role of class in politics in hindi भारतीय राजनीति में वर्ग की भूमिका क्या है , वर्ग व जाति में अंतर नृजातीयता का आधार ?
वर्ग की भूमिका – सबसे पहले हम वर्ग के बारे में बात कर लेते है कि वर्ग की परिभाषा क्या होती है –
वर्ग का अर्थ : वर्ग लोगों का एक ऐसा समूह माना जाता है , जिसमें साझी विशेषताएँ पाई जाती है और उन विशेषताएँ पाई जाती है तथा उन विशेषताओं के आधार पर उनमें ‘हम’ की भावना पाई जाती है। अर्थात एक वर्ग के समूह में सभी लोगों में समान प्रकार की विशेषताएं मिलती है जो उन्हें आपस में बांधे रखती है , और यह हम की भावना जितनी अधिक मजबूत होती है , ‘वर्ग द्वारा एक संगठित वोट बैंक के रूप में काम करने की संभावना उतनी ही अधिक होती है।
अब यदि हम वर्गों के प्रकार की बात करे तो –
वर्ग कई प्रकार के हो सकते हैं , उदाहरण के लिए कार्ल मार्क्स ने आर्थिक व्यवस्था के आधार पर शोषक वर्ग व शोषित वर्ग माने है।
मैक्स वेबर ने जीवन शैली के आधार पर 4 वर्ग माने है , दीपांकर गुप्ता ने उपभोग के आधार पर 3 वर्ग (उच्च, मध्यम व निम्न) माने है, इत्यादि।
वर्ग व जाति में अंतर
यद्यपि कई स्थानों पर एक या अधिक जातियाँ मिलकर एक वर्ग के रूप में कार्य करती है। परंतु वर्ग व जाति में कुछ अंतर पाए जाते है, जो निम्नलिखित है –
a. वर्ग की सदस्यता योग्यता आधारित, जाति की जन्म आधारित है।
b. वर्ग एक खुली व्यवस्था है, जाति बंद व्यवस्था है। अर्थात एक व्यक्ति यदि प्रारंभ में आर्थिक स्थिति कमजोर होने की वजह से निम्न या मध्यम वर्ग में हो सकता है लेकिन पैसे आने की स्थिति में इसका वर्ग बदलकर उच्च वर्ग हो सकता है लेकिन व्यक्ति की जाति उसके जन्म से लेकर मृत्यु तक समान बनी रहती है वह किसी अन्य जाति में प्रवेश नहीं कर सकता |
c. वर्ग प्रायः शहरी समाज व जाति ग्रामीण समान में प्रचुरता से पाई जाने वाली विशेषता है। अर्थात शहरों में वर्ग आधारित व्यवस्था अधिक प्रचलित है जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में जाति व्यवस्था अधिक प्रभावशाली होती है |
d. वर्ग के सदस्यों में आपसी होड़ पाई जाती है, जाति में नहीं। इसका कारण यह है कि व्यक्ति मेहनत आदि से अपना वर्ग उच्च कर सकता है लेकिन जाति में व्यक्ति अपनी जाति को परिवर्तित नहीं कर सकता |
वर्ग की राजनीति में भूमिका
वर्तमान भारतीय राजनीति में आर्थिक व उपभोग आधारित वर्गों (निम्न मध्यम, उच्च) की भूमिका दिखाई देती हैं। सभी वर्ग चाहते है कि राजनीतिक दलों के चुनावी घोषणा पत्र में और वादों में उनके हितों संबंधी बातें अधिक से अधिक हो। उदाहरण के लिए मध्यम वर्ग चाहता है कि सरकारें उन्हें कर में छुट दे , प्रशासनिक नियमों को आसान करे उनके उपभोग पर बाधाएं कम से कम लगाए, लाईसेंसराज कम करे, सब्सिडी दे इत्यादि। वहीं दूसरी तरफ निम्न वर्ग सामाजिक कल्याणकारी योजनाएँ चलाने, गरीबी निवारण के उपाय करने आदि मुद्दों आधार पर अपनी राजनीतिक पसंद नापसंद को निर्णय करता है , उच्च वर्ग आयात पर कम कर लगाने, उच्च उपभोग की अर्थात् विलासी वस्तुओं के उत्पादन करने, स्वच्छता संबंधी कदम उठाने आदि के आधार पर मतदान व्यवहार करता है। इसलिए हम कह सकते है कि सभी वर्गों की महत्वकांक्षा अलग होती है |
