पादप प्रजनन के सामान्य सिद्धान्त एवं विधियाँ क्या है , general principles and methods of plant breeding in hindi

general principles and methods of plant breeding in hindi पादप प्रजनन के सामान्य सिद्धान्त एवं विधियाँ क्या है ?

पादप प्रजनन के सामान्य सिद्धान्त एवं विधियाँ (General Principles and Methods of Plant Breeding)

इस तथ्य से हम भली भाँति अवगत हैं कि पादप प्रजनन की विधा का प्रमुख उद्देश्य आर्थिक महत्त्व के पौधों की गुणवत्ता एवं उत्पादन में वैज्ञानिक प्रक्रियाओं को अपनाते हुए सुधार लाना है। हमारे देश के विद्वान एवं समर्पित पादप प्रजनन विज्ञानियों द्वारा किये गये भागीरथ प्रयत्नों के परिणामस्वरूप हमारी कृषि उपज में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। पादप प्रजनन के अन्तर्गत पौधों की ऐसी किस्मों का विकास किया जाता है जो कि अपनी पूर्व स्थापित किस्मों की तुलना में लगभग सभी प्रकार से बेहतर होती है। अत: पादप प्रजनन की विभिन्न प्रक्रियाओं को अपना कर उपयोगी पौधों की नई किस्मों में इस श्रेष्ठता को प्राप्त किया जा सकता है। सामान्यतया विभिन्न प्रक्रियाओं एवं पादप प्रजनन विधियों को निम्न श्रेणियों में विभेदित किया जा सकता है :-

  1. पादप पुरस्थापन एवं दशानुकूलन (Plant introduction and Acclimatization)
  2. चयन अथवा वरण ( Selection )
  3. संकरण (Hybridization)
  4. बहुगुणिता (Polyploidy)
  5. उत्परिवर्तन (Mutation)

आर्थिक रूप से उपयोगी फसलों की विभिन्न किस्मों में वांछित सुधार के लिये पादप-प्रजनन विज्ञानी उपरोक्त विधियों में से कोई भी प्रक्रिया को अपना सकते हैं। पादप प्रजनन की किसी भी सामान्य विधि को फसल की किस्म को सुधारने हेतु प्रयुक्त करने से पहले इस तथ्य का विशेष ध्यान रखना होता है कि यह विधि विशेष फसली पादप किस्म के लिए पूरी तरह अनुकूल हो ।

इसके अतिरिक्त एक जागरूक एवं विलक्षण पादप-प्रजनन विज्ञानी को विभिन्न उपयोगी फसल उत्पादक पौधों के उत्पत्ति केन्द्र या कृष्य पौधों के उत्पत्ति केन्द्र (Centres of Origin of cultivated crops) के बारे में पूरी तरह जानकारी होनी चाहिए। उपरोक्त वर्णित विधियों के बारे में आवश्यक जानकारी निम्न प्रकार से हैं

  1. पुरस्थापन एवं दशानुकूलन (Introduction and acclimatization)

किसी भी पादप प्रजाति के आर्थिक महत्त्व एवं मानव कल्याण के लिये उसकी उपयोगिता की विवेचना एवं विश्लेषण करने से पूर्व हमें यह अध्ययन कर लेना चाहिये कि इसकी पूर्ववर्ती किस्में एवं जनक पीढ़ियाँ प्राकृतिक रूप से कौन से आवासीय स्थलों में पाये जाते थे तथा मनुष्य ने अपने उपयोग के लिए इनको किस प्रकार से उगाना प्रारम्भ किया या इन जंगली किस्मों को किस प्रकार से पालतू बनाया अथवा इन पौधों का ग्राम्यन (Domestication) किस प्रकार सम्भव हुआ होगा। यहाँ ग्राम्यन (Domestication) से हमारा तात्पर्य है उपयोगी पौधों को प्राकृतिक या जंगली आवासों से चयनित कर आसपास के सुविधाजनक स्थानों पर उगाना एवं स्वयं देखभाल करना, दूसरे शब्दों में ‘खेती करना । ‘

