संगीत सार के लेखक कौन थे | संगीत सार के रचयिता का नाम क्या हैं sangeet saar kiski rachna hai

sangeet saar kiski rachna hai संगीत सार के लेखक कौन थे | संगीत सार के रचयिता का नाम क्या हैं ?

उत्तर : राजस्थान में जयपुर के महाराजा प्रताप सिंह (1779 -1804) संगीत के महान प्रशंसक थे। अर्थार्त उन्हें संगीत से प्रेम था | महाराजा प्रताप सिंह ने जयपुर में संगीतज्ञों के एक सम्मेलन का आयोजन किया और अंत में उस समय के संगीतज्ञों के मतों और टिप्पणियों के साथ एक महत्वपूर्ण पुस्तक ‘संगीत सार‘ निकाली गई। अत: कहा जा सकता है कि संगीत सार के लेखक “महाराजा प्रताप सिंह” थे |

प्रश्न: शास्त्रीय संगीत कला के क्षेत्र में विभिन्न रियासतों का योगदान
उत्तर: उत्तर भारत में 19वीं शताब्दी के दूसरे दशाक में पटना में संगीत प्रणाली में नवीनता लाई गई। संगीत के विशिष्ट समालोचक ‘मोहम्मद रजा‘ का विचार था कि कुछ प्रणालियां पुरानी पड़ती जा रही हैं। उन्होंने एक जैसे रागों को अलग-अलग समूहों में इकट्ठे करके कुछ सुधार लाने की कोशिश की। उन्होंने अपने समय के कुछ विख्यात संगीतज्ञों के साथ विचारविमर्श किया और अंत में 1813 ई. में एक पुस्तक निकाली जिसका नाम था ‘नगमाते असफी‘। उन्होंने रागों या राग लक्षणों की जो परिभाषाएं बनाई उनका हिंदुस्तानी संगीत पर बहुत स्थायी प्रभाव पड़ा।
जयपुर: राजस्थान में जयपुर के महाराजा प्रताप सिंह (1779-1804) संगीत के महान प्रशंसक थे। उन्होंने जयपुर में संगीतज्ञों के एक सम्मेलन का आयोजन किया और अंत में उस समय के संगीतज्ञों के मतों और टिप्पणियों के साथ एक महत्वपूर्ण पुस्तक ‘संगीत सार‘ निकाली गई। लखनऊ व बनारस: संगीतज्ञों, गायकों और नर्तकों के परंपरागत केंद्र लखनऊ में संगीत कला बराबर फलती-फूलती रही। इसका प्रमुख कारण यह था कि वहां रहने वाले कुछ प्रतिभावना लोगों ने संगीत को अपना भद्र व्यवसाय बना लिया था। विख्यात गुरूओं से गायन और वाद्य संगीत सीखने के लिए देश के कोने कोने से लोग लखनऊ आते थे। यहाॅं तक कि वंृदावन के भिखारी भी बड़े पेशेवर ढंग से मीठे गाते थे। बनारस और लखनऊ सुगम संगीत के लिए भी विख्यात थे। जब यूरोपीय इन नगरों में आए तो उन्होंने ‘ताजा बताजा‘ और ‘हिली-मिली पनियां‘ जैसा सुगम संगीत पसंद किया। वृंदावन के संगीतज्ञ ठुमरी भी गाते थे।
बड़ौदा: 19 वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में बड़ौदा में मौलाबख्श जैसे महान संगीतज्ञ थे, जिन्हें सारे भारत में बाद में मान्यता मिली। वे वीणा और जलतरंग वादन में प्रवीण थे। गुजरात में आध्यात्मिक विषयों पर भावना प्रधान गीतों की एक नई शैली थी जिसका नाम जिक्री था और वह इतनी लोकप्रिय हुई कि धीरे-धीरे देश के अन्य भागों में फैल गई। उधर पश्चिम भारत में पारसियों ने मुस्लिम शैली में अपने परंपरागत गीतों का स्तर बनाए रखा और उन्हें अधिक लोकप्रिय बनाया।