* नृजातीयता से संबंधित मुद्दे
(नृजातीयता का आधार)
‘विविधता का एक प्रकार जिसमें कोई व्यक्ति या समुदाय रंग रूप शारीरिक संरचना के आधार पर पृथक हो तथा वह वर्ग अपनी वर्गीय विशेषताओं एवं पृथकता के आधार पर स्वायतता की मांग करे। ये नृजातीयता की प्रवृति कई मौकों पर प्राकृतिक (उत्तर-पूर्व की जातियां, दक्षिण भारत-उत्तर भारत की बीच विभेद) तो कई मौको पर मानव निर्मित (विविधताओं को बढ़ाकर बताने की प्रवृत्ति) होती है। अर्थात लोगों का एक समूह जो अपनी कुछ विशेषताएं जैसे रंग , शारीरिक संरचना आदि के आधार पर अन्य लोगों से स्वयं के समूह की पहचान करता है तो उसे नृजातीयता कहते है | जैसे गोरे व्यक्ति का अपने समान लोगों की पहचान कर अपने समूह में समझना आदि |
नृजातीयता के आधार
1. भाषा – उत्तर-दक्षिण संघर्ष, द्रविड़ आंदोलन, त्रिभाषी फॉर्मूला संबंधी विवाद राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी को चुनौती।
2. नस्ल – उत्तर-पूर्वी जनजातीय क्षेत्रों में अलगाववाद (नागा-मिजो) की रणनीति/ प्रवृति, पंजाब-हरियाणा क्षेत्र में खालसा एवं खालिस्तानी मांग।
3. धर्म– सम्प्रदाय का रूप, पाकिस्तान का निर्माण, द्विराष्ट्र सिद्धांत।
4. क्षेत्र-जम्मु कश्मीर स्वायतता संघर्ष उत्तर पूर्व का संघर्ष ।
5. जाति– आरक्षण की मांग, जातीय संघर्ष चुनाव का महत्वपूर्ण मुद्दा (जातिगत राज.)
समस्याएँ क्या पैदा होती है :
वर्गीय हितों की मांग तब तक जायज जब तक वह मांग अन्य वर्गों के विरोध में न ही
० व्यक्ति या वर्ग विशेष की बजाए राज्य सर्वोच्च तथा भारत चूंकि अभी भी राष्ट्र निर्माण की
प्रक्रिया में है इसलिए विविधता को संयोजित करना अतिआवश्यक है। तथा नृजातीय मुद्दों
के आधार पर अलगाव की मांग स्वीकार्य नहीं।
० नजातीय मुद्दों के आधारों पर हुए संघर्ष ने भाषायी संघर्ष, हिंसक अलगाववादी संघर्ष,
उत्तर-पूर्व को विदेशी मानने जैसी मानसिकता को जन्म दिया है जो राष्ट्रीय एकीकरण में बाधक एवं चुनौती के रूप में है। क्षेत्रवाद या भूमिपुत्र की अवधारणा ने समय-समय पर नए राज्यों के निर्माण की मांग को । बढ़ावा दिया तथा नृजातीय विभेद को मांग का आधार बनाया गया ताकि संसाधनों एवं शक्ति अर्जन के क्षेत्र में सामुहिक सौदेबाजी की जा सके (फजल अली, आयोग–1956) प्रत्येक भाषा के आधार पर एवं एक राज्य नही ….।
नृजातीयता की वजह से ही दक्षिण भारत वर्तमान में भी स्वयं का पृथक इकाई मानता है तथा राष्ट्रीय राजनीति से पृथक महसूस करता है।
नृजातीयता के आधार पर खेली जा रही राजनीति में कई क्षेत्रीय दलों का उद्भव हुआ-AIDMK आदि जिन्होंने हितों की प्रमुखता दी।
नृजातीयता के पक्ष में तर्क –
2. यंत्रवादी- नृजातीय भेद प्रदत्त नहीं बल्कि वे संभ्रान्तों द्वारा पैदा किए जाते है। जो की राजनीतिज्ञ, अध्यापक, धार्मिक नेता आदि हो सकते है।
भारत में नृजातीयता के मुख्य मामले :
० यहाँ अकाली नेतृत्व का तर्क था कि मातृ भाषा पंजाबी तथा सिख धर्म मानने वालों को स्वायत प्रांत दे दिए जाए।