राष्ट्रपति की शक्तियाँ क्या है ? भारत के राष्ट्रपति की की आपातकालीन शक्तियां power of president of india in hindi

power of president of india in hindi राष्ट्रपति की शक्तियाँ क्या है ? भारत के राष्ट्रपति की की आपातकालीन शक्तियां  ?

राष्ट्रपति की शक्तियाँ
अनुच्छेद 53 में भारत के राष्ट्रपति की कार्यकारी शक्तियों का उल्लेख है। राष्ट्रपति की शक्तियाँ मोटेतौर पर दो प्रकारों में विभाजित हैं, नामतः सामान्य और आपातकालीन शक्तियाँ । राष्ट्रपति की सामान्य शक्तियाँ कार्यकारी, विधायी, वित्तीय तथा न्यायिक शक्तियों के रूप में वर्गीकृत की जा सकती है।

संघ की कार्यकारी शक्तियाँ राष्ट्रपति में निहित है। अनुच्छेद 53 उसमें सभी कार्यकारी शक्तियाँ विहित करता है और इन शक्तियों को सीधे स्वयं द्वारा अथवा उसके अधीनस्थ अधिकारियों के माध्यम से प्रयोग करने हेतु उसे सक्षम बनाता है। अनुच्छेद 75 प्रधानमंत्री से अपेक्षा करता है कि वह संघीय मंत्रिपरिषद् के सभी निर्णय राष्ट्रपति को ज्ञात कराए। अनुच्छेद 77 व्यवस्था देता है कि संघीय सरकार की सभी कार्यकारी शक्तियों का प्रयोग राष्ट्रपति के नाम से किया जाए।

राष्ट्रपति के पास प्रशासनिक तथा सैन्य, दोनों शक्तियाँ होती हैं। राष्ट्रपति को ही राज्य के उच्च पदाधिकारियों को नियुक्त करने तथा पदमुक्त करने का अधिकार है। राष्ट्रपति ही प्रधानमंत्री, और उसी की सलाह पर, मंत्रिपरिषद्, महान्यायवादी, सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों, विशेष आयोगों के सदस्यों (जैसे संघ लोक सेवा आयोग तथा चुनाव आयोग), और राज्यों के राज्यपालों की नियुक्ति करता है। प्रधानमंत्री का चुना जाना राष्ट्रपति का कोई विवेकाधीन परमाधिकार नहीं है परंतु वह सामान्यतः लोकसभा में आने वाले एक नायक बहुमत दल द्वारा अभिप्रेरित होता है।

भारत का राष्ट्रपति रक्षा बलों का प्रधान सेनापति भी होता है। वह ही थल सेनाध्यक्ष, जल सेनाध्याक्ष तथा वायुसेनाध्यक्ष की नियुक्ति करता है। उसको युद्ध की घोषणा करने तथा शांति-निर्णय लेने का अधिकार है। परंतु ये सब शक्तियाँ उसके द्वारा संसद के अनुसमर्थन के अधीन ही व्यवहार्य हैं। पुनरुल्लेखनीय है कि वह सभी कार्यकारी शक्तियों का प्रयोग केवल प्रधानमंत्री के नेतृत्व वाली मंत्रिपरिषद् की मदद तथा सलाह से ही करता है।

हालाँकि राष्ट्रपति संसद के किसी भी सदन का सदस्य नहीं होता है, फिर भी अनुच्छेद 79 कहता है कि राष्ट्रपति संघीय संसद का एक अभिन्न अंग है। जैसा कि हमने इकाई 10 में देखा, राष्ट्रपति को संसद के दोनों सदनों को सभादि हेतु बुलाने, राज्य सभा के बारह सदस्यों को नामांकित करने का अधिकार है, उसे किसी भी समय किसी भी सदन अथवा उनके संयुक्त सत्र को संबोधित करने का अधिकार तथा लोकसभा भंग करने का अधिकार है। संसद में प्रस्तुत किए जाने वाले सभी धन-विधेयकों पर राष्ट्रपति की सिफारिश आवश्यक होती है। इस प्रकार की पूर्व-अनुशंसा नए राज्यों को गठन, विद्यमान राज्यों के क्षेत्रों, सीमाओं, नामों में रद्दोबदल से संबंधित आदि विधेयकों को लाने हेतु भी आवश्यक है। अंततः, संसद द्वारा कोई जब काई विधेयक पारित कर दिया जाता है, यह एक अधिनियम तभी बन सकता है जब जब इसको राष्ट्रपति की स्वीकृति मिल जाए। राष्ट्रपति संसद के पुनर्विचार हेतु किसी गैर-धन-विधेयक को रोक रख अथवा लौटा सकता है। बहरहाल, यह विधेयक यदि दोनों सदनों द्वारा परिवर्तनों के साथ अथवा बिना किसी परिवर्तन के पारित हो जाता है और राष्ट्रपति को लौटा दिया जाता है, परवर्ती अपनी स्वीकृति देने को बाध्य है।