मानव सभ्यता के विकास के प्रारम्भिक चरण में मनुष्य ने अपनी आवश्यकतानुसार उपयोगी जंगली पौधों को कृषि के लिए प्रयुक्त करना प्रारम्भ किया। आगे चलकर जरूरतों को ध्यान में रखते हुए, इन फसल उत्पादक पौधों (Crop plants) के वांछित गुणों (Desired characters) का चयन किया गया एवं इनकी गुणवत्ता को सुधार कर नई पादप किस्मों का विकास किया गया। अतः पौराणिक काल से ही जाने-अनजाने विभिन्न पौधों की वन्य किस्मों (Wild varieties) से उपयोगी फसल उत्पादक पौधों का विकास होता रहा है एवं अधिकाधिक जानकारी जैसे-जैसे प्राप्त हुई तो यह कार्य सुव्यवस्थित वैज्ञानिक प्रक्रियाओं के द्वारा किया जाने लगा। वन्य किस्मों के मानव द्वारा हजारों वर्षों से किये जा रहे ग्राम्यन (Domestication) के विभिन्न प्रयत्नों के परिणामस्वरूप यह देखने में आया है कि कृष्य पौधों (Cultivated varieties of plants) के विभिन्न लक्षणों में वन्य किस्मों से पर्याप्त भिन्नताएँ स्वत: उत्पन्न हो गई हैं जैसे कुल कुकरबिटेसी के पौधों में विषालु पदार्थों (Toxic substances) की कमी होना या पौधों की आकारिकी (Morphology) में उत्पन्न परिवर्तन एवं इसके अतिरिक्त कुछ पौधों जैसे आलू एवं गन्ना में कायिक जनन अधिक परिष्कृत रूप में पाया जाता है। अधिकांश कृष्य पौधों में जीवन चक्र का बदलाव भी तुलनात्मक रूप से देखा गया है।

वन्य पौधों के ग्राम्यन से आनुवांशिक लक्षणों की भिन्नताएँ धीरे-धीरे कम होती जाती हैं। यही नहीं, वन्य किस्मों की तुलना में किसी भी पौधे की कृष्य किस्मों (Cultivated Varieties) की रोग प्रतिरोधी क्षमता भी कम होती है।

वर्तमान समय में भी मनुष्य द्वारा वन्य जातियों का ग्राम्यन (domestication) जारी है, जिनसे मनुष्य अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करता है। उदाहरणार्थ-कुछ वर्षों पूर्व रबड़ क्षीर (Latex) उत्पन्न करने वाले वन्य पौधों (हिबिया जातियाँ, जेट्रोफा करकस व यूफोरबिया लेथाइरस) का ग्राम्यन किया गया है, जिनसे मनुष्य पेट्रोल व डीजल की कमी को पूरा कर रहा है। इन पौधों के रबड़ क्षीर से व्यावसायिक स्तर पर अमेरिका, जापान एवं भारत में पेट्रोल एवं डीजल प्राप्त किया जाता है। इसलिए इन्हें पेट्रो क्रोप्स अथवा बायो डीजल क्रोप्स (Petro crops & Diesel crops) कहते हैं। भारत में एक अन्य पौधे जोजोबा (Simmondsia spp.) की खेती मरूक्षेत्र में की जाती है। इसके बीजों से प्राप्त तेल का उपयोग उद्योगों में ल्यूब्रिकेन्ट के रूप में किया जाता है। ग्राम्यन से विभिन्न फसलों में निम्नलिखित परिवर्तन देखे गये हैं-

(1) कृष्य पौधों में वन्य पौधों की अपेक्षा, फलियों व बालियों में आपसी टकराहट कम होती है।

(2) कुछ फसलों, जैसे-गेहूँ, जौ, मूंग आदि में बीज सुषुप्ता (Seed dormancy) का समाप्त होना।

(3) पौधों में विषैले व अवांछित पदार्थों की कमी होना, जैसे- कुकरबिटेसी कुल के पौधों में कड़वेपन का कम होना ।

(4) ग्राम्यन से गन्ना व जूट की कुछ जातियों में पादप की ऊँचाई में वृद्धि होना ।

(5) कपास, अरहर आदि फसलों के पक्वन काल में कमी होना ।

(6) ग्राम्यन के अन्तर्गत बहुगुणिता का विकसित होना । उदाहरण – तम्बाकू की जातियों में ।

(7) बहुत-सी फसलों में स्वपरागिता में कमी आना ।

(8) ग्राम्यन के कारण एक प्रजाति में विविधता की कमी आना अर्थात् समजात प्रजातियों का उत्पन्न होना ।

प्रजातियों के उत्पत्ति केन्द्र (Centres of Origin of species)

किसी भी पादप कुल, वंश या प्रजाति के वितरण क्षेत्र के अध्ययन के अन्तर्गत सबसे पहला सवाल यह

