शुद्ध वंशक्रम चयन एवं संहति चयन में अंतर pure line selection and mass selection difference in hindi

pure line selection and mass selection difference in hindi शुद्ध वंशक्रम चयन एवं संहति चयन में अंतर ?

शुद्ध वंशक्रम चयन की उपलब्धियाँ Achievements of Pureline selection):

इस प्रक्रिया को अपना कर पादप प्रजनन विज्ञानियों ने मानव उपयोग के लिए विभिन्न फसल उत्पादक पौधों की अनेक सुधरी हुई एवं बेहतर किस्में प्राप्त की हैं। उदाहरणतया – गेहूँ में NP-4, NP-522 व Pb. 11, मूँग में – T व शाइनिंग मूँग, कपास में CO-2, MCU-1 व CO-4, चावल में Mtu-1, तम्बाकू में – NP. 28 व NP-63 इत्यादि कुछ उल्लेखनीय किस्में हैं ।

इसी प्रकार से पूसा वैशाखी मूँग T-44, एवं कैफा चना नं. 816 इत्यादि किस्मों की विविधताओं को ध्यान में रखकर इनको नई किस्म के लिए प्रयुक्त किया गया है।

उपरोक्त विवरण से स्पष्ट होता है, कि शुद्ध वंशक्रम चयन प्रक्रिया में लक्षणों की शुद्धता एवं समरूपता की प्रमुख भूमिका होती है, जबकि संहति चयन की सम्पूर्ण कार्य प्रणाली वंशागति (Heredity), सहलग्नता (Linkage), एवं विविधता (Variations) इत्यादि तथ्यों पर आधारित है । अतः स्वाभाविकतया दोनों विधियों में बहुत कुछ आधारभूत असमानताएँ परिलक्षित होती हैं। इसे ध्यान में रखते हुए दोनों विधियों का तुलनात्मक अध्ययन किया जाना चाहिए । शुद्ध वंशक्रम चयन एवं संहति चयन का तुलनात्मक विवरण निम्न प्रकार से है-

तालिका : शुद्ध वंशक्रम चयन (Pureline selection) एवं संहति चयन (Mass selection) में तुलना

शुद्ध वंशक्रम चयन संहति चयन
इस प्रक्रिया में चयनित पौधों की संख्या कम होती है।

चयनित पौधों के बीजों का इस विधि में अलग-अलग बोया जाता है।

यह प्रक्रिया स्वपरागित पौधों के लिए अपनाई जाती है। पर-परागण पर यहाँ पूर्णतया नियन्त्रण होता है।

यहाँ संतति (Progeny) एवं मानक किस्मों व अलग- अलग पौधों का तुलनात्मक परीक्षण किया जाता है।

इस विधि से प्राप्त पादप किस्में अधिक समय के लिए टिकाऊ एवं उपयोगी होती है।

इससे प्राप्त पौधे बदलते हुए वातावरण के अनुकूल नहीं हो सकते।

7. इससे प्राप्त किस्मों के लक्षणों की शुद्धता (Purety) एवं एकरूपता (Uniformity) पाई जाती है। यह समयुग्मजी (Homozygous) होती है

चयनित पौधों की संख्या अधिक होती है।

बीजों को मिलाकर बोया जाता है ।

इस प्रक्रिया में केवल स्वपरागण का ही होना आवश्यक नहीं है। अर्थात् यहाँ पर-परागण पर नियन्त्रण नहीं होता ।

इस प्रकार का कोई परीक्षण नहीं किया जाता ।

प्राप्त किस्में अधिक समय के लिए टिकाऊ नहीं होती, शीघ्र ही नष्ट होने लगती है।

ये किस्में पर- परागित होने के कारण बदलते हुए वातावरण के आसानी से अनुकूल हो जाती हैं।

इससे प्राप्त पौधों के लक्षण एकसमान नहीं होते । अर्थात् पादप किस्में विषमयुग्मजी होती हैं।

 

 एकल पूर्वजीय या क्लोनीय चयन (Clonal Selection):

