पादप पुरःस्थापन क्या है? पादप पुरःस्थापन की उपलब्धियों गुणों व दोषों का वर्णन कीजिए plant introduction and acclimatization in hindi

plant introduction and acclimatization in hindi पादप पुरःस्थापन क्या है? पादप पुरःस्थापन की उपलब्धियों गुणों व दोषों का वर्णन कीजिए ?

पादप पुरस्थापन एवं दशानुकूलन (Plant Introduction and Acclimatization) :

पादप पुरस्थापन की प्रक्रिया में वस्तुतः किसी भी कृष्य पौधे के नये जीनोटाइप (Genotype) या जीन प्रारूप का स्थानांतरण अपने पूर्वजीय स्थान से बिल्कुल नये प्राकृतिक आवास में उगाने के लिए किया जाता है। दूसरे शब्दों में इस विधि के अन्तर्गत फसल उत्पादक पौधे की नई किस्म (New Variety) को अनजान स्थान पर उगाया जाता है। दूसरे स्थान से लाई गई स्थानांतरित इस नई किस्म को बाह्य किस्म (Exotic Variety) कहते हैं । अतः वह प्रक्रिया जिसमें कृष्य पौधे (Cultivated plant) के विशेष जीन प्ररूप (Genotype) के समूह को अपने मूल निवास से एक नये स्थान पर उगाया जावे जहां इसका प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष उपयोग कृषि के लिए किया जा सके पुरस्थापन (Introduction) कहलाती है।

इस प्रकार नई पादप किस्म का प्रवेश सर्वथा नई जलवायु में होता है

नवीन विविधतायुक्त, परिवर्तित परिवेश में पौधे की नई किस्म जिस प्रकार से अपना सामंजस्य स्थापित करती है, बदलती हुई परिस्थितियों में अपने आप को ढाल लेती है, तो इस प्रक्रिया को दशानुकूलन (Acclimatization) कहते हैं।

यदि पुरस्थापन हेतु प्रयुक्त कृष्य पौधे को विदेश से लाकर लगाया जावे तो इसे विदेशज पादप (Exotic plant) कहते हैं तथा ऐसे पौधों के संग्रह को विदेशज संग्रह ( Exotic collection) कहा जाता है। परन्तु देश के किसी भी भाग से पौधे उसी देश के दूसरे हिस्सों में पुरस्थापित किये जावें तो ऐसे स्थानांतरित पौधों को देशज पादप (Indigenous plants) कहते हैं तथा इनके संग्रह को देशज संग्रह (Indigenous collection) कहते हैं । विभिन्न प्रकार के बीजों एवं कृष्य पौधों पुरस्थापन में इस तथ्य का विशेष ध्यान रखा जाता है कि ये किस्में अधिकतर पर-परागण वाली होनी चाहिए, जिससे इनके बीच व्यापक पुनर्योजन (Recombination) की प्रबल सम्भावना बनी रहे एवं बदलती हुई नवीन परिस्थितियों में उत्पन्न संतति पीढ़ी स्वस्थ एवं सबल हो सके।

पुरस्थापन के लिए वांछित नई किस्मों को अधिकांशतया विदेशों से मंगाया जाता है तथा अपने परिवेश के अनुसार इनको उगाया जाता है। या तो इन नई किस्मों का उपयोग सीधे ही नई फसल प्राप्त करने के लिए किया जाता है अथवा फिर देश में उपस्थित पूर्ववर्ती किस्मों के पौधों से इनका संकरण करवा कर एक नई किस्म (जिसमें दोनों जनक पादपों के उपयोगी गुण मौजूद हों) प्राप्त की जाती है। पुरस्थापन की क्रिया एक देश से दूसरे देश में, या किसी देश के एक राज्य से दूसरे राज्य में करवाई जा सकती है।

सामान्यतया पुरस्थापन (Introduction) की प्रक्रिया को निम्न दो श्रेणियाँ में विभेदित किया जा सकता है:

(1) प्राथमिक पुरःस्थापन (Primary Introduction)

इस प्रक्रिया के अन्तर्गत नवीन पुरःस्थापित पादप किस्म को दशानुकूलन या नये वातावरण में सामंजस्य स्थापित (Adjustment) कर लेने के बाद सीधे ही नई फसल उगाने के लिए काम में ले लिया जाता है, अर्थात् कृष्य पौधे की किस्म का वर्तमान स्वरूप बरकरार रखा जाता है। इसके जीनोटाइप में कोई परिवर्तन नहीं किया जाता। मैक्सिकन गेहूँ की किस्म “लारमा रोजो ” एवं “सोनारा-64” प्राथमिक पुर: स्थापन के सुन्दर उदाहरण हैं।