उठता है कि इसकी उत्पत्ति कहाँ हुई और वहाँ से अर्थात् उत्पत्ति केन्द्र से किन दिशाओं और मार्गों से होकर इसका फैलाव हुआ । यद्यपि अधिकांश पौधों का उत्पत्ति स्थान उनके वर्तमान वितरण क्षेत्र में होना चाहिए, परन्तु यह भी संभावना है कि कोई पादप विशेष अपने उत्पत्ति स्थान में नहीं पाया जाता हो, और प्रवर्जन या प्रवास के द्वारा वर्तमान क्षेत्र में आया हो । प्रायः उत्पत्ति केन्द्र की अवधारणा सबसे पहले एडम्स (1902 1909) द्वारा प्रतिपादित की गई थी, जिसकी विस्तृत व्याख्या बाद में केन (1943-1944) द्वारा प्रस्तुत की गई थी। वैसे उत्पत्ति केन्द्रों (Centres of origin) की अवधारणा को सुस्थापित करने का श्रेय प्रसिद्ध रूसी वनस्पतिशास्त्री वैवीलोव को दिया जाता है। उनके द्वारा पौधों की उत्पत्ति एवं वितरण को समझाने के लिये, विविधता में समजात के नियम (Law of Homologus series of variation) प्रस्तुत किया गया, इसक अनुसार “किसी पादप प्रजाति विशेष में उपस्थित अनुवांशिक लक्षण, इससे संबंधित अन्य प्रजातियों में भी विविध रूप में पाये जाते हैं।” जैसे, गेहूँ के सामान्य पौधों एवं बहुगुणित प्रजातियों के लक्षणों में आपस में समानता पाई जाती है । विभिन्न पादप भूगोल विज्ञानियों द्वारा पादप उत्पत्ति केन्द्र के अतिरिक्त अन्य केन्द्रों का उल्लेख भी किया जाता है जो इस प्रकार से हैं :-

प्रकीर्णन केन्द्र (Centre of Dispersal) :

वह स्थान जहाँ से वर्गक (Taxon) का प्रकीर्णन प्रारम्भ हुआ हो। प्राथमिक प्रकीर्णन केन्द्र के अतिरिक्त गौण केन्द्र भी हो सकते हैं ।

विविधता केन्द्र (Centre of Variation) :

वह स्थान जहाँ से सर्वाधिक पादप प्रजातियाँ पाई जाती हैं।

आवृति केन्द्र (Centre of Frequency) :

जहाँ समष्टि (Population) की सघनता सर्वाधिक हो ।

केन (1943) द्वारा प्रस्तुत उत्पत्ति केन्द्र की निम्न प्रमुख विशेषताएँ हो सकती है-

(1) वह स्थान जहाँ किसी पादप वंश की प्रजातियों की संख्या सबसे अधिक हो लेकिन कभी-कभी वंश ऐसे अनुकूल आवास में पहुँच जाता है जहाँ नवीन पादप प्रजातियों का विकास शीघ्रता से होता है। इसी प्रकार संकर एवं बहुगुणित गुणसूत्रों वाली प्रजातियों, विशेषकर कायिक जनन करने वाली प्रजातियों के कारण भी उत्पत्ति केन्द्र के निर्धारण में बाधा आती है, क्योंकि ऐसी प्रजातियों का निर्माण प्रायः पादप वंश (Genus) के उत्पत्ति केन्द्र से दूर होता है, जैसे क्रेपिस में ( स्टेबिन्स 1940 के अनुसार ) ।

(2) वह स्थान जहाँ समष्टियों (Populations) की बहुलता हो अर्थात् प्रजाति समष्टि सघन हो। सिद्धान्त रूप में यह तथ्य अवश्य सही हो सकता है कि उत्पत्ति केन्द्र से दूर जाने पर समष्टि (Individual) की सघनता कम हो जाये। ऐसा यदा-कदा ही होता है । प्रजाति के उत्पत्ति स्थान के विश्लेषण में यह लक्षण इसलिए भी खरा नहीं उतरता, क्योंकि उसमें ‘पारिस्थितिक प्ररूपी विभेदन’ (Ecotype differentiation) की सम्भावना अधिक रहती है।

