बहुलवाद की परिभाषा क्या है ? बहुलवाद किसे कहते है ? विशेषताएं अर्थ अवधारणा pluralism in hindi

pluralism in hindi बहुलवाद की परिभाषा क्या है ? बहुलवाद किसे कहते है ? विशेषताएं अर्थ अवधारणा ?

बहुवाद क्या है?
बहुवाद एक अवधारणा है जो अनेकता को समायोजित करती है और उसे अपरिहार्य मानती है। एकवाद के समर्थकों से भिन्न, जो बहुविषम पहचानों, संस्कृतियों एवं परम्पराओं की उपेक्षा करते हैं और प्रायः उन्हें एक बनावटी राजनीतिक इकाई में समेटकर रख देने के युक्तिपरक सुविचारित प्रयास करते है, बहुवाद बाहुल्य अर्थात् एकाधिकता को जीवन की एक सच्चाई मानते है। वह इस प्रकार की विविधता को संरक्षित एवं प्रोत्साहन देने का प्रयास करता है, बजाय इसके (अथवा इस कारण से अधिक) कि उनके बीच मतभेदों को संरक्षण एवं प्रोत्साहन दे। बहुवाद के क्रम-विकास का एक लम्बा इतिहास है। यह मूल रूप से हीगल के नेतृत्व वाली जर्मन आदर्श-वादी विचारधारा के एकतत्त्ववाद के खिलाफ एक विरोध-प्रदर्शन के रूप में सामने आया। १८३० का दशक आते-आते बहुवाद की धारणा ने दर्शनशास्त्रा, मनोविज्ञान और यहाँ तक कि धर्मशास्त्रा हेतू एक अभिगम के रूप में जड़ें पकड़ना शुरू कर दिया था। तब यह तर्क दिया गया कि बहुवाद की व्याख्या एक मनौवैज्ञानिक, ब्रह्माण्डकीय अथवा सैद्धांन्तिक संदर्भ में की जा सकती है। मनोवैज्ञानिक बहुवाद ने यह दावा किया कि यहाँ अन्य स्वतंत्रा अस्तित्व हैं, आत्मिक सत्त्व अथवा आत्माएँ हैं और यह भी कि उन्हें महज एक सार्वत्रिक सृष्टियात्मक जीवात्मा नहीं माना जा सकता इसी प्रकार, ब्रह्माण्डकीय बहुवाद ने तर्कपरक व्यक्तियों द्वारा आवासित विश्वों की बहुलता में विश्वास का समर्थन किया अथवा पिण्डों की विभिन्न व्यवस्थाओं (सौर मण्डल, आकाश गंगा आदि) में विश्वास का। धर्मशास्त्रीय बहुवाद ने बहुदेववाद की संकल्पना का फिर से सूत्रापात किया।

१८७० के दशक तक यूरोपीय दार्शनिकों द्वारा और अधिक तात्विक मंथन के बाद, बहुवाद ने अपनी छाप अन्य क्षेत्रों में भी छोड़ी, जैसे दृ विभिन्न सामाजिक विज्ञान । जॉन ड्यूवे ने इसे भिन्नताओं एवं विविधता पर जोर दिए जाने की एक प्रवृत्ति के रूप में अलग रखा और कहा कि बहुवाद ने “इस सिद्धांत को जन्म दिया कि सच्चाई विभिन्न व्यक्तियों की भिन्नता अथवा विविधता में ही निहित है।‘‘ बहुवाद ने व्यवहार मूलक राजनीति के अधिकारक्षेत्रा में अपना रास्ता १९वीं शताब्दी के आरम्भ में बनाया। हैरॉल्ड लास्की, फ्रेडेरिक मैत्लां, जी.डी.एच. कोल, सिडनी एवं तीतरिस वैब तथा अन्य ने संप्रभुता संबंधी अद्वैत सिद्धांत के सार भाग की आलोचना की जो कि राज्य की संप्रभुता को अवियोज्य और अविभाज्य बताते थे। उनके अनुसार, राज्य की सत्ता राजनीतिक अधिकारक्षेत्रा में अन्य सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक आयकर्ताओं के प्रभाव द्वारा सीमाबद्ध है। साथ ही उनका तर्क है कि यह राज्य के ही हित में है कि इन एकाधिक संस्थाओं की सत्ता की स्वीकार करे।

प्रस्तावना
दक्षिण एशिया में अधिकांश देश बहु सांस्कृतिक एवं बहु राष्ट्रीय हैं। ये देश एकाधिक समाजों, समुदायों अथवा संस्कृतियों से मिलकर बने हैं। चलिए, उन्हें समूह कह कर पुकारते हैं। उनकी अपनी स्वतंत्रा सांस्कृतिक विशेषताएँ तथा वैश्विक दृष्टिकोण हैं। इस प्रकार की अनेकता को कुशल प्रबंधन की आवश्यकता होती है, विशेषरूप से इसलिए कि वह इन विषम समूहों के बीच अपरिहार्य प्रतिस्पर्धा तथा प्रायः संघर्ष की ओर प्रवृत्त करती है। दक्षिण एशिया में राजनीतिक प्रणालियाँ आम तौर पर बहुसंख्यक वर्ग के पक्ष में झुकी हुई हैं। जीवन का एक अन्य दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य यह है कि एक समूह का अन्य समूहों पर संख्यात्मक बाहुल्य है। पाकिस्तान के उदाहरण में ये पंजाबी हैं, भूटान के उदाहरण में ये भूटानी हैं, बांग्लादेश के मामले में ये बंगाली-भाषी मुसलमान हैं और श्री लंका के मामले में ये सिंहली हैं। यह बात अल्पसंख्यक वर्गों के बीच असुरक्षा का भाव जगाती है।

