तलाक किसे कहते है | मुता विवाह क्या होता है | इस्लाम में बहुपत्नी विवाह की परिभाषा Polygamy in hindi

Polygamy in hindi तलाक किसे कहते है | मुता विवाह क्या होता है | इस्लाम में बहुपत्नी विवाह की परिभाषा Muta Marriage and divorce meaning definition in hindi ?

विवाह और तलाक (Marriage and Divorce)
परिवार की संस्था को बचाने के लिए और उसे सुचारू रूप से चलाने के लिए विवाह का आदेश है और उसके लिए काफी प्रोत्साहित किया जाता है। पैगम्बर मुहम्मद ने विवाह की आवश्यकता पर बल देते हुए कहा है कि ‘‘विवाह करना मेरे बताये रास्ते पर चलना है, जो इस रास्ते से हट जाता है वह मेरा नहीं है।‘‘

विवाह के बारे में इस्लाम का दृष्टिकोण यह है कि विवाह यौन इच्छा की संतुष्टि का साधन नहीं, बल्कि प्रजनन का माध्यम है। यह बात मुहम्मद साहब की इस संक्षिप्त सूक्ति में स्पष्ट होती हैः

‘‘निकाह करो और औलाद पैदा करो‘‘
‘‘निकाह विवाह के लिए प्रयुक्त शब्द है ‘निकाह‘ अरबी का शब्द है जिसका अर्थ होता है संयोग होना। कुछ विशेष कारणों को छोड़कर, हर मुसलमान को इस पवित्र अनुबंध में बंधना होता है।

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कुरान में विवाह को पति-पत्नी के बीच का अनुबंध बताया गया है। विवाह के अनुबंध में पति-पत्नी दोनों पक्षों अर्थात पति व पत्नी दोनों तरफ के लोगों की सहमति एक सूत्र में बंध जाती हैं। यह समझौता कुछ गवाहों की उपस्थिति में होता है और विवाह अनुबंध में यही एक मात्र अनिवार्यता है। विवाह के मौके पर, लड़की के लिए एक निश्चित रकम तय कर दी जाती है, जिसे ‘‘मेहर‘‘ कहते हैं। लेकिन ‘‘मेहर‘‘ न तय हो या उसकी रकम न तय हो तब भी विवाह को वैध ही माना जाता है।

क) प्रतिबंधित वैवाहिक संबंध (Prohibited Marital Ties)
कुरान में कुछ विवाह संबंधों को गैर-कानूनी बताया गया हैः
‘‘तुम्हारी माताएं और बेटियां और बहनें, तुम्हारी बुआएं और तुम्हारी मौसियां और भतीजियां, भांजियां और तुम्हारी वे माताएं जिन्होंने तुमको दूध पिलाया और दूध संबंधी शरीकी बहनें और तुम्हारी सासें तुम पर हराम हैं और तुम्हारी उन बीवियों की (पूर्व पति की बेटियां और दो बहनों का एक साथ (निकाह में) रखना (भी तुम पर हराम है)‘‘

स्त्री को उस पुरुष से विवाह नहीं करना चाहिए जिसका उस (स्त्री) की बुआ से निकाह हो चुका हो।

ख) विवाह के प्रकार (Types of Marriage)
प) बहुपत्नी विवाह (Polygamy)
मुहम्मद साहब से पहले, पत्नियों की संख्या अरबी लोगों की इच्छा पर और उनकी सामाजिक और आर्थिक स्थिति पर निर्भर करती थी। उन्हें कभी भी विवाह करने की स्वतंत्रता थी और उनका विवाह वैध माना जाता था। मुहम्मद साहब के समय में जो नये नियम बने उनका उद्देश्य पत्नियों की संख्या पर रोक लगाना था। कुरान में पत्नियों की अधिकतम संख्या चार रखी गई, लेकिन साथ ही कुरान में इन चारों को समान दरजा देने का भी आदेश दिया गया है।
पप) बहुपति विवाह पर प्रतिबंध (ठंददपदह व िच्वसलंदकतल)
इस्लाम में स्त्रियों को किसी भी सूरत में एक समय में एक से अधिक पति करने की इजाजत नहीं है।