(3) पुरातन या सामान्य प्रजातियों की बहुलता का स्थान इस लक्षण के उपयोग के लिए आवश्यक है कि किसी भी कुल या वंश के जातिवृतीय सम्बन्धों और जीवाश्मों का विशद् अध्ययन करके आदिम लक्षणों का भली भाँति पता लगाया जावे। यदि प्रजातियों के गुणसूत्रों की जानकारी प्राप्त कर ली जावे तो द्विगुणित गुणसूत्रों (2n) वाली प्रजातियों को बहुगुणित गुणसूत्रों वाली प्रजातियों का पूर्वज माना जा सकता है। उदाहरणतया –एग्रोपाइरोन की उत्पत्ति हिंद महासागर के तट पर हुई होगी। सर्वप्रथम एग्रोपाइरोन इलोन्गेटम(n = 70) का पादप उत्पन्न हुआ होगा।

(4) बड़े आकार के जीवों का स्थान। इसके अनुसार उत्पत्ति केन्द्र में जीवों का आकार बड़ा होता है इससे दूर हटने पर छोटा होता जाता है। लेकिन इस विशेषता को स्थायी नहीं माना जा सकता।

(5) सर्वाधिक और समान उत्पादिता वाला स्थान। इस लक्षण का आधार यह है कि जिस स्थान का पर्यावरण वंश या प्रजाति के लिए अधिक अनुकूल होगा वहाँ उत्पादिता अधिक होगी और समय के साथ समान बनी रहेगी।

(6) संतत् प्रकीर्णन रेखाओं के मिलन या अभिसार (Convergence) का स्थान। यदि प्रकीर्णन भागों का पता लगाया जा सके तो प्रकीर्णन (Dispersal) के प्रारम्भ का स्थान उत्पत्ति केन्द्र हो सकता है।

(7) सीमित आवास पर न्यूनतम निर्भरता का स्थान । वह स्थान जहाँ का पर्यावरण अधिकतम प्रजातियों के लिए उपयुक्त साबित हो ।

(8) प्रकीर्णन मार्ग पर समष्टि (Population) विविधता की निरन्तरता एवं दिशा । यह माना जा सकता है. कि उत्पत्ति केन्द्र से प्रकीर्णन होने पर मार्ग में व्यष्टियों (Individuals) में कुछ जीन परिवर्तन होने से विविधता. जाती है। इसके लिए पौधों के विभिन्न गुणों का विस्तृत विश्लेषण करना होता है।

(9) भौगोलिक सम्बन्धों द्वारा इंगित दिशा। यदि कोई पादप वंश मुख्यतः उष्ण कटिबंधी कुल से सम्बन्धित है परन्तु शीतोष्ण प्रदेश में भी वितरण दर्शाता है तो इसके उष्ण कटिबंधीय उत्पत्ति केन्द्र से विकसित होने की सम्भावना ही अधिक होगी, यद्यपि इसका विपरीत भी सही हो सकता है। इसलिए इस पादप वंश के जातिवृतीय सम्बन्धों (Phylogenatic relationships) का ज्ञान आवश्यक होता है।

(10) प्रवर्जन (Migration) में सहायक प्राणियों के प्रवास मार्गों की दिशा । यदि किसी पादप वंश या प्रजाति का प्रकीर्णन पक्षियों के द्वारा होता है तो सम्बन्धित पक्षियों के प्रवास मार्ग उत्पत्ति स्थान को इंगित (Indicate) करने में सहायक होते हैं।

(11) उत्पत्ति केन्द्र की ओर जाने पर प्रजातियों में प्रभावी जीन अधिक पाये जाते हैं। इस लक्षण का उपयोग प्रसिद्ध रूसी वनस्पतिशास्त्री वेवीलोव (Vavilov) द्वारा कृष्य पौधों के उत्पत्ति केन्द्रों का अन्वेषण करने में किया गया है।

(12) संकेन्द्री या उत्तरोत्तर (Concentric) समान आकृति के क्षेत्र से दिशा निर्देशित केन्द्र स्थान । उपरोक्त विशेषताओं की जानकारी प्राप्त कर लेने के बाद अब संक्षेप में कृष्य पौधों के उत्पत्ति केन्द्रों के बारे में अध्ययन करना भी हमारे लिए उपयुक्त होगा। सर्वप्रथम फ्रांसीसी वनस्पति शास्त्री डि कंडोले (De’ Candolle, 1884) ने कृष्य पौधों के उत्पत्ति केन्द्रों के बारे में अपने विचार प्रस्तुत किए। बाद में रूसी वैज्ञानिक वेवीलोव (1931, 1951) ने विभिन्न कृष्य पौधों की निकट सम्बन्धी प्रजातियों के विशद् विश्लेषण द्वारा ‘जीन केन्द्र सिद्धान्त’ प्रतिपादित किया ।

