सुभाष चन्द्र बोस के बारे में जानकारी इन हिंदी | subhash chandra bose in hindi history , सुभाष चंद्र बोस पुस्तकें

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सुभाषचन्द्र बोस
इकाई की रूपरेखा
उद्देश्य
प्रस्तावना
प्रारंभिक जीवन
उनकी गतिविधियाँ
सुभाष के राजनैतिक दर्शनशास्त्र की मूल अवधारणा
इतिहास के विषय में उनके विचार
उग्रवादी राष्ट्रवाद तथा देशभक्ति
राष्ट्र-निर्माण पर बोस के विचार
स्वदेशी और राष्ट्रवाद
स्वतंत्रता की अवधारणा
समाजवाद की अवधारणा
सामाजिक परिवर्तन
राष्ट्रीय सामाजिक क्रांति के साधन: गुरिल्ला (छापामार) संग्राम
बोस और फासिज्म
प्रगतिशील गुट (दल) के उद्देश्य
सारांश
मुख्य शब्द
कुछ उपयोगी पुस्तकें
बोध प्रश्नों के उत्तर

उद्देश्य
इस इकाई को पढ़ने के बाद आप निम्नलिखित बातें जान पायेंगे:
ऽ राष्ट्र निर्माण में बोस की भूमिका
ऽ बोस के राजनैतिक जीवन तथा उनके दर्शनशास्त्र के बीच संबंध
ऽ उनका समाजवाद का सिद्धांत
ऽ समाजवाद पर उनके विचारों तथा समाजवाद की अन्य विचारधाराओं में असमानता
ऽ राष्ट्रवाद पर उनके विचार

प्रस्तावना
सुभाषचन्द्र बोस, पारंपरिक ढंग से, एक राजनैतिक दार्शनिक नहीं थे। वह उपनिवेशी भारत की, राष्ट्रीय राजनीति से बहुत प्रभावित थे, तथा इस देश से ब्रिटिश राज को हटाने के लिए उन्होंने अपनी शक्ति को लगा दिया । इस प्रकार स्वतंत्रता प्राप्ति उनका मुख्य उद्देश्य था और इसलिए, उनके राजनैतिक विचार राष्ट्रीय स्वतंत्रता तथा ऐसे विचारों से ओत-प्रोत हैं, जो भारत के भविष्य को महान बनाने में सहायक होंगे। उनके राजनैतिक विचारधारा में एक स्वाभाविकता है, जिसे उनके उत्तेजनापूर्ण राजनैतिक जीवन से अलग नहीं किया जा सकता।

प्रारंभिक जीवन
उनका जन्म 23, जनवरी 1887, को कटक में हुआ। एक भावुक बालक के रूप में, उन्होंने अंग्रेजों द्वारा भारतीयों पर हो रहे भेदभाव को महसूस किया। विद्यार्थी के रूप में, उड़ीसा में, अपने संपर्क में आए हुए अंग्रेजों के प्रति उनके मन में रोष पैदा हुआ। इस अशांति ने किशोरावस्था में सुभाष को उत्पीड़ित किया और वह एक गुरू की तलाश में घर से भाग ही जाते, जो उन्हें सांत्वना दे सके। इसी बीच, उन्होंने स्वामी विवेकानंद के दर्शनशास्त्र को पढ़ा और प्रभावित हुए सामाजिक सेवा को आध्यात्मिकता के साथ जोड़ने के लिये वह राष्ट्र की रचना आधुनिक तरीकों से करना चाहते थे। प्रारंभिक शिक्षा समाप्त करने के बाद उन्होंने रेवेनशॉ कॉलिजिएट स्कूल में प्रवेश लिया। तत्पश्चात् वह कलकत्ता गए और प्रेसीडेन्सी कॉलेज में प्रवेश लिया जहां भारतीय विद्यार्थी, अपने इतिहास के अध्यापक इ.एफ ओटेन के उद्धत व्यवहार से बहत क्रोधित थे । ऑटेन को कॉलिज परिसर में पीटा गया और थप्पड़ मारा गया । इस बात के लिए सुभाष को कालेज से निलंबित कर दिया गया। बाद में उन्होंने स्कॉटिश चर्च कॉलेज से दर्शन शास्त्र में स्नातकी उत्तीर्ण की। इंग्लैंड में, अत्यंत गौरवपूर्ण प्रतियोगिता परीक्षा, आई.सी.एस. में बैठे और सफल हुए। लेकिन मातृभूमि के प्रति प्रेम होने के कारण उन्होंने 22 अप्रैल 1921 को यह गौरवपूर्ण और सुखद नौकरी छोड़ दी तथा पूरी तरह से स्वतंत्रता संगम मे कूद पडे़।

