संयुक्त राष्ट्र अंतर्राष्ट्रीय बाल आपात निधि क्या है , United Nations International Childrens Emergency Fund

United Nations International Childrens Emergency Fund in hindi संयुक्त राष्ट्र अंतर्राष्ट्रीय बाल आपात निधि क्या है ?

बाल कल्याण में सम्मिलित संयुक्त राष्ट्र एजेंसियाँ
अनेक संयुक्त राष्ट्र (यू.एन.) एजेंसियाँ विश्व के विकासशील देशों के बच्चों के लिए तथा उनके विकास के लिए कार्य कर रही हैं। इनमें सबसे बड़े संगठन जिनका बच्चों की समस्याओं से प्रत्यक्ष संबंध है, विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यू.एच.ओ.) तथा संयुक्त राष्ट्र बाल निधि (यूनिसेफ) हैं।

यूनिसेफ
1946 में संयुक्त राष्ट्र महासभा ने युद्ध के बाल पीड़ितों को सहायता देने तथा युद्ध से प्रभावित देशों के बच्चों के स्वास्थ्य में सुधार करने के लिए संयुक्त राष्ट्र बाल निधि (United Nations Childrens Fund) की स्थापना की। चूंकि यह एक आपातकालीन उपाय था, इसलिए इसे संयुक्त राष्ट्र अंतर्राष्ट्रीय बाल आपात निधि (United Nations International Childrens Emergency Fund) कहा गया।

1950 में इस कार्यक्रम में अल्पविकसित देशों के बच्चों को भी शामिल कर लिया गया। 1953 में यह एक स्थायी संगठन बन गया। इसमें विकासशील देशों के बच्चों तथा माताओं के जीवन स्तर में सुधार लाने वाले विकास कार्यों में सहायता देने पर बल दिया गया। यूनिसेफ ने चार प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल तकनीकों को सर्वसुलभ बनाने पर ध्यान केंद्रित किया, जिनकी लागत कम है तथा इससे अपेक्षाकृत थोड़े ही समय में परिणाम मिल जाते हैं। इनमें शामिल हैं रू अतिसार के संक्रमण के प्रभावों से बचने के लिए मुख द्वारा पुनः जलयोजन चिकित्सा (rehydration theraphy), शैशवावस्था में होने वाले छह प्रमुख सामान्य रोगों से बचने के लिए विस्तृत प्रतिरक्षीकरण, बाल विकास का अनुवीक्षण तथा स्तनपान को प्रोत्साहन देना। यूनिसेफ विश्व स्वास्थ्य संगठन के सहयोग से मिलकर काम करता है। यूनिसेफ टीकाकरण (vaccine) तथा उन्हें वितरित करने में आवश्यक ठंडा करने के उपस्करों के साथ-साथ मुख से पुनः जलयोजन लवणों का विश्व का सबसे बड़ा पूर्तिकार है।

 अंतर्राष्ट्रीय बालिका वर्ष एवं दशक तथा भारतीय परिदृश्य
1959 के बाल अधिकारों की संयुक्त राष्ट्र घोषणा तथा 1989 में संयुक्त राष्ट्र बाल अधिकार सम्मेलन में बालक-बालिका के बीच भेदभाव या बालिका शिशु के प्रति अन्याय पर सही तरह से ध्यान नहीं दिया गया। प्रारंभ में महिलाओं तथा बाल विकास पर सार्क तकनीकी समिति (SAARc~ Technical Committee) ने भी बालिका शिशु पर ध्यान केंद्रित नहीं किया। 1986 में बच्चों पर अपनी कांग्रेस में सार्क (दक्षिण एशिया क्षेत्रीय सहयोग संघ) ने प्रत्येक तकनीकी कमेटी में बच्चों की विशिष्ट समस्याओं की जाँच करने का निश्चय किया।