उड़ीसा: उड़ीसा में पुरी हिंदू धर्म का एक महान केंद्र होने की वजह से मध्यकाल के प्रारंभ से ही भक्ति संगीत का महत्वपूर्ण स्थल रहा है। जगन्नाथ मंदिर में देवदासियां भगवान की स्तुति में संगीतमय नृत्य तथा स्तोत्रगान करती थीं और अपनी प्रवीणता का स्तर बड़ी कड़ाई से बनाए रखती थीं। उड़ीसा के गांवों में यात्रा और पाला बहुत लोकप्रिय थीं। संबलपुर क्षेत्र में संगीत का एक नया रूप उभर रहा था जिसका नाम था संबमपुरी। इनमें आधुनिक गीतों और साधारण लोकसंगीत का सम्मिश्रण था।
बंगाल: बंगाल में 19वीं शताब्दी के दौरान संगीत जगत वैष्णव संकीर्तन छाया हुआ था और संगीत की अधिकांश कृतियां भक्तिभाव पर आधारित थी। इसके अलावा नगर संकीर्तन भी होते थे, जिनमें बहुत से लोग मिलकर संगीत वाद्यों. विशेषकर खोल और करताल के साथ गाते थे। ये गायक दल नगर की सड़कों पर घूमते हुए बड़े भक्तिभाव से भगवान कृष्ण की स्तुति करते चलते थे। जनसाधारण को महान कवियों जैसे विद्यापति और चण्डीदास के गीत अत्यंत प्रिय थे। बंगाल में जब ‘ब्राह्मो आंदोलन‘ शुरू हुआ तो कीर्तन शैली में भजन लिखे तथा गाए गए। बिहार: बिहार में संगीतज्ञों और उन्हें आश्रय देने वालों ने वाद्य संगीत के विकास पर बहुत अधिक ध्यान दिया। सितार और सरोदवादन का विकास विशिष्टता के आधार पर हुआ और इस नई तकनीक का अनुसरण भारत के अन्य भागों में भी किया गया।
पंजाब: पंजाब में लाहौर और अमृतसर जैसे स्थान, संगीत के प्रमुख केंद्र बने रहे। पंजाब के लोगों में टप्पे बहुत लोकप्रिय थे। कश्मीर के राजदरबार ने भी संगीत को बढ़ावा दिया। इसके आलावा कई अन्य स्थानों पर भी, जिनके नाम यहां नहीं दिए जा सके, संगीत की आम और स्थानीय विशेषताएं बनी रहीं।
मैसूर एवं हैदराबाद: दक्षिण भारत में हैदराबाद और मैसूर राजदरबारों ने भी संगीतज्ञों को बहुत प्रोत्साहन दिया था। हैदराबाद के निजाम ने मुस्लिम शैली के संगीत को, और मैसूर के राजा ने हिंदुस्तानी संगीत शैली को बढ़ावा दिया। 19 वीे शताब्दी में मैसूर के पास दक्षिण संगीत की तीन महान विभूतियों, सव्यसाची, श्यामना और सेशन जैसे व्यक्ति थे। मराठा प्रदेश में भी लोग संगीत के बहुत प्रेमी थे।
कर्नाटक संगीत: मद्रास प्रेसीडेंसी में दक्षिण भारत की शैली के संगीत की सजीवता अन्य स्थानों की अपेक्षा कहीं अधिक तीव्र बनी रही। कर्नाटक संगीत के नाम से प्रसिद्ध यह दक्षिण शैली पुराने शास्त्रीय संगीत के नियमों पर आधारित थी और बाह्य प्रभावों से बिलकुल अछूती थी। इस पर न तो मुस्लिम संगीत और न ही पाश्चात्य शैलियों का कोई प्रभाव पड़ा। उत्तरी भारत के संगीत पर काफी हद तक बाह्य प्रभाव पडे़ थे, और वह कई तरह से कर्नाटक संगीत से भिन्न था। कर्नाटक संगीत ने ‘आलाप‘ और ‘लय-ताल‘ की प्रणाली बनाए रखी। इसकी कुछ संगीत शैलियां हैं: स्वरजोत, वर्णम कृति, कीर्तन, जावडी और पाठम। मद्रास में अलग अलग तरह के लोकगीतों का भी बाहुल्य था।
भारतीय संगीत पर यूरोपीय प्रभाव
भारतीय संगीत पर यूरोप का प्रभाव किसी तरह भी गहरा या लाभकारी नहीं हो सका। उदाहरण के लिए पुर्तगाल की कुछ धुनों को भारतीय रूप दिया गया और उन्हें पुर्तगाली टप्पा कहा गया, जो केवल नाम के लिए पुर्तगाली था अन्यथा हिंदुस्तानी टप्पे से किसी तरह भिन्न नहीं था। पाश्चात्य शैली के रंगमंच नाटकों में अभिनेताओं और अभिनेत्रियों को रंगमंच पर स्वयं गाना होता था। नाटक की सफलता के लिए यह चाहे कितना ही जरूरी हो, लेकिन इस तरह के गायन का, भारतीय संगीत में कोई वास्तविक मूल्य नहीं था।
