(tyloses in hindi) टाइलोसस के कार्य क्या है , tyloses are formed due to found in ?
काष्ठ में वाहिकाओं का विन्यास (arrangement of vessels in wood) : द्वितीयक जाइलम अथवा काष्ठ में वाहिकाओं की उपस्थिति और काष्ठ में इनके व्यवस्थाक्रम के आधार पर विभिन्न प्रकार की काष्ठ को दो प्रमुख श्रेणियों में विभेदित किया जा सकता है –
(1) अरन्ध्री काष्ठ (non porous wood) : कुछ अपवादों जैसे इफीड्रा को छोड़कर अनावृतबीजी पौधों के तनों में वाहिकाएं अनुपस्थिति होती है। अत: इस प्रकार की काष्ठ को अरंध्री काष्ठ अथवा मृदु काष्ठ कहते है।
(2) सरन्ध्री (porous wood) : द्विबीजपत्री तनों के जाइलम में वाहिकाएँ उपस्थित होती है। अत: वाहिकाओं की उपस्थिति के कारण इसे सरंध्री काष्ठ अथवा कठोर काष्ठ कहते है। हालाँकि कुछ पुरातन द्विबीजपत्री पौधों जैसे ड्रीमिस के तने में वहिनिकाएँ अनुपस्थिति हो सकती है।
द्वितीयक जाइलम अथवा काष्ठ में वाहिकाओं का विन्यास भी दो प्रकार का हो सकता है और विन्यास के आधार पर काष्ठ निम्नलिखित प्रकार की होती है –
(A) वलय छिद्रिल (ring porous wood) : इस काष्ठ में वाहिकाएं दो भिन्न व्यास की पायी जाती है। बसंत काष्ठ की वाहिकाएँ बड़ी गुहिका की जबकि शरद काष्ठ की वाहिकाएँ अपेक्षाकृत संकरी गुहिका की होती है। अर्थात दोनों में स्पष्ट अंतर पाया जाता है। इस प्रकार की काष्ठ वलय छिद्रिल काष्ठ कहलाती है।
(B) विसरित छिद्रिल (diffused porous wood) : कुछ पौधों के वृद्धि वलय में बसंत काष्ठ और शरद काष्ठ की वाहिकाओं की गुहिकाओं के व्यास में अंतर सुस्पष्ट दिखाई नहीं देता , इस प्रकार की काष्ठ को विसरित छिद्रिल कहते है। वाहिकाएं वृद्धि वलय में सामान्य रूप से विसरित अवस्था में पायी जाती है।
काष्ठ मृदुतक (wood parenchyma)
यह सजीव आयताकार अथवा बहुकोणीय मृदुतकी कोशिकाएँ होती है जो कि प्राथमिक और द्वितीयक दोनों प्रकार के जाइलम में पायी जाती है। द्वितीयक जाइलम में उपस्थित मृदुतकी कोशिकाएं अपेक्षाकृत मोटी भित्ति वाली होती है और इनमें प्राय: गुम्बारे के समान फूली हुई संरचनाओं टाइलोसस का निर्माण होता है और तत्पश्चात यह मृत हो जाती है। जीवित जाइलम मृदुतक कोशिकाएँ प्राय: विभिन्न पदार्थो जैसे – स्टार्च , टेनिन और वसा आदि का संचय करती है। इसके अतिरिक्त यह जाइलम ऊतक में जल के अरीय अभिगमन में भी विशेष रूप से सहायक होती है।
द्वितीयक जाइलम में उपस्थिति मृदुतकी कोशिकाओं को दो वर्गों में विभक्त किया जा सकता है।
1. अक्षीय मृदुतक (axial parenchyma) : इनका विकास जाइलम के अन्य वाहिकीय तत्वों के साथ केम्बियम की तर्कुरूप प्रारम्भिका कोशिकाओं से होता है। ये कोशिकाएँ तने की लम्बाई के समान्तर व्यवस्थित होती है। अक्षीय मृदुतक का काष्ठ में वितरण निम्नलिखित दो प्रकार का हो सकता है –
(i) अपवाहिनिकी प्रारूप (apotracheal type) : इस प्रकार के विन्यास में जाइलम मृदुतक कोशिकाएँ वाहिकाओं के सम्पर्क में नहीं रहती अथवा फिर इनमें लगभग नहीं के बराबर वाहिकाओं से आपसी सम्पर्क पाया जाता है। इस प्रकार का विन्यास भी निम्न उपश्रेणियों में विभेदित किया जा सकता है –
(a) विसरित : यहाँ जाइलम मृदुतक कोशिकाएँ रेशे और वाहिकाओं के बीच अकेली पायी जाती है।
(b) पट्टिकारूपी : यहाँ जाइलम मृदुतक कोशिकाएँ पट्टिका के समान संरचनाओं का निर्माण करती है।
(c) सीमान्त : यहाँ जाइलम मृदुतक कोशिकाएँ वार्षिक वलय के शुरू में अथवा अंत में पट्टी के रूप में पायी जाती है।