बहुसंख्यक समुदाय आंतरिक रूप से विभाजित भी हैं और उन्हें अनेक ऐसे समूहों व उप-समूहों में बाँटा जा सकता है जो अपने-अपने तरीकों से सत्ता और प्रभाव के लिए स्पर्धा करते हैं। विभिन्न समूहों के बीच संघर्ष ने इन राष्ट्रीय एकीकरण प्रयासों के सामने समस्याएँ पैदा की हैं, साथ ही राष्ट्रीय सुरक्षा को प्रभावित किया है। दक्षिण एशियाई राज्यों ने एक राज्य-समर्थित प्रक्रिया के माध्यम से इस प्रकार की प्रतिस्पर्धात्मक एकाधिकता पर नियंत्राण पाने के लिए राजनीतिक रूप से प्रयास किए हैं, जिसे प्रायः ‘राष्ट्र-निर्माण‘ कहा जाता है। ऐसे प्रयासों का मूल दबाव इस बात पर रहा है कि एक प्रबल बोधन को दूसरों की तुलना में विशेषाधिकार प्रदान कर दिया जाये तथा मतभेदों की उपेक्षा की जाये। सभी सांस्कृतिक एवं राष्ट्रीय पहचानें एक अद्वितीय समग्रता में सिमट आयें, यथा ‘एक राष्ट्र‘ । ऐसे स्वांगीकारक राष्ट्र-निर्माण प्रयास असफल रहे हैं क्योंकि ‘राष्ट्र‘ संबंधी इस प्रकार के राज्य-समर्थित विचार सभी समूहों को आकर्षित कर पाने में नाकामयाब रहे हैं। बाहुल्य के सामने चुनौती मूलतः राज्य द्वारा इसी प्रकार के दिग्भ्रमित प्रयासों से ही उत्पन्न होकर आन खड़ी हुई है।

इस प्रकार एक समंजनवादी मनःस्थिति बनाने और एकाधिकता को सांस्कृतिक स्तरों पर मान्यता दिए जाने की आवश्यकता है। राज्य को निष्पक्ष रहना चाहिए और बहुलता एवं विविधता को स्वीकार, समायोजित, रक्षा प्रदान तथा प्रोत्साहन प्रदान करना चाहिए, न कि उन्हें समांगी बनाने एवं आत्मसात करने का प्रयास करता चाहिए। ऐसे अनेक प्रत्ययात्मक आदर्श हैं जो इस प्रकार के बाहुल्य प्रबंधन से वास्ता रखते हैं और हमारे ध्यान व ज्ञान के योग्य हैं। इन राज्यों को एक ऐसे संतुलित राज्य प्राधार की जरूरत है जो सभी के लिए समंजनकारी हो और किसी के लिए भी पक्षपातकारी न होय साथ ही एक राजनीतिक व्यवस्था की जरूरत है जो प्रत्येक सदस्य व समूह की नागरिक स्वतंत्राताओं की रक्षा करे। निम्नलिख्ति चर्चा यहाँ व्यक्त किए गए इन्हीं विचारों की व्याख्या करती है।

दक्षिण एशिया में बहुवाद नियंत्रण के समक्ष चुनौतियाँ
इकाई की रूपरेखा
उद्देश्य
प्रस्तावना
बहुवाद क्या है?
सामाजिक व राजनीतिक क्षेत्रों में बहुवाद
दक्षिण एशियाई स्थिति
भारत में बहुवाद और लोकतंत्रा
अन्य देशों में बहुवाद और लोकतंत्रा
चुनौती प्रबंधन: एक संकल्पनात्मक उपकरण
सारांश
कुछ उपयोगी पुस्तकें
बोध प्रश्नों के उत्तर

उद्देश्य
इस इकाई में उन चुनौतियों पर चर्चा की गई है जो बहुवाद पर नियंत्राण पाने में दक्षिण एशिया के देशों के समक्ष खड़ी हैं। इसको पढ़ने के बाद आप इस योग्य होंगे किः
ऽ बहुवाद का अर्थ,
ऽ दक्षिण एशियाई देशों में बहुवाद,
ऽ बहुवाद की चुनौती का जवाब देने के लिए सैद्धांतिक आदर्शो, तथा
ऽ बहुवाद के समक्ष चुनौती पर काबू पाने के दक्षिण एशियाई देशों के प्रयासों को जान सकें।

बोध प्रश्न १
टिप्पणीः क) अपने उत्तर के लिए नीचे दिए गए रिक्त स्थान का प्रयोग करें।
ख) अपने उत्तर के लिए इकाई-अंत में संकेत देखें।
१) बहुवाद से आप क्या समझते हैं?
२) दक्षिण एशिया में बहुवाद की चुनौतियाँ क्या हैं?

बोध प्रश्नों १ उत्तर
१) बहुवाद का अर्थ है – लोगों के बीच बहुलता की विद्यमानता, जो कि समाज में धर्म, भाषा, संस्कृति, परम्पराओं, रीति-रिवाजों, आदि पर आधारित होती है। यह विविधता से भिन्न होती है। जबकि परवर्ती भिन्नताओं के वजूद की ओर इशारा करती है, बहुवाद राजनीतिक अधिकारों के साथ ही भिन्नताओं का अस्तित्व होने की ओर संकेत करता है।

२) दक्षिण एशिया के सभी देश भाषा, धर्म, संस्कृति, रीति-रिवाजों, परम्पराओं, आदि के आधार पर सामाजिक समूहों के बीच समाज में दरारों से घिरे हैं। राजनीतिक अभिजात वर्ग उन्हें अपने लाभ के लिए इच्छानुकूल कर लेते हैं, जो लोगों के अधिकारों तथा लोकतंत्रा को भारी हामिहुँचाता है।