उनकी गतिविधियां
1921 में, भारत लौटने पर वह गांधीजी से मिले, और असहयोग आंदोलन में भाग लिया। इसी बीच, वह सी.आर. दाम के संपर्क में आए और उनके शिष्य बन गए । उन्होंने अपने आपको दास की राजनैतिक कोशिशों से जोड़ा और उनके साथ जेल भी गए । सी.आर. दास की स्वराज पार्टी द्वारा शुरू किए गए समाचार दैनिक प्रगतिशील के संपादन का कार्यभार उन्होंने संभाला। जब दास, कलकत्ता नगरपालिका के महापौर निर्वाचित हुए, उन्होंने सुभाष बोस को मुख्य कार्यकारी के रूप में चुना । अपनी राजनैतिक गतिविधियों के कारण 1924 में वे गिरफ्तार कर लिए गये। 1930 में वे कलकत्ता के महापौर निर्वाचित हुए और उसी वर्ष वे अखिल भारतीय मजदूर संघ कांग्रेस के अध्यक्ष निर्वाचित हुए। 1930 के दशक में जवाहरलाल नेहरू, कांग्रेस समाजवादी, कम्यूनिस्ट तथा एम.एन. रॉय के साथ वे कांग्रेस की वामपंथी. राजनीति के संपर्क में आए । वामपंथी गुट की कोशिशों के कारण कांग्रेस ने बहुत ही प्रगतिशील निर्णय लिये। 1931 में कराची में कांग्रेस ने उत्पादन के साधनों के समाजीकरण के साथ-साथ, मूल अधिकारों को लागू करना अपना मुख्य उद्देश्य बनाया। 1938 में, हरिपुरा में वामपंथी समर्थन के साथ सुभाष कांग्रेस अध्यक्ष चुनाव में विजयी हुए। अगले वर्ष त्रिपुरा में गांधीजी के उम्मीदवार पट्टाभी सीतारम्मया के विरुद्ध पुनः उन्होंने अध्यक्ष का चुनाव जीता। लेकिन गांधीजी के साथ उनके मतभेद बढ़ गए और अंततः कांग्रेस को छोड़ दिया। उन्होंने प्रगतिशील गुट नामक एक नए दल को बनाया । 1939 में विश्व युद्ध छिड़ गया। सुभाष ने महसूस किया कि इस समय भारत के मुख्य शत्रु ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध उनके ही दुश्मन (नाजी जर्मनी, फासिस्ट इटली तथा जापान) को जहां तक संभव हो सके, इस्तेमाल किया जाना चाहिए । इसलिए वे स्वतंत्रता के लिए इस अंतिम युद्ध में पूरे जोश के साथ कुद पड़े। उनको गिरफ्तार कर लिया गया और नजरबंद रखा गया। लेकिन ब्रिटिश अधिकारियों को चकमा देकर वे भाग खड़े हुए, और अन्य स्थानों से होकर अंततः जर्मनी पहुंचे । घटनाएं शीघ्र घटती चली गईं, वे जापान और वहां से बर्मा पहुंचे और अंग्रेजों से लड़ने के लिए जापान की सहायता से भारत को आजाद करने के लिए, आजाद हिन्द फौज का गठन किया। उन्होंने ‘‘जय हिन्द’’ और ‘‘दिल्ली चलो’’ जैसे प्रसिद्ध नारों को दिया। अपने सपनों को साकार होने से पहले ही हवाई दुर्घटना में उनकी मृत्यु हो गई। लेकिन, कुछ लोगों का यह विश्वास है कि वह अभी भी जीवित हैं। अपने व्यस्त जीवन काल में, सुभाष ने अपनी ही राजनैतिक विचारधारा बनाई, जिसके विषय में आप अगले विभागों में पढ़ेंगे।

