बहुलवादी समाज | भारतीय समाज के बहुलवाद के पहलुओं पर चर्चा करें pluralistic society in hindi

pluralistic society in hindi in india बहुलवादी समाज | भारतीय समाज के बहुलवाद के पहलुओं पर चर्चा करें ?

सामाजिक व राजनीतिक क्षेत्रों में बहुवाद
यहाँ हम केवल एक राज्य के भीतर एकाधिक सामाजिक सांस्कृतिक पहचानों तथा विभिन्न एकाधिक समूहों के बीच राजनीति की अन्योन्य क्रिया को एक उत्पादनकारी व लाभकारी तरीके से नियंत्रित किया जाये, इस विषय से ही संबद्ध हैं।

इस प्रकार के ‘बहुवाद‘ को समझने के लिए हमें उस सैंद्धांतिक परंपरा और अद्वैतवादियों के अवपीड़न एकतत्त्ववाद के सन्निहित निराकरण को भी समझना पड़ता है जो इस शब्द विशेष के इर्द-गिर्द बनी हुई है। अद्वैतवादियों का कहना है कि सच्चाइयों का एक अनन्य सामञ्जस्य है जिसमें हर चीज जो सत्य है, अन्ततः समा जानी चाहिए। इस पुरातन मान्यता ने राष्ट्र-राज्य की धारणा को जन्म दिया, यथा राज्यों के लिए जरूरी है कि राजनीति हेतु असरकारी बनने के लिए एक अनन्य राष्ट्र पर आधारित हों। अद्वैतवादियों ने कहा कि केवल एक सजातीय सामाजिक-सांस्कृतिक व्यवस्था ही राजनीतिक व्यवस्था को कार्यपरक बना सकती है। दूसरी ओर, एक एकाधिक व खण्डित सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश ‘राजनीति विभाजनों की अपवृद्धि एवं मतभेदों के तीव्रीकरण‘ की ओर प्रवृत्त करता है। वैयक्तिक अधिकार संबंधी उदारवादी दृष्टिकोणों के प्रबल समर्थक, जॉन स्टुअर्ट मिल ने कहाः दृ “एक विभिन्न एवं निजी विशेषताओं से मिलकर बने देश में स्वतंत्रा संस्थाएँ असम्भव प्राय हैं। सह-भावना रहित लोगों के बीच, खासकर यादि वे विभिन्न भाषाएँ पढ़ते बोलते हैं, संयुक्त जनमत जो कि प्रतिनिधि सरकार के कार्य-संचालन के लिए आवश्यक है, हो ही नहीं सकता।‘‘ उदारवादी लोकतंत्रा तथा एकल-राष्ट्रीय राज्य के सफल मिलान संबंधी मिथक सभी उदारवादी चिंतकों को अभिभत करता है। उनके अनुसार तीसरी दनिया के समाजों की एकाधिकता एक असह्य विसंगति है। यहाँ तक कि नौरिस दुवर्जर, गैब्रील आमण्ड, लूसियन पाई, सिग्मण्ड न्यूमैन जैसे अनेक उदारवादी राजनीतिक दार्शनिक भी इस बात से सहमत हैं कि प्रभावशाली ढंग से काम करने के लिए किसी भी राजनीतिक व्यवस्था के लिए एक एकीकृत और केंद्रीकृत सामाजिक-सांस्कृतिक व्यवस्था (जिसका अर्थ है- अनन्य नृजाजीय-सांस्कृतिक व्यवस्था)की सर्वाधिक बुनियादी जरूरत है।

कुछ उदारवादी चिन्तक इस बात पर जोर देते हैं कि बहुवाद की भी अपनी मर्यादाएँ हैं। उदाहरण के लिए, हैरी एक्सटीन बहुवादी समाज को एक ‘सखंड विदलनों द्वारा विभाजित समाज‘ की संज्ञा देते हैं, जहाँ राजनीतिक विभाजन सामाजिक विभेदीकरण व विभाजन की श्रृंखला का अनुसरण करते हैं। ये विदलन प्रकृति में ‘धार्मिक, वैचारिक, भाषाई. क्षेत्रीय, सांस्कृतिक, प्रजातीय अथवा नजातीय‘ हो सकते हैं। राजनीतिक दल, स्वैच्छिक संस्थाएँ, हित समूह, संचार माध्यम तक ऐसी खण्डीय फूटों के इर्द-गिर्द संगठित होने की प्रवृत्ति रखते हैं। उन समूहों संबंधी फुर्निवाल का चरित्रा चित्राण, जो किसी एकाधिक राज्य-व्यवस्था में एक प्रभावशाली भूमिका निभाते हैं, बड़ा ही रोचक है। उनके अनुसार, एक बहुवादी समाज में हर एक समूह अपने ही धर्म, संस्कृति, भाषा, विचारों तथा तरीकों में रहने का प्रयास करता है। फिर भी यदि ‘समुदाय-विशेष के विभिन्न वर्ग पास-पास रहते भी हैं, वे एक ही राजनीतिक इकाई के भीतर पृथक् रूप से रहते हैं‘। नितान्त यथातथ्य अर्थ में ‘यह (लोगों का) एक घालमेल है, यह सत्य है कि वे मिलते-जुलते हैं परन्तु मिश्रण नहीं बनते‘।

