मत किसे कहते हैं | मत शब्द के अर्थ क्या है परिभाषा मतलब बताइए Sect in hindi meaning definition

Sect in hindi meaning definition  मत किसे कहते हैं | मत शब्द के अर्थ क्या है परिभाषा मतलब बताइए ? 

मत (Sect)
धार्मिक समूह के रूप में मत उन लोगों का संगठन है जो स्थापित धर्म संस्था द्वारा प्रस्तुत सिद्धांत की व्याख्या से विरोध रख कर सुनिश्चित धारणा के साथ चलते हैं। इसका आदर्श रूप धर्म संस्था से बिल्कुल भिन्न होता है। यद्यपि इसमें धर्म संस्था के कुछ गुण पाए जाते हैं, धर्म संस्था की तरह इसकी सदस्यता अनिवार्य नहीं है। यह स्वैच्छिक, विशिष्ट व बहुधा रीति अनुसार निर्धारित होती है। असल में मत की उत्पत्ति होती है जब सामाजिक स्थिति और धार्मिक सिद्धांतों से जुड़े कई मतभेदों के कारण लोग चर्च का विरोध करते हैं। ये मतभेद दर्शाते हैं कि स्पष्ट रूप से ऐसे मत के निजी धार्मिक सिद्धांत और मूल्य होते हैं।
मत स्वतंत्र सार्वभौमिक परिवर्तन का अनुमोदन नहीं करता। इसके अनुसार ईश्वर की कृपा सबके लिए नहीं है और न ही ये अपने आप प्राप्त हो जाती है। यह व्यक्ति विशेष द्वारा व्यक्तिगत विश्वास तथा आदर्श द्वारा अर्जित की जाती है। अतः मत धार्मिक प्रवर्तकों के परिष्कृत मौखिक कथनों के प्रति अरुचि रखता है (जानसन: वही: 427)

बहुधा मत अन्य धार्मिक समूहों के प्रति असहिष्णु होता है। यह परिवर्तन को मान्यता दे भी सकता है नहीं भी। पादरी वर्ग तथा जन-सामान्य के बीच के भेद का नाश इसकी मुख्य विशेषता है। अपने संगठन में, मत प्रायः प्रजातांत्रिक होता है। यह सांसारिक व पारलौकिक दोनों हो सकता है।

मत का जन्म विरोध व क्रांति के फलस्वरूप होता है। राजनीतिक तंत्र से इसका संबंध अच्छा बुरा हो सकता है। व्यवस्था के विपरीत होने के कारण इसे दंडित भी किया जा सकता है। जॉनसन के विचारानुसार, मत का क्रांतिकारी रवैया बहुधा निराशा की स्थिति की ओर ले जाता है।

मतवाद की ईसाई धर्म में भर्त्सना की गई है ऐसा कहा गया है कि इसका उद्देश्य ईसाई परम्परा में ही निहित है। ईसाई धर्म का अपना विकास भी विरोध के परिणामस्वरूप हुआ जैसा मत के साथ होता है। ईसाई मतों का विकास मुख्यतः तीव्र व्यक्तिवाद के मूल्य, प्रेम व बंधुत्व के आदर्श, के समर्थन व गरीबों के प्रति विशेष चिंता के लिए हुआ।

चर्च के इस विचार का विरोध कि धार्मिक प्राधिकार, पद तथा रीतियों के अनुसरण में निहित है न कि मानव आत्मा में, ईसाई धर्म में मतवाद के विकास का एक अन्य कारण बना। एक तीसरा कारण उन सामाजिक संस्थाओं के प्रति विरोध है जिन्हें चर्च समर्थन देता है। मत सामाजिक न्याय की अभिव्यक्ति है। गरीबों के प्रति अनभिज्ञता तथा प्रवचनों की पवित्रता संबंधी प्रश्नों ने बहुधा अन्याय की भावना, अप्रसन्नता व असंतोष को जन्म दिया।