 सुभाष के राजनैतिक दर्शन शास्त्र की मूल अवधारणा

इतिहास के विषय में उनके विचार
सुभाष ने भारतीय इतिहास की व्याख्या की और कहा कि इसको दशकों अथवा शताब्दियों में नहीं वरन हजारों में विवरण देना चाहिये। भारत, भाग्य के विभिन्न अस्थिर स्थितियों से गुजरा है। न तो एक व्यक्ति और न ही एक राष्ट्र, लगातार प्रगति और समृद्धि के दौर में रह सकता है। यह कथन भारत के लिए भी सत्य है जो हमेशा से ही एक उच्च स्तरीय संस्कृति तथा सभ्यता से संबंधित रहा है। बोस ने अपने भारतीय इतिहास पर विचारों को संक्षेप में निम्नलिखित वाक्यों में कहा है:
1) उत्थान के समय के बाद पतन और उसके बाद फिर से नया उत्थान शुरू होता है।
2) पतन का मुख्य कारण शारीरिक और मानसिक थकावट है।
3) नए विचारों को लाकर तथा कभी-कभी नए व्यक्तियों को लाकर, प्रगति और पुनः दृढ़ीभवन किया गया गया है ।
4) हर नया युग उन व्यक्तियों द्वारा लाया गया है, जिनके पास अधिक बौधिक शक्ति तथा उच्च सैन्य कौशल है।
5) भारत के इतिहास काल में सभी विदेशी तत्व, भारतीय समाज द्वारा अपने अन्दर समा लिए गए हैं । अंग्रेज ही केवल एक अपवाद हैं।
6) केन्द्रीय सरकार में बदलाव आते रहने के बावजूद भी, लोग हमेशा से ही वास्तविक स्वच्छंदता के आदी हैं। अपने खोए हुए गौरव को प्राप्त करने के लिए सुभाष विभिन्न शक्तियों का पुनरुद्धार चाहते थे।

 उग्रवादी राष्ट्रवाद तथा देशभक्ति
सभाष का मत था कि भारतीयों को स्वाधीनता प्राप्ति के प्रति उत्साहित करने के लिए उग्रवादी राष्ट्रवाद की भावना आवश्यक है। सुभाष स्वाधीनता के लिए अहिंसा के मार्ग तथा लोगों के संगठन में विश्वास रखते थे, इसलिए उन्होंने असहयोग आंदोलन तथा सविनय अवज्ञा आंदोलन का समर्थन किया, लेकिन एक निर्णायक समय पर इसको हिंसा के नाम पर वापस ले लेने पर तथा एक अवसरवादी समझौता करने पर, सुभाष ने इसकी कड़ी आलोचना की। उन्होंने लिखा, ‘‘अगर हमारी नीतियां बिना समझौते के युद्ध संलग्न होती, तो 1922 का बारडोली समर्पण न हुआ होता-और न ही मार्च 1931 का दिल्ली समझौता, जब परिस्थिति उपयुक्त थी।’’ उन्होंने महसूस किया कि ‘‘स्वाधीनता के नशे में चर धर्मदत जो नैतिक रूप से तैयार हैं ज्यादा से ज्यादा बलिदान करने तथा सहने के लिये, उन सब का लक्ष्य प्राप्ति के लिए आवश्यक है।

बोध प्रश्न 1
टिप्पणी: क) नीचे दिए गए रिक्त स्थान पर अपने उत्तर लिखें।
ख) अपने उत्तर को इकाई के अंत में दिए गए उत्तर से मिलायें ।
1) सुभाष के राजनैतिक दर्शनशास्त्र के ऐतिहासिक बुनियाद के विषय में संक्षेप में लिखें।
2) बोस के विचार में भारतीय इतिहास की कितनी अवस्थाएं हैं?

 राष्ट्र-निर्माण पर बोस के विचार
बोस के विचार में राष्ट्र केवल संकीर्ण स्वार्थों को पूरा करने के लिए नहीं है । केन्द्रीय प्रान्तों तथा बेरार के विद्यार्थियों को अमरावती में सम्बोधित करते हुए उन्होंने कहा, ‘‘मैं यह पहले भी कह चुका है कि अच्छे और बुरे के विचार में हम मूल्यों को बदलना होगा।’’ उन्होंने जीविकोपार्जन तथा जीवनयापन के प्रचलित ढंगों को पूरी तरह से बदलने तथा पुनर्गठित करने का समर्थन किया जो एक वास्तविक राष्ट्रीय एकता की तरफ ले जाएंगे और भारत को गौरवपूर्ण स्थान दिलाएंगे। उनके विचार में, वही जीवन महत्वपूर्ण है जो आम बातों से उठकर कुछ ऊंचे तथा नेक आदर्शों से प्रेरित हो। बोस ने इस बात पर महत्व दिया कि राष्ट्र का कोई अस्तित्व नहीं है अथवा उसको रहने का अधिकार नहीं, अगर उसके कोई उद्देश्य नहीं है । लेकिन उन्होंने यह भी कहा कि राष्ट्र की प्रगति केवल संकीर्ण स्वार्थों की पर्ति के लिए नहीं करनी चाहिए वरन् इसको आगे बढ़ाना चाहिए जिससे वह एक मानवीय समाज के गठन में अपना योगदान दे सकें । राष्ट्र के निर्माण के लिए बोस ने स्वदेशी की आवश्यकता पर महत्व दिया ।

