सामाजिक व्यवस्था परिभाषा क्या है | सामाजिक व्यवस्था किसे कहते है अर्थ विशेषता तत्व Social Order in hindi

Social Order in hindi meaning definition सामाजिक व्यवस्था परिभाषा क्या है | सामाजिक व्यवस्था किसे कहते है अर्थ विशेषता तत्व ?

परिभाषा :

सामाजिक व्यवस्था (SocialOrder) ः I) समाज में संस्थाओं का विन्यास, II) भूमिकाओं और प्रस्थितियों का विन्यास, III) इस ‘ढांचे‘ का सुचारू, आत्मनियंत्रित, संतुलित और समन्वित ढंग से कार्य करना।

 धर्म और सामाजिक व्यवस्था (Religion and the Social Order)
धर्म, सामाजिक व्यवस्था, स्थिरता और बदलाव वे चार अवधारणात्मक माध्यम हैं जिन की मदद से इस इकाई को समझा जा सकता है। इस अनुभाग में हम इन्हीं अवधारणात्मक माध्यमों के विषय में जानकारी हासिल करेंगे। वैसे तो आप इन से पहले से ही परिचित हैं, फिर भी धर्म और सामाजिक व्यवस्था के बीच की अन्योन्यक्रिया की प्रकृति और जटिलता को और अच्छी तरह समझने की दृष्टि से अनुभाग 14.2.1, 14.2.2 और 14.2.3 का अध्ययन आप के लिए उपयोगी होगा।

धर्म अपने आप में एक व्यवस्था है और यह व्यापक समाज की एक उप-व्यवस्था भी है। परिवार, शिक्षा, शासन और अर्थव्यवस्था जैसी समाज की अन्य उप-व्यवस्थाओं के साथ धर्म की निरंतर अन्योन्यक्रिया चलती रहती है। आप जानते ही हैं कि धर्म और सामाजिक व्यवस्था के बीच इस अन्योन्याक्रिया की विशिष्ट अभिव्यक्तियाँ हैं। सामाजिक व्यवस्था के साथ अपने अन्योन्यक्रिया के दौर में धर्म, सामाजिक व्यवस्था को स्थिर कर सकता है। इस के लिए वह व्याख्याओं के माध्यम से सामाजिक व्यवस्था को औचित्य और वैधता प्रदान करता है। दूसरी ओर धर्म मौजूद सामाजिक व्यवस्था को बदल भी सकता है। धर्म यथास्थितिवादी भी हो सकता है और क्रांतिकारी भी। अन्योन्यक्रिया की प्रकृति और उस का परिणाम अनेक कारकों पर निर्भर करते हैं, जिनके विषय में हम अनुभाग 14.2.3 में चर्चा करेंगे।

 धर्म और सामाजिक व्यवस्था के बीच अन्योन्यक्रिया (Interaction between Religion and Social Order)
सामाजिक व्यवस्था क्या है? आप में से अपेक्षाकृत उत्सुक विद्यार्थियों को स्मरण होगा कि ‘सामाजिक व्यवस्था‘ की अवधारणा समाज की क्रियावादी समझ के अंदर आती है। इस अवधारणा की उत्पत्ति मध्य युग में हुई जब लोग विध्वंसक सामंती लड़ाइयों और प्रलयकारी प्राकृतिक विपदाओं और भीषण महामारियों से जूझते हुए ‘व्यवस्था‘ की तलाश कर रहे थे। हमारी समझ से इस अवधारणा को उन विचारकों ने लोकप्रिय बनाया है जो समाज को क्रियावादी दृष्टिकोण से समझने की हिमायत करते हैं और साथ ही समाज और मानव शरीर की गतिशीलता की तुलना भी करते हैं। संक्षेप में, वे जैविक सादृश्य की बात करते हैं।

अवधारणा के रूप में ‘सामाजिक व्यवस्था‘ के इनमें से एक या अधिक अर्थ निकल सकते हैं:

