पुंगी वाद्य यंत्र क्या होता है | बीन का क्या अर्थ है किसे कहते है मतलब पुंगी या बीन pungi musical instrument in hindi

pungi musical instrument in hindi पुंगी वाद्य यंत्र क्या होता है | बीन का क्या अर्थ है किसे कहते है मतलब पुंगी या बीन ?

प्रश्न: मादल
उत्तर: मादल राजस्थान का प्राचीन लोकप्रिय भीलों का अवनद्ध लोकवाद्य है जो अपनी शिल्पकारिता का उत्कृष्ट नमूना है। इसे भील अपने विभिन्न समारोहों एवं नृत्यों में प्रयुक्त करते हैं। यह मिटटी से निर्मित मृदंगाकृति का छोटे-बडे मुंह वाला वाद्ययंत्र है जिस पर चर्मडा मढा होता है। थाली की संगत में इसे बजाया जाता है एवं इसकी अत्यन्त मधुर ध्वनि निकलती है। इस पर की गई सजावट व चित्रकारी अत्यन्त आकर्षक होती है। आज यह बडे घरों में अलंकरण के रूप मे प्रयोग किया जाता है।
प्रश्न: पूंगी
उत्तर: यह राजस्थान का पाचन का प्राचीन एवं प्रसिद्ध तत् लोकवाद्य है जो धीया के तुम्बे या चमडे की बनी होती है। इसमें दो भंगलियों में तीन और नौ छेद होते है यह नकसांसी से बजाया जाता है। इस लोक वाघ को ज्यादातर कालबेलिया बजाते है। इस वाद्य यंत्र में सांप को मोहित करने अदुभत शक्ति होती है। भीलों की पंूगी भी अपनी संगीतात्मक एवं कलात्मक मूल्यों के लिए जानी जाती है।
प्रश्न: राजस्थान लोक गायक जातियाँ
उत्तर: राजस्थान की सुन्दर गायकी की परम्पराओं को सदियों से पेशेवर जातियों ने सुरक्षित रखा है। इनमें पश्चिमी मरूस्थल एवं दक्षिणी क्षेत्र से लंगा, ढोली, मिरासी ढाढी, कलावन्त, मांगणियार, भाट, कामड, भवाई, भोपे, कालबेलिया आदि आते हैं। इनके द्वारा गाये लोक गीतों में मॉड, देस, सोरठ, मारू, परज, कालिंगडा, जोगिया, बिलावल, पीलू, खमाज आदि कई रागों की छाया दिखाई देती है। इन्होंने कमायचा, खडताल, सारंगी, पुंगी, ढोलक, ढोल, मोरचंग, सुरणाई आदि अनेक लोकवाद्यों को सुरक्षित रखा है। इन गायक जातियों ने राजस्थान के लोक गीतों, लोक नृत्यों की मनमोहक भाव भंगिमाओं को लोकजीवन में निरन्तर जीवन्त बनाये रखा है।
प्रश्न: पश्चिमी क्षेत्र सांस्कृतिक केन्द्र, उदयपुर
उत्तर: राजस्थान के कलाकारों को अधिकाधिक मंच प्रदान करने के उद्देश्य से भारत सरकार द्वारा 1986 ई. में उदयपुर में इस केन्द्र की स्थापना की गई। इस केन्द्र के माध्यम से लुप्त हो रही लोक कलाओं के पुनरुत्थान का कार्य किया जा रहा है। वहीं हस्तशिल्पियों को भी संबल मिल रहा है। भारत सरकार ने ऐसे सात केन्द्र स्थापित किए हैं जिनमें उत्तरी भारत में उदयपुर, इलाहाबाद और पटियाला तीन केन्द्र हैं। जहाँ आयोजित किए जाने वाले कार्यक्रमों में उदयपुर केन्द्र द्वारा राजस्थान के कलाकारों को अपनी कला प्रदर्शन के लिए अवसर प्रदान करवाया जाता है।
निबंधात्मक प्रश्नोत्तर
प्रश्न: गरासियों के प्रमुख नृत्यों का वर्णन कीजिए।
उत्तर: गौर नृत्य: गणगौर के अवसर पर गरासिया स्त्री-पुरुषों द्वारा किया जाने वाला आनुष्ठानिक नृत्य है। इसमें गौरजा वाद्ययंत्र प्रयोग में लिया जाता है जो बेहद आकर्षक होता है।
