नियोजित एवं मिश्रित अर्थव्यवस्था किसे कहते हैं | नियोजित विकास का अर्थ क्या है | Planned and Mixed Economy in hindi

Planned and Mixed Economy in hindi नियोजित एवं मिश्रित अर्थव्यवस्था किसे कहते हैं | नियोजित विकास का अर्थ क्या है ?

नियोजित एवं मिश्रित अर्थव्यवस्था
(Planned and Mixed Economy)
स्वतंत्र भारत एक नियोजित एवं मिश्रित अर्थव्यवस्था वा देश बना। भारत को राष्ट्रीय नियोजन की आवश्यकता थी, यह राजनीतिक नेतृत्व ने आजादी के इस वर्ष पूर्व ही तय कर लिया था। भारत न केवल संसाधन के स्तर पर क्षेत्रीय असमानताओं का सामना कर रहा था, बल्कि अन्तक्र्षेत्रीय असमानताएँ भी यहाँ सदियों से मौजूद थीं। व्यापक निर्धनता तभी दूर हो सकती थी जब सरकार आर्थिक नियोजन की प्रक्रिया शुरूकरती। इसलिए असमानताएँ दूर करने में आर्थिक नियोजन को एक कारगर औजार माना गया।
वास्तव में भारतीय जनता की घोर निर्धनता की स्थिति ने ही सरकार को नियोजन की प्रक्रिया अपनाने को विवश किया, जिससे कि वह संसाधनों के आवंटन तथा उगको एकत्रित कर समत्वपूर्ण वृत्ति एवं विकास के लिए अपनी सक्रिय भूमिका निभा सके। यद्यपि भारत संवैधागिक रूप से राज्यों का एक संघ था, नियोजन की प्रक्रिया में गतिविधियों के नियमन एवं निदेशन का अधिकार अधिक से अधिक केन्द्र सरकार के हाथों में केन्द्रित होता गया।
भारत के नियोजित अर्थव्यवस्था अपनाने के पीछे कुछ तत्कालीन अनुभव भी थे, जिगहोंगे दुनिया को प्रभावित किया था-16 पह, 1929 की मंदी और दूसरे महायुद्ध के बाद फनर्निर्माण की चुनौती के कारण विशेषज्ञ इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि राज्य को अर्थव्यवस्था में हस्तक्षेप करना चाहिए (एडम स्मिथ द्वारा प्रतिपादित ‘अहस्तक्षेप’ के विचार के विपरीत)। दूसरा, लगभग इसी काल में सोवियत संघ एवं पूर्वी यूरोप के देशों की ‘कमांड’ अर्थव्यवस्थाएँ (अर्थात् राज्य अर्थव्यवस्थाएँ) अपने तीव्र आर्थिक वृद्धि की खबरें बना रही थी। 1950 एवं 1960 के दशक में दुनिया भर में नीति-निर्माताओं की राय अर्थव्यवस्था में राज्य की सक्रिय भूमिका के पक्ष में बन रही थी। तीसरा, दुनिया भर में बाजारी किेलता (उंतामज ंिपसनतम) की स्थितियों को निष्प्रभावी करने में राज्य की प्रभावी भूमिका को स्वीकार किया जा रहा था। ध्यातव्य है किए 1929 की महामंदी के दौरान बाजारी किेलता की स्थिति बनी थी जबकि माँग निम्नतम स्तर तक गिर गई थी। अनेक नव-स्वतंत्र विकासशील राष्ट्रों के लिए इसीलिए आर्थिक नियोजन एक स्वाभाविक विकल्प बना। यह सोचा गया कि आर्थिक नियोजन एक निश्चित समय सीमा में प्राथमिकता शुदा लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए संसाधन जुआगे में राज्य की सहायता करता है।