स्वदेशी और राष्ट्रवाद
बोस के विचार में, राष्ट्रवाद केवल एक राजनैतिक आंदोलन नहीं वरन् एक नैतिक आंदोलन भी है । स्वदेशी को अपनाना एक नैतिक कदम था क्योंकि यह एक समान कार्य था जिसे लोग नित्य अपनाते थे। अगर एक व्यक्ति एक घटिया स्वदेशी वस्तु उच्च दामों पर खरीदता है, तो वह राष्ट्र की सहायता करता है। स्वदेशी अपने उद्योगों को बचाने से बेहतर है। इस प्रकार स्वदेशी राष्ट्र के लिए बलिदान भारतीय उद्योगों के सुधार को मिलाती है।

बोध प्रश्न 2
टिप्पणी: क) नीचे दिए गए रिक्त स्थान पर अपने उत्तर लिखें।
ख) अपने उत्तर को इकाई के अंत में दिए गए उत्तर से जांच कर लें।
1) बोस के राष्ट्रवाद पर विचारों की चर्चा करें। उन्होंने स्वदेशी के समर्थन में क्या कहा है?
2) बोस के विचारों में राष्ट्रीय स्वतंत्रता का क्या उद्देश्य है?

स्वतंत्रता की अवधारणा
अक्तूबर 1929 में, लाहौर में विद्यार्थियों को सम्बोधित करते हुए बोस ने इस बात को दोहराया कि स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए विदेशी राज को हटाना सर्वप्रथम कार्य है। उन्होंने कहा कि जिस आदर्श को हमें पूरा करना है, वह हमें जीवन भर प्रेरित करेगा। वह आदर्श है, स्वाधीनता लेकिन स्वाधीनता एक ऐसा शब्द है जिसके विभिन्न अर्थ हैं । बोस के विचार में स्वाधीनता, हर क्षेत्र में आवश्यक है जैसे देश/समाज के साथ-साथ गरीबों के लिए, स्वाधीनता पुरुष के साथ-साथ स्त्रियों के लिये स्वाधीनता, प्रत्येक व्यक्ति तथा प्रत्येक वर्ग के लिये स्वाधीनता । इस स्वाधीनता का अर्थ केवल राजनैतिक दासता से मुक्ति नहीं बल्कि इसके साथ-साथ संपत्ति का समान वितरण, जातिवाद तथा सामाजिक असमानता को हटाना तथा साम्प्रदायिकता तथा धार्मिक भेदभाव को समाप्त करना । इस प्रकार, बोस के विचार में, स्वाधीनता के उतने ही पहलू हैं जितने कि इसके अंग हैं। उनका मत था कि स्वाधीनता के लिए समाजवाद आवश्यक है।

