शूम का खण्डकालिक अपरदन सिद्धांत क्या है Schaum’s partial erosion theory in hindi

Schaum’s partial erosion theory in hindi शूम का खण्डकालिक अपरदन सिद्धांत क्या है ?

शूम का खण्डकालिक अपरदन सिद्धान्त
शूम का विचार है कि – अब तक प्रतिपादित भ्वाकृतिक-मॉडल आवश्कता से अधिक सरल एव साधारण हैं, जिसके द्वारा लघु समय में होने वाले परिवर्तनों की व्याख्या सम्भव नहीं है। स्थलरूपी का विकास दीर्घकालीन जटिल ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में होता है, जिसमें खण्ड कालिक अनाच्छादन (तीव्र अपरदन काल के पश्चात् विक्षेपण काल) तथा इसकी पुनरावृत्ति जटिलताओं का समावेश करता है।
शूम महोदय ने डेविस, पेंक, हैक आदि विद्वानों के सिद्धान्तों की कमियों को दूर करने लिए अपरदन-चक्र को अनेक कालों में विभक्त किया है –
(1) चक्रीय काल – यह काल दीर्घकालीन होता है, जिसमें नदियों की प्रवणता में घातीय हास द्रष्टव्य होता है तथा इसके अन्तर्गत कई प्रवणित एवं स्थिर काल होते हैं।
(2) प्रवणित काल – इस काल में समय के परिप्रेक्ष्य में नदी की प्रवणता में उतार-चढ़ाव । परन्तु बीच में एक अन्य अवधि वाला काल भी होता है, जिनमें कोई परिवर्तन नहीं होता है। इस काल में कई त्वरित परिवर्तन वाले अल्पकालों की संकल्पना का भी समावेश किया है। इनके अनुसार दीर्घ प्रवणित काल अनेक अल्प कालों द्वारा कई श्रेणियों में विभक्त होता है। जैसे – ।ए ठए ब्ए क्३छए यदि । तथा ठ प्रवणता के दीर्घकाल हैं तो इनके मध्य एक त्वरित परिवर्तन वाला अन्प काल इस अवधारणा से स्थलरूपों में आयी जटिलताओं का भी विश्लेषण सुगमतापूर्वक किया जा सकता है।
(3) स्थिर दशा काल – यह दीर्घ अवधि वाला काल होता है। इसमें निक्षेपण का रहती है। इस काल में जलमार्ग में प्रवाहित अवसाद जल-मार्ग प्ररूप को परिवर्तित कर देता है।
शूम महोदय स्थलरूपों के विकास की समस्या के समाधान हेतु दो संकल्पनाओं का प्रतिपादन किया है-
(1) भ्वाकतिक सीमान्त संकल्पना – शूम ने इस संकल्पना में स्पष्ट किया है कि जलीयतन्त्र में परिवर्तन अपरदन-तन्त्र में निहित भ्वाकृतिक नियन्त्रण कारकों द्वारा होता है। यदि नदी अपरदन से मलवा का निपेक्षण होता है तो एक अस्थिर ढाल का विकास हो जाता है तथा ढाल प्रवणता धीरे-धीरे बढ़ने लगती है, जिस कारण अपरदन प्रक्रिया पुनः प्रारम्भ होने लगती है।
(2) जटिल अनुक्रिया संकल्पना – शुम ने इस संकल्पना में नदी में होने वाले नवोन्मेष द्वारा उत्पन्न परिवर्तन की व्याख्या करने का प्रयास किया है। इनके अनुसार – बेसिन में नवोन्मेष होने से एक नयी स्थिति उत्पन्न हो जाती है, जिससे नदी संतुलन प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील हो जाती है। कुछ कालोपरान्त पूर्व स्थिति पुनः प्राप्त कर लेती है।
शूम महोदय इन दोनों संकल्पनाओं के आधार पर स्थलाकृतिक विकास को स्पष्ट करने का प्रयास किया है। इसके अनुसार – जल-विभाजकों के ऊपरी भाग पर वर्षा द्वारा समान एवं अल्प अधः क्षय की क्रिया घटित होती है, जिससे प्राप्त मलवा का निष्कासन नदी द्वारा किया जाता है। साथ-ही-साथ नदी घाटी में कहीं-कहीं पर मलवा का निक्षेपण भी होता है। परिणामतः मलवा के निक्षेपण तथा निष्कासन के कारण नदी तली का आकार सोपानाकार हो जाता है। प्रायः विद्वान नदी-तली के सोपानाकार स्थिति को जलीय-तन्त्र के बाह्य प्रभावों का प्रतिफल मानते हैं, परन्तु शूम के अनुसार यह स्वरूप जलीय-तन्त्र के आन्तरिक नियन्त्रणों के कारण होता है । इस प्रकार इनका सिद्धान्त ‘गतिक मितस्थायी समस्थिति‘ मॉडल प्रस्तुत करता है। इस सिद्धान्त के अनुसार आन्तिरक भ्वाकृतिक नियन्त्रणों का प्रभाव स्थलरूपों पर अवश्य पड़ता