एक बार जब राजनीतिक नेतृत्व ने भारत के लिए नियोजित अर्थव्यवस्था को स्वीकार कर लिया, उगके लिए यह स्पष्ट करना जरूरी हो गया कि अर्थव्यवस्था की सांगठगिक प्रकृति क्या होगी। वह राज्य अर्थव्यवस्था होगी या फिर मिश्रित, क्योंकि मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था (पूँजीवादी अर्थव्यवस्था) में नियोजन संभव नहीं होता। भारत में नियोजन का विचार सोवियत नियोजन (यह योजना) से प्रेरित था जो कि एक ‘कमांड’ अर्थव्यवस्था थी और लालालोकतांत्रिक भारत की जरूरतों के अनुरूप नहीं थी जहाँ अब तक अर्थव्यवस्था निजी स्वामित्व वाली थी। भारत में नियोजन के पीछे सबसे प्रभावी शक्ति कम से कम आजादी के बाद, नेहरू थे जो दृढ़ समाजवादी झुकावों वाले नेता थे। उन्होंगे अर्थव्यवस्था में राज्य की भूमिका को जल्दी परिभाषित करना जरूरी समझा जो कि कभी तो बिल्कुलसोवियत संघ की तरह दिखने वाली थी और कभी इसके बिल्कुलउलट। हालाँकि उस समय तक पूँजीवादी-लालोकतांत्रिक प्रणाली भी Úांस में एक उदाहरण बन रही थी (1947), लेकिन भारत को देने के लिए इसका अनुभव अत्यल्प था। Úांस में यह प्रणाली 1944-45 में ही अपगई थी। आर्थिक वृद्धि को गति प्रदान करने के लिए योजनाकारों ने पहली ही पंचवर्षीय योजना में राज्य और बाजार की अपनी-अपनी भूमिका को परिभाषित किया। निम्नलिखित पंक्तियाँ अब भी समय से आगे दिखती हैं और अर्थव्यवस्था में राज्य की भूमिका को निजी क्षेत्र की भूमिका के मुकाबलेबिल्कुल स्पष्ट कर देती हैंः
‘‘इससे हमारे समक्ष नियोजन की तकनीक की समस्या आती है। इस समस्या को देखने का एक दृष्टिकोण, जैसा कि उल्लेख किया जा चुका है, यह हो सकता है कि उत्पादन के साधनों का कमोबेश पूर्ण राष्ट्रीयकरण कर दिया जाए तथा संसाधनों के आवंटन और राष्ट्रीय उत्पाद के वितरण पर पूर्ण सरकारी नियंत्रण स्थापित कर दिया जाए। मात्र नियोजन के एक तकनीक के रूप में निर्णय करने पर यह एक आशाजगक कार्रवाई प्रतीत हो सकती है। लेकिन ऊपर रेखांकित उद्देश्यों की पृष्ठभूमि में साथ व्यावहारिक दृष्टि से विचार करने पर, सार्वजगिक क्षेत्र का ऐसा विस्तार, वर्तमान अवस्था में, न तो आवश्यक है और न ही वांछनीय। लालोकतांत्रिक व्यवस्था में नियोजन का अर्थ है उत्पादक शक्ति के फनर्संघटन में दबाव अथवा बल प्रयोग का न्यूनतम उपयोग। इस अवस्था में सार्वजगिक क्षेत्र के उपलब्ध संसाधनों का नये ढंग से निवेश के लिए उपयोग करता है, न कि वर्तमान उत्पादन क्षमता के अधिग्रहण में उगका इस्तेमाल होना चाहिए। कुछ मामलों में उत्पादन के साधनों का सार्वजगिक स्वामित्व जरूरी हो सकता है जबकि अन्य के लिए सार्वजगिक विनियमन एवं नियंत्रण। निजी क्षेत्र को, तथापि, उत्पादन तथा वितरण में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभागी है। हाल की परिस्थितियों में इसीलिए नियोजन का अर्थ व्यावहारिक रूप में ऐसी अर्थव्यवस्था से होग जो राज्य द्वारा मार्गदर्शित एवं निदेशित हों जबकि अंशतः राज कार्य द्वारा तथा अंशतः निजी प्रयासों एवं पहें से संचालित हो।’’