मत पूर्ण समाज नहीं वरन् इसके एक भाग को अपनी परिधि में लेता है। आसानी से पहचान पा लेने के कारण यह अपने सदस्यों में अधिक आत्म सम्मान की भावना जागृत कर पाता है, अतः इसकी प्रासंगिकता पैदा होती है जितना इसका विरोध व आलोचना होती है उतना ही मत का मान सम्मान व आंतरिक एकता बढ़ती है। एक विद्रोही मत को दंडित करने से इसके आत्म सम्मान व आंतरिक एकता में वृद्धि होती है।

उद्देश्य
इस इकाई को पढ़ने के बाद, आप:
ऽ भारत व पश्चिमी संदर्भ में विभिन्न धार्मिक संगठनों से परिचित हो सकेंगे,
ऽ धार्मिक संगठनों की उत्पत्ति, उनके विकास एवं सामाजिक कार्यों के बारे में समझ विकसित कर सकेंगे,
ऽ भारत तथा पश्चिमी धार्मिक संगठनों का तुलनात्मक अध्ययन कर सकेंगे, और
ऽ विश्लेषण कर सकेंगे कि क्या पश्चिमी समाजशास्त्रियों द्वारा भारतीय धार्मिक संगठन उन्हें समझने के लिए पर्याप्त हैं।

प्रस्तावना
इस इकाई में हम धार्मिक संगठनों की धर्म के महत्वपूर्ण तत्व के रूप में विवेचना करेंगे। इस इकाई में धर्म संस्था मत संप्रदाय व पंथ का अध्ययन तीन भारतीय समूहो संघ मल एवं पंथ के साथ किया गया है। हम आशा करते हैं कि इससे आप तुलनात्मक, परिदृश्य रचने में सफल हो सकेंगे। इस इकाई में धार्मिक संगठनों की उत्पत्ति, उनके विकास कार्य व गतिशीलता की भी व्याख्या की गई है। हमें आशा है कि यह चर्चा आदर्श व वास्तविक के बीच के परस्पर संबंध को समझने में भी आपकी सहायता करेगी।

सारांश
इस इकाई में हमने निम्नलिखित के बारे में चर्चा की तथा कुछ विशिष्ट जानकारी प्राप्त की।

जटिल धार्मिक संगठनों का विकास मूल रूप से एक चामत्कारिक व्यक्तित्व के धार्मिक अनुभव के आधार पर हुआ। ( उदाहरणतया ईसा मसीह, मोहम्मद आदि) । तत्पश्चात इसने विचारों की एक निश्चित पद्वति तथा व्यवहार अथवा रीति रिवाजों के रूप में विकास किया। ( देखें इकाई 20, खंड 6, ई. एस. ओ.-11)

मध्यपूर्वी धर्मो जैसे ईसाई व इस्लाम की एक ईश्वरवादी प्रकृति उन्हें अधिक व्यवस्थित रूप से संगठित होने में सक्षम बनाती है। इसलिए चर्च अथवा धर्म संस्था भारत में इसके साम्यों से कहीं अधिक सुसंगठित है। यहाँ प्रश्न उठता है – क्या हम पश्चिमी समाजशास्त्रियों द्वारा प्रस्तुत धर्म संस्था (चर्च) मत वर्गीकरण को भारतीय धर्म संगठन को समझने के लिए उपयोग कर सकते हैं। यद्यपि यहाँ हमें धर्म संस्था (चर्च) मठ वर्गीकरण का कोई निश्चित साम्य नहीं मिलता तथापि यह हमें तुलनात्मक अध्ययन करने में मदद प्रदान करता है।

इस इकाई में धार्मिक संगठन की उत्पत्ति, विकास तथा इसकी विशिष्ट क्रिया की भी चर्चा की गई है। किसी भी धार्मिक समूह के लिए स्थापित संगठन तथा वर्ग बनने के लिए पूजा-उपासना की पद्वति, निश्चित दर्शन जो इसके जुड़े अनुयायियों को आपस में बांधता है, का प्रतिपादन करता है।

मठ व पंथ आंतरिक मतभेद तथा आंतरिक संक्रिया का परिणाम है जो शीघ्र ही धार्मिक संगठन के बने रहने के लिए मुखद उपदेशों का संस्थाकरण कर देते हैं। इस पहलू पर भी इस इकाई में चर्चा की गई है।