भू-आकृति विज्ञान में संरचना शब्द का अर्थ क्या होता है structure meaning in geomorphology in hindi

structure meaning in geomorphology in hindi भू-आकृति विज्ञान में संरचना शब्द का अर्थ क्या होता है ?

1. स्थलरूपों के विकास में भूगर्भिक संरचना एक महत्वपूर्ण नियंत्रक कारक होती है तथा उनमें प्रतिबिम्बित होती है
(Geological structure is a dominant control factor in the evolution of landfroms and is reflected in them)
उपर्युक्त संकल्पना का तात्पर्य है कि स्थलरूपों के निर्माण में संरचना का बहुत महत्वपूर्ण योगदान होता है। अर्थात् जिस प्रकार की संरचना होगी उसी प्रकार का स्थलरूप निर्मित होगा। संरचना की मित्रता के कारण स्थलरूपों में भिन्नता होती है। इतना ही नहीं संरचना के स्वभाव का भी स्थलरूप पर प्रभाव पड़ता है। उदाहरण के लिये यदि संरचना कठोर है तो भिन्न प्रकार की स्थलाकृति का निर्माण होता है। यदि चट्टान मुलायम है तो भिन्न प्रकार के स्थलरूप का निर्माण होता है। साथ-ही-साथ स्थलरूपों पर चट्टानों के प्रकारों तथा उनके रूपों का प्रभाव स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है। इन सव तथ्यों की व्याख्या करने के पहले हम संरचना का तात्पर्य क्या होता है, की व्याख्या करेंगे। तत्पश्चात् हम चट्टान की प्रकृति, व्यवस्था, स्थिति तथा संघटन किस तरह स्थलरूपों को प्रभावित करते हैं, की व्याख्या करेंगे। इसके बाद हम इस निष्कर्ष पर पहूँचेंगे कि- यह संकल्पना कहाँ तक उचित या अनुचित है, ग्राह्म है या अग्राम है?
भू-आकृति विज्ञान में संरचना शब्द का अर्थ – चट्टानों की स्थिति तथा प्रकृति दोनों के लिये व्यापक अर्थों में लिया जाता है। इसके अन्तर्गत तीन तथ्यों का अध्ययन करते है – (i) चट्टान की बनावट किस प्रकार की स्थिति में ही है? (ii) चट्टान का संगठन किस प्रकार का है, अर्थात् संधियुक्त या संधि रहित, प्रवेश्य या अप्रवेश्य, पारगम्य या अपारगम्य, संगठित या असंगठित, प्रतिरोधी या कमजोर किस प्रकार की चट्टान है? (iii) चट्टानों की परतें किस प्रकार हैं? परतें एक दूसरे के समान्तर हैं या उर्ध्वाधर या कोणिक हैं? ये तीनों पहलू मिलकर किसी भी स्थलरूप के प्ररूप को निश्चित करते हैं। अव हम तीनों की व्याख्या प्रस्तुत करेंगे कि ये किस प्रकार स्थलरूपों के स्वरूप को निश्चित करते हैं।
1. चट्टान की प्रकृति का स्थलरूपों पर प्रभाव
चट्टानों की प्रकृति का प्रभाव स्थलरूपों पर स्पष्ट रूप से दृष्टि-गोचर होता है। उदाहरणार्थ – यदि एक ही प्रक्रम आग्नेय, कायान्तरित तथा अवसादी प्रकार की चट्टानों पर अलग-अलग स्थानों पर समान जलवायु में तथा समान गति से कार्य करता है, तो प्रत्येक स्थान पर भिन्न-भिन्न स्थलाकृतियों का निर्माण होगा। इतना ही नहीं प्रत्येक प्रकार की चट्टान का स्वभाव भी स्पष्ट रूप से इनको प्रभावित करता है। उदाहरणार्थ – इन तीनों चट्टानों में से किसी को भी लिया जाय तो स्पष्ट होता है कि मुलायम प्रकार की चट्टान में एक दूसरे प्रकार का स्थलरूप तथा कठोर प्रकार की चट्टान में एक दूसरे के स्थलरूप का निर्माण होगा। कभी-कभी कुछ विशिष्ट प्रकार की चट्टानों के महत्व के कारण उनके स्थलरूप को उन्हीं के द्वारा पुकारते हैं, जैसे – ग्रेनाइट स्थलाकृति, चाक स्थलाकृति आदि। अब हम आग्नेय चट्टान को लेकर देखेंगे कि किस तरह यह स्थलरूपों को प्रभावित करती है।
