सैंधव सभ्यता क्या है ? sandhav civilization in hindi सैंधव सभ्यता की नगर योजना पर प्रकाश डालिए

sandhav civilization in hindi सैंधव सभ्यता क्या है ? सैंधव सभ्यता की नगर योजना पर प्रकाश डालिए ?

प्रश्न: सैंधवकालीन मुहरें चित्रकला का एक उत्कृष्ट उदाहरण हैं। स्पष्ट कीजिए।
उत्तर: सैन्धव मुहरें एवं चित्रलिपि
उत्खनन से प्राप्त मुहरें और मुद्रायें सैन्धव सभ्यता में व्याप्त कला के एक महत्वपूर्ण पक्ष को उजागर करती है। इन नगर में 2000 से भी अधिक संख्या में उपलब्ध ये मोहरें कलात्मक दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं जो साधारणतः पौन इच। सवा एक इंच तक की ऊँचाई की हैं। इन मुहरों को सैन्धव कला की उत्कृष्ट कृतियां कहा जा सकता है। इनमें उत्कीर्ण चित्र-लिपि भी अपने आप में सैन्धव सभ्यता के लोगों के हस्तकौशल का एक सराहनीय नमूना है। इन मुद्राओं में विविध प्रकार की पशु आकृतियां, यथा-व्याघ्र, हाथी, गैंडा, खरगोश, हिरण, सींगयुक्त बैल, गरुड़, मगर आदि की सुन्दर आकृतियां उत्कीर्ण की गई हैं। खोदकर बनाई गई इन आकृतियों में सर्वाधिक सुन्दर आकृति ककुदमान वृषभ (हप्प्ड बुल) की है।

प्रश्न: सैंधव कालीन मूर्तिशिल्प कला
उत्तर: सैंधव कलाकार की रचनात्मक प्रतिभा सुन्दर प्रतिमाओं के निर्माण में भी मुखरित हुई है। ये मूर्तियाँ विभिन्न पदार्थों, यथा-पत्थर, मिट्टी व धातु
से बनी हुई मिली हैं। यद्यपि सर्वाधिक मूर्तियां मिट्टी से बनी ही मिली है। ये प्रतिमाएं उत्तम प्रकार की लाल रंग की पकाई गई मिट्टी से निर्मित की गई हैं। ये सभी लगभग एक प्रकार की हैं। प्रतिमाओं में प्रायः सिर की पोषाक अथवा आभूषणों के प्रकारों से अंतर किया जा सकता है। नारी की बड़ी संख्या में उपलब्ध मूर्तियों को श्देवीश् की प्रतिमाएं माना जा सकता है। एस.के. सरस्वती के विचार में हड़प्पा संस्कृति के अंतर्गत मूर्ति निर्माण के क्षेत्र में दो प्रकार की परम्पराएं विकसित हुई – मृण्मूर्ति निर्माण परम्परा और प्रस्तर एवं ताम्र मूर्ति निर्माण परम्परा। इनमें से मृण्यमूर्ति निर्माण परम्परा साधारण वर्ग से संबंधित रही जिसने झौब और कुल्ली की मृण्यमूर्ति निर्माण अथवा कृषक संस्कृति का अनुगमन किया। प्रस्तर अथवा ताम्र मूर्ति निर्माण परम्परा हड़प्पा संस्कृति के उच्च वर्ग से संबंधित थी।
प्रश्न: हड़प्पाकालीन मृद्भाण्डों अथवा मिट्टी के पात्रों की चित्रकारी
उत्तर: पाषाणयुगीन मानव द्वारा प्राकृतिक कन्दराओं व शिलाश्रयों पर की गई रैखिक चित्रकारी के पश्चात कालक्रम की दृष्टि चित्रकला के क्षेत्र में
सिंधु घाटी में हड़प्पा और मोहनजोदडो नामक दो प्रमुख केन्द्रों में उत्खनित मिट्टी के बर्तनों में की गई चित्रकारी का उल्लेख किया जा सकता हैं इसे मृत्पात्रों की चित्रकारी कहा जा सकता है। सैन्धव युगीन सभ्यता के लोग पकाई गई मिट्टी के रंगे हुए बर्तनों का प्रयोग करते थे और भांति-भांति की डिजाइनों से उन्हें सजाते थे। नाल, महिनजोदड़ो, हड़प्पा, चान्हूदड़ो, रूपड़, लोथल आदि विभिन्न स्थलों से यह चित्रित मृद्भाण्ड प्राप्त हुए हैं।
प्रश्न: भारत में चमकहीन मृदभाण्ड निर्माण की प्रमुख विभिन्न शैलियां कौन-कौन-सी हैं?