जब संसद का सत्रावसान होता है, राष्ट्रपति जनहित में अध्यादेश जारी कर सकता है। इन अध्यादेशों की संसद द्वारा पारित कानूनी जैसी ही वैधता और मान्यता होती है। बहरहाल, उन्हें संसद के पुनर्सत्रारंभ के दिन से छः माह की अवधि के भीतर ही संसद के समक्ष रखना होता है। संसद की अनुमति के बगैर अध्यादेश अवैध हो जाएगा।

अनुच्छेद 254 राष्ट्रपति को संसद तथा राज्य विधायिकाओं द्वारा पारित कानूनी और समवर्ती सूची में शामिल विषयों के बीच विसंगतियों को दूर करने हेतु समर्थ बनाता है। एक अन्य विधायी कार्य जो राष्ट्रपति राज्यों के संबंध में करता है, वह है कि किसी राज्य का राज्यपाल राज्य विधायिकाओं द्वारा पारित कुछ विधेयकों को राष्ट्रपति के विचारार्थ सुरक्षित रख सकता है।

भारत के राष्ट्रपति की न्यायिक शक्तियों में शामिल हैं – सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की नियुक्ति, और जीवनदान देने, दंडादेश स्थगन, निलंबन, क्षमा अथवा न्यायालय के दंड अथवा निर्णय के लघुकरण का अधिकार । जीवनदान देने की ये शक्तियाँ राष्ट्रपति को आपराधिक कानूनों में अत्यधिक कठोरता दूर करने तथा मानवीय आधार पर लोगों की रक्षा करने हेतु दी गई हैं। राष्ट्रपति को कुछ महत्त्वपूर्ण संवैधानिक, वैधानिक तथा कूटनीतिक मामलों पर सर्वोच्च न्यायालय की सलाह माँगने का भी अधिकार है। 1977 में, राष्ट्रपति ने आपात्कालीन ज्यादतियों पर विचार करने के लिए विशेष अदालतें गठित किए जाने हेतु सर्वोच्च न्यायालय की सलाह माँगी थी।

आपात्कालीन शक्तियाँ
भारतीय संघ की संप्रभुता, स्वतंत्रता और अक्षुण्णता की रक्षा करने के अभिप्राय से, संविधान भारत के राष्ट्रपति को आपात्कालीन शक्तियाँ प्रदान करता है। राष्ट्रपति को तीन प्रकार की आपास्थितियों की घोषणा करने का अधिकार है, नामतः (क) युद्ध, बाह्य आक्रमण अथवा सशस्त्र विद्रोह से उत्पन्न राष्ट्रीय आपास्थितिय (ख) राज्यों में संवैधानिक कार्यप्रणाली के ठप्प होने से उत्पन्न आपात्स्थितिय और (ग) वित्तीय आपास्थिति।