 सार्क देशों द्वारा की गई पहल
सार्क (SAARC) देशों ने बालिका के निम्न स्थान के प्रति जागरूकता पैदा करने तथा उनके प्रति भेदभाव समाप्त करने के लिए सुधारात्मक उपायों की कार्य योजना पर सहमति दे दी है। नई दिल्ली में सितम्बर 1988 में हुई सार्क कार्यगोष्ठी में 7 सार्क देशों- भारत, पाकिस्तान, बंगलादेश, नेपाल, भूटान, श्रीलंका तथा मालद्वीप में बालिका शिशु के प्रति भेदभाव के विरोध में अभियान को निर्णायक दबाव देने की दृष्टि से वर्ष 1990 को ष्बालिका वर्षष् घोषित करने का निश्चय किया गया। 1990 के दशक को ष्बालिका शिशु दशकष् घोषित किया गया।

 बालिका रू भारतीय परिदृश्य
धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक तथा आर्थिक परिवेश के संदर्भ में यहाँ हमें भारत की बालिकाओं की निम्न स्थिति को देखना है। ये सारे घटक मिलकर बालिका के प्रति भेदभाव बनाए रखने में सहायक हैं। बालिका के जन्म पर खुशी नहीं दुःख मनाया जाता है। यदि किसी महिला के दो या तीन बेटियाँ पैदा हो जाती हैं तो उसे तिरस्कृत किया जाता है।

बालिका को बहुत कम बार तथा बहुत कम समय के लिए स्तनपान कराया जाता है। बालिकाओं को काफी पहले से ही स्तनपान छुड़ाने की कोशिश की जाती है। माता-पिता उसे घटिया किस्म का आहार देते हैं तथा उसे भर पेट खाने भी नहीं देते क्योंकि उन्हें भय रहता है कि वह बहुत जल्दी बड़ी न हो जाए। माता-पिता सोचते हैं कि लम्बी तथा भारी भरकम लड़कियाँ अस्त्रियोचित लगती हैं तथा उनके लिए वर ढूँढने में भी कठिनाई होती है। लड़कियों के धीरे-धीरे बढ़ने से माता-पिता को उनके विवाह के लिए दहेज जुटाने का समय मिल जाता है। इस प्रकार बालिका को पूरे जीवन भर अच्छा तथा पोषक आहार नहीं मिल पाता है।

लड़की को ‘‘पराया धन‘‘ (दूसरे की संपत्ति) समझा जाता है इसलिए उसके पालन-पोषण पर किसी भी प्रकार के खर्च को फिजूलखर्ची समझा जाता है। उसे अपने व्यक्तित्व का विकास करने के पूरे अवसर भी नहीं दिए जाते। दूसरी ओर उसे घरेलू कामकाज में लगा दिया जाता है जिससे वह अपने सास-ससुर को स्वीकार्य हो सके। उसे वे सभी कामकाज सिखाए जाते हैं जो उसे अपने सास-ससुर के घर में करने पड़ सकते हैं। उसे दूसरों के अधीनस्थ रहना तथा आत्म-त्याग करना सिखाया जाता है। उसे विचार, बोलचाल, पहनने-ओढ़ने तथा आहार में अति संयम रखने की आदत सिखाई जाती है।

लड़कियों में अस्वस्थता का अनुक्रम अधिक होता है। परंतु उन्हें बहुत कम चिकित्सा उपचार प्राप्त होते हैं। उन्हें जानलेवा बीमारियों के लिए भी कम प्रतिरक्षित कराया जाता है। बहुत कम लड़कियों का ही स्कूलों में नाम लिखाया जाता है। हमारी संस्कृति में कुरीति के चलते लड़कों की अपेक्षा लड़कियों को निम्न स्थान दिया गया है। सामाजिक मूल्यों तथा प्रतिमानों से लड़कों और लड़कियों के बीच असमानता को बढ़ावा मिलता है। आशा है कि बालिका दशक में उचित सामाजिक तथा आर्थिक कार्यक्रम शुरू किए जाएँगे जिनसे लड़कियों के प्रति भेदभाव में कमी हो जाएगी। तथापि, इस बीच बालिकाओं पर किए गए अन्यायों के प्रति लोगों में जागरूकता उत्पन्न करने के लिए स्वैच्छिक एजेंसियाँ, महिला मंडल, सामाजिक कार्यकर्ता तथा जन-संचार आदि ने कार्यक्रम बनाकर उसे जनता तक पहुँचाया है।