neisseria meningitidis in hindi , नाइस्सेरिया मेनिंजाइटिस जीवाणु क्या है , रोग , उपचार , वर्गीकरण , लक्षण

पढ़े neisseria meningitidis in hindi , नाइस्सेरिया मेनिंजाइटिस जीवाणु क्या है , रोग , उपचार , वर्गीकरण , लक्षण ?

नाइसिरिया मेनिन्जाइटिडिस (Neisseria meningitidis)

ना. मेनिन्जाइटिडिस को मेनिन्गोकोकस भी कहते हैं, यह जीवाणु मष्तिष्क ज्वर फैलाता है। यह रोग महामारी का रूप धारण कर मानव समष्टि को हानि पहुँचाता है। इस जीवाणु की खोज 1887 में वेचसल्ब्म (Weicheselbaum) द्वारा रोगी के मेरुरज्जु द्रव में की गयी ।

आकारिकी (Morphology)

यह जीवाणु ग्रैम अग्राही अण्डाकार या गोलाकार आकृति का होता है। यह 0.6-0.8 व्यास को छोटा जीवाणु है। यह जीवाणु युग्मित अवस्था में (डिप्लोकोकस ) पाया जाता है। दो कोशिकाएँ परस्पर चपटी सतहों द्वारा निकट आकार डिप्लोकॉकस स्वरूप ग्रहण करती हैं। यह कोकॉई अचल प्रकृति के होते हैं, नयी कोशिकाओं में सम्पुट उपस्थित होता है। ये सम्पुट इन्हें श्वेत रक्ताणुओं की भक्षाणुषण (phagocytisis) क्रिया से बचाता है। यह जीवाणु नहीं बनाता।

संवर्धन लक्षण (Cultural characteristics)

यह जीवाणु केवल उन माध्यमों में वृद्धि करता है जो रक्त सीरम युक्त होते हैं। यह वायुवीय प्रकार से श्वसन करता है, इसके लिये आदर्श तापक्रम 35°C 36°C तथा आदर्श pH 7.4-7.63 होता है। वृद्धि नमीयुक्त ऊत्तकों में जहाँ 5-10% CO2 होती है अधिक होती है। ठोस माध्यम में संवर्धन के दौरान निवह छोटी, गोल, उत्तल, नीली, अल्पारदर्शी बनती हैं। निवह के किनारे चिकने व पूर्ण होते हैं। द्रव माध्यमों में निवह की वृद्धि कम होती है। रक्त ऐगार पर किये गये संवर्धन द्वारा उत्पन्न जीवाणु रक्तलयन की कुछ क्षमता रखते हैं ।

जैव-रसायनिक क्रियाएँ (Bio-chemical reactions)

ये जिलेटिन का द्रवीकरण नहीं करते, इनके द्वारा कुछ शर्कराओं का किण्वन तथा अम्ल का उत्पादन होता है। ये केटेलेज व ऑक्सीडेज क्रियाओं को प्रोत्साहित करते हैं।

प्रतिरोधकता (Resistance)

ये जीवाणु नाशकों सल्फोनेमाइड, पेनिसिलिन तथा स्ट्रेप्टोमाइसिन द्वारा सरलता से नष्ट हो जाते हैं। ये 55°C पर 5 मिनट तथा 1% फिनॉल में एक मिनट तक रखने पर नष्ट किये जा सकते हैं।

रोगजनकता (Pathogenicity)

प्रमस्तिष्क मेरू (cerebrospinal) मेन्निजाइटिस तथा संबंधित रोग मुख्यतः दो प्रकार की बीमारियाँ हैं जो मैनिन्गोकोकस द्वारा उत्पन्न की जाती है। यह रोग केवल मनुष्य में ही पाया जाता है। रोग के जीवाणु नाक या मुख से होकर प्रवेश करते हैं जो मस्तिष्क के चारों ओर उपस्थित तानिकाओं (meninges) से होकर केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र तक प्रवेश कर पाते हैं। संभवतः ये रक्त द्वारा अन्य किसी पथ से यहाँ तक पहुँच जाते हैं। तानिकाओं, तंत्रिका रज्जू तथा मस्तिष्क के वल्कुट या कॉर्टिक्स भाग पर मवाद युक्त घाव इन जीवाणुओं द्वारा करने आरम्भ कर दिये जाते हैं। मेरूरज्जु द्रव में कोकॉई मुक्तावस्था में या श्वेत रक्ताणुओं के भीतर पाये जाते हैं। अधिकतर रोगियों की म जाती है, अनेक रोगी अन्धे या बहरे हो जाते हैं। इस बीमारी के दौरान रोगी बुखार व शीत से हो जाता है। रोग के मुख्य लक्ष्यों में अत्यधिक नासिकीय स्त्रवणों का बहना, गले में दर्द, सिरदर्द . बुखार, ग्रीवा व कमर में दर्द का होना, मानसिक चेतना में कमी, लक्षणों के उत्पन्न होने के 24 घण्टे पश्चात मृत्यु हो सकती है। अतः शीघ्र उपचार किया जाना आवश्यक होता है। रोग के आरम्भ में त्वचा व श्लेष्मा झिल्लियाँ खुरदरी हो जाती है। रोग के जीवाणुओं का नेत्र, कर्ण, फेफड़े व जोड़ों आदि अंगों पर भी प्रभाव पड़ता है। यह रोग वायु या अन्य संक्रमणित पदार्थों द्वारा फैलाता है त छोटे क्षेत्र में रहने वाले समूह अथवा समुदाय में तीव्रता से सभी को अपना शिकार बना बना लेन है। यह रोग 5 वर्ष तक के लड़कों को ही अधिक लगता है गन्दी बस्तियों, कीचड़ युक्त क्षेत्रों आर में इसके फैलने की सम्भावनाएँ अधिक रहती हैं।

निदान (Diagnosis)

रोगी के मेरूरज्जु द्रव का परीक्षण का जीवाणु की पहचान की जाती है। अपकेन्द्रित (centrifuged) मेरूरज्जु द्रव से जीवाणु प्राप्त करके ग्रैम अभिरंजन देकर स्लाइड बनाने पर जीवाणुओं को विशिष्ट आकृति के द्वारा पहचाना जाता है। रक्त का संवर्धन करके, या ग्रसिका नासा मार्ग से लिये हुये तरल द्रव का संवर्धन कर भी रोग का निदान किया जाता है।

उपचार (Treatment)

आरम्भ में रोगी को सल्फोनेमाइड्स युक्त दवाईयाँ दी जाती थी किन्तु इस जीवाणु द्वारा प्रतिरोधक क्षमता प्राप्त करने के बाद अब पेनिसिलिन का उपयोग किया जाता है। शीघ्रता से रोगी का उपचार आरम्भ होने पर मृत्यु 5 से 10% ही रह जाती है अन्यथा मैनिन्जाइटिस के रोगी 80-95% मर जाते हैं।