राष्ट्रपति यदि पक्के तौर पर मानता है कि भारत अथवा देश के किसी भाग की सुरक्षा को युद्ध, बाह्य आक्रमण अथवा सशस्त्र विद्रोह से खतरा है तो वह किसी भी समय राष्ट्रीय आपात्स्थिति की घोषणा कर सकता है। यह उद्घोषणा संसद के समक्ष उसके विचारार्थ तथा स्वीकृति हेतु रखी जानी चाहिए। इसको संसद के दोनों सदनों में दो-तिहाई सदस्यों द्वारा एक माह के भीतर स्वीकार कर लिया जाना चाहिए। यदि संसद उद्घोषणा विधेयक को पारित करने में विफल रहती है, इसकी व्यवहार्यता समाप्त हो जाती है। यदि स्वीकृत हो जाता है, यह छह माह की अवधि तक जारी रहती है। तथापि, यदि राष्ट्रपति उद्घोषणा को छः माह तक स्वीकृत कर दे तो यह कितने भी समय तक जारी रह सकती है। संसद को, बहरहाल, लोकसभा के कुल सदस्यों के कम-से-कम एक दशांश द्वारा रखे गए और उपस्थित तथा मतदान में भाग लेते एक साधारण बहुमत द्वारा स्वीकृत एक प्रस्ताव द्वारा किसी भी समय आपास्थिति को वापस लेने का अधिकार है। अनुच्छेद 352 के तहत् राष्ट्रीय आपास्थिति पहली बार 1962 में उद्घोषणा की गई थी, जब चीन ने आक्रमण किया था। दूसरी उद्घोषणा 1971 में बंगलादेश युद्ध के दौरान की गई थी। 26 जून 1975 को पहली बार राष्ट्रपति ने प्रधानमंत्री की सलाह पर आंतरिक सुरक्षा को गंभीर खतरा का वास्ता देकर आपात्स्थिति की घोषणा की थी।

जब राज्य में संवैधानिक क्रियाप्रणाली भंग हो जाती है तो राष्ट्रपति उस स्थिति में आपात्स्थिति लागू कर सकता है। अनुच्छेद 356 यह व्यवस्था देता है कि यदि राष्ट्रपति, किसी राज्य के राज्यपाल से अथवा अन्यथा रिपोर्ट मिलने पर, यह मान लेता है कि ऐसी स्थिति पैदा हो गई है जिसमें राज्य सरकार संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार नहीं चलाई जा सकती है, वह राज्य में संवैधानिक आपात्काल की घोषणा कर सकता है। वह राजकीय आपास्थिति की घोषणा भी कर सकता है यदि राज्य सरकार केंद्रीय सरकार द्वारा दिए गए कुछ दिशा-निर्देशों को कार्यान्वित करने से इंकार कर देती है अथवा उसमें विफल रहती है।
इस प्रकार की आपातस्थिति की घोषणा, राष्ट्रपति शासन के नाम से प्रसिद्ध, छः माह की अवधि तक प्रभावी रह सकती है। 44वें संशोधन के अनुसार, संसद एक बार के लिए छः माह की अवधि के लिए राजकीय आपात्स्थिति की मियाद बढ़ा सकती है। साधारणतयः ऐसी आपास्थिति की मीआद तब तक एक वर्ष के लिए नहीं बढ़ाई जा सकती है जब तक कोई राष्ट्रीय आपात्स्थिति प्रभावी न हो। बहरहाल, राजकीय आपास्थिति की मीआद तीन वर्ष से अधिक नहीं बढ़ाई जा सकती है।

राष्ट्रपति वित्तीय आपातस्थिति लागू कर सकता है। अनुच्छेद 360 के अनुसार, यदि राष्ट्रपति पक्के तौर पर यह मान लेता है कि ऐसी स्थिति पैदा हो गई है कि अब भारत अथवा देश की किसी भाग की वित्तीय स्थिरता अथवा साख को खतरा है, वह वित्तीय आपास्थिति की घोषणा कर सकता है।

राष्ट्रीय आपास्थिति की ही भाँति, इस प्रकार की घोषणा को भी संसद के समक्ष उसकी स्वीकृति हेतु रखना पड़ता है। इसके प्रत्यक्ष मूल्य पर कहा जा सकता है कि राष्ट्रपति के पास दुर्जेय शक्तियाँ हैं। वास्तविकता में बहरहाल, वह प्रधानमंत्री के नेतृत्व वाली मंत्रिपरिषद् की मदद और सलाह पर अग्रणी शक्तियों का प्रयोग कर सकता है। इस लिहाज से, राष्ट्रपति की स्थिति संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति की बजाय ब्रिटिश सम्राट् की स्थिति से अधिक मिलती-जुलती है। जबकि भारत का राष्ट्रपति राज्य-प्रमुख हो सकता है, सरकार-प्रमुख प्रधानमंत्री ही है।