 समाजवाद की अवधारणा
सुभाष चन्द्र बोस समाजवाद में विश्वास रखते थे। उन्होंने कहा कि वह ‘‘भारत को समाजवादी गणतंत्र’’ बनाना चाहते हैं। लेकिन उनकी समाजवाद की अवधारणा अन्यों से भिन्न थीं, और इन्होंने इसे भारतीय समाजवाद कहा । 1931 में, भारतीय नौजवान सभा को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा, ‘‘अगर हम उन विभिन्न सामाजिक तथा राजनैतिक आदर्शों का जिन्होंने मनुष्य को आरंभ से ही प्रेरित किया है, तुलनात्मक विश्लेषण करें तो, हम कुछ सामूहिक सिद्धांतों को पाएंगे जो हमारे जीवन का मूल तत्व है । यह हैं-न्याय, समानता, स्वाधीनता, अनुशासन तथा प्रेम ।’’ न्यायी और तटस्थ होने के लिए उन्होंने सभी मनुष्यों के साथ समान व्यवहार करने पर महत्व दिया । किसी भी प्रकार का बंधन आर्थिक अथवा राजनैतिक, मनुष्य से उसकी आजादी छीन लेता है और कई प्रकार की असमानताओं को जन्म देता है। इसलिए, समानता लाने के लिए, किसी भी प्रकार के बंधन को हटाना आवश्यक है। लेकिन, उन्होंने यह भी कहा कि स्वाधीनता का अर्थ अनुशासनहीनता अथवा कानून का उल्लंघन नहीं है। इसका अर्थ अनुशासन तथा कानून का समावेश करना है, जो स्वाधीनता संग्राम के लिए आवश्यक है। इन मूल सिद्धांतों के अलावा, बोस ने प्रेम को सर्वोपरि माना है। मानव के प्रति प्रेम की भावना के बिना, न तो व्यक्ति न्यायी हो सकता है, न मनुष्यों के साथ समान रूप से व्यवहार कर सकता है, न कोई त्याग कर सकता है, और इन सबके बिना एक उचित समाजवाद नहीं बन सकता । इस प्रकार, बोस के विचार में समाजवाद के मूल सिद्धांत हैं-न्याय, समानता, स्वाधीनता, अनुशासन तथा प्रेम । उन्होंने कहा कि पश्चिमी देशों में, सभी प्रकार के सक्रिय राष्ट्र निर्माण के कार्यक्रम तथा सामाजिक-राजनैतिक आदर्श हैं जैसे- समाजवाद, राष्ट्र-समाजवाद, फासिज्म, संसदात्मक लोकतंत्र, अभिज्ञात तंत्र, निरंकुश शासन, तानाशाही आदि। उन्होंने इन सभी में कुछ अच्छाइयां देखी। लेकिन, उन्होंने कहा कि हमारे जैसे प्रगतिशील राष्ट्र में, किसी एक को भी अंतिम आदर्श या विधान अपनी सामाजिक और राजनैतिक समस्याओं के लिए मानना अनुचित होगा। ऐसा इसलिए क्योंकि किसी भी विचार अथवा ढांचे को पूरी तरह से एक देश से दूसरे देश में लाना न तो आवश्यक है, या न ही सबको मान्य तथा न ही सफल होगा। एक राष्ट्रीय ढांचा एक प्राकृतिक निष्कर्ष है, लोगों के विचारों, उनके सिद्धांतों तथा उनके दैनिक कार्यों का । इस बात को ध्यान में रखना आवश्यक है। बोस का कहना है कि सामाजिक तथा राजनैतिक ढांचे देशवासियों के इतिहास और परंपरा की अवहेलना करके नहीं बनाए जा सकते और साथ ही उनकी वर्तमान परिस्थिति और जीवन के वातावरण को ध्यान में रखना आवश्यक है।

उपरोक्त कारणों के कारण, वह भारत में कम्युनिस्टों के समर्थन में नहीं थे। उन्होंने महसूस किया कि बौलशेविज्म समाजवाद (सोवियत संघ), भारत के लिए उचित नहीं है। इन्हीं समाजवादी सिद्धांतों का समावेश होना चाहिये, जो भारतीय आवश्यकताओं के अनुसार हो। उन्होंने कहा कि बोलशेविक सिद्धांत एक प्रयोगात्मक दौर से गुजर रहा है तथा कम्यनिस्ट लेनिन और बोलशेविक से दूर होते जा रहे हैं। यह दुरी रूस की असाधारण परिस्थितियों के कारण है, जिसने मूल सिद्धांत को बदलने पर विवश किया है। उन्होंने मार्क्सवादी विचारों की अयोग्यता के विरुद्ध भी आगाह किया जो मार्क्सवाद को पूरी तरह से भारत के लिए अपनाना चाहते थे, जिससे भारत एक खुशहाल देश बन जाएगा, बोस के विचार में गलत थे क्योंकि रूस में प्रचलित बोलशेविज्म आदर्श मार्क्सवादी समाजवाद से भिन्न है।

कम्युनिस्टों को नकारने का दूसरा कारण था, अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए अपनाए गए तरीके और साधन । उनका विचार था कि यह तरीके भारत के लिए अनुचित हैं, और इसलिए कम्युनिज्म भारत में पनप नहीं पाया ।

इसलिए भारतीय समाजवाद भिन्न होगा। उन्होंने कहा कि पूर्व परिस्थितियों में, समाजवादी राष्ट्र के विवरण को तैयार करना कठिन था । वह केवल एक समाजवादी राष्ट्र के लिए विशेषताएं और आदर्श ही बता पाया । उन्होंने कहा, ‘‘हम राजनैतिक स्वाधीनता चाहते हैं, जिसका अर्थ है, स्वतंत्र भारत का संविधान, ब्रिटिश साम्राज्यवाद से पूरी तरह मुक्त । सबको यह बात स्पष्ट होनी चाहिए कि स्वतंत्रता का अर्थ है ब्रिटिश साम्राज्यवाद से पूरी तरह अलग और इस बात पर किसी को कोई मतभेद नहीं होना चाहिए। दूसरी बात, हम आर्थिक उत्थान चाहते हैं।’’ बोस ने अपने आर्थिक उत्थान के विचार को विस्तार से बताया कि प्रत्येक व्यक्ति को काम करने का अधिकार तथा अपनी जीविका कमाने का अधिकार होना चाहिए। सबको समान अधिकार मिलने चाहिए और संपत्ति का उचित, न्यायी और समान वितरण होना चाहिए। इसके लिए राष्ट्र को, उत्पादन के साधनों तथा संपत्ति के वितरण को अपने नियंत्रण में लेना पड़ेगा।

