Pneumococcus in hindi , न्यूमोकॉकस बैक्टीरिया क्या है , न्यूमोकोकल बैक्टीरिया से रोग और उपचार टीका

पढेंगे Pneumococcus in hindi , न्यूमोकॉकस बैक्टीरिया क्या है , न्यूमोकोकल बैक्टीरिया से रोग और उपचार टीका ?

न्यूमोकोकॅस (Pneumococcus) – न्यूमोकोकस को डिप्लोकॉकस निमोनियेई (Diplococcus pneumoniae) के नाम से जाना जाता है। ये ग्रैम ग्राही प्रकार की भालाकार (lanceolate) जीवाणु कोशिकाएँ हैं। ये स्ट्रेप्टोकोकाई से काफी समानताएँ रखते हैं। न्यूमोकोकस मनुष्य के गले में संक्रमण द्वारा रोग उत्पन्न करते हैं। 1881 में पास्तेर तथा स्टर्नबर्ग (Pasteur and Sternburg) ने इनकी खोज की किन्तु इनके द्वारा निमोनिया रोग उत्पन्न करने की जानकारी 1886 में फ्रेकल तथा वेचेसेल्ब्म (Frankel and Weicheslbaum) द्वारा दी गयी ।

आकारिकी (Morphology)

ये बहुत छोटे लगभग 1p व्यास के कुछ लम्बवत् आकृति के कोकॉई है जिनका एक सिरा चौड़ा या गोल तथा दूसरा सिरा नुकीला होता है। अतः इनकी आकृति लौ (flame) या भालेनुमा (lanceolate) होती है। यह जीवाणु युग्मित अर्थात् डिप्लोकोकॉई अवस्था में रहते हैं। एक युग्म दो कोशिकाओं के चौड़े भाग के परस्पर सम्मुख रूप में व्यवस्थित होने से बनता है। ये सम्पुट (capsule) युक्त होते हैं। सम्पुट प्रत्येक युग्म के ऊपर बना होता है जो शर्करा पदार्थों द्वारा निर्मित होता है संवर्धन के दौरान उत्पन्न जीवाणु छोटी-छोटी श्रृंखला बना लेते हैं। ये अचल तथा बीजाणु न बनाने वाले जीवाणु हैं। न्यूमोकोकॅस ऐनीलिन एवं ग्रैम अभिरंजन ग्रहण करते हैं।

निमोनिया रोग के एक से अधिक कारक पाये गये हैं। इनमें स्ट्रेप्टोकॉकस निमोनियेई, डिप्लोकॉकस निमोनियेई, माइकोप्लाज्मा निमोनियेई, हीमोफिलम एन्फ्लूएन्जेई बच्चों में एवं लीजनेला निमोफिलिया वृद्धि में निमोनिया के कारक मुख्यतः पाये जाते हैं। हीमोफिलस व लीजनेला ग्रैम अग्राही, छड़ रूपी बैसिलाई समूह के ही सदस्य हैं। हीमोफिलस की वृद्धि हेतु रक्त के रंगा पदार्थ हीम (hema) की आवश्यकता होती है । यह अगतिशील, अवैकल्पी वायुवीय प्रकृति का जीवाणु है जिसका संवर्धन रक्त पोषणिक एगार एवं चाललेट एगार 37°C पर सम्भव है। शिशुओं में यह निमोनिया, श्वसन मार्ग के अन्य रोग साइनसाइटिस एवं मेनिन्जाइटिस भी उत्पन्न करता है। लीजनेला सम्पुट हीन ग्रैम अग्राही, वायुवीय छड़ रूपी बैसिलस है। यह वृद्धि में निमोनिया का कारक होता है इसका संवर्धन वायुवीय अवस्था में कोयला, यीस्टर सार, सिस्टीन व लौह यौगिक युक्त पोषणिक माध्यम में किया जाता है।

संवर्धन लक्षण (Cultural charactersitics)

ये वायुवीय एवं विकल्पी अनाक्सीजीव हैं जो 37°C के आदर्श तापक्रम पर तथा pH 7.8 पर पोषण बहुल्य माध्यम में वृद्धि करते हैं । वृद्धि 5-10% CO2 युक्त ऊत्तकों में अच्छी होती है। उक्त एगार पर इनका संवर्धन करने पर (0.5 – 1 mm) आमाप की गुम्बदाकार निवह बनती है जो हल्का रंग लिये रहती हैं। इनमें स्वयंलयन (antolysis) का गुण जाता है यह क्रिया पित्त लवणों द्वारा तीव्र हो जाती है।

जैव-रासायनिक क्रियाएँ (Bio-chemical reactions)

न्यूमोकोकाई शर्कराओं का किण्वन करते हैं एवं केवल अम्ल उत्पन्न करते हैं। ये पित्त में घुनलशील होते हैं।

प्रतिरोधकता (Resistance)

न्यूमोकोकाई ताप के प्रति अन्यन्त संवेदनशील होते हैं ये 52°C पर 15 मिनट तक रखने पर मृत हो जाते हैं। ये सल्फोनाइमाइड्स तथा अन्य प्रतिजैविकों के प्रति संवेदनशील होते हैं। ये सेल्फोनेमाइड्स के प्रति प्रतिरोधकता उत्पन्न करने की क्षमता रखते हैं जो टेट्रासाइक्लीन व पेनिसिलिन के प्रति कम पायी जाती है।

रोगजनकता (Pathogenicity)

प्रयोगों द्वारा प्रमाणित किया गया है ये चूहों व खरहें में घातक संक्रमण उत्पन्न करते हैं। 1-3 दिन में इनकी मृत्यु हो जाती है। मनुष्य में ये श्वासनली में वायु प्रवेश कर मवाद युक्त घाव उत्पन्न करते हैं। मनुष्य में सामान्यतः न्यूमोकोकॅस के प्रति प्रतिरोधकता पायी जाती है जिसके कम हो जाने पर गले में संक्रमण हो सकता है। इसके द्वारा ब्रोंकाइटिस ( bronchitis) रोग उत्पन्न होता है। न्यूमोकोकॉई बच्चों में अधिक सक्रिय होते हैं और घातक रोग उत्पन्न करते हैं तथा उपचार के बाद भी लगभग 25% रोगी मर जाते हैं। इनके द्वारा देह के अन्य भागों में भी अनेक रोग उत्पन्न हो जाते हैं।

एक रोगी से दूसरे रोगी में संक्रमण वायु के द्वारा होता है तथा एक स्थान पर रहने वाले  में संक्रमण तीव्र गति में फैलता है।

निदान (Diagnosis)

रोगी के थूक (sputum) का परीक्षण करके रोग का पता लगाया जाता है। थूक का रंग पीला लाल होता है जिसके भीतर उपस्थित न्यूमोकोकस का संवर्धन करके इस रोग का निदान संभव है।

टीका (Vaccine)

यह रोग अनेक विभेदों (strains) के द्वारा हो सकता है किन्तु अधिकतर टीका लगा कर रोग को फैलने से रोका जा सकता है। प्रतिरक्षीकरण (immunization) द्वारा इस रोग का नियंत्रण लिया गया है एवं इसके टीके लगाये जाते हैं।

उपचार (Therapy)

सीरम-प्रतिरक्षी (serum-antibodies) क्रियाओं द्वारा ( टीका लगाकर) रोग की व्यापकता को बहुत कम किया जा सकता है। रोगी को सल्फोनेमाइड्स, पेनिसिलिन, ट्रेट्रासाइक्लीन, एम्पीसिलिन, ‘क्लोरोम्फेनिकोल आदि औषधियाँ देकर उपचार किया जाता है।