अनेक पौधों, जैसे- गन्ना, आलू, शकरकंद, चाय, केला, एवं अनेक घासों में यह देखा गया है कि सामान्य प्रक्रिया में या तो इनमें बीजों का निर्माण ही नहीं होता या फिर इनके बीजों में जीवनी क्षमता (Viability) बहुत कम होती है। दूसरे शब्दों में इनमें लैंगिक जनन सामान्यतया नहीं पाया जाता। इसके विपरीत कुछ फलोत्पादक पौधों, केला इत्यादि पौधे तो अपने कायिक प्रवध्यों (Vegetative propagules) जैसे प्रकन्द या तना, या कंद द्वारा जैसे- सन्तरा, सेब इत्यादि में अत्यधिक बहुगुणिता (High level of polyploidy) पाई जाती है। ऐसी अवस्था में (Vegetative propagation) की प्रक्रिया को अपनाया जाता है। क्योंकि यदि ये वृक्ष यदि बीजों द्वारा प्रवर्धित हो जनन करते हैं, जबकि संतरा एवं आम आदि में गुणों को संरक्षित एवं बेहतर बनाये रखने के लिए कायिक प्रवर्धन तो इनमें अनेक विभिन्नताएँ उत्पन्न होने की सम्भावना होती है। अतः इनके लिए कायिक जनन अपनाया जाता . जिससे संतति पौधों के लक्षण जनक पौधों के समान ही होते हैं ।

कायिक जनन वाली फसलों में चयन की इकाई पौधे का कायिक या वर्धी भाग (Vegetative part) होता हैं, जिनसे प्राप्त पौधों को क्लोन (Clone) कहा जाता है। अतः कायिक जनन द्वारा पौधे से संतति प्राप्त करने की प्रक्रिया को क्लोनीय चयन कहा जाता है अर्थात्

‘पौधों का ऐसा समूह जो एक जनक पौधे से कायिक जनन (Vegetative reproduction) द्वारा प्राप्त होता है, क्लोन (Clone) कहलाता है ।”

एक क्लोन में पाये जाने वाले प्रमुख लक्षण निम्न प्रकार से होते हैं-

  1. जीन प्ररूप (Genotype) में समानता, क्योंकि यहाँ पृथक्करण एवं पुन: संयोजन नहीं पाया जाता, समसूत्री विभाजन होता है।
  2. एक क्लोन के पौधे एकरूपी (Uniform) होते हैं।
  3. इनमें विभिन्नताएँ केवल वातावरण के बदलाव से ही उत्पन्न हो सकती हैं।
  4. क्लोन में आनुवांशिक विभिन्नताएँ केवल कायिक उत्परिवर्तनों (Somatic mutations) द्वारा संचालित होती हैं ।

उपरोक्त तथ्यों से स्पष्ट होता है कि एक क्लोन में प्राप्त गुण उसके जीन प्ररूप (G) एवं पर्यावरण (E) की अन्तर्क्रिया (Interaction) की अंतिम परिणति होते हैं। विभिन्न कृष्य पौधों में सामान्य रूप से क्लोनीय चयन के लिए निम्न प्रक्रियाएँ अपनाई जाती हैं (चित्र 12.2)-

(1) प्रथम वर्ष – कायिक प्रवर्धन दर्शाने वाले कृष्य पौधे के समूह से वांछित लक्षणों के आधार पर 100-500 श्रेष्ठ पौधों का चयन ।

(2) द्वितीय वर्ष-उपरोक्त चयनित पौधों का कायिक जनन, एवं क्लोन्स को प्राप्त करना, इन क्लोन्स से श्रेष्ठ गुणें वाले 50 से 100 क्लोन्स का चयन |

( 3 ) तृतीय वर्ष – श्रेष्ठ क्लोन्स का पुरानी किस्मों से तुलनात्मक प्राथमिक परीक्षण । वांछित लक्षणों के आधार पर क्लोन्स का चयन ।

(4) चतुर्थ से अष्टम वर्ष – श्रेष्ठ क्लोन्स का पुरानी किस्मों के साथ विभिन्न केन्द्रों पर दुबारा तुलनात्मक परीक्षण। इसके अन्तर्गत विभिन्न गुणों, जैसे- राग एवं सूखा प्रतिरोधकता एवं उत्पादन इत्यादि का भी ध्यान रखा जाता है। इनमें वांछित लक्षणों के आधार पर सर्वश्रेष्ठ क्लोन्स की पहचान की जाती है, एवं उनको नई किस्म के रूप में किसानों के उपयोग के लिए मुक्त (Release) करते हैं।