ऊपर उद्धृत पंक्तियाँ कल्पनाशीलता में अपने समय से आगे हैं। यह कहना उपयुक्त होग कि 1950 के दशक में विशेषज्ञों ने अर्थव्यवस्था में राज्य के हस्तक्षेप का पक्ष लिया, आगे वाले तीन दशकों में पूर्व एशियाई चमत्कार (म्ंेज ।ेपंद डपतंबसमएॅठ) ऐसे हस्तक्षेप की सीमा परिभाषित करने वा था। पूर्व ,शिया के देशों ने तीन दशकों से उच्च वृद्धि दर बनाए रखने में सफलता पाई और इस चर्चा को फनर्जीवित कर दिया अर्थव्यवस्था में राज्य और बाजार की क्या भूमिकाएँ हैं, साथ ही राज्य की भूमिका की प्रकृति क्या हो। इन चर्चाओं का निष्कर्ष जैसा कि विश्व बैंक ने 1993 में प्रस्तुतकिया, वही रहा जो कि भारत की प्रथम पंचवर्षीय योजना में उल्लिखित था।
मिश्रित अर्थव्यवस्था के भारतीय संस्करण की वास्तविक प्रकृति 1951 में रेखांकित की गई, लेकिन 1950 के दशक में इसका क्रमिक विकास हुआ। 1950 के दशक के अंत तक मिश्रित अर्थव्यवस्था को लगभग पूरी तरह त्याग दिया गया और 1980 के दशक के मध्य तथा अंत में 1990 के दशक की शुरुआत में यह विचार अपने ‘सुप्तावस्था’ (ीलइमतदंजपवद) से बाहर आया जबकि आर्थिक सुधारों की शुरुआत हुई।
आर्थिक सुधारों की शुरुआत के पश्चात् भारत सरकार द्वारा नियोजन की प्रक्रिया और योजना आयोग के कार्यों में समुचित बदलाव करने की कोशिश की गयी ताकि सुधार एवं नियोजन की प्रक्रियाएं एक-दूसरे से सम्मिलित रह सके। इस प्रक्रिया में अर्थव्यवस्था के विकास के लिए निजी निवेश को बढ़ाने पर बल रहा।
वर्ष 2015 की शुरुआत में सरकार द्वारा एक बड़े बदलाव की घोषणा की गयी-वर्तमान योजना आयोग की जगह पर एक नये ‘चिंतक गिकाय’ (Think Tank) नीति आयोग की स्थापना की गयी। इस नये गिकाय के माध्यम से सरकार द्वारा विकास एवं नियोजन की विधि (Methodology) और प्रक्रिया (Process) दोनों ही में अभूतपूर्व परिवर्तन करने की कोशिश की गयी है। सहकारी संघवाद; विकेन्द्रीकृत, बहु-आयामी एवं समेकित विकास सहित विकास के एक भारतीय माॅडल के निर्माण, इत्यादि पर इसमंे विशेष बल है। इस प्रकार भारत विकास के ऐसे माॅडल पर कार्य करने की ओर अग्रसर है जिसमें केन्द्र एवं राज्य सरकारों के साथ-साथ संगठित क्षेत्र, सिविल समाज एवं आम आदमी, सभी पक्षों को शामिल करने पर बल है।
सार्वजनिक क्षेत्र पर जोर
(Emphasis on The Public Sector)
राज्य को अर्थव्यवस्था में एक सक्रिय और प्रभावी भूमिका निभागी है, स्वतंत्रत-प्राप्ति तक यह बिल्कुल निश्चित हो गया था। उस समय तक इस बारे में उनलोगों के मन में कोई संदेह नहीं था जो तत्कालीन राजनीति के केन्द्र में थे। स्वाभाविक रूप से राज्य नियंत्रित एक वृहद ढाँचे का निर्माण किया जाग था, अर्थात् सार्वजगिक क्षेत्र उपक्रमों (PSUs) की स्थापना करनी थी। ओचना तो दूर, उस समय तो पी,सयू का महिमामंडन किया जा रहा था। कुछ अत्यंत प्रशंसनीय उद्देश्य पी,सयू के लिए निर्धारित किए गए, कुछ अन्य लक्ष्य जबकि ऐसे थे जो कि मिश्रित अर्थव्यवस्था के मूल तत्व के साथ रहे थे। हम इस विषय का निष्पक्ष एवं विवेकसम्मत विश्लेषण करेंगे। आज जबकि पी,सयू की चतुर्दिक ओचना हो रही है और उगके निजीकरण के प्रयास भी चल रहे हैं, हम भारतीय अर्थव्यवस्था में उगकी भूमिका को समझने का प्रयास करेंगे। हम निम्नलिखित बड़ी एवं महत्वपूर्ण जरूरतों के ओक में पी,सयू के महत्वाकांक्षी विस्तार के कारणों को समझने
