reflex action in hindi , प्रतिवर्ती क्रिया किसे कहते हैं | प्रतिवर्ती के प्रकार (Types of reflexes) क्या है

प्रतिवर्ती क्रिया किसे कहते हैं | प्रतिवर्ती के प्रकार (Types of reflexes) क्या है reflex action in hindi ?

प्रतिवर्ती क्रिया (Reflex action )

प्राणियों की देह में होने वाली समस्त शारीरिक क्रियाओं को ऐच्छिक (voluntary) अनैच्छिक (involuntary) क्रियाओं में बाँटा जाता है। ऐच्छिक क्रियाएँ प्राणी की इच्छा शक्ति (will power) तथा चेतना (consciousness) पर निर्भर रहती है क्योंकि इन पर प्रमस्तिष्क (fore brain) का नियंत्रण रहता है। अनैच्छिक क्रियाएँ इच्छा शक्ति के अधीन न होकर स्वतः घटने वाली क्रियाऐं मापी जाती है। इसके अतिरिक्त इन क्रियाओं पर प्रमस्तिष्क का नियंत्रण भी नहीं होता है। इन्हें. मस्तिष्क का अन्य कोई भाग या मेरूरज्जू नियंत्रित करता है अर्थात् जन्तु में मस्तिष्क की अनुपस्थिति का कोई अनुकूल या प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता है। प्रतिवर्ती क्रिया एक प्रकार की अनैच्छिक क्रिया ही होती है।

प्रतिवर्ती क्रियाओं की खोज सर्वप्रथम सन् 1833 के मार्शल हॉल (Marshell Hall) ने की थी । बेस्ट एवं टेलर (Best and Taylor ) के अनुसार प्रतिवर्ती क्रियाएँ स्वचालित (automatic ) अनैच्छिक (involuntary) एवं प्राय: अचेत (unconscious) क्रियाऐं होती है जो अभिवाही (afferent) तन्त्रिका-सिरों या ग्राही अंगों (receptors) से तंत्रिका तंत्र द्वारा होने वाला प्राथमिक कार्य (primar function) होता है।

प्रतिवर्ती क्रियाओं में एक क्रम में होने वाले श्रृंखलाबद्ध परिवर्तन देखे जाते हैं जो वातावरण द्वारा प्रारम्भ होते हैं। इन क्रियाओं में वातावरण एक उद्दीपन की तरह कार्य करके किसी ग्राही- कोशिका (receptor) की उद्दीप्त करता है। इस उद्दीपन से तंत्रिका आवेग उत्पन्न होता है जो न्यूरॉन की एक श्रृंखला द्वारा केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र को संचारित कर दिया जाता है। तन्त्रिका तन्त्र से आवेग चालक न्यूरॉन ( motor neuron) द्वारा बाहर की ओर प्रसारित कर दिया जाता है जो अन्त में पेशी-तन्तु (muscle fibre) या ग्रन्थि कोशिका (glandular cell) तक पहुँच जाता है। ये रचनाएँ तन्त्रिका तन्त्र से आये निर्देश की तरह कार्य करती है। प्रतिवर्ती क्रिया को सम्पन्न करने से सम्बन्धित तन्त्रिकीय घटक (nervous elements) मिलकर एक “प्रतिवर्ती चाप” (reflex arch) का निर्माण करते हैं।

मेरू प्रतिवर्ती चाप (Spinal reflex arch) : यह ग्राही अंग (receptor organ ) एवं प्रभावी अंग (effector organ) के मध्य उपस्थित तंत्रिका कोशिकाओं की एक श्रृंखला होती है। इसमें से घटक (components) पाये जाते हैं-

(i) संवेदी अंग (Sensory organs) : ये जन्तु के शरीर पर उपस्थित ग्राही संरचनाएँ होती है जो बाहरी अथवा आन्तरिक वातावरण से उद्दीपन ( stimulus ) प्राप्त कर उद्दीपन हो जाती है।

(ii) अभिवाही या संवेदी न्यूरॉन ( Afferent or sensure neuron) : ये न्यूरॉन संवेदी अंग से तंत्रिका आवेग (nerve impulse) को मेरूरज्जू (spinal cord) तक लेकर जाते हैं। इन न्यूरॉन के कोशिका-काय (cyton) मेरू – तंत्रिका (spinal nerve) के पृष्ठ मूल गुच्छक (dorsal root ganglia) में स्थित रहते हैं तथा इनके एक्सॉन ही मेरू तंत्रिका की पृष्ठ मूल (dorsal root) बनाते हैं।

