चंपानेर की संधि कब हुई थी ? चंपानेर की संधि क्या है ? treaty of champaner in hindi agreement of champaner

agreement of champaner treaty of champaner in hindi ?

 प्रश्न : चंपानेर की संधि कब हुई थी ? चंपानेर की संधि क्या है ?

उत्तर : यह संधि मालवा के सुल्तान महमूद खिलजी और गुजरात के सुल्तान कुतुबुद्दीन के मध्य 1456 ईस्वी में राणा कुम्भा के विरुद्ध हुई। मांडू के शासक महमूद खिलजी और गुजरात के शासक के प्रतिनिधियों ने चम्पानेर में एक अहदनामे पर हस्ताक्षर किये। इसके अनुसार मालवा और गुजरात की संयुक्त सेना मेवाड़ पर आक्रमण करेगी और विजय के उपरान्त मेवाड को आपस में बाँट लिया जायेगा। 1456 ईस्वी में दोनों की संयुक्त सेना ने राणा के विरुद्ध युद्ध किया परन्तु कुम्भा को नहीं हरा सके। फरिश्ता के अनुसार दोनों सेनाओं से राणा को हारना पड़ा तथा उन्हें विपुल धनराशी देकर विदा करना पड़ा। कीर्तिस्तम्भ प्रशस्ति में राणा द्वारा दोनों सुल्तानों की सेनाओं का मंथन किया जाना लिखा है। रसिकप्रिया में भी सुल्तानों को राणा द्वारा हराया जाना लिखा है।

प्रश्न : आल्हा और ऊदल के बारे में जानकारी दीजिये ?

उत्तर : महोबा के चन्देल शासक परमार्दिदेव के दो वीर सेनानायक रूठकर पडौसी राज्य में चले गए थे। जब 1182 ईस्वी में पृथ्वीराज चौहान ने महोबा पर आक्रमण किया तो परमार्दिदेव ने उनके पास सन्देश भेजा कि पृथ्वीराज ने तुम्हारी मातृभूमि पर आक्रमण कर दिया है। दोनों परमवीर सेनानायक पृथ्वीराज के विरुद्ध वीरता से लड़ते हुए अपनी मातृभूमि की रक्षार्थ वीरगति को प्राप्त हुए। वे अपनी वीरता , शौर्य और बलिदान के कारण इतिहास में अमर हो गए। इनके शौर्य गीत “जब तक आला उदल है तुम्हे कौन पड़ी परवाह” आज भी जनमानस को उद्वेलित करते है।

प्रश्न : हम्मीर देव अपने शासन के अंतिम दिनों में अपनी प्रजा में क्यों अलोकप्रिय हो गया था ?

उत्तर : हम्मीर ने अपने शासन के अंतिम दिनों में प्रजा पर अत्यधिक कर लगाये जिससे वह प्रजा में अलोकप्रिय हो गया। अलाउद्दीन ने लम्बे समय तक संघर्ष करने के लिए धन की अति आवश्यकता थी। उस समय चारों तरफ से वह घिरा हुआ था। अत: इन विषम परिस्थितियों और द्वैषी धर्मसिंह की चालों के कारण उसे जनता पर अत्यधिक कर लगाना पड़ा। जबकि प्रजा का यह मानना था कि यदि वह सुल्तान के उन शत्रुओं को छोड़ देता जिन्हें शरणागत किया है तो युद्ध ही नहीं होता। इसलिए प्रजा में वह अलोकप्रिय हो गया।

प्रश्न : तराइन के दुसरे युद्ध में पृथ्वीराज की पराजय के कारणों की विवेचना कीजिये। 