ऐसी स्थिति में, किसी एक खण्ड द्वारा आधिपत्य अपिरिहार्य हो जाता है। समूह-संबंध एक गैर-लोकतांत्रिक तरीके से नियमित हो जाते हैं और एक समूह बाकियों पर प्रभुत्व जमा सकता है। गैब्रील आमण्ड इस प्रकार के बहुवादी समाजों को इस रूप में भी विशिष्टीकृत करते हैं – ‘विसम्मत एवं सांस्कृतिक बहुवाद द्वारा अभिलक्षित नियमित समाज‘ जबकि उनकी तुलना ‘सर्वसम्मत एवं सांस्कृतिक सजातीयता द्वारा अभिलक्षित एकीकृत समाजों‘ के साथ की जा रही हो।

 दक्षिण एशियाई स्थिति
दक्षिण एशिया का लक्षण-वर्णन प्रायः कुछ लोगों द्वारा संस्कृतियों एवं सम्यताओं के प्रतिस्पर्धारत रहने एवं संघर्षरत रहने से संबंधित गलत पात्रा के रूप में, तो दूसरे लोगों द्वारा एक क्वथन-पात्रा के रूप में किया गया है। इस भूभाग में स्थित देश त्रुटिरहित रूप से बहु-राष्ट्रीय की संज्ञा देते हैं।

मालदीव को छोड़कर बाकी सभी देशों में एक समृद्ध भाषायी विविधता पायी जाती है। पुनः, वैविध्य विषयक धर्म के लिहाज से, दक्षिण एशिया में विश्व के सभी मुख्य धर्म अपनाये जाते हैं। अधिकांश राज्यों में धार्मिक विविधता की तिरछी काट करता जाति-कारक भी विद्यमान है। धार्मिक पहचानों एवं भू-सांस्कृतिक भिन्नताओं के आधार पर दूसरे गलत दर्रे भी हैं । उक्त भूभाग स्थित मुख्य देशों में इन तत्त्वों को सामने लाना ही उचित होगा।

 भारत में बहुवाद और लोकतंत्र
भारत विश्व के मुख्य धर्मों का गढ़ है। परन्तु हिन्दू और मुस्लिम देश में धार्मिक-सांस्कृतिक आधार शिला को विभाजित करते हैं। इन दोनों सम्प्रदायों के बीच संसाधनों के लिए प्रतिस्पर्धा, मूल रूप से औपनिवेशिक काल में अभिजात्य-जनित राजनीति द्वारा प्रारंभ, ने ही ब्रिटिश औपनिवेशक भारत प्रवृत्त किया। उनमें से एक, पाकिस्तान, तदोपरांत भाषा के आधार पर विभक्त हो गया। पूर्वी पाकिस्तान के बंगाली-भाषी मुसलमान बंगलादेश बनाने के लिए बँट गए। यह एकमात्रा उदाहरण ही शायद उन तिरछी काट करती धार्मिक-सांस्कृतिक संवेदनाओं को सबसे अच्छी तरह चित्रित करता है जो दक्षिण एशियाई राजनीति सच्चाई को परिभाषित करती हैं।