(iii) सहबंधक या इण्टर न्यूरॉन (Association or Inter neurons ) : इसे मध्यवर्ती तंत्र-कोशिका (intermediate neuron) या मेरूरज्जू के घूसर द्रव्य (grey matter) में स्थित होते हैं तथा संवेदी न्यूरॉन्स को चालक न्यूरॉन्स से जोड़ने का कार्य करते हैं। सामान्यतया से संवेदी में एक होते हैं परन्तु कभी-कभी इनकी संख्या दो भी हो जाती है। यह तंत्रिय आवेग को संवेदी से चालक न्यूरॉन को प्रेषित करने का कार्य करते हैं।

(iv) अपवाही या चालक न्यूरॉन (Efferent or motor neuron) : ये न्यूरान्स प्रात: मेरूरज्जू के अधर श्रृंग (ventral horn) के घूसर द्रव्य (grey matter) में उपस्थित रहते हैं। इनके एक्सॉन सम्मिलित रूप से एकत्रित होकर तंत्रिका तन्तु ( motor nerve fibre) बनाते हैं जो मेरू – तंत्रिका के अधर मूल (vantral root) में से होकर प्रभावी अंगों में पहुँचकर समाप्त हो जाते हैं। ये कोशिकायें इण्टर न्यूरॉन से तंत्रिकीय आवेग को ग्रहण कर इन्हें प्रभावी अंगों तक लेकर जाते हैं।

चित्र 6.11 : प्रतिवर्ती चाप

(v) प्रभावी अंग या कार्यकार अंग (Effector organs) : ये अंग चालक न्यूरॉन से प्राप्त हुई आवेगों के अनुसार अनुक्रिया (response) सम्पन्न करते हैं। ये प्राय: पेशी (muscle ) तथा ग्रन्थि (gland) होते हैं।

प्रतिचर्ती चाप केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र (central nervous system) की क्रियात्मक इकाई (functional units) बनते हैं।

प्रतिवर्ती चाप द्वारा सम्पन्न होने वाली प्रतिवर्ती क्रिया को संक्षिपत में निम्न प्रकार श्रृंखलाबद्ध किया जा सकता है:

 

  1. सर्वप्रथम संवेदी अंग (sensory organs) बाहरी या आन्तरिक वातावरण से उद्दीपन (stimulus) को ग्रहण करते हैं।
  2. ये उद्दीपन संवेदी न्यूरॉन में तंत्रिका आवेग (nerve impulse) को उत्पन्न कर मेरूरज्जू पहुँचाते हैं।

3. ये आवेग मेरू रज्जू के धूसर द्रव्य (hrey matter) में प्रवेश करके एक या एक से अधि क इण्टर न्यूरॉन्स (inter neurons) में आवेग उत्पन्न करते हैं।

  1. इण्टर न्यूरोन आवेग को मेरू रज्जू में उपस्थित चालक न्यूरॉन (motor neuron) संचारित करते हैं।
  2. चालक न्यूरॉन आवेग को प्रभावी अंगों (effector organ) तक पहुँचाता है जो आवेग के प्रति अनुक्रिया दर्शाते हैं।

इस प्रकार प्रतिवर्ती चाप (reflex arc ) निम्नलिखित पथ से गुजरती हैं :

संवेदी या ग्राही अंग (Sensory or Receptor organ)

संवेदी – न्यूरॉन (Sensory Neuron)

संयोजी न्यूरॉन (Connector Neuron)

चालक न्यूरॉन (Motor Neuron)

प्रभावी अंग (Effector organ)

एक साधारण ‘प्रतिवर्ती क्रिया’ में एक संवेदी तथा एक चालक तन्तु भाग लेता है। इस प्रकार की प्रतिवर्ती क्रिया को ‘मोनो सिनैप्टिक रिफ्लक्स’ (mono synaptic reflex) कहते हैं। अधिकांश प्रतिवर्ती क्रियाओं में कई संवेदी एवं कई चालक तन्तु कार्यरत रहते हैं तथा इन तन्तुओं के मध्य उपस्थित इण्टर न्यूरॉल्स सिनैप्स का निर्माण करते हैं। अतः इस प्रकार की जटिल प्रतिवर्ती क्रियाओं को ‘पॉली सिनैप्टिक रिफ्लेक्स’ (poly synaptic reflex) कहा जाता है।

प्रतिवर्ती के प्रकार (Types of reflexes) : मुख्य रूप से प्रतिवर्ती को दो भागों में बाँटा जाता