(ii) उपवाहिनिकी प्रकार : यहाँ जाइलम मृदुतकी कोशिकाएँ सुस्पष्ट रूप से जाइलम वाहिकाओं के सम्पर्क में दिखाई पड़ती है। इस प्रकार के विन्यास को भी निम्नलिखित दो उपश्रेणियों में विभेदित किया जा सकता है –
(a) अपाक्ष : इस व्यवस्था क्रम में जाइलम मृदुतकी कोशिकाएँ वाहिका में परिधीय क्षेत्रों अर्थात केन्द्रीय भाग से दूर वाले हिस्सों के सम्पर्क में रहती है।
(b) वाहिका केन्द्रीय प्रकार : यहाँ मृदूतक कोशिकाएं जाइलम वाहिका को पूरी तरह से घेरे रहती है।
2. किरण मृदुतक (ray parenchyma) : किरण मृदुतक कोशिकाएँ कैम्बियम की किरण प्रारम्भिक कोशिकाओं से बनती है और आकार में छोटी होती है। ये कोशिकाएं अरीय अनुप्रस्थ , क्रम में व्यवस्थित होती है।
आवृतबीजी और जिम्नोस्पर्स पौधों के तनों में मृदुतकी कोशिकाओं द्वारा निर्मित जाइलम रश्मियाँ ऊपर से नीचे तक एक सुस्पष्ट अरीय तंत्र के रूप में उपस्थित रहती है। एक ही प्रकार की कोशिकाओं से बनी किरण समांगी और एक से अधिक प्रकार की कोशिकाओं से बनी किरण विषमांगी कहलाती है।
जिम्नोस्पर्म्स के तनों में उपस्थित जाइलम रश्मियाँ एक अथवा एक से अधिक पंक्तियों में व्यवस्थित होती है और यह विषमांगी होती है। अर्थात विभिन्न आकृतियों और साइज़ की मृदुतक कोशिकाओं से मिलकर बनती है और इसके पुरातन स्वभाव को प्रदर्शित करती है। आवृतबीजी पौधों में जाइलम रश्मियाँ एक अथवा एक से अधिक पंक्तियों में पायी जाती है और समांगी अथवा विषमांगी होती है अथवा दोनों प्रकार की हो सकती है और एक ही तने में एक साथ उपस्थित होती है।
द्वितीयक वृद्धि के प्रारंभ में जाइलम रश्मियाँ एक दूसरे के पास पास पायी जाती है लेकिन तने की द्वितीयक वृद्धि के परिणामस्वरूप जैसे जैसे इसके व्यास में वृद्धि होती है तो यह एक दूसरे से दूर चली जाती है।
जाइलम रश्मियों का प्रमुख कार्य जाइलम के बाहर अवस्थित कोशिकाओं तक जल और खाद्य पदार्थो के सञ्चालन और संवहन का होता है।
टाइलोसस (tyloses)
अनेक द्विबीजपत्री पौधों के तनों में परिपक्व काष्ठ की जाइलम मृदुतक कोशिकाओं में और रश्मि मृदुतक कोशिकाओं में फूली हुई अतिवृद्धियां उत्पन्न होती है जो संलग्न वाहिकाओं में भित्तीय गर्तों के द्वारा प्रवेशित हो जाती है। वाहिकाओं की गुहा में प्रवेश करके यह गुब्बारे के समान फूल जाती है। इन फूली हुई गुब्बारे के जैसी संरचनाओं को जो वाहिका गुहाओं में पायी जाती है , टाइलोसस कहते है।
यह टाइलोसस प्राय: निष्क्रिय होती हुई , द्वितीयक जाइलम काष्ठ से बनती है। कई बार वाहिकाओं की गुहा में इनकी संख्या इतनी अधिक हो जाती है कि पूरी वाहिका गुहा टाइलोसस से भर जाती है। टाइलोसस के पूरी तरह से विकसित हो जाने पर प्राय: इसमें अनेक अजैव कोशिकीय रासायनिक पदार्थ , जैसे – स्टार्च , क्रिस्टल और रेजिन और गोंद आदि भर जाते है। पुराने टाइलोसस की भित्ति भी मोटी हो जाती है।
टाइलोसस की आकृति और साइज़ वाहिकाओं के व्यास पर निर्भर करती है। वे जाइलम ऊतक जिनमें जाइलम मृदुतक नहीं पाया जाता है और रश्मि मृदुतक भी नहीं होता , उस द्वितीयक जाइलम की वाहिकाओं में टाइलोसस नहीं पाए जाते। टाइलोसस संरचनाएँ प्राय: अन्त: काष्ठ में अधिक संख्या में पायी जाती है और इनमें भरे अजैव पदार्थ जल और वायु के प्रवेश को रोकने में सक्षम होते है। और इनमें जीवाणु और कवक का संक्रमण भी इन्ही पदार्थो जैसे रेजीन और गोंद के कारण नहीं हो सकता। इस प्रकार अन्त: काष्ठ को अधिक उपयोगी , मजबूत और आर्थिक रूप से महत्वपूर्ण बनाने में टाइलोसस का सक्रीय योगदान होता है। कुछ द्विबीजपत्री तनों जैसे ओक , मोरस और वाइटिस की काष्ठ में टाइलोसस की बहुलता पायी जाती है। तने में घाव के भरने के समय भी टाइलोसस का निर्माण होता है।