भारत में, धर्म के आधार पर विभाजन के बावजूद, अभिजात वर्ग ने धर्मनिरपेक्ष, संसदीय लोकतंत्रा कायम करना सुनिश्चित किया जिसने क्रम विकास और धैर्य के लिए आवश्यक अनुकरणीय क्षमता दर्शायी है। तथापि, स्वातंत्रयोत्तर भारत में, विडम्बना ही है कि लोकतांत्रिक सरकार प्रणाली, खासकर व्यवस्था विधान चुनने के चुनावी तरीके का सहारा लेकर, सभी संभव समूह निष्ठाओं, यथा दृ जाति, वर्ग, समुदाय, क्षेत्रा, धर्म व भाषा के आधार पर ही राजनीतिक संघटन में सक्षम हुई है। इसने परिधीय पहचानों व समूहों का गहरा राजनीतिकरण किया है और राज्य-व्यवस्था को खंडित किया है। एक अन्य स्तर पर हिन्दू धर्म की एकीकारी अपील ने अंततः सांप्रदायिक एवं अंततः धार्मिक विभाजक को पाटने का प्रयास किया है। इसने, बदले में, राज्य-व्यवस्था का संप्रदायीकरण किया है और राज्य में साम्प्रदायिक संघर्ष एवं अशांत राजनीतिक व्यवस्था के रूप में बदला है।

भारतीय संघ के भीतर स्वायत्त राज्यों के गठन के लिए क्षेत्रीय माँगें भी उठी हैं। बुन्देल खण्ड, विदर्भ, (पूर्वी महाराष्ट्र), विन्ध्य प्रदेश (उत्तरी मध्य प्रदेश), तेलंगाना (उत्तर-पश्चिमी आन्ध्र प्रदेश) ऐसे ही उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। किसी न किसी मापदण्ड को ध्यान में रखकर ही अतीत में भारतीय संघ के भीतर प्रान्तों को पुनर्गठित किया गया। इसके अलावा, देश के कुछ भागों में पृथकतावादी आन्दोलन भी चल रहे हैं, जैसे उत्तर-पूर्व, जम्मू-कश्मीर तथा पंजाब में।

इस प्रकार की पिेेपचंतवने प्रवृत्तियों का मुख्य कारण लोकतंत्रा का प्रकार्यात्मकता वैकल्प तथा उद्धार करने में राज्य की घटती क्षमता रहा है। कश्मीर में उग्रवाद पनपने का मूल कारण क्षेत्रीय अभिजात वर्ग द्वारा लोकतांत्रिक प्रक्रिया में इच्छानुकूल परिवर्तन केन्द्रीय प्रशासन द्वारा इस प्रकार की दृश्यघटना की निकृष्ट और अविवेकपूर्ण अनदेखी ही था। यही बात उत्तर-पूर्वी राज्यों के विषय में भी सत्य है। इन राज्यों में मोहभंग का मुख्य कारण यह अवबोधन रहा है कि वहाँ के लोगों के साथ भेदभाव बरता गया है। स्थानीय स्तर पर शासन संकट ने एक पृथक्तावादी अभिजात वर्ग को परिधि पर ला पटका है। प्रतिरोध के सम्पूर्ण तानेबाने में बल-प्रयोग शुरू होने से भारतीय राज्य के लिए इतनी समस्याएँ पैदा कर दी गई हैं कि उतनी हल भी नहीं की गई हैं। इसने बदले में दक्षिण-पंथ और उग्रवादी राजनीति को जन्म दिया है।

हाल के वर्षों में, राजनीति में हिन्दू दक्षिण पंथ की अप्रत्याशित अधिकार-माँग कुछ निश्चित स्तरों पर हो रहे राजनीतिक परिवर्तनों की प्रकृति के एक और संकेतक के रूप में उभरी है। इसने अन्वेषकों को यह देखने के लिए मजबूर किया है कि भारत में एक प्राधान्यपूर्ण हिन्दू बहुमतवादी राजनीति एकरूपता थोपने का प्रयास करेगी। इसी के साथ, इस प्रकार की अधिकार-माँग के बावजूद धार्मिक विभाजक टिकाऊ राजनीतिक निर्वाचन क्षेत्रों में क्रम-विकसित हो गए हैं। यथा दृ यादव, भूमिहार, दलित अथवा बहुजन । वाम-पंथी अतिवादी निर्वाचन क्षेत्रा दृ नक्सल, माओ-राजनीति के क्षितिज पर बहरहाल एक और राजनीतिक वर्ग के रूप में धीरे-धीरे सर उठा रहा है। यह पुनः अपना संबंध मुख्य रूप से लोकतंत्रा के प्रकार्यात्मक विकल्प और जनता के एक अल्पसंभावित वर्ग की शिकायतों को दूर करने में राज्य की अक्षमता से जोड़ता है।