पप) मुता विवाह (Muta Marriage)
इस्लाम पूर्व के समय से ही एक और प्रकार का विवाह चला आ रहा है जिसे मुता विवाह कहते हैं। इस प्रकार के विवाह का उद्देश्य पुरुष को उसके घर से बाहर होने की स्थिति में पत्नी उपलब्ध कराना था। यह विवाह अन्य विवाहों से इस अर्थ में अलग है कि यह पूरे तौर पर एक व्यक्तिगत अनुबंध होता है, और इसमें स्त्री के घरवालों से कोई सलाह नहीं ली जाती। इस संबंध से पैदा होने वाले बच्चे जायज होते हैं और उनका अपने बाप की जायदाद में बराबरी का हक होता है, लेकिन इस तरह का विवाह करने वाली पत्नी अपने पति से भरण पोषण की मांग कानूनी तौर पर नहीं कर सकती। उसे अपने पति की जायदाद भी विरासत में नहीं मिलती और उसके पति का भी उसकी जायदाद में कोई हिस्सा नहीं होता।

वैसे, मुसलमानों के सभी पंथ इस बात पर सहमत हैं कि इस प्रकार का विवाह गैर कानूनी है। अकबरीशिया इसका अपवाद है। ईरान या और किसी भी शिया राष्ट्र, में एक निश्चित अवधि के लिए पत्नी रखना आम बात है। यह अवधि एक दिन से लेकर एक वर्ष या अनेक वर्षों तक की हो सकती है।

ग) तलाक (Divorce)
इस्लाम में विवाह एक नागरिक अनुबंध मात्र होता है। पैगम्बर मुहम्मद ने विवाह और तलाक के नियम इस तरह से बनाये कि इससे विवाह का स्थायित्व भी सुनिश्चित होता है और व्यक्ति की स्वतंत्रता पर भी प्रभाव नहीं पड़ता । इस्लाम के कानून लचीले हैं, इसलिए उसमें कुछ परिस्थितियों में एक से अधिक पत्नियां रखने की और तलाक की भी अनुमति है। कभी-कभी वैवाहिक जीवन में ऐसी स्थितियाँ आ जाती हैं कि पति-पत्नी के लिए साथ रहना कठिन हो जाता है। ऐसी स्थितियों में असंतुष्ट पति या असंतुष्ट पत्नी को तलाक के अधिकार का इस्तेमाल करना पड़ जाता है। लेकिन तलाक का सहारा तभी लिया जाता है जब मेल-मिलाप के सारे प्रयास विफल हो जाते हैं। मुहम्मद साहब ने तो तलाक की कड़े शब्दों में निंदा की है:

‘‘जिन बातों की इजाजत दी गई है, उनमें अल्लाह को सबसे ज्यादा नापसंद तलाक है।‘‘ तलाक अनिवार्य हो जाने की स्थिति में भी दोनों पक्षों को यह आदेश है कि वे एक-दूसरे के अधिकारों का आदर करें। उन दोनों को एक-दूसरे से सहृदयता के साथ अलग होना चाहिए, और पुरुष ने अपनी पत्नी को जो उपहार या जायदाद आदि दी हो उसमें से वह कुछ भी वापस नहीं ले।

