर्वाचित होता है। ऊपरी सदन ब्रिटेन की तरह मनोनीत, अमेरिका की तरह प्रत्यक्ष निर्वाचित या भारत की तरह अप्रत्यक्ष निर्वाचित हो सकता है। अमेरिका का सीनेट नामक ऊपरी सदन हाउस ऑफ रिप्रेजोटेटिव्स नामक निचले सदन से अधिक शक्तिशाली है। आमतौर पर निचला सदन (भारत में लोकसभा) ऊपरी सदन से अधिक शक्तिशाली होता है।

2) विधायिका का प्रमुख कार्य कानून बनाना और बजट पारित करना है। ब्रिटेन और भारत में विधायिका मंत्रियों को सीधे-सीधे नियंत्रित करती है क्योंकि निचला सदन प्रधानमंत्री तथा मंत्रीपरिषद को हटा सकता है। विधायिकाओं को कुछ निर्वाचन शक्तियाँ भी प्राप्त हैं। जैसे भारत में राष्ट्रपति का चुनाव संसद के दोनों सदनों व राज्य विधानसभाओं द्वारा किया जाता है। राष्ट्रपतियों व न्यायाधीशों को केवल महाभियोग चलाकर हटाया जा सकता है।
3) कार्यपालिका में पुराने अविश्वास की जगह उसके नेतृत्व में एक नया विश्वास जगा है। विधायिकाओं का आकार बड़ा होता है, वे अनेक मुद्दों पर बहस करती हैं व सामान्यतः काम के बोझ से दबी होती हैं। दलीय व्यवस्था अकसर कार्यपालिका को भारी शक्तियाँ देती है जो विधायिका में अपने सदस्यों तक को नियंत्रित करती है। एक दलीय राज्यों में शासन के सभी अंगों पर पार्टी का वर्चस्व होता है जिससे विधायिका का ह््रास होता है।