आग्नेय शैल द्वारा स्थलाकृतियों का नियन्त्रण – साधारणतः आग्नेय चट्टान का तात्पर्य कठोर चट्टान से लिया जाता है, परन्तु कभी-कभी स्थान विशेष की आग्नेय चट्टानें कठोर होती हैं तथा आस-पास की चट्टान अपेक्षाकृत मुलायम होती है। आग्नेय शैल की यही भिन्नता स्थलरूप के विकास, उत्पत्ति तथा स्वरूप पर प्रभाव अंकित करती है। कभी-कभी आग्नेय शैल की स्थिति परतदार चट्टानों के बीच में पाई जाती है, तो परतदार चट्टानों का अपरदन हो जाता है, परन्तु आग्नेय चट्टानों का अपरदन कम होता है, इसलिए ये निकली हुई सी प्रतीत होती हैं। उदाहरण के लिये यदि परतदार चट्टानों में सिल का विस्तार बीच-बीच में स्थित है, तो परतदार चट्टानों का अपरदन अधिक होता है, परन्तु सिल का अपरदन नहीं होता है। चित्र 3.3 में ।एठएब्एक्एम्एथ्ए परतदार चट्टानों की स्थिति तथा जिसके बीच में डए छ दो सिल हैं। यहाँ पर जब जलीय अपरदन क्रिया सक्रिय हुई, तो ।एठएब्एक्एम् तथा थ् का तेजी से अपरदन हो गया तथा डछ का अपरदन बहुत कम हुआ है। यही कारण है कि अपरपदन के बाद भी बाहर परिलक्षित हैं।
कभी-कभी आग्नेय शैल अपरदन के मलवा द्वारा ढक ली जाती है तथा कभी नग्न अवस्था में स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ती है। इस तरह दृ (प) ऊपरी आग्नेय शैल, तथा (पप) मलवा के नीचे के आग्नेय शैल दोनों स्थलाकृतियों का अलग-अलग वर्णन करेंगे।
(i) ऊपरी आग्नेय शैल तथा स्थलरूप – आग्नेय शैल का जमाव धरातल पर बड़ी मात्रा में पाया जाता है, परन्तु इनकी संरचना में काफी भिन्नता होती है। कुछ चट्टानें मुलायम तथा कुछ अपेक्षाकृत कठोर होती हैं अर्थात् कहीं पर आग्नेय चट्टानें मुलायम तथा कहीं पर कठोर होती हैं। जब नदियाँ अपरदन करती हैं, तो कठोर आग्नेय चट्टानों का अपरदन नहीं कर पाता है. जिस कारण बीच-बीच में आग्नेय शैल के कठोर टीले विद्यमान रहते हैं। जिन्हें मेसा की संज्ञा दी जाती है। नदियाँ यदि इसी प्रकार सक्रिय रहती हैं, तो धीरे-धीरे मेसा का भी अपरदन होता रहता है। इनका आकार छोटा हो जाता है, जिसे बूटी संज्ञा दी जाती है। बास्तव में, इसका निर्माण उस समय विशेष रूप से होता है. जब लावा का प्रवाह धरातल पर मोटी परत के रूप में होता है। नदियाँ इनको अपरदित करके मेसा तथा बूटी का निर्माण करती हैं। छिन्दवाड़ा पठार में अनेक मेसा व बूटी का निर्माण हुआ है। कोलोरैडो प्रान्त में ग्रान्डमेसा, राटन मेसा आदि प्रमुख हैं। इसी प्रकार हीपोमेसा तथा बूटी अरीजोना में महत्वपूर्ण हैं।
आग्नेय चट्टानों में एक चट्टान ग्रेनाइट की चट्टान होती है। यदि इनमें सन्धियों का विकास हुआ रहता है, तो इन संधियों के मध्य से जल रिस कर नीचे चला जाता है, जिस कारण रासायनिक क्रिया होती है, चट्टानें टूट जाती हैं। इनके बीच का भाग अपरदन के प्रक्रम द्वारा हटा लिया जाता है तथा बड़े-बड़े ग्रेनाइट के टुकड़े पड़े रहते हैं। इन टुकड़ों का आकार चैकोर, लम्बा तथा गोल होता है। ये एक दूसरे के ऊपर इस प्रकार से लदे रहते हैं, जैसे किसी ने इनको सजा कर रखा हो। इन्हें टार्स की संज्ञा दी जाती है।