(प) समाज में संस्थाओं की व्यवस्थाय

(पप) समाज में भूमिकाओं और प्रस्थितियों की व्यवस्थाय

(पपप) इस ‘ढांचे‘ का सुचारू और सुसमन्वित रूप से ‘कार्य करना‘। दूसरे शब्दों में ‘ढांचा‘ या संरचना और ‘कार्य‘ किसी भी सामाजिक व्यवस्था के दो जुड़वां आयाम हैं। व्यक्ति और समाज एक दूसरे के साथ सामंजस्यपूर्ण संबंध में बंधे हों, यही किसी सामाजिक व्यवस्था का सार है। सामाजिक व्यवस्था की अवधारणा के पीछे एक अत्यंत महत्वपूर्ण और सवालिया मान्यता यह है कि सामाजिक व्यवस्था भी लगभग प्राकृतिक व्यवस्था की तरह ही एक संतुलित ‘आत्म-नियंत्रणकारी‘ और ‘आत्म-संतुलनकारी‘ व्यवस्था है।

सामाजिक व्यवस्था की क्रियावादी व्याख्या से उभरने वाला एक महत्वपूर्ण मुद्दा यह है कि सामाजिक व्यवस्था में शक्ति, संपदा और अवसरों की असमानता भी होती है और इन संसाधनों को हासिल करने के लिए विभिन्न समूहों के बीच चलने वाला संघर्ष भी होता है। क्या ये असमानताएं स्थायी होती हैं, और क्या इन्हें ‘स्वाभाविक‘ या ‘नियत‘ या ‘तर्क से निर्धारित‘ मान कर स्वीकार कर लिया जाता है? क्या हमें इस कलह पूर्ण सामाजिक व्यवस्था को बदल नहीं देना चाहिए? इन सवालों पर समाजशास्त्रियों में हमेशा से बहस चलती आ रही है। समाजशास्त्रियों का एक विशिष्ट वर्ग है जो सामाजिक व्यवस्था के संसाधनों को, प्राप्त करने की महत्वाकांक्षा रखने वाले समूहों के बीच टकराव के रूप में देखता है।

धर्म क्या कहता है, सामाजिक व्यवस्था के बारे में? क्या धर्म मौजूदा सामाजिक व्यवस्था को उसकी शक्ति, संपदा और अवसरों की असमानताओं सहित जैसा का तैसा स्वीकार कर लेता है? क्या धर्म यह कहता है कि सामाजिक व्यवस्था तो स्वाभाविक और नियत होती है और इसलिए उसे बदला नहीं जा सकता? क्या धर्म कहता है कि अन्यायपूर्ण सामाजिक व्यवस्था दैवीय इच्छा और रचना की अभिव्यक्ति है? क्या धर्म यह कहता है कि मनुष्य को सामाजिक व्यवस्था को स्वीकार करना ही होगा क्योंकि यह व्यक्ति के पापों और कर्मों आदि का परिणाम है और इसलिए वे इसे बदल नहीं सकते?

इन महत्वपूर्ण सवालों पर विचार करने से पहले, आइए हम धर्म की कुछ प्रमुख विशेषताओं पर दुबारा विचार करेंः
प) धर्म की एक संरचनात्मक भूमिका (कार्य) होती हैः यह हमें समझने के लिए वैचारिक रूप देता है। दूसरे शब्दों में, यह हमें बुद्धि का एक ढांचा देता है जिसमें समय, स्थान, वर्ग और व्यक्ति आदि की अवधारणाएं आती हैं। (दुर्खाइम, ई. 1965 (1912)ः 9)

पप) धर्म की एक बौद्धिक भूमिका होती है: यह मानव जीवन के अर्थ और उद्देश्य की व्याख्या करता है। यह समाज को नियंत्रित करने वाले मूल्य और प्रतिमान देता है और उनका समर्थन करता है। और स्पष्ट शब्दों में धर्म किसी भी समय में लक्ष्यनिर्धारण और मूल्य-अभिविन्यास की दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। इसके अतिरिक्त धर्म जन्म, मृत्यु, दुःख और बुराई जैसी प्राकृतिक प्रक्रियाओं की भी व्याख्या करता है।