उत्तर: भारत में चमकहीन मृदभाण्ड की तीन प्रमुख शैलियां हैं, प्रथम चमकरहित काले मृदभाण्ड जो कि गांवों में बहुत प्रसिद्धहैं। हड़प्पाकाल के
मृदभाण्डों से मिलते-जुलते हैं। द्वितीय कागज की तरह पतले मृदभाण्ड ये बिस्कीट रंग के होते हैं, इनमें तिरछी नक्काशी या सजावट होती
है एवं तृतीय इसमें लाल एवं काले रंग का मिश्रण होता है यह भी गाँवों में प्रसिद्ध है।

प्रश्न: “मातृदेवी की मृण्यमूर्ति”
उत्तर: मिट्टी से निर्मित अत्यन्त सुन्दर व प्रभावशाली मूर्ति का उल्लेख, जो मोहनजोदड़ो से प्राप्त एक नारी की मूर्ति है। एक अन्य खडी मुद्रा में
लगभग समान अलंकरणयुक्त मूर्ति प्राप्त हुई है। वस्तुतः इस प्रकार की अनेक अन्य प्रतिमाएं जो भारत के विभिन्न भागों से उपलब्ध हुई हैं, मातृदेवी की मूर्तियां कहलाती हैं। अन्य मृण्यमूर्तियों में पुरुष आकृतियों का भी उल्लेख किया जा सकता है। इनमें ढलुआ माथा, लम्बी कटावदार आँखें, लम्बी नाक, चिपकाया हुआ मुख आदि उल्लेखनीय हैं। कुछ सींगों वाली मूर्तियाँ एवं सींगदार मुखौटे भी सांचे में ढले हुए प्राप्त हुए हैं। मानव आकृतियों के अतिरिक्त यहां से बहुत अधिक संख्या में पशु-आकृतियां भी मिली हैं। पशु-मूर्तियों में कूबड़युक्त वृषभ, हाथी, सूअर, गेंडा, बन्दर, भेड़, कछुआ, पक्षी आदि भी बहुतायत से प्राप्त हुए हैं। हड़प्पा सभ्यता के लोग धातु से मूर्ति निर्माण की प्रक्रिया से परिचित हो चुके थे।
प्रश्न: वैदिक शिल्प कलाएं
उत्तर: विविध कलाओं से संबंधित शब्दों का आर्य साहित्य में उल्लेख इस बात की ओर इंगित करता है कि आर्यों ने अनेक शिल्प कलाओं का
विकास कर लिया था। धातुओं से युद्ध एवं कृषि से संबंधित उपकरण तैयार किये जाते थे। इसी प्रकार तथा अथवा बढईगिरी यजर्वेद मे लोहार, कुम्हार आदि शिल्पकारों के साथ ही तक्षक और रथकार शब्द भी सम्मिलित हैं। ऋग्वेद में चप्प वाली नाव का भी उल्लेख आता है। वैदिक युगीन उद्योगों में श्वस्त्रों की सिलाईश् व श्बुनाईश् आदि का उल्लेख भी आता है। शतपथ ब्राह्मण में चर्म के वस्त्र को श्अजिनवासश् कहा गया है। चर्म से जूते बनाने का कार्य भी किया जाता था।
प्रश्न: उत्तरमध्यकालीन शैलकृत मंदिर स्थापत्य कला पर एक लेख लिखिए।
उत्तर: गुप्तकाल में प्राकतिक चट्टानों को काटकर भी मंदिरों का निर्माण किया गया। इस प्रकार के मंदिरों को श्गुफा-मंदिरश् अथवा शैलकत मंदिर
कहा जाता है। आगे चलकर उत्तरी भारत के साथ-साथ दक्षिण भारत में चालक्यों के समय शैलकत मंदिरों का निर्माण किया गया। जिनमें हैं- एहोल, बादामी व पट्टडकल के शैलकृत मंदिर। इसके बाद पल्लव स्थापत्य में जिसमें शैलकत और संरचनात्मक मंदिर स्थापत्य शामिल हैं, में श्द्रविड़ शैलीश् अथवा श्दक्षिण शैलीश् का प्रतिनिधित्व मिलता है। वस्तुतः पल्लव स्थापत्य कला ही द्रविड़ शैली की जन्मदात्री है। मामल्लपुरम् के रथ व पल्लव मूर्तिकला के अति उत्तम उदाहरण है। एलोरा-एलिफेन्टा में राष्ट्रकूट नरेशों के समय में निर्मित शैलकृत मंदिरों का उल्लेख किया जा सकता है। शैलकत हिन्दू स्थापत्य का ,चरमोत्कर्ष एलोरा का कैलाश मंदिर हैं।
प्रश्न: जैन मंदिर
उत्तर: रंग-मण्डप – इस मंदिर का सबसे कलात्मक भाग है- श्रंग-मण्डपश् जिसमें 12 अलंकृत स्तम्भों और कलात्मक, तोरणों पर आश्रित बड़े