प) तलाक देने का पति का अधिकार (Husband’s Right of Pronounement of Divorce)
वैसे तो कुरान में पति को तलाक देने का अधिकार दिया गया है, फिर भी इस अधिकार का इस्तेमाल करने में कई प्रतिबंध लगाये गये हैं। मुहम्मद साहब ने तलाक के अधिकार का इस्तेमाल करने पर कुछ पाबंदियां लगा दी थीं। इसके साथ ही तलाक के एकतरफा और अविवेकपूर्ण अधिकार पर रोक लग गई, साथ ही यदि वे चाहें तो इससे पति-पत्नी को समझौते के लिए भी काफी समय मिल जाता है। जिस प्रकार के तलाक को इस्लामी कानून मानता है और जिसे पैगम्बर मुहम्मद की भी स्वीकृति प्राप्त है, वह है ‘‘अहसान‘‘ तलाक । इस प्रकार के तलाक में निम्न स्थितियों का प्रावधान है जिससे समझौते का रास्ता खुलता है और विवाह हमेशा के लिए टूटने से बच सकता हैः

ऽ पहली बात तो, पति को केवल एक बार तलाक बोलना चाहिए, इससे यह होगा कि बाद में विवेक जागने पर वह तलाक वापस ले सकता है।
ऽ तलाक तब बोला जाना चाहिए जब पत्नी शुद्ध हो और सहवास में कोई बाधा न हो। इसलिए मासिक धर्म के दौरान तलाक बोलने को अवैधानिक माना गया है।
ऽ तलाक बोलने के बाद पति को तीन महीने तक अपनी पत्नी के साथ वैवाहिक सहवास नहीं करना चाहिए।

इस परंपरा का उद्देश्य पति की ओर से जल्दबाजी में कोई निर्णय न होने देना है। पत्नी की अशुद्धता और वैवाहिक सहवास न करने की लंबी अवधि जैसी शर्ते रखकर पति को अपने तलाक के निर्णय पर दोबारा विचार करने का समय दिया गया है। इस बीच वह पश्चाताप कर सकता है और निर्धारित अवधि के पूरा होने से पहले अपनी पत्नी को वापस रख सकता है। लेकिन अगर यह अवधि निकल जाती है और उनका मेल नहीं होता तो पत्नी उसके लिए अवैध हो जाती है।

पप) पत्नी का तलाक का अधिकार (Wife’s Right of Divorce)
अन्य संस्थाओं की तरह तलाक के मामले में भी स्त्रियों को भी समान अधिकार दिया गया है। पत्नी अपने पति से तलाक की मांग कर सकती है, लेकिन उस स्थिति में उसे मेहर (दहेज) लौटाना होता है। पत्नी के तलाक के अधिकार को ‘‘खुला‘‘ कहा जाता है। पत्नी निम्न स्थितियों में तलाक ले सकती हैंः
ऽ उसका पति सात वर्षों से गायब हो और उससे संपर्क न हो सके।
ऽ अगर ‘‘खला‘‘ के अनसार पत्नी मेहर न लौटा पाये तो वह ‘‘मबारत‘‘ के जरिये अपने पति से अलग हो सकती है। इस तरह के तलाक में किसी भी प्रकार का मुआवजा नहीं देना होता और पति-पत्नी की आपसी सहमति से ही तलाक हो जाता है।
ऽ अगर पति-पत्नी से बुरा व्यवहार करता है, गाली-गलौज या मार-पीट करता है तो उसे अपने पति के खिलाफ शिकायत करनी चाहिए और वह अदालती आदेश से तलाक ले सकती है। अगर न्यायाधीश को उसकी शिकायतें सही लगती हैं तो वह पति से उसे छोड़ देने को कहता है। फिर अगर पति उसे छोड़ने से इनकार करे तो न्यायाधीश-खुद तलाक की घोषणा करता है और वह वैध माना जाता है। इस स्थिति में पति को सारा दहेज वापस करना होता है। मुस्लिम कानून में इस प्रक्रिया को ‘‘तफरीक‘‘ या कानूनी हरजाना कहते हैं। इसका आधार मुहम्मद साहब के ये शब्द हैंः