भौगोलिक, ऐतिहासिक, आनुवांशिक व कृषि सम्बन्धी आंकड़ों के आधार पर विश्व के कृष्य पौधों के कुछ प्रमुख गौण उद्गम स्थानों का विवरण दिया गया था। इस तथ्य से हम भली-भँति अवगत हैं कि मानव जाति की विभिन्न सभ्यताओं का विकास अलग-अलग स्थानों पर हुआ था, एक ही स्थान पर नहीं ।

उपरोक्त तथ्य के आधार पर यह सहज ही निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि तत्कालीन मानव ने अपनी आवश्यकतानुसार सभ्यता के विकास केन्द्रों पर ही पाये जाने वाले कुछ पौधों को, जो उसके लिए अत्यधिक उपयोगी थे, कृषि के लिए चुना होगा । यह अवधारणा तो पूर्णतया निरर्थक प्रतीत होती है कि मानव जाति का विकास केवल कृषि के कारण ही हुआ होगा। वस्तुतः उपलब्ध तथ्यों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि सभ्यता के साथ-साथ कृषि का विकास हुआ। वेवीलोव के अनुसार खाद्यान्नों एवं अन्य कृष्य पौधों के उत्पत्ति केन्द्रों पर प्रभावी जीनों की प्रमुखता है, जबकि कुछ कृष्य पौधों में केवल अप्रभावी जीनों की अधिकता पाई जाती है । ये उत्पत्ति केन्द्र मुख्यत: उष्ण और उपोष्ण कटिबन्धों के पर्वतीय प्रदेशों में स्थित है। प्राथमिक एवं गौण उत्पत्ति केन्द्रों में मुख्यतया भारत, चीन, मध्य एशिया, अमरीका इत्यादि का उल्लेख किया जा सकता है तथा इनमें विकसित मुख्य पादप प्रजातियाँ निम्न प्रकार से है (चित्र 11.1)।

(1) चीन:- पेनिकम इटेलिकम (रागी), ऐवेना न्यूडा (जई), जिया मेज (मक्का), ग्लाईसीन हिस्पिडम फेसियोलस वलगेरिस (राजमा), रेफेनस सेटाइवस (मूली), ब्रेसिका रापा ( शलगम), नीलम्बो न्यूसीफेरा (कमल), ट्रापा बाइस्पाइनोसा (सिंघाड़ा), ब्रेसिका – जुन्सिया (राई), सोलेनम मेलोन्जिना (बैंगन), कुकुमिस सेटावइस (खीरा) मेलस एशियाटिका (सेब), प्रुनुस परसिका (आडू), जगलेन्स साइनेन्सिस (अखरोट), लीची साइनेन्सिस (लीची), सीसेमम इंडिकम (तिल), मेलिया एजेडिरैंक (बकाइन नीम), केमेलिया साइनेंसिस. (चाय) व पेपेवर सोम्नीफेरम (अफीम) आदि ।

( 2 ) भारत ( उत्तर-पश्चिमी भारत, पंजाब, आसाम व बर्मा ) :- ओराइजा सेटाइवा (चावल), एरीटिनम (चना), केजेनस कजन (अरहर), फेसियोलस की प्रजातियाँ, डोलीकोस लेब-लेब (सेम), ट्राइगोनिला . लेजीनेरिया (लौकी), फीनम-ग्रीसम (मेथी), साइमोप्सिस सोरेलियाइडिस (ग्वार), मोमीर्डिका – करेन्शिया (करेला), लुफा (तोरई), सिट्रस साइनेन्सिस (सन्तरा ) एवं सिट्स की अन्य प्रजातियाँ, माइमुसोप्स इलेन्गाई (खिरनी), फीनिक्स सिलवेस्ट्रिस (खजूर), यूजिनिया (जामून), फेरोनिया (कैथ), ऐगले (बीला), कोकोस न्यूसीफेरा (नारियल), टेमेरिन्डस इंडिका (इमली), सेकेरम आफीसेनेरम (गन्ना), आरटोकारपस (कटहल), इंडिकम (तिल), फाइलेन्थस एम्बलिका (आँवला), केरिसा करन्डास (करौन्दा), ऐरेका केटचू (सुपारी), इलेटेरिया (इलायची), सेन्टेलम एलबम (चंदन), एवं क्यूमीनियम (जीरा) ।