वालर नृत्य: यह गरासियों का नृत्य है। गणगौर त्यौहार के दिनों में गरासिया स्त्री-पुरुष अर्द्धवृत्ताकार में धीमी गति से बिना किसी वाद्य के नृत्य करते हैं। यह नृत्य दूंगरपुर, उदयपुर, पाली व सिरोही क्षेत्रों में प्रचलित है।
कूद नृत्य: गरासिया स्त्रियों व पुरुषों द्वारा सम्मिलित रूप से बिना वाद्य यंत्र के पंक्तिबद्ध होकर किया जाने वाला नृत्य, जिसमें नृत्य करते समय अर्द्धवृत्त बनाते हैं तथा लय के लिए तालियों का इस्तेमाल किया जाता है।
जवारा नृत्य: होली दहन के पूर्व उसके चारों ओर घेरा बनाकर ढोल के गहरे घोष के साथ गरासिया स्त्री-पुरुषों द्वारा किया जाने वाला सामूहिक नृत्य जिसमें स्त्रियाँ हाथ में जवारों की बालियाँ लिए नृत्य करती हैं।
लूर नृत्य: गरासिया महिलाओं द्वारा वर पक्ष से वधू पक्ष से रिश्ते की मांग के समय किया जाने वाला नृत्य है।
मोरिया नृत्य: विवाह के समय पर गणपति स्थापना के पश्चात् रात्रि को गरासिया पुरुषों द्वारा किया जाने वाला नृत्य है।
मांदल नृत्य: यह कोटा क्षेत्र का नृत्य है। यह मांगलिक अवसरों पर गरासिया महिलाओं द्वारा किया जाने वाला नृत्य है। इस पर गुजराती गरबे का प्रभाव है। इसमें थाली व बांसुरी का प्रयोग होता है।
रायण नृत्य: मांगलिक अवसरों पर गरासिया पुरुषों द्वारा किया जाने वाला नृत्य है।
चकरी नृत्य/फूंदी नृत्य: यह बूढी ‘कजली तीज‘ के अवसर पर बूंदी क्षेत्र में बेड़िया और कंजर जाति की महिलाओं द्वारा किया जाता है। वर्तमान में शांति, फुलवां, फिलामां आदि प्रमुख चकरी नृत्यांगनाएं हैं।
प्रश्न: राजस्थान में भीलों के प्रमुख नृत्य बताइये।
उत्तर: गवरी (राई) नृत्य: भीलों द्वारा भाद्रपद माह के प्रारम्भ से आश्विन शुक्ला एकादशी तक गवरी उत्सव में किया जाने वाला यह नृत्य नाट्य है। यह डूंगरपुर-बांसवाड़ा, उदयपुर, भीलवाड़ा एवं सिरोही आदि क्षेत्रों में अधिक प्रचलित है। गवरी लोक नाट्य का मुख्य आधार शिव तथा भस्मासुर की कथा है। यह गौरी पूजा से संबद्ध होने के कारण गवरी कहलाता है। इसमें नृतक नाट्य कलाकारों की भांति अपनी साज-सज्जा करते हैं। राखी के दूसरे दिन से इनका प्रदर्शन सवा माह (40 दिन) चलता है। यह राजस्थान का सबसे प्राचीन लोक नाट्य है जिसे लोक नाट्यों का मेरुनाट्य कहा जाता है। गवरी समाप्ति से दो दिन पहले जवारे बोये जाते हैं और एक दिन पहले कुम्हार के यहाँ से मिट्टी का हाथी लाया जाता है। हाथी आने के बाद भोपे का भाव बंद हो जाता है। मय जवारा और हाथी के गवरी विसर्जन प्रक्रिया होती है। जिस किसा जसा विसर्जित करते हैं।
नोट: गवरी नृत्य के विस्तृत अध्ययन के लिए पेनोरमा टवस. प्प् के ‘राजस्थान के लोक नाट्य‘ अध्याय में देखें।
गैर नृत्य: होली के अवसर पर भील पुरुषों द्वारा किया जाने वाला नृत्य है।
द्विचक्री नृत्य: होली या अन्य मांगलिक अवसरों पर भील स्त्रियों द्वारा किया जाने वाला सामूहिक नृत्य है।