(ii) नीचे की आग्नेय शैल तथा स्थलरूप – कभी लावा के गुम्बदों के ऊपर बहुत बड़ी मात्रा में परतदार शैलों का जमाव हो जाता है, परन्तु जब नदियाँ ऊपरी परत का अपरदन कर देती हैं, तो गुम्बद दिखाई पड़ने लगता है। यदि ऊपर से दबाव हट जाता है तो गुम्बदों की परतें उधड़ने लगती हैं। कभी-कभी परतदार चट्टानों में लावा गुम्बद का प्रवेश हो जाता है, तो अपरदन के कारण मुलायम गुम्बद कट जाते हैं तथा कठोर गुम्बदीय भाग लम्बे कटक के रूप में बदल जाता है, जिन्हें हागबैग की संज्ञा दी जाती है। इनका ढाल खड़ा होता है।
स्पष्ट है – भूगर्भिक संरचना स्थलरूपों के उद्भव एवं विकास में महत्वपूर्ण नियंत्रक कारक है। सामान्य दशाओं में चट्टानों के प्रकार, व्यवस्था, गुण आदि के द्वारा स्थलरूपों की व्याख्या की जा सकती है। साथ-ही-साथ भावी भूदृश्यों के निर्माण के विषय में अनुमान भी लगाया जाता है। व्यावहारिक भू-आकृति विज्ञान में इस संकल्पना का महत्व तीव्रगति से बढ़ रहा है, क्योंकि किसी भी योजना के कार्यान्वयन में स्थलरूपों की जटिलता तथा भावी सम्भावनाओं का अध्ययन अत्यन्त आवश्यक होता है।
2. जैसे ही भूतल पर विभिन्न अपरदनात्मक कारक कार्यरत होते हैं, क्रमिक स्थलरूपों, जिनके विकास की क्रमिक अवस्थाओं में विशिष्ट विशेषतायें होती हैं, का निर्माण होता है। (As the dffierent erosional agencies act upon the carth’s surface there is produced a sequence of landforms having distinctive characteristics at the successive stages of their development)
उपर्युक्त संकल्पना का सामान्य अर्थ है कि – किसी भी प्रक्रम द्वारा निर्मित स्थलरूप अपने विकास की विभिन्न अवस्थाओं में अलग-अलग विशेषता रखता है। इस प्रकार स्थलरूपों का विकास एक निश्चित प्रणाली के द्वारा क्रमिक रूप में होता है। डेविस ने इन अवस्थाओं को क्रमानुसार तीन अवस्थाओं में विभाजित किया है – (i) तरुणावस्था, (ii) प्रौढ़ावस्था, तथा (iii) जीर्णावस्था। इन्हीं अवस्थाओं में स्थलरूपों का विकास होता है। प्रत्येक स्थलरूप का क्रमिक विकास होता है। ऐसा नहीं होता कि अन्तिम अवस्था था जीर्णावस्था का स्थलरूप तरूणावस्था में तथा तरुणावस्था का स्थलरूप वृद्धावस्था में सृजित हो। अवस्थाओं पर आक्षेप किया जा सकता है, परन्तु स्थलरूपों के क्रमिक विकास पर आक्षेप नहीं किया जा सकता है। इसको एक उदाहरण द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है – प्रारम्भ में, नदी का अल्प विकास होता है, नदी शीर्षवर्ती अपरदन करती है, धीरे-धीरे सहायक सरिताओं का विकास होता है। नदी का निम्नवर्ती कटाब बढ़ता जाता है। परिणामस्वरूप नदियों ट आकृति की घाटी, गार्ज तथा कैनियन का निर्माण करती हैं। यह निर्माण केवल नदी की प्रथम अवस्था में देखने को मिलता। ऐसा नहीं है कि इन स्थलरूपों का विकास अन्तिम अवस्था में हो। जब भी स्थलरूपों का विकास प्रारम्भ होगा, यह प्रथम अवस्था में ही होगा। द्वितीय अवस्था में नदी का पार्श्ववर्ती अपरदन तीव्र होता है, जिस कारण ट आकृति की घाटी चैड़ी होने लगती है तथा गार्ज और कैनियन का विनाश होने लगता है। जल विभाजक पीछे हटने लगते हैं। इसमें अपरदन की अपेक्षा निक्षेप अधिक सक्रिय होता है, जिस कारण जलोढ़ पंखों तथा जलोड़ शंकुओं का निर्माण होता है। धीरे-धीरे कई जलोढ़ पंख मिलकर जलोढ़ मैदान का