(2) द्वितीयक पुरःस्थापन (Secondary Introduction)

इस विधि में और भी अच्छी एवं उपयोगी कृष्य पादप किस्म को प्राप्त करने के लिए नई विदेशज पुरःस्थापित किस्म ( Introduced Exotic Variety) का चयन किया जाता है एवं इसके बाद दशज किस्म (Indigenous variety) से इसका संकरण करवा कर एक सर्वथा नवीन एवं सर्वोत्तम कृष्य पादप किस्म प्राप्त की जाती है। आजकल इस प्रक्रिया का अधिकांशतया उपयोग किया जाता है, परिणामस्वरूप विदेशज (Exotic) किस्मों के वांछित उपयोगी गुण एवं देशज पौधें के सर्वोत्तम गुणों की संकर संतति पौधे में एक साथ प्राप्ति हो जाती है । उदाहरण – कल्याण सोना (SK-227) गेहूँ एवं चावल की किस्म “I.R.8” ।

कृषि उत्पादन में वृद्धि एवं गुणवत्ता के लिए सामान्यतया द्वितीयक पुरस्थापन को ही सर्वथा उपयुक्त माना जाता है, क्योंकि सर्वथा विदेशज पादप किस्म नये वातावरण में विरल तथा दुर्लभ उदाहरणों में या अपवाद-स्वरूप ही सफल होते देखी गई है। अधिकांश उदाहरणों में शुद्ध विदेशज पादप नई परिस्थितियों एवं वातावरण में सामंजस्य स्थापित नहीं कर पाते एवं समाप्त हो जाते हैं।

हमारे देश में पिछली कई शताब्दियों से विदेशज (Exotic) पौधों के पुरस्थापन की प्रक्रिया लगातार चली आ रही है, पुर्तगालियों के द्वारा, मक्का, मूँगफली, काजू, आलू एवं मिर्च तथा अंग्रेजों के द्वारा चाय एवं लीची जैसे उपयोगी पौधे हमारे देश में पुरःस्थापित किये गये । परन्तु यहाँ क्रमबद्ध एवं सुव्यवस्थित पुरःस्थापन का कार्य विधिवत् ढंग से सन् 1964 में प्रारम्भ हुआ जब भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (IARI), नई दिल्ली में अलग से एक वनस्पति पादप पुर:स्थापन प्रभाग (Botany Plant Introduction Division) की स्थापना की गई। इसके बाद सन् 1976 में राष्ट्रीय पादप आनुवंशिक संसाधन ब्यूरो (NBPGR) की स्थापना के साथ ही पादप पुरःस्थापन के क्षेत्र में एक नई चेतना आई । इस संस्थान का मुख्यालय IARI नई दिल्ली में ही है तथा शिमला (हिमाचल प्रदेश), जोधपुर (राजस्थान), कन्याकुमारी (तमिलनाडु) तथा अकोला महाराष्ट्र में इसके चार उपकेन्द्र भी हैं। इसके अतिरिक्त राष्ट्रीय वानस्पतिक अनुसंधान संस्थान (NBRI) लखनऊ, वन अनुसंधान संस्थान (FRI), देहरादून तथा भारतीय वनस्पति सर्वेक्षण (BSI), कलकत्ता, इत्यादि ऐसे प्रमुख राष्ट्रीय स्तर के संस्थान हैं, जहाँ पादप पुरः स्थापन की विधि का गहन अध्ययन किया जा रहा है। इसके साथ ही उपरोक्त संस्थाएँ पादप पुर: स्थापन के कार्य को राष्ट्रीय हित, सुस्पष्ट नीति एवं वैज्ञानिक विधि का ध्यान रखते हुए सम्पन्न करती हैं।

पादप पुर: स्थापन की क्रियाविधि (Procedure of Plant Introduction)

उपयोगी कृष्य पौधे की प्रकृति एवं पादप प्रजनन की आवश्यकता के अनुसार किसी भी प्रारूप में पादप या इसके किसी भाग को पुर:स्थापित किया जा सकता है, जैसे-कलम (कटिंग), बीज, कंद, परागकण, एवं जड़ें या कलिकाएँ आदि । किसी दूसरे देश अथवा संस्था से पादप सामग्री को प्राप्त करने के लिए निम्न आवश्यक सोपानों (Steps) का अनुसरण किया जाता है :

(1) पादप सामग्री की प्राप्ति (Procurement of Plant Material)

