ऊर्जा के संरक्षण का सिद्धांत समझाइए The law of Conservation of Energy in hindi उदाहरण सहित लिखिए

ऊर्जा के संरक्षण का सिद्धांत समझाइए The law of Conservation of Energy in hindi उदाहरण सहित लिखिए विस्तार से समझाइये भौतिक विज्ञान में ?

ऊष्मागतिकी का प्रथम नियम ऊर्जा के संरक्षण का सिद्धान्त (First law of Thermodynamics-The law of Conservation of Energy) 

ऊष्मागतिकी का प्रथम नियम ऊर्जा संरक्षण का नियम कहलाता है। इसके अनुसार “ऊर्जा को न तो उत्पन्न और न ही नष्ट किया जा सकता है। परन्तु ऊर्जा को एक रूप से दूसरे रूप में परिवर्तित किया जा सकता है।” ऊष्मागतिकी के प्रथम नियम को निम्न प्रकार से भी व्यक्त किया जा सकता है। किसी तंत्र (निकाय) ओर उसके पारिपाश्विक की कुल ऊर्जा स्थिर रहती है। यद्यपि ऊर्जा रूप से दूसरे रूप में परिवर्तित की जा सकती है या एक विलगित तंत्र की सभी प्रकार की ऊर्जा निश्चित एवं संहति अपरिवर्तित रहती है।

ऊष्मागतिकी के प्रथम नियम से निम्नलिखित निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं-

((1) ब्रह्माण्ड की कुल ऊर्जा स्थिर है अर्थात् किसी तंत्र ओर उसके पारिपार्शिवक की कुल ऊर्जा स्थिर रहती है, यद्यपि ऊर्जा रूपान्तरण संभव है।

(2) किसी प्रक्रम में यदि ऊर्जा के एक रूप की निश्चित मात्रा लुप्त होती है तो उसके तुल्य दूसरे प्रकार की ऊर्जा अन्य रूप में प्रकट अवश्य होती है।

(3) एक ऐसी शास्वत गति मशीन (Perpetual motion machine) बनाना संभव नहीं, जिस पर बिना ऊर्जा व्यय किये कार्य प्राप्त किया जा सके।

ऊष्मागतिकी के प्रथम नियम का गणितीय निरूपण (Mathematical formualtion of First law of Thermodynamics) :-

माना कि एक गैसीय तंत्र की अवस्था A में ऊर्जा E है। यह तंत्र ऊष्मा की कुछ मात्रा “q” अवशोषित कर अवस्था “B” में चला जाता है जहाँ उसकी ऊर्जा Eg हो जाती है। इस प्रकार तंत्र की ऊर्जा में हुई वृद्धि

E = EB – EA…………(19)

इस अवस्था परिवर्तन में माना कि तंत्र द्वारा किया गया कार्य w हो, तो प्रथम नियम के अनुसार- तंत्र द्वारा अवशोषित ऊष्मा ऊर्जा में वृद्धि + तंत्र द्वारा किया गया कार्य

अर्थात्   q = E + (-w)

तंत्र द्वारा किया गया कार्य ऋणात्मक होता है।

E =q+w……………..(20)

समीकरण (20) ऊष्मागतिकी के प्रथम नियम का गणितीय रूप है। यहाँ यह बात ध्यान देने योग्य है कि q तथा w यद्यपि अवस्थाफलन नहीं है, परन्तु इसका योग (q + w) एक अवस्थाफलन (AE) है। समीकरण (12) से w का मान समीकरण (20) में रखने पर प्रथम नियम का व्यंजक निम्नलिखित रूप में आ जाता है।

तंत्र द्वारा ऊष्मा अवशोषित करने पर q का मान धनात्मक (+q) तथा मुक्त करने पर ऋणात्मक (q) होता है। इसी प्रकार तंत्र द्वारा कार्य करने पर wका मान ऋणात्मक तथा तंत्र पर कार्य करने पर w का मान धनात्मक होता है।

जब तंत्र में अनन्त सूक्ष्म परिवर्तन हो तो समीकरण (20) को निम्न रूप से लिखा जा सकता है-

dE =dq + dw

 एक विलगित तंत्र में ऊर्जा परिवर्तन (Energy Change in an Isolated System)