उत्तर : पृथ्वीराज के पास विशाल सेना के होते हुए भी उसके पराजित होने के अनेक कारण थे। मिनहाज उस सिराज के अनुसार गौरी की सेना सुव्यवस्थित और पृथ्वीराज की सेना एकदम अव्यवस्थित थी जो उसकी हार का सबसे बड़ा कारण था। राजपूत योद्धा मरना जानता था परन्तु युद्ध कला में निपुण नहीं था। सामन्ती सेना की वजह से केन्द्रीय नेतृत्व का अभाव होना , अच्छे लड़ाका और अधिकारियों का प्रथम युद्ध में काम आना भी पराजय के बहुत बड़े कारण थे। सुबह सुबह शौचादि के समय असावधान राजपूत सेना पर अचानक आक्रमण करना , अश्वपति , प्रतापसिंह जैसे सामन्तों का गौरी से अपने स्वामी को हराने के भेद शत्रुओं को बताना भी हार का कारण बना। प्रथम युद्ध को अंतिम युद्ध मानकर उपेक्षा का आचरण करना , उत्तर पश्चिमी सीमा की सुरक्षा का उपाय न करना , दिग्विजय निति से अन्य राजपूत शासकों को अपना शत्रु बनाना और युद्ध के समय एक मोर्चा न बनाने के लिए पृथ्वीराज स्वयं जिम्मेदार था।

प्रश्न : तराइन के द्वितीय युद्ध के क्या परिणाम निकले ?

उत्तर : यह युद्ध भारतीय इतिहास का एक टर्निंग पॉइंट था जिसके परिणामस्वरूप भारत में मुस्लिम सत्ता की स्थापना हुई तथा हिन्दू सत्ता का अंत हुआ। आर.सी. मजूमदार के शब्दों में इस युद्ध से न केवल चौहानों की शक्ति का विनाश हुआ , अपितु पूरे हिन्दू धर्म का विनाश ला दिया। इसके बाद लूटपात , तोड़फोड़ , बलात्कार , धर्म परिवर्तन , मंदिरों मूर्तियों का विनाश आदि का घृणित प्रदर्शन हुआ जिससे हिन्दू कला तथा स्थापत्य का विनाश हुआ। इस्लाम का प्रचार प्रसार , फ़ारसी शैली का आगमन , मध्य एशिया से आर्थिक सांस्कृतिक सम्बन्धों की स्थापना , वाणिज्य व्यापार और नगरीकरण का प्रसार , नए वर्गों और शिल्पों का विकास आदि इसके दूरगामी परिणाम थे जिसे इरफ़ान हबीब नयी शहरी क्रान्ति की संज्ञा देते है।

प्रश्न : हम्मीरदेव चौहान का मुल्यांकन कीजिये। 

उत्तर : रणथम्भौर के हम्मीर देव चौहान ने दिग्विजय का संपादन कर 17 युद्धों में विजयी होकर , अपने साम्राज्य का विस्तार कर वीर योद्धा और कुशल सेनानायक का परिचय दिया। वह ब्राहमणों , विद्वानों और कलाकारों का आश्रयदाता और भारतीय दर्शन , साहित्य और कला का संरक्षक था। बीजादिव्य जैसे कवि उसके दरबारी थे और विश्वरूप के निर्देशन में कोटि यज्ञों का आयोजन किया और अनेक विद्यालयों , मंदिरों का निर्माण करवाया। उसने भारतीय संस्कृति की अमूल्य धरोहर शरणागत धर्म की पालना में अपना परिवार , राज्य , सम्पति सबको दांव पर लगा दिया। यह कहना कि वह शरणागतों को लौटाकर राज्य की रक्षा कर सकता था तो यह मात्र ऐसा सोचना है। वास्तव में यह तो युद्ध का एक बहाना मात्र था।

प्रश्न : सवाई जयसिंह का ज्योतिष और नक्षत्र क्षेत्र में योगदान बताइए ?

उत्तर : सवाई जयसिंह ने अपने गणित और ज्योतिष के अध्ययन तथा प्रयोगों द्वारा सूर्य , चन्द्र और नक्षत्रों की गति का सूक्ष्मतिसूक्ष्म परिज्ञान के लिए दिल्ली , जयपुर , उज्जैन , बनारस तथा मथुरा में पाँच बड़ी बड़ी वेधशालाएँ (जंतर मंतर) बनवाई। यूनानी ग्रंथों के अनुवाद से त्रिकोणमिति और लघु गणकों के व्यवहार का अध्ययन कर अपने द्वारा निर्मित यंत्रों में लघुतम गणना के सिद्धान्तों को इस तरह स्थापित किया कि इन नव निर्मित वेधशालाओं में नक्षत्रादी की गति की जानकारी शुद्ध रूप में जानी जा सके। इस दिशा में उसका कार्य श्लाघनीय माना जाता है।