द्विचक्री नृत्य: विवाह एवं मांगलिक अवसरों पर भील स्त्री-पुरुषों द्वारा वृत्ताकार रूप से किया जाने वाला नृत्य है।
घूमर नृत्य: भील महिलाओं द्वारा मांगलिक अवसरों पर ढोल व थाली की थाप पर किया जाने वाला नृत्य है।
युद्ध नृत्य: राजस्थान के दक्षिणांचल के सुदूर एवं दुर्गम पहाडी क्षेत्र के आदिम भीलों द्वारा किया जाने वाला नृत्य है। यह नृत्य उदयपुर, पाली, सिरोही व दूंगरपुर क्षेत्र में अधिक प्रचलित है।
प्रश्न: राजस्थान संगीत नाटक अकादमी की उपलब्धियों की विवेचना कीजिए। ख्त्।ै डंपदे 2000,
उत्तर: सांगीतिक एवं नाट्य विधाओं के संरक्षण एवं प्रचार-प्रसार के लिए सन् 1957 में जोधपुर में इस अकादमी की स्थापना की गयी। नाट्य, लोक नाट्य, शास्त्रीय गायन, वादन, नृत्य, लोक संगीत एवं लोक नृत्य आदि गतिविधियों का संचालन इसकी प्रमुख प्रवृत्तियां हैं। संगीत एवं नाटक की प्रारंभिक शिक्षा से उच्चतर शिक्षा, प्रदेश के कलाकारों का देश-विदेश के वृहत्तर जन समुदाय से परिचय, शोध एवं सर्वेक्षण के माध्यम से प्रदेश की छिपी हुई प्रतिभाओं की खोज, उदयीमान कलाकारों को प्रोत्साहन, बालको को संगीत, नृत्य, नाटक एवं कठपुतली जैसी विधाओं का प्रशिक्षण और संगीत शिविरों का आयोजन करना अकादमी के प्रमुख कार्य हैं।
राजस्थान में नाट्य, लोकनाट्य, शास्त्रीय गायन, वादन, नृत्य एवं लोकसंगीत आदि गतिविधियों एवं संगीतिक तथा नाट्य विद्याओं के प्रचार-प्रसार के संचालन, संरक्षण एवं विकास के उद्देश्य से राजस्थान संगीत नाटक अकादमी की स्थापना सन् 1957 में जोधपुर में की गई।
इसके मुख्य कार्य हैं –
1. संगीत व नाटक जैसरी ललित कलाओं को प्रोत्साहन देने हेतु प्रशिक्षण शिविर आयोजित करना।
2. लोक साहित्य जिसमें विभिन्न लोक नाट्य संगीत अन्तर्निहित है को लिपिबद्ध, संग्रहित, प्रकाशित एवं संरक्षित करना।
3. संगीत व नाटक की प्रारम्भिक शिक्षा से उच्चतर शिक्षा देना तथा प्रदेश के कलाकारों का देश-विदेश के वृहत्तर जन समुदाय से परिचय करवाना।
4. शोध एवं सर्वेक्षण के माध्यम से छिपी प्रतिभाओं की खोज करना।
5. कलाकारों, सांस्कृतिक संस्थाओं एवं छात्र-छात्राओं को छात्रवृतियों एवं आर्थिक सहायता प्रदान कर उन्हें प्रोत्साहन देना।
संगीहत नाटक अकादमी ने इन सभी कार्यों को बड़ी सहजता से किया है। जोधपुर एवं राज्य के विभिन्न हिस्सों में इसकी शाखाएं स्थापित हैं। जहां राजस्थान का लोक साहित्य संरक्षित है। विभिन्न कलाविदों को प्रोत्साहन देने हेत अकादमी प्रत्येक वर्ष पुरस्कार प्रदान करती है। श्रीमती मांगी बाई, हाजन अल्लाह जिलाबाई, गवरी देवी, पष्कर के रामकिशन सोलंकी, भरतपुर के नौटंकी कलाकार मास्टर गिर्राज एवं कत्थक नृत्य के लिए विभिन्न गगानी को परस्कत किया। अकादमी में संगीत साधना एवं नाटक के क्षेत्र में चरम परिणति तक पहुंच चुके राज्य के 157 कलाकारों को कला परोधा से सम्मानित किया है। संगीत के विभिन्न क्षेत्रों में उल्लेखनीय योगदान के लिए 26 कलाकारों को पुरस्कार दिये गये।