किसी बाहरी देश अथवा संस्था से पादप सामग्री उसी अवस्था में मंगवाई जाती है, जबकि उस कृष्य या उपयोगी पौधे की वह किस्म विशेष रूप से अपने देश में उपलब्ध नहीं हो, अथवा इनमें वांछित पादप सामग्री को दूसरे देश से खरीद कर या विनिमय द्वारा भेंट (Gift) के रूप में या खोज यात्राओं (Explorations) के द्वारा प्राप्त किया जाता है। नई पादप किस्में बीज, कलम (Cuttings), कंद (Tuber) व परागकण के रूप में लाई जाती हैं। इनमें से बीज अपेक्षाकृत आसानी से लाये एवं संग्रहीत किये जा सकते हैं। कृष्य पौधों की सर्वप्रचलित एवं प्रमुख क्रियाविधि को ध्यान में रखते हुए ही इनके पादप भागों को लाने की व्यवस्था की जाती है। जनन हेतु प्रयुक्त इन (Propagules) की प्रकृति भी अलग-अलग प्रकार की होती है। लैंगिक जनन वाली फसलों जैसे मक्का, गेहूं व पादप भागों को प्रवर्ध्य (Propagules) कहते हैं। विभिन्न कृष्य पौधों के पुर: स्थापन के लिए प्रयुक्त प्रवर्थ्यां मटर इत्यादि में बीजों (Seeds) का प्रयोग किया जाता है जबकि आलू, गन्ना व आम जैसे पौधों के लिए कलम (Cutting) रनर एवं कंद इत्यादि कायिक प्रर्वध्यों (Vegetative propagules) का उपयोग किया जाता है।

हमारे देश में राष्ट्रीय पादप आनुवंशिक संसाधन ब्यूरो (National Board of Plant Genetic Resources NBPGR) विदेशों से पादप सामग्री को उपलब्ध करवाने में माध्यम का कार्य करती है। इसके अतिरिक्त कुछ संस्थाओं एवं शोधकर्ताओं को पादप सामग्री सीधे ही बाहर से मँगवाने की सुविधा है, परन्तु ऐसी पादप सामग्री के रोग मुक्त होने का प्रमाण-पत्र (Phytosanitary Certificate) संलग्न होना आवश्यक है।

  1. संगरोध या क्वारेन्टीन (Quarantine)

विदेशज पादप सामग्री (Exotic material) के अपने देश में आगमन के अतिरिक्त इसके साथ-साथ अवांछित कीट, कवक बीजाणु, जीवाणु एवं हानिकारक वाइरसों के आने का खतरा भी बना रहता है। इसके निराकरण (Remedy) के लिए पादप सामग्री को क्वारेन्टीन के एकांत एवं निजर्म वातावरण में रखकर इसे रोग- रहित किया जाता है। विदेशों से आने वाली पादप सामग्रियों की अन्तर्राष्ट्रीय हवाई अड्डों (International Airports), सीमा सड़क (Border) एवं बंदरगाहों पर कड़ी जाँच की जाती है। पुर: स्थापन के लिए आवश्यक रोग मुक्त होने का प्रमाण-पत्र पादप सामग्री के साथ सलंग्न निर्दिष्ट मानदण्डों व नियमों का कड़ाई से पालन किया जाता है, एवं सतर्कता पूर्वक जाँच की जाती है। उपयुक्त मानकस्तर (Proper standard) के अनुरूप नहीं होने पर इस पादप सामग्री को नष्ट कर दिया जाता है, या वापस उसी देश में भेज दिया जाता है जहाँ से यह प्राप्त हुई थी। प्रमाणित पादप सामग्री पर बाद में उचित रसायनों का छिड़काव रोग व कीड़े-मकोड़ों से बचाने के लिए किया जाता है। संगरोध अथवा क्वारेन्टीन नियमों के अन्तर्गत विदेश से आयी पादप सामग्री को फिर से उगा कर जाँच की जाती है। कुछ कृष्य पादप किस्मों, जैसे- रबर व गन्ना को हमारे देश में आयात के लिए प्रतिबंधित किया गया है।

  1. सूचीबद्ध करना (Cataloguing)