  1. अनुबंधित प्रतिवर्त (Unconditioned reflexes ) : इन्हें सरल प्रतिवर्ती क्रियाएँ (simple reflex actions) भी कहा जाता है। ये क्रियाएँ प्रायः प्राणियों में जन्म से ही ( inborn) उपस्थित एवं स्वाभाविक (natural) होती है। ये आनुवंशिता ( heredity) द्वारा एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में संचरित हो जाती है। ये स्थायी (permanent) होती हैं तथा जन्तु के सम्पूर्ण जीवन काल में देखी जाती है। ये एक निश्चित उद्दीपन के प्रति अनुक्रिया करते हैं। इस प्रकार के प्रतिवर्तनों की प्रतिवर्ती चाप स्थिर होती है। अनुबंधित प्रतिवर्ती क्रियाओं के कुछ महत्त्वपूर्ण उदाहरण तालिका में दर्शाये गये हैं।

 

इनके अतिरिक्त शरीर में अनेक प्रतिवर्ती क्रियाएँ ऐसी होती है जिनका हमें बोध नहीं होता जैसे ग्रन्थिल स्त्रावण (glandular secretion), आहार नाल में क्रमाकुंचन गति (peristaltic activity in alimentary canal), रक्त वाहिनियों के व्यास में परिवर्तन ( changes in the calibre of bood vessels) सांस लेना (breathing), हृदय स्पंदन दर (heat beat rate) आदि।

  1. प्रतिबन्धित प्रतिवर्त (Conditioned reflex) : ये प्रतिवर्त क्रियाएँ जन्मजात नहीं होती है तथा न ही एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी से संचारित हो सकती है। यह जीवन-काल में जन्तु द्वारा किसी उद्दीपन के दौरान जन्तु द्वारा किसी उद्दपन के प्रति सीखी गई (learning) या अभ्यास में उपार्जित प्रतिवर्ती क्रियाएँ होती है। इन क्रियाओं को सर्वप्रथम इवान पाव्लोव (Evan pavlov) ने प्रदर्शित किया था। पाब्लोव के अनुसार प्रतिबन्धित क्रियाओं को असाधारण रूप से प्रायोगिक तौर पर उत्पन्न किया जा सकता है। उन्होंने इस प्रकार की प्रतिवर्ती क्रिया को कुत्ते में प्रयोगों द्वारा प्रदर्शित किया था। सामान्यतया कुत्ते में लार का स्त्राव (salivary secretion) खाद्य या भोजन द्वारा मुख गुहा में

उपस्थि ग्रन्थियों (salivary glands) के उद्दीपन के फलस्वरूप होता है। यह है परन्तु कुत्ते में भोजन को देखने या सूंघने से भी लार का स्त्रावण होने लगता है जो प्रतिबन्धित अनुबंधित प्रतिवर्ती क्रिया प्रतिवर्त (conditioned reflex) है। पाव्लोव ने प्रारम्भ में कुत्ते को खाना देते समय घण्टी बजाना शुरू किया तथा लार का स्त्रावण देखा। इस क्रिया को कई बार दोहरोने के पश्चात् उन्होंने देखा कि खाना न देने पर घण्टी की आवाज सुनकर कुत्ते मुँह से लार आने लगती है।

प्रतिवर्ती क्रियाओं का केन्द्रीय नियंत्रण (Central control of reflex action)

प्रतिवर्ती केन्द्र मैरू रज्जू अथवा मस्तिष्क में उपस्थित अनेक न्यूरॉन्स का एक समूह होता है जो एक निश्चित प्रभावी अंगों के समूह की क्रियाओं को नियंत्रित करता है। उदाहरण के लिये मस्तिष्क का पश्च भाग, मेड्यूला ऑब्लान्गेटा (medulla oblongata) में अनेक सजीव प्रतिवर्ती क्रियाओं (vital reflex activities) के केन्द्र पाये जाते हैं जो हृदय स्पंदन (heart beat ). श्वसन दर (respiratory rate), उपापचय (metabolism). स्त्रावण (secretion), रक्त वाहिनियों के फैलने व सिकुडने की क्रिया (constriction and dilation of blood vessels) आदि को नियंत्रित करते हैं। मेड्यूला ऑब्लॉन्गेटा में सोने की क्रिया (sleeping), उल्टी आना (vomiting) आदि क्रियाओं को नियंत्रित किया जाने के केन्द्र होते हैं। श्वसन के लिये उत्तरदायी ‘श्वसन केन्द्र’ वक्ष में उपस्थित इण्टर कॉस्टल पेशियों एवं डॉयफ्राम की पेशियों के संकुचन हेतु आवश्यक उद्दीपन प्रदान करता है जिससे नियमित श्वसन होता है। इसी प्रकार ‘हृदय स्पंदन हेतु उत्तरदायी केन्द्र’ महाधमनी ( aorta ) या महाशिरा (vena cava) से प्राप्त संवेदी सूचना के अनुसार चालक प्रेरणाएँ प्रसारित करके हृदय स्पंदन को नियंत्रण एवं नियमन करता है। मेरू रज्जू भी अनेक प्रतिवर्ती क्रियाओं के लिये एक महत्वपूर्ण केन्द्र की तरह कार्य करता है।