आर्थिक समानता के अलावा, बोस के विचारों में, सामाजिक समानता भी आवश्यक है, एक वास्तविक समाजवाद के लिए । सामाजिक समानता का अर्थ है कि कोई जाति अथवा पिछड़ा वर्ग नहीं होगा। प्रत्येक व्यक्ति को समान अधिकार तथा समाज में समान स्थान मिलना चाहिए। बोस न केवल जाति भेद को हटाने के समर्थक थे, बल्कि समाज तथा कानून में स्त्रियों के समान स्थान के भी समर्थक थे। बोस का विश्वास था कि स्त्रियां, पुरुष के समान हैं।

लेकिन, समाजवाद, सामाजिक परिवर्तन के बिना नहीं हो सकता । बोस के सामाजिक परिवर्तन के विषय में कुछ मूल विचार थे।

सामाजिक परिवर्तन
बोस के विचार में भारत में सामाजिक सुधार तथा राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन आपस में संबंधित है। जुलाई 1929 को हुगली जिले के बिद्यार्थी अधिवेशन में अपने अध्यक्षीय भाषण में उन्होंने कहा कि जो यह सोचते हैं कि वे अपने देश को राजनैतिक स्वतंत्रता दिला सकते हैं, बिना सामाजिक परिवर्तन के तथा जो यह सोचते हैं कि सामाजिक परिवर्तन, बिना राजनैतिक स्वतंत्रता के संभव है, दोनों ही गलत हैं। उन्होंने कहा कि पहला कथन इसलिए गलत है क्योंकि अगर एक बार स्वतंत्रता प्राप्ति की भावना लोगों के मन में जागृत हो गई तो उन्हें इस बात से नहीं रोका जा सकता कि समाज बदला नहीं सकते । इसी प्रकार, दूसरा कथन गलत था क्योंकि हमारे ‘‘बिगड़े हुए’’ समाज में जहां सामाजिक तनाव हैं, आर्थिक असमानता है, वहां लोगों को राजनैतिक स्वतंत्रता के लिए प्रेरित नहीं किया जा सकता। इस प्रकार, बोस ने एक सामाजिक क्रांति का समर्थन किया है । उन्होंने कहा कि विकास तथा क्रांति में कोई मूल अंतर नहीं है । क्रांति एक विकास की क्रिया है जो कम समय में होती है और विकास एक प्रकषार की क्रांति है जो लम्बे समय तक चलती है।

बोध प्रश्न 3
टिप्पणी: क) नीचे दिए गए रिक्त स्थान पर उत्तर लिखें ।
ख) अपने उत्तर को इकाई के अंत में दिए गए उत्तर से जांच कर लें।
1) बोस के विचार में समाजवाद का क्या अर्थ है?
2) बोस ने बोलशेज्मि तथा अन्य पश्चिमी आदर्शों को क्यों अस्वीकार कर दिया?.