( 5 ) नवम वर्ष- उपरोक्त प्रक्रिया द्वारा प्राप्त नई किस्म के श्रेष्ठ क्लोन्स का गुणन एवं प्रदर्शन किया जाता है एवं बीजों को किसानों में बाँटा जाता है।

जैसा कि स्पष्ट है, उपरोक्त सम्पूर्ण प्रक्रिया में कम से कम 9 वर्षों का समय लगता है।

क्लोनीय चयन के गुण (Merits of Clonal selection) :

(1) सरलतम उपलब्ध चयन विधि है, क्लोनो में बाह्य संकरण (Out-crossing) एवं बीजों की जीवनी क्षमता में ह्रास का जोखिम नहीं होता ।

(2) इस प्रक्रिया को कुछ परिवर्तन कर संकरण विधि के साथ भी प्रयुक्त किया जा सकता है।

(3) लक्षणों की उत्तम गुणवत्ता एवं क्लोन्स की शुद्धता को बरकरार रखा जा सकता है।

क्लोनीय चयन के दोष (Demerits of Clonal selection):

(1) यह चयन प्रक्रिया केवल उन पौधों के लिए ही उपयोगी हैं, जिनमें कायिक प्रजनन होता हैं अन्य पौधों के लिए यह उपयोगी नहीं है।

(2) इस विधि के द्वारा नई विभिन्नताएँ उत्पन्न नहीं हो सकतों, केवल उपलब्ध विविधताओं का ही उपयोग हो सकता है। विभिन्नताएँ उत्पन्न करने हेतु इनमें संकरण या उत्परिवर्तन उत्पन्न करवाना आवश्यक है ।

(3) कायिक प्रजनन के कारण संतति बहुगुणन का अनुपात कम होता है। जबकि बीज द्वारा प्रवर्धित पौधों में यह अधिक होता है। उदाहरणतया एक चयनित शकरकंद अधिकतम 50 कंद उत्पन्न कर सकता है, जबकि एक गेहूँ का पौधा, लाखों की संख्या में गेहूँ के दाने दे सकता है।

उपलब्धियाँ (Achievements):

आलू में कुफरी लाल एवं कुफरी सफेद (Kufri White), आम में युवराज ब्लड रेड (Yuvraj Blood Red). KO,, व KO, तथा केला में हाई गेट एवं ब्राइट यैलो इत्यादि प्रमुख क्लोनीय किस्में है। में गन्ने के प्रवर्धन हेतु क्लोनीय चयन विधि अपनायी गयी थी (चित्र 12.3 ) ।

अभ्यास-प्रश्न

अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न (Very Short Answer Question) :

1.परम्परागित पादपों में कौनसा कृत्रिम चयन उपयुक्त होता है ?

  1. शुद्ध वंशक्रम चयन की क्रिया विधि से नई किस्म कितने वर्षों में तैयार होती है?
  2. क्लोनीय किस्म किस पादप में सरलता से तैयार की जा सकती है?
  3. क्लोन की परिभाषा दीजिये ।
  4. शुद्ध वंशक्रम को परिभाषित कीजिये ।
  5. संतति चयन क्या है ?

लघूत्तरात्मक प्रश्न ( Short Answer Questions ) :

  1. संहति चयन का संक्षिप्त वर्णन कीजिये ।
  2. शुद्ध वंशक्रम चयन को समझाइये |

निबन्धात्मक प्रश्न (Essay Type Questions) :

  1. पादप चयन की विभिन्न विधियों का संक्षिप्त वर्णन कीजिये ।
  2. क्लोनीय चयन की परिभाषा दीजिये एवं इसकी कार्यविधि तथा गुण एवं दोषों को समझाइये |

उत्तरमाला (Answers)

अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न :

  1. संहति चयन
  2. 10 वर्षों में
  3. आलू में ।