निर्माण करते हैं। जल विभाजक नुकेले हो जाते हैं। इसी अवस्था में, चाप झील अथवा गोखुर झील आदि का निर्माण होता है। इन स्थलाकृतियों का निर्माण तथा विकास आप को केवल द्वितीय अवस्था में ही देखने को मिलेगा। ऐसा नहीं है कि ये प्रथम अवस्था में ही सृजित हों। अन्तिम अवस्था में, निम्नवर्ती कटाव समाप्त हो जाता है। नदी के बाद के मैदान विस्तृत हो जाते हैं। इसी अवस्था में नदियाँ डेल्टे का निर्माण करती हैं। अन्त में एक सम्प्रदाय मैदान का निर्माण होता है तथा जलविभाजक के अवशेष विद्यमान रहते हैं। अतः स्पष्ट होता है कि स्थलरूपों में क्रमिक विकास होता है।
क्या स्थलरूपों का विकास क्रमिकरूप से सम्पन्न हो सकता है? स्थलरूपों के विकास की स्थिति बड़े नाजुक दौर से गुजरती है। उदाहरणार्थ- कोई नदी अपनी प्रौढ़ावस्था में स्थलरूपों का विकास कर रही है, यदि किसी भी स्रोत (हिम के पिघलने, वर्षा आदि) से जल की मात्रा बढ़ जाय तथा जल की बढ़ी हुई मात्रा कुछ समय तक स्थिर रहे, तो निश्चित रूप से नदी का गहरा कटाव सक्रिय हो जायेगा। प्रौढ़ावस्था के स्थलरूपों का विनाश होना प्रारम्भ हो जाता है अथवा विकास रुक जाता तथा तरुणावस्था के स्थलरूप विकसित होने लगते हैं। इतना ही नहीं, मान लीजिए नदी अपरदन-चक्र की अन्तिम अवस्था में पहुँच चुकी है, उस समय यदि सागर-तल का अवतलन हो जाय. तो नदी में नवोन्मेष उत्पन्न हो जाता है। यदि सागर-तल का अवतलन 100-200 मीटर हुआ है, तो नदियों बड़ी तेजी से तरुणावस्था में पहुँच कर, तरुणायस्था के स्थालखपों का विकास करती हैं। वृद्धावस्था के स्थलरूप या तो समाप्त हो जायेंगे या तो उनका विकास सक जायेगा। फलतः स्पष्ट है कि स्थलरूपों का क्रमिक विकास सम्भव नहीं है।
डेविस के तरुणावस्था, प्रौढ़ावस्था तथा जीर्णावस्था की बड़ी कट आलोचना की गई। आलोचकों का विचार है कि अपरपदन-चक्र के विकास की अवस्था मानव-जीवन के तरुणा, प्रौढ़ा तथा जीर्णा अवस्थाओं करनी चाहिए, क्योंकि मनुष्य की अवस्थायें निश्चित होती हैं। परन्तु, चक्र पर तो संरचना का प्रभाव स्पष्टरूप से परिलक्षित होता है। यदि चट्टान मुलायम है तो चक्र शीघ्र पूरा होता है। इसके विपरीत
यदि चटृान कठोर है, तो चक्र लम्बे समय बाद पूरा होता है। यदि वीच में व्यवधान उत्पन्न हो जाता है, तो चक्र की अवस्थायें बदल जाती हैं। इसी कारण वाल्टर पेन्क ने स्थलरूप को – संरचना, प्रक्रम तथा अवस्थाओं का प्रतिफल न बताकर स्थलखण्ड की उत्थान दर तथा निम्नीकरण की दर के सम्बन्धों का प्रतिफल बताया है। परन्तु, इस संकल्पना में इस अवस्था को स्वीकारा जा सकता है, क्योंकि यहाँ अवस्था का तात्पर्य किसी निश्चित समय से नहीं लिया गया, बल्कि स्थलरूपों के विकासकाल से लिया गया है। इसलिए अवस्था का प्रयोग स्थलरूपों के विकास में सापेक्ष अर्थ में किया जा सकता है।
एक ही अवस्था में, विभिन्न स्थलखण्डों में समानता तो हो सकती है, परन्तु समय में समानता नहीं हो सकती है। यह तभी सम्भव होता है, जव चट्टानों की संरचना, जलवायु, प्रक्रम तथा स्थल-विरूपण की दशायें समान हों। फलतः स्पष्ट होता है कि स्थलरूपों के क्रमिक विकास के लिये अनेक तथ्यों का समान होना आवश्यक होता है। यदि इनमें एक भी बदल जायेगा, तो स्थलरूपों का क्रमिक विकास सम्भव नहीं होगा।