पपप) धर्म सामाजिक संस्था है क्योंकि आस्थकों का समुदाय ही-किसी धर्म का आधार होता है। धर्म संगठन है क्योंकि इसमें देवी-देवता, पुरोहित, पैगम्बर और विश्वासी एक श्रेणीबद्ध क्रम में रहे हैं।

पअ) धर्म संस्कारों और विश्वासों का एक पुंज होता है जिसके केंद्र में ‘पवित्र‘ की धारणा होती है।

 सामाजिक स्थिरता और सामाजिक बदलाव (Social Stability and Social Change)
पिछले अनुभाग 14.2.1 में हमने धर्म और सामाजिक व्यवस्था की युगल अवधारणों को विस्तार से समझाया। हमने उसमें जो व्याख्या प्रस्तुत की और जो सवाल रखे उनसे आप को यह समझने में मदद मिली होगी कि धर्म क्यों और कैसे सामाजिक व्यवस्था के साथ अन्योन्यक्रिया करता है। इस तरह, धर्म और सामाजिक व्यवस्था के बीच अन्योन्यक्रियात्मक संबंध की प्रकृति और जटिलता को समझ लेने के बाद, अब हम इस संबंध के प्रभाव या परिणाम का विश्लेषण करेंगे।

धर्म और सामाजिक व्यवस्था के बीच अन्योन्यक्रिया होती है तो उसके दो व्यापक प्रभाव हो सकते हैः (प) धर्म सामाजिक व्यवस्था को बदल सकता है और धर्म सामाजिक व्यवस्था को स्थिर भी कर सकता है, (पप) सामाजिक बदलाव के परिणामस्वरूप स्वयं धर्म में भी विभिन्न स्तरों पर बदलाव हो सकता है या मौजूदा सामाजिक व्यवस्था कभी-कभी अत्याचारी और दमनकारी होने वाले धर्म का बचाव भी कर सकती और उसे उचित भी ठहरा सकती है। स्थिरता और बदलाव ही अकेले धर्म और सामाजिक बदलाव के बीच अन्योन्यक्रिया के संभावी परिणाम नहीं है। कभी-कभी कुछ निश्चित स्थानों पर इसकी परिणति निरंतरता में भी हो सकती है। दूसरे शब्दों में, पिछले युग की कुछ विशेषताएं तो जैसे की तैसे बनी रह सकती हैं। जबकि कुछ अन्य विशेषताएं बदल दी जाती हैं। नई पैदा होने वाली स्थितियों के कारण पिछले काल के कुछ सिद्धांतों को बनाए रखना आवश्यक हो सकता है।

धर्म मनुष्यों के दुःखों और असमानताओं की व्याख्या प्रस्तुत करके मौजूदा सामाजिक व्यवस्था को स्थिरता प्रदान करता है। धर्म एक निश्चित नैतिक ढांचे के भीतर व्यक्तियों का समाजीकरण करके समाज को स्थिरता प्रदान कर सकता है। कोई धर्म विशेष कुछ ऐसे सिद्धांत प्रस्तुत करता है जो असमानताओं की व्याख्या स्वाभाविक या प्राकृतिक और ईश्वर प्रदत्त प्रघटना के रूप में करते हैं। कुछ धर्म व्यक्तिगत मोक्ष या उद्धार की अवधारणा को इतना अधिक महत्व देते हैं कि वे मनुष्य के दुःखों को ‘पाप‘ या ‘मनुष्य की पतित अवस्था‘ के परिणाम के रूप में प्रस्तुत करते हैं।

कार्यकलाप 1
अपने बचपन के अनुभवों और संस्मरणों को याद कीजिए कि आपके पिताध्मां/दादा/दादी या नाना-नानी आदि किस तरह आप को कहानियों, विशेषकर धार्मिक मिथकों के माध्यम से ‘अच्छे‘ और ‘बुरे‘ की शिक्षा देते थे।

