ऊष्मागतिकी फलन या अवस्था फलन तथा पथ फलन , ऊष्मागतिकीय प्रक्रम , उत्क्रमणीय व अनुत्क्रमणीय प्रक्रम में अन्तर 

ऊष्मागतिकी फलन या अवस्था फलन तथा पथ फलन : वे अवस्था फलन जिन्हें केवल तंत्र की प्रारंभिक एवं अंतिम अवस्था से ही ज्ञात किया जाता है तथा ये उस पथ पर निर्भर नहीं करते जिस पथ से तंत्र प्रारम्भिक अवस्था से अंतिम अवस्था में आता है।  उष्मागतिकी फलन या अवस्था फलन तथा पथ फलन कहलाते है।
वे अवस्था चर जिनके मान उस पथ पर निर्भर करते है जिस से तंत्र अपनी प्रारंभिक अवस्था से अंतिम अवस्था में आता है , पथ फलन कहलाता है।
आंतरिक ऊर्जा : आन्तरिक रूप से निहित पदार्थ की समस्त उर्जा को आंतरिक ऊर्जा कहते है। इसे E या U से दर्शाते है , इसमें कई ऊर्जाओं का समावेश होता है।
उदाहरण : अणुओं की स्थानांतरण , घूर्णन या कम्पन्न के कारण उर्जा , इलेक्ट्रॉन की गतिज ऊर्जा बंधन ऊर्जा , नाभिकीय उर्जा आदि।
आंतरिक ऊर्जा तंत्र की प्रारंभिक व अंतिम अवस्था पर निर्भर करती है , अवस्था परिवर्तन के पथ पर नहीं।
अत: आंतरिक ऊर्जा एक अवस्था फलन है अर्थात
E = E1 – E2
एन्थैल्पी (H) : स्थिर दाब पर किसी तंत्र की पूर्ण ऊष्मा को एंथैल्पी कहते है।
या
स्थिर दाब पर किसी तंत्र की एन्थैल्पी उस तंत्र की आंतरिक ऊर्जा तथा दाब आयतन कार्य के योग के बराबर होती है।  अर्थात
H = E + PV
E , P , V आदि अवस्था फलन है अत: एन्थैल्पी भी अवस्था फलन होती है अर्थात यह तंत्र की प्रारंभिक व अंतिम अवस्थाओं पर निर्भर करती है।
माना स्थिर दाब पर किसी तंत्र की प्रारंभिक व अंतिम अवस्थाओं की एन्थैल्पी H1 व H2 है , अत: एन्थैल्पी में परिवर्तन ;
△H = H2 – H1
H1 = E1 + PV1
H2 = E2 + PV2
△H = [E2 + PV2] – [E1 + PV1]
△H = E2 + PV2 – E1 – PV1
△H = [E2 – E1] + P[V2 – V1]

△H = △E + P△V

ऊष्मागतिकीय प्रक्रम

वह प्रक्रिया जिसके द्वारा किसी तंत्र को एक अवस्था से दूसरी अवस्था में बदला जाता है उसे ऊष्मागतिकी प्रक्रम कहते है।
ये प्रक्रम निम्न है –
1. समतापी प्रक्रम (dT = 0) : स्थिर ताप पर किये जाने वाले प्रक्रम को समतापी प्रक्रम कहते है।
ताप स्थिर रखने के लिए तंत्र अपने परिवेश से ऊष्मा का आदान प्रदान करने के लिए स्वतंत्र होता है।
यदि प्रक्रम ऊष्माक्षेपी होता है तो मुक्त हुई ऊष्मा परिवेश को दे दी जाती है , तथा यदि प्रक्रम ऊष्माशोषी होता है तो परिवेश से ऊष्मा ले ली जाती है जिससे तंत्र का ताप समान होता है।
2. समदाबी प्रक्रम (dP = 0) : स्थिर दाब पर किये जाने वाले प्रक्रम को समदाबी प्रक्रम कहते है।  समदाबी प्रक्रम में तंत्र के आयतन में परिवर्तन होता है।
3. समआयतनीक प्रक्रम (dV = 0) : स्थिर आयतन पर किये जाने वाले प्रक्रम को समआयतनिक प्रक्रम कहते है। समआयतनिक प्रक्रम में दाब में परिवर्तन होता है।
4. रुदोष्म प्रक्रम (dq = 0) : वह प्रक्रम जिसमें तंत्र व परिवेश के मध्य ऊष्मा का आदान प्रदान नहीं होता है उसे रुदोष्म प्रक्रम कहते है।
यदि प्रक्रम ऊष्माक्षेपी है तो तंत्र के ताप में वृद्धि होती है तथा यदि प्रक्रम उष्माक्षेपी है तो तंत्र के ताप में कमी होती है।
5. चक्रीय प्रक्रम : वह प्रक्रम जिसमें तंत्र विभिन्न अवस्थाओं से गुजरता है तथा पुनः उसी अवस्था (प्रारंभिक अवस्था) में आ जाता है तो उसे चक्रीय प्रक्रम कहते है।
6. उत्क्रमणीय प्रक्रम : जब किसी प्रक्रम में प्रेरक बल की मात्रा प्रतिरोधी बल की मात्रा से अनंत सूक्ष्म अधिक होती है तो वह प्रक्रम उत्क्रमणीय प्रक्रम कहलाता है।
उत्क्रमणीय प्रक्रमों द्वारा अधिकतम कार्य प्राप्त किया जाता है तथा इनके पूर्ण होने में अन्नत समय लगता है।
अत: इनको आदर्श प्रक्रम भी कहते है।
तंत्र  की अवस्था के चर (PVt) परिवेश की अवस्था चरों से अन्नत सूक्ष्म मात्रा में भिन्न होते है।
7. अनुत्क्रमणीय प्रक्रम : जब किसी प्रक्रम में प्रेरक बल की मात्रा प्रतिरोधी बल की मात्रा से बहुत बहुत अधिक होती है तो वह प्रक्रम अनुत्क्रमणीय प्रक्रम कहलाता है।
ये प्रक्रम स्वत: संपादित होते है तथा तीव्र गति से होते है।  इन प्रक्रमों में तंत्र अवस्था चर परिवेश के अवस्था चरों से निश्चित मात्रा में भिन्न होते है।

उत्क्रमणीय व अनुत्क्रमणीय प्रक्रम में अन्तर

 उत्क्रमणीय प्रक्रम
 अनुत्क्रमणीय प्रक्रम
 1. प्रेरक बल की मात्रा प्रतिरोधी बल की मात्रा से अन्नत सूक्ष्म अधिक होती है।
 प्रेरक बल की मात्रा प्रतिरोधी बल की मात्रा से अत्यधिक होती है।
 2. यह अत्यंत मंद गति से सम्पन्न होने वाला प्रक्रम है।
 इनकी गति तीव्र होती है।
 3. परिवेश में कोई स्थायी परिवर्तन हुए बिना ये अपनी प्रारंभिक अवस्था को प्राप्त कर सकते है।
 परिवेश में कोई स्थायी परिवर्तन हुए बिना अपनी प्रारंभिक अवस्था प्राप्त करना असम्भव होता है।
 4. ये प्रक्रम किसी भी दिशा में सम्पन्न हो सकते है।
 ये प्रक्रम केवल एक ही दिशा में सम्पन्न होते है।
 5. इन प्रक्रमों से अधिकतम कार्य की प्राप्ति होती है।
 कार्य की मात्रा कम प्राप्त होती है।