धीरे-धीरे यूरोपीय संगीत वाद्यों ने भारत में अपना स्थान बनाया। सुगम संगीत के लिए तो इनका इस्तेमाल किया जा सकता था लेकिन इन्हें भारतीय शास्त्रीय संगीत के विभिन्न रूपों और शैलियों के लिए उपयोग में नहीं लाया जा सका।
पाश्चात्य संगीत का प्रभाव काफी लंबे समय तक बिल्कुल नगण्य रहा। लेकिन जैसे-जैसे 20वीं सदी आगे बढ़ी समय ने बदलना शुरू किया। रेडियो के आने से संगीत के प्रति लोगों के विचारों के क्रांतिकारी परिवर्तन हुए। पश्चिम के लोकप्रिय गायन और वाद्य संगीत ने भारतीय श्रोताओं के काफी बड़े भाग से धीरे धीरे प्रशंसा प्राप्त की। पाश्चात्य संगीत वाद्य भी अधिकाधिक लोकप्रिय होते गए।

प्रश्न: शास्त्रीय संगीत-कला के क्षेत्र में तंजौर दरबार अथवा/त्यागराज का योगदान बताइए।
उत्तर: संगीत को फलने-फूलने और विकसित होने का अवसर 18 वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध के दौरान दक्षिण भारत में मिला। तंजौर के मराठा शासक तुलजा जी महाराज (1763-1787 ई.) ने भारत के सभी भागों से आने वाले संगीतज्ञों को प्रश्रय दिया और अपने दरबार को संगीत की संस्कृति का विख्यात केंद्र बना दिया। उत्तरी और दक्षिणी संगीत प्रणालियों को एक संश्लेषणात्मक वातावरण मिला। संगीत के क्षेत्र में तंजौर की सबसे बड़ी उपलब्धि उसके महान गायक त्यागराज (1769-1847) थे जिन्होंने भारतीय संगीत का पथ प्रदर्शन किया। वे अदितीय मौलिकता के कवि थे; उन्होंने गीत बनाए और उन्हें स्वयं गाया। संगीत के इतिहास में त्यागराज का अपना ही एक युग कहा जा सकता है और ऐसा समझा जाता है कि ‘आधुनिक‘ भजन या जिसे आधुनिक संगीत कहते हैं उन्हीं के समय में अपने पूर्ण ओज पर पहुंचा। इस कवि गायक के बारे में एक कहानी कही जाती है कि एक बार नारद मनि उनके सामने प्रकट हुए और उन्हें एक दुर्लभ संगीत गं्रथ ‘स्वरारनव‘ दिया। संगीत की उन्नति में उनका योगदान. यह है कि उन्होंने एक प्रकार की संगति शुरू की जिसने पुरानी धुनों में काफी परिवर्तन करके उन्हें और रसमय बना दिया। त्यागराज अपने पीछे एक ऐसे शिष्यों का दल छोड़ गए जिन्होंने अगली पीढ़ियों में अपने गुरू की कला को विकसित करके उसका प्रसार किया।
त्यागराज के ही एक प्रसिद्ध समकालीन संगीतज्ञ थे ‘गोबिंद मरार‘ या ‘गोबिंद स्वामी‘ जो ट्रावनकोर के रहने वाले थे। उनकी मौलिकता और ख्याति इस बात में थी कि वे गीत को द्रूत लय में शटकाल में गाते थे। दक्षिण भारत के दो अन्य महान संगीतज्ञ थे ‘मुत्तु स्वामी‘ एक नई भारतीय स्वर लिपि बनाने के लिए प्रसिद्ध हुए, जिसमें विभिन्न स्वर अक्षरों का प्रयोग प्रत्येक स्वर के विकृत रूप बताने के लिए किया जाता है। दक्षिण भारत के अन्य संगीतज्ञों में कोचीन और ट्रावनकोर के कुछ शासक संगीत के क्षेत्र में अपनी योग्यता के लिए प्रसिद्ध हुए। राजपरिवार के गायकों में सबसे अधिक प्रतिभावन थे महाराजा स्वाति तिरूनाल जिन्होंने 6 भारतीय भाषाओं-संस्कृत, हिंदुस्तानी, मराठी, तमिल, तेलुगु और मलयालम में अपने गीतों की धुनें बनाई।