(अ) भारत- मलाया क्षेत्र (Indo- Malayan region) – (मलाया, जावा, सुमात्रा, बोर्नियो, फिलिपाइन्स, इंडोचीन ) :- डेन्ड्रोकेलेमस एस्पर (बाँस), डायोस्कोरिया अलाटा ( रतालू), मूसा पेरेडोसिका (केला), मूसा सेपेन्टियम (केला), पाइपर नाइग्रम (काली मिर्च), वेटीवेरिया जाइजेनोइडिस (खस) व कुरकुमा लोंगा (हल्दी) ।

( 3 ) मध्य एशिया (अफगानिस्तान, उज्बेकिस्तान, कश्मीर, उत्तर-पश्चिमी सीमांत प्रदेश) : ट्रिटिकम की विभिन्न प्रजातियाँ (गेहूँ), पाइसम सेटाइवम (मटर), लेन्स एस्कुलेन्टम (मसूर), लेथाइरस सेटाइवस (स्वीट पी), डाकस केरोटा (गाजर), कोरियेन्ड्रम सेटाइवम (धनिया), एलियम सेपा (प्याज), पिस्टेशिया वेरा (पिस्ता), अमाइग्डेलस कम्यूनिस (बादाम) एवं वाइटिस वाइनीफेरा (अंगूर) ।

(4) निकट पूर्व ( एशिया माइनर, ट्रांसकाकेशिया, ईरान व तुर्कमेनिस्तान) : ट्रिटिकम (गेहूँ) की अनेक प्रजातियाँ, ऐवेना सेटाइवा (जई), ट्राइफोलियम (रिजका ), कुकुरबिटा पीपो (कद्दू), फाइकस केरिका (अंजीर), बीटा- वल्गेरिस (चुकंदर), पाइरस कोम्यूनिस (नाशपाती), प्यूनिका ग्रेनेटम (अनार), क्रोकस सेटाइवस (केसर) व पाइसम सेटाइवम (मटर)।

( 5 ) भूमध्य सागरी क्षेत्र (Tropical region) : ट्रिटिकम (गेहूँ) की प्रजातियाँ, होरडियम सेटाइवम (जौ), साइमोप्सिम (ग्वार), ब्रेसिका ओलेरेसिया (बंद गोभी), ऐलीयम सेटाइवम मेन्था पाइपेरेटा (पोदीना) ।

( 6 ) अबीसीनिया ( इथोपिया एवं निकटवर्ती प्रदेश) : ट्रिटिकम (गेहूँ) की प्रजातियाँ, इल्यूसाइन कोराकाना (रागी), मूसा (केला), हिबिस्कस ऐस्कुलेन्टस (भिंडी), कोफिया अरेबिका (कॉफी) व पेनीसिटम टाइफाइडस (बाजरा) आदि ।

(7) दक्षिण मेक्सिको और मध्य अमेरिका : जिया मेज़ (मक्का), फेसियोलस वलगेरिस (राजमा), कुकुरबिटा मोस्चाटा (मीठा कद्दू), आइपोमिया बटाटास (शकरकंद), केपसिकम एन्यूअम (मिर्च ), हिरसूटम (कपास), एनोना – स्क्वेमोसा (सीताफल ), केरिका पपाया (पपीता), ऐनेकार्डियम – ओक्सीडेन्टेल (काजू), थियोब्रोमा कोकाओ (कोको), साइडियम गुआजावा (अमरूद) व निकोटियाना रस्टिका ( तम्बाकू) ।

( 8 ) दक्षिण अमेरिका (पेरु, इक्वेडोर, बोलिविया) : सोलेनम (आलू) की अनेक प्रजातियाँ, फेसियोल नेटस (चवला), लाइकोपरसिकम एस्कूलेंटम (टमाटर), कुकुरबिटा मेक्सिमा (काशीफल), केप्सकिम फ्रूटेसेंस. गोसीपियम बारबेडेन्स (कपास), सिनकोना सक्सीरूबरा (कुनैन) व निकोटियाना टोबेकम (तम्बाकू) ।

( अ ) : सोलेनम ट्यूबरोसम (आलू)।

( ब ) ब्राजील व पैराग्वे : मेनीहाट यूटिलिसिमा (टेपिओका), ऐरेकिस हाइपोजिया (मूँगफली), ब्राजीलियेन्सिस (रबड़) एवं एनाकार्डियम ऑक्सीडेंटेल (काजू) आदि।