बाहर से प्राप्त क्वारेन्टीन प्रमाणित पादप सामग्री जब पुर: स्थापन के लिए प्राप्त होती है तो इसे एक विशेष पंजीकरण या सूचीकरण संख्या (Acession number) प्रदान की जाती है। इसके पहले या प्रत्यय (Prefix) के रूप में EC (Exotic Collection), IC (Indigenous Collection) या IW ( Indigenous Wild) लिखा जाता है, जिससे यह ज्ञात होता है कि यह पादप सामग्री विदेशी (EC) या देशज कृष्य (IC) या देशज वन्य (IW) सामग्री है। इसके साथ ही उस पादप सामग्री की वानस्पतिक सूचना (Botanical information) भी दी जाती है, जैसे प्रजाति का नाम, उत्पत्ति स्थान, अनुकूलनशीलता इत्यादि एवं अंततः इस सूचना का अभिरक्षण (Maintenance) कर लिया जाता है। ये सभी सूचनाएँ संकरण के समय आवश्यक होती है।

  1. मूल्यांकन (Evaluation)

पादप पुर:स्थापन हेतु प्राप्त प्रमाणित सामग्री का उपयुक्त मूल्यांकन NBPGR दिल्ली एवं भारत में अवस्थित इसके उपकेन्द्रों द्वारा इसकी उपयोगिता एवं देश के वातावरण को ध्यान में रखकर किया जाता है। यदि पुर: स्थापन हेतु प्राप्त पादप सामग्री देश के वातावरण के अनुकूल नहीं होती, तो विभिन्न विधियों जैसे- फसल का जीवन चक्र, परागण, उत्परिवर्तन या आनुवंशिक भिन्नताओं को प्रयुक्त कर इसका दशानुकूलन किया जाता है

  1. गुणन तथा वितरण (Multiplication and Distribution)

उपयुक्त प्रक्रियाओं के अनुसरण के बाद पुर: स्थापित एवं दशानुकूलित (Acclimatized), कृष्य पादप किस्म के पौधों का गुणन (Multiplication) किया जाता है तथा हमारे देश के प्रमुख संसाधन केन्द्रों एवं कृषि शोध संस्थानों द्वारा इनका   प्रजनन कार्य के लिए वितरण किया जाता है।

पादप पुरः स्थापन के प्रमुख उद्देश्य (Main Objectives of Plant Introduction)

सामान्यतया पादप पुर:स्थापन का प्रमुख उद्देश्य देश की पादप सम्पदा को विविधतापूर्ण एवं समृद्धिशाली बनाना है, परन्तु इसके मुख्य उद्देश्य निम्न प्रकार से है :-

(1) नई फसल प्राप्त करना – अधिकांशतया बाहर से लाई गई उपयोगी पादप किस्में एक सवथा नवीन पादप प्रजाति के रूप में होती हैं, जिसकी फसल यहाँ उत्पन्न करना देश के लिए उपयोगी होता है। हमारे देश में अनेक उपयोगी पौधों को विदेशों से लोकर उनका कृषि उत्पादन प्रारम्भ किया गया है, जैसे- मक्का, आलू, , टमाटर व सोयाबीन आदि ।

( 2 ) नई पादप किस्मों का विकास – पुर: स्थापित उपयोगी पादप किस्मों का स्थानीय किस्मों से संकरण करवा कर और बेहतर संकर पादप किस्में प्राप्त की जा सकती है। जैसे टमाटर में पूसा रूबी किस्म । कुछ उदाहरणों में ऐसा पुर:स्थापित जर्म-प्लाज्म जो शीघ्र ही प्रयुक्त नहीं हो सकता, उसे परिरक्षित (Preserved) कर, भावी पादप प्रजनन योजना में काम लिया जाता है। जैसे- चावल की IR-8 व TN – 1 किस्में |

( 3 ) सौन्दर्यबोध (Aesthetic sense)—– अनेक खूबसूरत विदेशी सजावटी पौधों, झाड़ियों एवं पुष्पीय पौधों, जैसे- डेफेनबेकिया, मेरेन्टा, जिरेनियम व गुलाब की अनेक किस्मों का पुर: स्थापन सौंदर्य अभिरुचि के लिए किया गया है।

( 4 ) शोध एवं वैज्ञानिक अध्ययन के लिये भी पुर: स्थापन किया जाता है

( 5 ) औषधिक महत्त्व के वे पौधे जो हमारे देश में नहीं पाये जाते, उनको यहां पुरःस्थापित कर औषधि निर्माण में प्रयुक्त किया जा सकता है।

( 6 ) अनेक फसलों को रोग व कीड़े-मकोड़ों से बचने में पादप पुर: स्थापन की विशेष भूमिका होती है।

(7 ) पादप पुर:स्थापन के माध्यम से कृष्य पौधों के वितरण एवं इनके उत्पत्ति केन्द्रों (Centres of origin) को ज्ञात करने में सहायता मिलती है।

पादप पुरःस्थापन के गुण एवं दोष (Merits and Demerits of Plant Introduction)