गोल गुम्बज में हाथियों, अश्ववों, हंसों, नर्तकों आदि की ग्यारह गोलाकार मालाएं और केर झुमकों के स्फटिक गुच्छे लटकते हुए से बनाये गये हैं। प्रत्येक स्तम्भ के ऊपर भक्ति भाव से वाद्य बजाती हुई लला और उसके ऊपरी भाग में भिन्न-भिन्न आयुध, शस्त्र और नाना प्रकार के वाहनों से सुशोभित 16 महाविद्या देवियों की खड़ी अवस्था में अत्यन्त ही प्रभावशाली एवं रमणीय मूर्तियां उत्कीर्ण हैं।
प्रश्न: निम्नलिखित के मुख्य लक्षणों एवं विशेषताओं का उल्लेखन कीजिए।
(प) चैत्य (पप) विजयनगर कला
उत्तर: (प) चैत्य बौद्ध धर्म से संबंधित मंदिरों को चैत्य कहा जाता है। यह बौद्धों के पूजा-अर्चना हेतु बनाया जाता था। इसमें एक बड़ा हाल होता
था, जो अनेक खम्भों पर टिका हुआ होता था। इनकी छत सपाट तथा कभी-कभी अर्द्धवृत्ताकार भी होती थी सबसे प्रसिद्ध चैत्य गृहों
में कार्ले का चैतय गृह प्रसिद्ध है।
(पप) विजयनगर कला विजयनगर के शासकों द्वारा द्रविड़ शैली में अनेक मंदिरों तथा भवनों का निर्माण करवाया गया। इनकी प्रमुख विशेषता
सजावट एवं स्तम्भों का प्रयोग। स्तम्भों के दण्ड पर हिप्पोग्रीक रचना की गई हैं मंदिरों का आकार वहद होता था जिसमें गर्भगृह,
गोपुरम के अतिरिक्त श्अय्ययनश् एवं कल्याणमण्डप आदि नवीन रचनाएं जोड़ी गई।
प्रश्न: चोल वास्तुकला के संबंध में लिखिए।
उत्तर: चोल शासकों के अधीन (10-11वीं शताब्दी) वास्तुकला का अत्यधिक विकास हुआ। उन्होंने भव्य मंदिरों का निर्माण करवायाय जैसे -वृहदेश्वर
मंदिर (तंजौर), विजयालय मंदिर, चोलेश्वर मंदिर, मातंगेश्वर मंदिर, राजराज मंदिर आदि। इनकी प्रमुख विशेषता गोपुरम, तथा भव्य शिखर है
तथा द्रविड़ शैली में निर्मित हैं।
प्रश्न: गंधार कला शैली के विषय में लिखें।
उत्तर: गंधार कला शैली का विकास कुषास शासकों के अधीन प्रथम-द्वितीय शताब्दी में हुआ। यह मूर्तिकला की एक विशिष्ट शैली है। इसकी विषयवस्तु भारतीय तथा निरूपण का तरीका यूनानी है। यह यथार्थवादी शैली है। इसमें बुद्ध के जीवन तथा अन्य देवी-देवताओं की अनेक मूर्तियों का निर्माण किया गया।
प्रश्न: मौर्यकालीन राजप्रासाद वास्तुकला के बारे में बताइए।
उत्तर: मौर्यो ने भव्य एवं सुंदर राजमहलों के निर्माण की परम्परा को प्रारम्भ किया। मुद्राराक्षस में चन्द्रगुप्त के राजप्रासाद को श्सुगाड्गश् कहा गया।
1912-14 में डी.बी. स्पूनर द्वारा कराई गई खुदाई में मिले कुछ स्तम्भावशेषों से अनुमान लगाया जाता है कि चंद्रगुप्त मौर्य का राजप्रासाद लकड़ी द्वारा निर्मित था जो आग लगने के कारण नष्ट हो गया।
एरियन ने मौर्य राजप्रासाद की प्रशंसा करते हुए कहा कि इसमें भारत का महानतम नरेश निवास करता है। यह कारीगरी का एक आश्चर्यजनक नमूना है। इसकी सुन्दरता का सूसा के मेम्नोनिएन का समस्त प्रचूर वैभव और एटबेतना का सम्पूर्ण ऐश्वर्य भी इसका मुकाबला नहीं कर सकते।
मेगस्थनीज एवं डायडोरस ने चन्द्रगुप्त मौर्य के राजमहलों को ईरान के एटबटना और सूसा के महलों से भी सुंदर बताया है। जब फाहियान भारत आया तो उसने पाटलीपुत्र के अशोक के महलों को देवताओं के द्वारा निर्मित बताया और कहा कि यह मानवों की कल्पना से बाहर है। चन्द्रगुप्त मौर्य के समय में लकड़ी के महल बनाये गये थे। अशोक के समय में राजप्रासाद पाषाण के बनाये गये।