धर्म कभी-कभी सामाजिक बदलाव की शक्ति के रूप में कार्य करने लगता है। समाज में होने वाले व्यापक बदलावों की रोशनी में, पुराने शास्त्रों, संस्कारों या सिद्धांतों की नई-नई विवेचनाएं होती हैं। ये सामाजिक बदलाव में अपना निश्चित योगदान देती हैं। ऐसे में धर्म स्वयं अभी तक हाशिए में पड़े या भुला दिए गए सिद्धांतों पर इस बदले संदर्भ में फिर से जोर दे सकता है। विश्वासियों के समुदाय के इस लोक के दुःखों (उत्पीड़न, दमन, दासता आदि) से बाध्य होकर धर्म को विशिष्ट सामाजिक-राजनीतिक और सामाजिक-आर्थिक संदर्भ में अपनी पारलौकिक भूमिका को गौण करना पड़ सकता है। अक्सर धार्मिक भावनाओं और प्रतीकों का आह्वान किया जाता है, संस्कारों और विश्वासों को नए अर्थ दिए जाते हैं, और इस प्रक्रिया में धर्म, विश्वासियों के उस समूह के लिए सामूहिक लामबंदी का वाहक बन जाता है जो ‘मुक्ति‘ पाना चाहते हैं।

विश्वासियों का यह समूह विरोध स्वरूप मातृ धर्म संबंध तोड़ कर अलग मत का निर्माण कर सकता है। धर्म यह भी व्याख्या करता है कि आदर्श परिवार, सर्वोत्तम शिक्षा आदि का अर्थ है। इसके चलते इन संस्थाओं में बदलाव या स्थिरता भी आ सकती है।

उपर्युक्त विवेचन से एक दिलचस्प विचार सामने आता है कि धर्म आवश्यक रूप से पुरातनपंथी या रूढ़िवादी शक्ति नहीं है, जैसा कि अधिकांश लोग मानते हैं । अपितु धर्म तो प्रगतिशील, आधुनिक और क्रांतिकारी शक्ति भी हो सकती है। यह उन कारकों पर निर्भर करता है जिनमें से कुछ की व्याख्या नीचे दी गई है।

निर्धारक कारक (Determining Factors)
धर्म मौजूदा सामाजिक व्यवस्था को स्थिर करता है या इसे बदलता है, यह अनेक कारकों पर निर्भर करता है। ऐसे कुछ कारक हैं:
ऽ ऐसे नए साक्ष्य/अनुसंधान जो शास्त्रों, पवित्र ग्रंथों और धर्म के संस्थापक के संदेश की नई विवेचना प्रस्तुत करते हैं।
ऽ पादरी, पुरोहित और विश्वासियों के समुदाय के सामाजिक मूल बिन्दु (सामाजिक वर्ग, प्रजातियता आदि)।
ऽ ऐसा माध्यम जिसके जरिए स्थिरता अथवा बदलाव की प्रक्रिया संपन्न होती है।
ऽ विद्वानों के शास्त्रार्थ या आंदोलनों की रोशनी में पवित्र ग्रंथों/शास्त्रों/पाठों की पुनः विवेचना।
ऽ किसी औपनिवेशिक शासन या स्व-शासन में चलने वाले धार्मिक समुदाय की राजनीतिक परिस्थिति।
ऽ धार्मिक श्रेणीबद्धता में व्यक्तियों का समाज के दूसरे वर्गों के साथ संबंध, दूसरे शब्दों में, धर्म के भीतर और बाहर सत्ता की स्थिति।
ऽ पैगम्बरों का अभ्युदय, दूसरी संस्कृतियों का प्रभाव, राजनीतिक अधीनता और विश्वासियों का आर्थिक शोषण।
ऽ जैसे धर्म में बदलाव आने से सामाजिक व्यवस्था में बदलाव आ सकता है, ठीक वैसे ही समाज की शिक्षा, परिवार, विज्ञान, उद्योग और स्तरीकरण जैसे क्षेत्रों में आने वाले बदलाव धर्म को इस बात के लिए बाध्य कर सकते हैं कि वह नई रोशनी में सामाजिक व्यवस्था की व्याख्या करें।