(A) गुण (Merits)

(1) इस प्रक्रिया के द्वारा तुरन्त ही एक नई फसल की किस्म प्राप्त होती है ।

(2) पुरःस्थापित पादप का चयन एवं संकरण के बिना ही इसे एक उन्नत किस्म के रूप में काम में लिया जा सकता है।

(3) यह फसल सुधार के लिए त्वरित, आर्थिक रूप से उपयोगी एवं सरल विधि है।

(4) इससे जर्मप्लाज्म संरक्षण को प्रोत्साहन मिलता है ।

(5) पादप महामारी के समय रोग रहित क्षेत्रों में पुरःस्थापित पौधों को काम में लेकर हानि को कम किया जा सकता है

(B) दोष (Demerits)

(1) पुर: स्थापित फसल उत्पादक पौधों द्वारा कई बार बाहरी पादप रोग का संक्रमण तेजी से फैलता ह जैसे-आलू की पछेती अंगमारी (Late blight of Potato) नामक रोग यूरोप से सन् 1887 में भारत आया था। यह रोग फाइटोप्थोरा कवक द्वारा फैलता है। अब यह कवक भारत में अन्य फसलों में रोगकारक है । सन् 1940 में बंची टॉप (Bunchy Top) रोग भारत में पुरःस्थापन से फैला जो कि केले की फसल को बहुत नुकसान पहुंचाता है। कॉफी का पत्ती रोग, जिसका रोगकारक हिमिलिया वेस्टेट्रिक्स (Hemileia vastatrix ) है, भारत में सन् 1876 में श्रीलंका से आया। इसी प्रकार भारत में उत्तरी पहाड़ी इलाकों में सेव व नाशपाती में होने वाला भयंकर रोग ‘फायर ब्लाईट’ जिसका रोग कारक ईरविनिया एमाइलोवोरा (Erwinia amylovora) होता है, इंग्लैण्ड से सन् 1940 में भारत में फैला।

(2) अनेक विदेशी अपतृण या खरपतवार (Exotic weeds) आयातित फसलों के साथ देश में फैल गये हैं, जैसे- गाजरघास (Parthenium hysterophorus) एवं पीली कटेली (Argemone ) इत्यादि । इसी प्रकार गेहूँ के साथ खरपतवार फैलेरिस माइनर (Phalaris Minor) U.S.A. से भारत में आया।

(3) आयातित पादप किस्मों के साथ अनेक हानिकारक कीट (Insects & Pests) जैसे-आलू कंद मोथ (Potato tuber moth) एवं सेब के Wooly aphids इत्यादि का प्रकोप देखा गया है। इसी प्रकार नींबू का फ्ल्यूटेड स्केल कीट (Fluted scale pest) भारत में सुनू 1928 में आस्ट्रेलिया से आया।

अभ्यास-प्रश्न

अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न (Very short answer questions) :

  1. प्रजातियों के उत्पत्ति केन्द्रों को सुस्थापित करने का श्रेय किस वैज्ञानिक को दिया जाता है?
  2. राष्ट्रीय पादप आनुवंशिक संसाधन ब्यूरो कहां स्थित है ?
  3. IR-8 एवं TN-1 किस पादप की नई किस्में है ?
  4. पादप प्रजनन की प्रमुख विधियाँ कौन सी हैं, नाम लिखिए?
  5. कृष्य पौधों के उत्पत्ति केन्द्र की परिभाषा दीजिए ।
  6. पादप पुर:स्थापन क्या है ?

लघूत्तरात्मक प्रश्न ( Short Answer Questions ) :

  1. वेवीलोव की उत्पत्ति केन्द्र अवधारणा के बारे में समझाइए ।
  2. पादप पुर: स्थापन के प्रमुख उद्देश्य बताइए ।

3.पादप पुर: स्थापन के गुण एवं दोष बताइए ।

  1. क्वारेन्टीन का विवरण दीजिए ।

निबन्धात्मक प्रश्न (Essay type Questions ) :

1.पादप पुर:स्थापन को परिभाषित करते हुए इसकी क्रियाविधि को समझाइए ।

  1. कृष्य पौधों के उत्पत्ति केन्द्रों का वर्णन कीजिए ।
  2. पादप प्रजनन की विभिन्न विधियों को संक्षेप में समझाइए ।

अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न :

उत्तरमाला (Answers)

  1. वेवीलोव
  2. नई दिल्ली
  3. चावल की
  4. पादप पुरस्थापन एवं दशानुकूलन, चयन अथवा वरण, संकरण, बहुगुणिता, उत्परिवर्तन।