विलगित तंत्र अपने पारिपाश्विक से ऊर्जा (ऊष्मा) विनिमय नहीं करता है। अतः रूपान्तरण रुद्धोष्म परिस्थितियों में होगा। अर्थात् अवशोषित ऊष्मा q का मान शून्य होगा।

यदि q= 0 है तो

E =+w

E – w = 0……………….(22)

समीकरण (22) से यह स्पष्ट है कि तंत्र द्वारा कार्य करने पर तंत्र की आन्तरिक ऊर्जा व्यय होगी। चक्रीय प्रक्रम में ऊर्जा परिवर्तन (Energy Change in a Cyclic process)- यदि कोई प्रक्रम परिवर्तन की विभिन्न अवस्थाओं में गुजरते हुये मूल अवस्था में वापस आ जाता है तो इससे पूरे चक्र (cycle) में ऊर्जा परिवर्तन शून्य होता है।

अतः  E =0

इस प्रकार समीकरण (20) के अनुसार-

0 =q+w

q=-w………………(23)

समीकरण (23) यह दर्शाती है कि चक्रीय प्रक्रम में जितनी ऊष्मा तंत्र द्वारा अवशोषित की जाती है, तंत्र उतनी ही ऊर्जा के तुल्य कार्य करता है।

 तंत्र की एन्थेल्पी या पूर्ण ऊष्मा (Enthalpy or Heat Content of a System)

यदि किसी तंत्र की एन्थैल्पी में परिवर्तन स्थिर आयतन पर किया जाता है, (dV = 0) तो तंत्र द्वारा किया कार्य शून्य होता है। अतः समीकरण (21) द्वारा-

E2-E1 = E = qv……….(24)

यहाँ qw स्थिर आयतन पर अवशोषित ऊष्मा है। E2 तथा E1 क्रमशः अन्तिम तथा प्रारम्भिक अवस्थाओं में ऊर्जा है। इस प्रकार स्थिर आयतन पर अवशोषित ऊष्मा तंत्र की आन्तरिक ऊर्जा में वृद्धि करती है। यद्यपि ऊष्मा (qv) अवस्था फलन नहीं है, परन्तु स्थिर आयतन पर ऊष्मा (qv) एक अवस्था फलन है क्योंकि इसका मान  E के बराबर है जो कि एक अवस्था फलन है।

अर्थात्   w = – PV

यह मान समीकरण (21) में रखने पर

qpस्थिर दाब पर अवशोषित ऊष्मा है।

यदि तंत्र का आयतन प्रारम्भिक एवं अन्नि अवस्थाओं में क्रमश: V1 तथा V2 हो तो –

इस प्रकार qp दो पदों का अन्तर है। ये पद क्रमशः अन्तिम एवं प्रारम्भिक अवस्थाओं में एक नई ऊष्मागतिक राशि पूर्ण ऊर्जा या एन्यैल्पी को परिभाषित करते हैं जिसका प्रतीक “H” माना गया है।

अतः    H =E+PV   …..(28)

इस प्रकार किसी तंत्र की एन्थैल्पी उसमें निहित कुल ऊर्जा होती है जो कि आन्तरिक ऊर्जा तथा दाब आयतन ऊर्जा के योग के बराबर होती है।

H2 तथा H1 क्रमशः अन्तिम एवं प्रारम्भिक अवस्थाओं में एन्थैल्पी तथा AH एन्थैल्पी परिवर्तन कहलाता हैं चूंकि E. P. तथा V अवस्था फलन है, अतः H भी अवस्था फलन होगा। इसी प्रकार H तथा qp भी अवस्था फलन हैं।

समीकरण ( 29 ) से qp का मान समीकरण ( 25 ) में रखने पर अथवा

इस प्रकार किसी तंत्र की एन्यैल्पी में परिवर्तन उसकी आन्तरिक ऊर्जा में वृद्धि तथा तंत्र द्वारा किये कार्य के योग के बराबर होता है।

E के समान H के भी वास्तविक मान ज्ञात नहीं किये जा सकते परन्तु AH (एन्थैल्पी परिवर्तन) का मान सरलता से ज्ञात किया जा सकता है।

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