उद्देश्य
इस इकाई को पढ़ने के बाद, आपः
ऽ धर्म और सामाजिक व्यवस्था के संबंध को व्यक्त कर सकेंगे,
ऽ मत, पंथ और संप्रदाय को ध्यान में रखते हुए, समाज पर धर्म के प्रभाव का आकलन कर सकेंग,
ऽ सामाजिक व्यवस्था के राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक आदि पहलुओं से उदाहरण लेते हुए, इस तथ्य का गुण विवेचन कर सकेंगे कि धर्म मौजूदा सामाजिक व्यवस्था को संरक्षित करने के साथ-साथ इसे बदल भी सकता है, और
ऽ उन कारकों और संदर्भो या प्रसंगों को समझ सकेंगे जो समाज पर धर्म के प्रभाव का निर्धारण करते हैंः चाहे वह स्थिरता के रूप में हो, या बदलाव के।

प्रस्तावना
क्या आपको समाजशास्त्रियों के मार्गदर्शन में धर्म की इस बौद्धिक या मानसिक यात्रा मे
दिलचस्प लगेगी। धर्म एक ऐसा जटिल यथार्थ है कि आप खोजते जाइए, नए-नए रहस्य खुलते चले जाएंगे। इस पाठ्यक्रम के माध्यम से हम आपको केवल इस यात्रा में उतार रहे हैं। अब यह आप पर है कि आप रुचि ले कर धर्म की समाजशास्त्रिय खोज में लगें और जहाँ आवश्यक हो आप बताई गई अवधारणाओं और सिद्धांतों की मदद इस प्रक्रिया में लें।

अब तक आप तीन खंडों में समाहित तेरह इकाइयों में धर्म के विषय में पढ़ और समझ चुके हैं। खंड तीन में धार्मिक संगठनों, धार्मिक विशेषज्ञों, कट्टरपंथ और धर्म निरपेक्षीकरण जैसे धर्म के विभिन्न पहलुओं पर चर्चा की गई है। धर्म का एक अत्यंत रोचक गुण है कि यह सामाजिक व्यवस्था को उचित ठहरा सकता है, उस की व्याख्या कर सकता है और उसे संरक्षित कर सकता हैय साथ ही, यह सामाजिक व्यवस्था से रहस्यात्मकता के आवरण को हटा सकता है अर्थात उसे समझने योग्य रूप प्रदान कर सकता है, उस की वैधता को भंग कर सकता है और उसे बदल भी सकता है।

इस इकाई में हम आपको धर्म के इसी महत्वपूर्ण गुण के विषय में समझाएंगे। अनुभाग 14.2 में हम धर्म, सामाजिक व्यवस्था, स्थिरता और बदलाव जैसे उन बुनियादी विचारों की फिर से विवेचना करेंगे जिन से आप पहले से ही परिचित हैं। अनुभाग 14.3 में हम यह स्थापित करने का प्रयास करेंगे कि मत, पंथ आदि का उदय समाज पर धर्म के प्रभाव के फलस्वरूप होता है। यहाँ हमारा प्रमुख काम आप को ऐसे उदाहरण देना होगा जिन्होंने सामाजिक व्यवस्था को बदला और नई सामाजिक व्यवस्था स्थापित भी की है। हम यह मान कर चलते हैं कि सामाजिक व्यवस्था, आर्थिक व्यवस्था, सांस्कृतिक व्यवस्था और राजनीतिक व्यवस्था जैसे विभिन्न पहलू हैं, और इसी दृष्टि से अनुभाग 14.4 में हम विभिन्न उदाहरणों की मदद से यह स्पष्ट करने का प्रयास करेंगे कि सामाजिक व्यवस्था के इन सभी पहलुओं को धर्म संरक्षित, स्थिर या परिवर्तित कर सकता है।