अशोक के समय तक आते-आते मौर्यकला के बहुसंख्यक स्मारक हमें मिलने लगते हैं। उसने श्रीनगर और ललितपाटन दो नगरों का निर्माण करवाया। कल्हण का विचार है कि कश्मीर की राजधानी श्रीनगर की नींव अशोक ने रखी थी। प्राचीन अनुश्रुति के अनुसार, अशोक ने वहाँ 500 बौद्ध विहारों का निर्माण करवाया। अशोक ने ललितपाटन का निर्माण उस समय करवाया जब वह अपनी पुत्री चारुमति के साथ नेपाल की यात्रा पर गया। उसने वहां पाँच स्तूपों का निर्माण भी करवाया। चारुमती ने अपने पति देवपाल के नाम पर नेपाल में देवपाटन नामक नगर की स्थापना की।
प्रश्न: मौर्यकालीन नगर निर्माण परम्परा
उत्तर: पाटलीपुत्र-पाटलीपुत्र मौर्यों की राजधानी थी जिसे यूनानी एवं लैटिन लेखकों ने “पालिब्रोथा, पालिबोत्रा तथा पालिमबोत्रश् के रूप में उल्लिखित किया। मेगस्थनीज के अनुसार पाटलीपुत्र समानान्तर चतुर्भुजाकार रूप में बनाया गया था जिसकी लम्बाई 1ध्2 मील तथा चैड़ाई 1 मील, थी। नगर के चारों ओर लकड़ी की प्राचीर बनी थी।, प्राचीर के चारों आ एक खाई थी जो 60 फुट गहरी और 600 फुट चैड़ी थी, नगर में आने जाने हेतु 64 द्वार तथा 570 सुरक्षा बुर्ज बने थे।
स्ट्रैबो पाटलीपुत्र का वर्णन इस प्रकार करता है – श्पोलिको (पाटलीपुत्र) गंगा और सोन के संगम पर स्थित था। इसकी लंबाई 80 स्टेडिया तथा चैड़ाई 18 स्टेडिया थी। यह समानांतर चतुर्भुज के आकार का था। इसके चारों ओर लगभग 700 फीट चैड़ी खाई थी। नगर के चतुर्दिक लकड़ी की दीवार बनी हुई थी जिसमें बाण छोड़ने के लिए सुराख बनाए गए थे। इसमें 64 द्वार तथा 570 बुर्ज थे।श् इस नगर में चंद्रगुप्त मौर्य का भव्य राजप्रासाद स्थित था।
प्रश्न: गुप्तकालीन मंदिर वास्तुकला की विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
उत्तर: गुप्तयुगीन वास्तुकला के सर्वोत्तम उदाहरण मंदिर हैं। गुप्तकाल में ही मंदिर निर्माण कला का जन्म हुआ था। पहली बार मंदिर निर्माण का
प्रारंभ गुप्तकाल में दिखाई देता है। साधारणतः वर्गाकार चबूतरे पर गर्भगृह में प्रतिमा स्थापित की जाती थी। एक प्रदक्षिणा पथ और मण्डप
होता था। गर्भगृह के द्वार पर अंलकृत स्तम्भ होते थे। जिनके आगे गंगा- यमुना की मूर्तियाँ होती थी। इसके अतिरिक्त हंस-मिथुन, स्वास्तिक, श्रीवृक्ष, मंगल कलश, शंख, पदम आदि पवित्र मांगलिक चिन्हों एवं प्रतीकों का अंकन किया गया है। प्रारंभ में छतें सपाट होती थी लेकिन बाद में शिखरनुमा हो गई। मंदसौर लेख (472 ई.) के अनुसार दशपुर के मंदिर में अनेक आकर्षक शिखर थे। प्रधान शिखरों के साथ गौण शिखरों का भी निर्माण शुरु हो गया था। झाँसी (देवगढ़) का दशावतार मंदिर, तिगवाँ का विष्णुमंदिर, एरण का विष्णु मंदिर, भूमरा का शिव मंदिर, नचना-कुठारा का पार्वती मंदिर, सिरपुर का लक्ष्मण मंदिर आदि इस काल की कलात्मकता के नमूने हैं। शिखर युक्त मंदिरों का निर्माण गुप्तकाल की सर्वाधिक महत्वपूर्ण उपलब्धि थी। इस काल के मंदिरों के निर्माण में छोटी-छोटी ईंटों तथा पत्थरों का प्रयोग किया जाता था। देवगढ़ का दशावतार मंदिर (वैष्णव मंदिर) भारतीय मंदिर निर्माण में शिखर का संभवतरू पहला उदाहरण है। सिरपुर के लक्ष्मण मंदिर तथा भीतरगांव के मंदिरों में समानता मिलती है।