‘‘अगर किसी औरत को निकाह से कोई नुकसान हो रहा हो तो निकाह तोड़ा जा सकता है।‘‘

अदालत इन स्थितियों में तलाक स्वीकार कर सकती है:
ऽ अगर पति अपनी पत्नी से बुरा व्यवहार करे,
ऽ विवाह के अनुबंध की शर्ते पूरी न होने पर, पागलपन,
ऽ असाध्य नपुंसकता,
ऽ ऐसे ही अन्य कारण जिनसे अदालत की दृष्टि में तलाक उचित हो।

उत्तराधिकार संबंधी कानून (Institution Governing Inheritance)
उत्तराधिकार की व्यवस्था प्रत्येक समाज में किसी न किसी रूप में मौजूद है, जहाँ निजी संपत्ति को सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था का आधार माना जाता है। उत्तराधिकार वह प्रक्रिया है जिसमें मृत व्यक्ति की संपत्ति को जीवित व्यक्ति के स्वामित्व में दे दिया जाता है। इस्लाम ने उत्तराधिकार के कानूनों में कई सुधार किये हैं। इस्लाम ने प्रत्येक उत्तराधिकारी के हिस्से का स्पष्ट निर्धारण किया है। संपत्ति के मालिक के अधिकार पर भी पाबंदी लगायी गई। वह अपनी इच्छा से अपनी संपत्ति का निपटारा नहीं कर सकता। स्त्रियों को जायदाद में एक निश्चित हिस्सा देकर उनके सामाजिक और आर्थिक अधिकारों की रक्षा की गई। वह पुरुषों के साथ जायदाद में साझेदार हो गई। इस तरह स्त्रियों की गरिमा को बहाल किया गया। उत्तराधिकार के सामान्य सिद्धांत को पहले पहल इन शब्दों में व्यक्त किया गया।

‘‘मर्द अपने माता-पिता व नजदीकी रिश्तेदारों की जायदाद में हकदार होगा और औरत अपने माता-पिता और नजदीकी रिश्तेदारों की जायदाद में हकदार होगी‘‘। (कुरान शरीफ आयत 4,7)

यदि कोई व्यक्ति अपने पीछे एक बेटा और एक बेटी छोड़ जाता है तो मृतक की जायदाद तीन हिस्सों में बांटी जाएगी जिसके दो हिस्से बेटे को और एक हिस्सा बेटी को दिया जाएगा।

प) संपत्ति में हिस्सा और कुरानी वारिस (Shares and Quranic Heirs)
कुरान में उत्तराधिकार से संबंधित कानूनों का विस्तार से वर्णन किया गया है। पहले वारिस मृतक के अति निकट के रिश्तेदार होते हैं, और कुरान में उनके लिए एक निश्चित हिस्सा. दिया गया है। कुरान में इस प्रकार हिस्से किये गये हैंः
ऽ नातेदारी की ओर से वारिस
ऽ पति
ऽ पत्नी
ऽ खून के रिश्ते
ऽ वास्तविक दादा
ऽ बेटे की बेटी
ऽ सगी बहन
ऽ सगोत्र बहन
ऽ विपितृज भाई
ऽ विपितृज बहन
ऽ नातेदारी की ओर से वारिस: पति को मृत पत्नी की जायदाद का आधा मिलता है। अगर उनके बच्चे भी हों तो पति का हिस्सा चैथाई रह जाता है।
ऽ यदि पत्नी के कोई औलाद नहीं हैं तो पत्नी को एक चैथाई हिस्सा मिलता है और बच्चे होने की स्थिति में उसे आठवां हिस्सा मिलता है।
ऽ खून के रिश्तों का हिस्सा।

मृतक अगर बेटा या बेटे का बेटा (पोता) छोड़ गया है तो उसके पिता का हिस्सा छठवां होता है, लेकिन अगर मृतक के कोई बेटा या पोता नहीं हो, तो उसके पिता को छठवें हिस्से के अलावा एक और हिस्सा मिलेगा जिसे ‘असाबा‘ कहते हैं।