स्वायत्त तंत्रिका तंत्र (Autonomic nervous system)

शरीर के विभिन्न अन्तरांग (visceral) अंगों का नियंत्रण गुच्छिका तथा तंत्रिकाओं से बने स्वायत्त तंत्रिका तंत्र द्वारा होता है। यह शरीर की अनैच्छिक क्रियाओं (involuntary actions) का नियंत्रण करता है। इस तंत्रिका तंत्र को दो भागों में बाँटा जा सकता है :

  1. अनुकम्पी तंत्रिका तंत्र (Sympathetic nervous system)
  2. परानुकम्पी तंत्रिका तंत्र (Parasympathetic nervous system)

ये दोनों तंत्र रचना में भिन्न तथा कार्यिकी की एक दूसरे से विपरीत होते हैं। अनुकम्पी तंत्र अन्तरांग अंगों को उत्तेजित करके उनकी क्रिया को शुरू करते हैं। इसके विपरीत परानुकम्पी तंत्र कार्यों को रोकता है।

  1. अनुकम्पी तान्त्रिका तन्त्र (Sympathetic nervous system) : इस तन्त्र में मेरूरज्जु के दोनों ओर एक जोड़ी अनुकम्पी तन्त्रिका होती है। जिसमें गुच्छकों की लड़ी होती है। यह ग्रीवा से उदर के अन्त तक फैली रहती है। स्पाइनल तन्त्रिका की योजी उपशाखा अपने समीप के से जुड़ी रहती है। इस तरह प्रत्येक गुच्छक से निकली चालक तन्त्रिका दो भागों में विभाजित है प्री गैंगलियोनिक तन्त्रिका तन्तु (pre ganglionic rerve fibre) जो मेरूरज्जु से अनुकम्पी गुच्छक तक फैला रहता है। पोस्ट गैंगलियोनिक तन्त्रिका तन्तु (post ganglionic nerve fibre) यह गुच्छकों के अंगों, ग्रन्थियों तथा पेशियों तक फैले रहते हैं। इनके सिरे से न्यूरोट्रान्समीटर पदार्थ हैं। (यह मुख्यत: सेरेटोनिन, एपिनेफिन, नारएपिनेफिन, सिम्पेथीन होते है )

ग्रीवा के भाग में सरवाईकल गुच्छक (cervical ganglion) होते हैं इनकी तन्त्रिकायें सिर के अंगों, जैसे आँख की अश्रु ग्रन्थियाँ (tear glands) तथा मुख गुहिका की लार ग्रन्थियों को जाती हैं।

वक्षीय भाग के पहले गुच्छकों से तन्त्रिका निकलकर हृदय तथा फेंफड़ों में जाती है। कुछ निचली तथा कुछ उपरीकटि क्षेत्र की तन्त्रिकायें मिलकर एक बड़ा सीलियक या अग्रमीसेन्ट्रिक गुच्छक (coeliac or anterior mesenteric ganglion) बनाती है जिनमें से पुनः तन्त्रिका निकलकर आहार नाल के विभिन्न अंगों को जाती है। बाकी कटि गुच्छकों में से तन्त्रिकायें निकलकर हाइपोगेस्ट्रिक या मीजेन्द्रिव गुच्छक (hypogastric or mesenteric ganglion) बनाती है कोलन, मलाशय, जननांगों, मूत्राशय तथा वृक्क को तन्त्रिकायें जाती है। इसमें सभी तन्त्रिका मेरूरज्जू के वक्षीय तथा कटि क्षेत्र से निकलती है इसलिये इन तन्त्रिकाओं को थोरेसिकोला समूह (thoracico lumber group) कहते हैं।