है। उदाहरणार्थ – यदि नदी के तली में जमाव हो जाता है तो ‘गतिक मितस्थायी समस्थिति‘ की दशा उत्पन्न हो जाती है। यह स्थिति एक सीमा के बाद नवोन्मेष में परिवर्तित हो जाती है तथा स्थलखण्ड पर खण्ड कालिक अपरदन का काल प्रारम्भ हो जाता है। स्वभावतः नदी अपरदन से प्राप्त मलवा का निक्षेपण करती है, फलतः निक्षेपण काल की शुरूआत हो जाती है। नदी की तली सोपानाकार हो जाती है, जो स्थिरता काल की द्योतक है। ऊपर स्पष्ट किया जा चुका है कि अस्थिरता काल में अपरदन की क्रिया होती है जो अत्यल्प अवधि वाला होता है, जबकि स्थिरता काल में निक्षेपण की क्रिया होती है तथा यह दीर्घ अवधि तक होता है। इन्होंने स्पष्ट करने का प्रयास किया है कि – नदी के जलमार्ग में प्रवाहित होने वाले अवसादों के गुण के आधार पर इसकी तली में परिवर्तन घटित होता है। साथ-ही-साथ इसके कारण अस्थिरता काल में वृद्धि की सम्भावना बनी रहती है। इस प्रकार अस्थिर काल (अपरदन-काल) तथा स्थिर काल (निक्षेपण-काल) की पुनरावृत्ति के फलस्वरूप अनेक स्थलरूपों का सृजन होता हैं। शूम का जलीय-चक्र कई उपचक्रों में विभाजित है। इन्होंने सभी उपचक्रों की सम्भावना पर जोर दिया है।
(1) प्रमुख चक्र – इस चक्र के अन्तर्गत स्थलखण्ड का उत्थान होता है तथा ऊपरी भाग में वर्षा के कारण अनाच्छादन की क्रिया होती है, जिससे विस्तृत मात्रा में (अपरदन के कारण) मलवा की प्राप्ति होती है। समय के साथ मलवा की मात्रा एवं आकार में परिवर्तन होता है।
(2) द्वितीय चक्र – इस चक्र में अवसाद का जमाव होता है तथा वीच-बीच में की घटना भी घटित हो सकती है, जिस कारण स्थिर तथा अस्थिर काल में परिवर्तन होता है।
(3) तृतीय चक्र – इस चक्र के दौरान निक्षेपित भागों का अपरदन होता है तथा सरितायें कई शाखाओं में विभाजित होकर प्रवाहित होने लगती हैं।
(4) चतुर्थ चक्र – इस चक्र का प्रारम्भ विवर्तनिक घटनाओं, जलवायु में परिवर्तन, संतुलन आदि के घटित होने से द्वितीय एवं तृतीय चक्रों में परिवर्तन होता है, जिससे चतुर्थ चक्र प्रारम्भ होता है।
(5) पंचम चक्र – इस चक्र का प्रारम्भ मौसम परिवर्तन के फलस्वरूप होता है, जिससे इस समय नदी-घाटियों में जमाव की प्रक्रिया उर्ध्वगामी होती है।
वास्तव में, देखा जाय तो स्पष्ट होता है कि इन्होंने किसी नवीन तथ्य का प्रतिपादन नही किया है, बल्कि डेविस के अपरदन
की अवस्थाओं को कई छोटे-छोटे चक्रों में विभाजित कर दिया है। बहुत से प्रश्न जैसे – द्वितीय एवं तृतीय चक्र के प्रारम्भ के बाद विवर्तनिक घटनायें अथवा जलवायु परिवर्तन बड़े पैमाने पर है तो प्रथम चक्र का आविर्भाव नहीं होगा? शैल-संरचना का प्रभाव स्थिर काल तथा अस्थिर काल पर नहीं पड़ेगा? आदि का समाधान नहीं हो सका है।
गिलबर्ट का भ्वाकृतिक सिद्धान्त, डेविस का भ्वाकृतिक सिद्धान्त, पेंक का भ्वाकृतिक सिद्धान्त, का भ्वाकृतिक सिद्धान्त, हैक का भ्वाकृतिक सिद्धान्त, पामक्विस्ट का सम्मिश्रित मॉडल, मेरी मारताका विवर्तनिक-म्वाकृतिक मॉडल, शूम का खण्डकालिक अपरदन सिद्धान्त आदि की विस्तृत व्याख्या – परन्तु अब प्रश्न है कि इनमें क्या कोई ऐसा सिद्धान्त है, जो धरातल पर विद्यमान समस्त स्थल समस्त समस्याओं का समाधान प्रस्तुत कर सकता है। स्पष्ट है, ऐसा कोई भी सिद्धान्त नहीं है, जिसमें का गुण अथवा बोधगम्यता विद्यमान हो जो समस्त स्थलरूपों की समस्त समस्याओं का समाधान प्रस्तुत कर सके। सभी सिद्धान्तों के विश्लेषण से एक तथ्य और उभर कर सामने आता है कि जितने भी स्तरीय सिद्वान्त है, वे डेविस के विचारों से अधिक अपने को नहीं बढा पाये हैं। हाँ. इतना अवश्य हुआ है की विधान की तकनीकी का प्रयोग कर विचारों को सुदृढ़ बनाने का प्रयास अवश्य हुआ।