राष्ट्रीय सामाजिक क्रांति के साधन रू गुरिल्ला (छापामार) संग्राम
आजाद हिन्द के आकाशवाणी भाषण में, सुभाष ने राष्ट्रीय संग्राम के तरीकों को बताया। उन्होंने कहा कि भारत में जो प्रचार चल रहा है वह अहिंसक छापामार युद्ध संग्राम है। उन्होंने कहा कि इस छापामार युद्ध के दो उद्देश्य हैंः एक तो युद्ध उत्पादक को समाप्त करना तथा ब्रिटिश प्रशासन को ठप्प करना तथा सभी भारतीयों को इसमें भाग लेना चाहिए। उन्होंने लोगों के लिए एक विस्तार कार्यक्रम बनाया । उन्होंने कहा कि लोग कर देना बंद कर दें जो कि सरकार को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से धन देता है । उद्योगों में सभी मजदूरों को हड़ताल कर देनी चाहिए अथवा उत्पादन में कमी लाकर सरकार का विरोध उद्योगों के अंदर से करना चाहिए। उत्पादन में कमी लाने के लिए लोगों को तोड़-फोड़ की नीतियों को अपनाना चाहिए । विद्यार्थियों को भी देश के विभिन्न भागों से गुप्त रूप से छापामार गुटों का गठन करना चाहिये। उन्होंने ब्रिटिश अधिकारियों को तंग करने के लिए विद्यार्थियों को नए तरीके ढूंढने के लिए कहा जैसे डाकघरों में डाक टिकटों को जलाना, ब्रिटिश स्मारकों को नष्ट करना इत्यादि । स्त्रियां, विशेषकर लड़कियों को भी छिपकर कार्य करने का आह्वान किया, जैसे गुप्त रूप से संदेश ले जाना या पुरुषों को, जो संघर्ष कर रहे हैं छिपा कर रखना । जो सरकारी व्यक्ति, जो इस संघर्ष में शामिल हैं, उन्हें अपनी नौकरियों से इस्तीफा नहीं देना चाहिए, बल्कि बाहर वाले संघर्षकर्ताओं को सरकार की नीतियों की खबर देनी चाहिए तथा अकुशल कार्य करके उत्पादन में कमी लानी चाहिए। जो नौकर अंग्रेजों के घर में काम करते हैं, उन्हें मिलकर अपने मालिकों को तंग करना चाहिए जैसे वेतन बढ़ाने की मांग, बुरा खाना बनाकर इत्यादि । भारतीयों को विदेशी बैंक तथा बीमा कम्पनियों से अपने सारे कार्य बंद कर लेने चाहिए। आम जनता के लिए उन्होंने निम्नलिखित बातें कहीं:
1) ब्रिटिश वस्तुओं का बहिष्कार, उद्योगों तथा ब्रिटिश दुकानों तथा सरकारी कार्यालयों को जलाना।
2) भारत में अंग्रेजों का तथा जो भारतीय, अंग्रेजों के समर्थक हैं, उनका पूर्ण बहिष्कार ।
3) सरकारी रोक के बावजूद, जलूसों का आयोजन करना।
4) गुप्त रूप से पत्रों को छापना तथा एक गुप्त रेडियो स्टेशन को बनाना ।
5) ब्रिटिश सरकारी लोगों के घर तक जाकर, उन्हें भारत छोड़ने के लिए कहना।
6) प्रशासन में विरोध लाने के लिए, सरकारी दफ्तरों, कार्यालयों, न्यायालयों में घुसकर घेराव करना ।
7) उन पुलिसकर्मियों और कारागर के लोगों को सजा देना जो भारतीयों को तंग करते हैं।
8) सड़कों और रास्तों पर अवरोध बनाना जहां से ब्रिटिश पुलिस अथवा सेना के गुजरने की संभावना हो।
9) युद्ध में लगे सरकारी कार्यालयों तथा उद्योगों में आग लगाना।
10) डाक-तार, टेलिफोन तथा अन्य साधनों में अधिक से अधिक रुकावट पैदा करना ।
11) जिन रेलगाड़ियों और बसों में सैनिक तथा युद्ध सामग्री जा रही हो, उन्हें रोकना।
12) पुलिस कार्यालयों, रेलवे स्टेशन तथा कारागृहों को नष्ट करना ।

 बोस और फासिज्म
बोस को फासिज्म का समर्थक माना गया है। ऐसा इसलिए, क्योंकि भारतीय स्वतंत्रता के लिए उन्होंने अपने आपको द्वितीय विश्व युद्ध की राजनीति से जोड़ा तथा फासिस्ट इटली और नाजी जर्मनी से सहायता ली । उनके मन में, मुसोलिनी के लिए प्रशंसा थी तथा अपनी पुस्तक भारतीय संग्राम के ’भविष्य की झलक’ पाठ में उन्होंने लिखा, ‘कम्युनिज्म तथा फासिज्म में अलगाववाद होने के बावजूद इनमें कुछ समानताएं हैं। दोनों ही व्यक्ति के ऊपर राष्ट्र को महत्वपूर्ण मनाते हैं। दोनों ही संसदात्मक लोकतंत्र को नहीं मानते। दोनों ही योजनाबद्ध ढंग से देश में उद्योगों के संगठन में विश्वास रखते हैं। यह समान बातें एक नए विचारधारा को जन्म देगी-‘साम्यवाद‘ बोस ने कहा कि यह भारत का कार्य होगा कि वह इस सम्मिश्रण को तैयार करे । इन्होंने इस भारत में पहले बीस वर्ष के लिए एक तानाशाही राज का समर्थन किया जो इस देश से गद्दारों को निकाल फेंकेगा। इसलिए ब्रिटिश साम्राज्यवाद के बाद, भारत में तानाशाही होनी चाहिए। और यह भारत के हित में है कि यह एक तानाशाह द्वारा चलाया जाए। एक तानाशाही ही गद्दारों को देश से निकाल सकता है। उनका विश्वास था कि भारत को अपनी समस्याओं के समाधान के लिए एक कमाल पाशा की आवश्यकता है। लेकिन बोस ने तानाशाही केवल भारत की समस्याओं के समाधान के लिए ही उचित ठहरायी। उनको फासिस्ट नहीं कहा जा सकता । उन्होंने फासिज्मवाद के उपनिवेशी तथा उग्रवाद का समर्थन नहीं किया । वह शोषित वर्ग के अधिकारों का समर्थन करते थे । इस प्रकार, हालांकि उन्होंने देश को मुक्त करने के लिए फासिस्ट देशों की सहायता ली, तथापि उन्होंने फासीवाद के आदर्शों का समर्थन नहीं किया। प्रतिशील गुट जिसके वे सदस्य थे, ने अपने सिद्धांतों को 1 जनवरी 1941 में बताया।

प्रगतिशील गुट (दल) के उद्देश्य
1) भारत के पूर्ण स्वराज के लिए बिना समझौता किए, साम्राज्यवाद के विरुद्ध संघर्ष ।
2) एक आधुनिक समाजवादी समाज ।
3) वैज्ञानिक ढंग से उत्पादन, जिससे देश का आर्थिक उत्थान हो ।
4) उत्पादन तथा वितरण का समाजीकरण ।
5) व्यक्ति के लिए धार्मिक स्वतंत्रता ।
6) सब व्यक्तियों को समान अधिकार।
7) भारत के सभी समुदायों को भाषा तथा संस्कृति की स्वच्छंदता ।
8) स्वतंत्र भारत में, एक नई व्यवस्था का गठन करने के लिए, समानता तथा सामाजिक न्याय के सिद्धांतों का इस्तेमाल ।

बोध प्रश्न 4
टिप्पणी: क) नीचे दिए गए रिक्त स्थान में अपने उत्तर लिखें।
ख) अपने उत्तर का इकाई के अंत में दिए गए उत्तर से जांच कर लें।
1) सुभाष बोस की दृष्टि में राष्ट्रीय क्रांति के क्या तरीके हैं।
2) क्या सुभाष ने फासिस्टवाद का समर्थन किया? ….

 सारांश
बोस का राजनैतिक दर्शन शास्त्र उनके भारत की स्वाधीनता के संघर्ष से संबंधित था । बोस भारत की स्वाधीनता के लिए उग्र राष्ट्रवाद में विश्वास रखते थे। उनके विचार में स्वाधीनता तथा समानता आपस में संबंधित हैं। इसलिए स्वतंत्रता केवल समाजवाद से ही मिल सकती है। उनके विचार में समाजवाद के चार अंग हैं—राष्ट्रीय स्वतंत्रता, आर्थिक समानता, सामाजिक समानता, तथा स्त्री-पुरुष के समान अधिकार। बोस का विचार था कि भारत को अपना ही समाजवाद बनाकर अपनाना चाहिए, तथा दूसरों का नहीं अपनाना चाहिए । राष्ट्रीय स्वाधीनता के लिए उन्होंने फासीस्टवाद की सहायता ली। राष्ट्रीय मुक्ति तथा राष्ट्रीय संरचना उनके राजनैतिक दर्शन के दो मुख्य अंग हैं।

 मुख्य शब्द
वामपंथी: जो प्रगतिशील, उग्रवाद सुधारकों का समर्थन करते हैं।
स्वदेशी: राष्ट्रीय वस्तुओं का प्रयोग।
बोलशेविज्य: रूस की 1917 की क्रांति के पश्चात् कम्युनिस्टों द्वारा अपनाए गए, कार्ल मार्क्स का दर्शन शास्त्र ।
फासिज्म: इटली में मुसोलिनी तथा जर्मनी में हिटलर द्वारा अपनाए गए राजनैतिक विश्वास का जो अपने देशों के – स्वामित्व विश्व के अन्य देशों के ऊपर समझते थे।

कुछ उपयोगी पुस्तकें
सुभाष बोस, इन्डियन स्ट्रगल, नेताजी रिसर्च ब्यूरो, कलकत्ता, 1964.
हीरेन मुखर्जी, बा ऑफ बर्निंग गाल्ड रू ए स्टडी ऑफ सुभाष चन्द्र बोस, पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली, 1977.
हरिहर दास, सुभाष चन्द्र बोस एण्ड द इण्डियन स्ट्रगल, स्ट्रलिंग पब्लिशर्स रू नई दिल्ली, 1983.
सुबोध मार्केण्डय, सुभाष चन्द्र बोस, नेताजी पैसे इममोरटेलेटी, आरनल्ड पब्लिशर्स, दिल्ली ।