की कोशिश करेंगे।
1- अधिरचना संबंधी जरूरतें
(Infrastactual Needs)
प्रत्येक अर्थव्यवस्था चाहे वह कृषि, औद्योगिक अथवा उत्तर-औद्योगिक हों, को उपयुक्त स्तर की आधारभूत संरचना की जरूरत होती है, जैसे-बिजली, परिवहन तथा संचार। इगकी स्वस्थ उपस्थिति एवं विस्तार के बिना कोई भी
अर्थव्यवस्था न वृद्धि कर सकती है न विकास।
स्वतंत्रत-प्राप्ति के समय भारत में इन मूलभूत जरूरतों की भी नगण्य उपस्थिति थी। रेलवे तथा डाक एवं तार के क्षेत्र में अभी शुरूआत भर हुई थी। बिजली की उपलब्धता सरकारी हल्कों एवं राजघरानों तक सिमटी थी (इसका अर्थ यह हुआ कि भारत ने अगर प्रमुख चालक बल के रूप में कृषि का भी चुनाव किया होता तो आधारभूत संरचना क्षेत्र का विकास करना पड़ता)।
इन क्षेत्रकों के विकास में अत्यधिक पूँजी निवेश के साथ-साथ भारी इंजीनियरी तथा तकनीकी सहयोग की आवश्यकता होती है। आधारभूत संरचना क्षेत्र को विस्तार उस समय निजी क्षेत्र के माध्यम से संभव नहीं था क्योंकि उसमें निम्नलिखित का प्रबंध करने की क्षमता नहीं थीः
1. भारी निवेश (घरेलू के साथ ही विदेशी मुद्रा में);
2. प्रौद्योगिकी;
3. कुशल मानव शक्ति, एवं
4. उद्यमशीलता।
यदि उपर्युक्त की उपलब्धता निजी क्षेत्र के पास होती भी तो उसके लिए आगे बढ़ना संभव नहीं होता क्योंकि ऐसी आधारभूत संरचना के लिए कोई बाजार नहीं था।
यह आधारभूत संरचना अर्थव्यवस्था के लिए बड़ी जरूरत थी लेकिन इगके लिए या तो रियायती या फिर मुफ्रत एवं खुली आपूर्ति की व्यवस्था करनी पड़ती क्योंकि आम जनता में बाजार द्वारा निर्धारित क्रय-शक्ति का अभाव था। इन विशेष परिस्थितियों में आधारभूत संरचना विकास का दायित्व केवल सरकार ही संभाल सकती थी। सरकार के लिए यह संभव था कि वह इस क्षेत्रक के विकास के लिए जरूरी उपादानों का प्रबंध करे, साथ ही जरूरतमंद क्षेत्रों में तथा उपभोक्ताओं तक उगकी आपूर्ति और वितरण करे जिससे कि अर्थव्यवस्था की पर्याप्त वृद्धि सुनिश्चित की जा सके। इसके अतिरिक्त अन्य किसी विकल्प का अभाव था, यही कारण है कि आधारभूत संरचना क्षेत्र में राज्य की इतनी प्रभावकारी उपस्थिति है कि अन्य संबंधित क्षेत्रों, जैसे- बिजली, रेलवे, विमानन तथा दूरसंचार आदि में राज्य का एकाधिकार है।
2- औद्योगिक जरूरतें (Industrial Needs)
जैसा कि हमने पिछले पृष्ठों पर देखा, भारत ने उद्योग को अर्थव्यवस्था की प्रमुख चालक शक्ति के रूप में चुना। उद्योगें के कतिपय ऐसे क्षेत्र थे, जिनमें अपरिहार्य कारणों से सरकार को निवेश करना था। औद्योगीकरण के लिए कुछ विशेष उद्योगें की उपस्थिति आवश्यक है। इन्हें भारत में कई नामों से जाग जाता है-आधारभूत उद्योग (Basic industries), आधारभूत सरंचना उद्योग (Infrastructure industries), कोर उद्योग/क्षेत्र (Core industries/sector)। इन आठ उद्योगें (पहले से विद्यमान 6 उद्योगें की सूची में 2 अन्य उद्योगें, यथा-प्राकृतिक गैस एवं उर्वरक को वर्ष 2013 में शामिल किया गया) का औद्योगिक उत्पादन सूचकांक (IIP) मंे कुल 40-27 प्रतिशत भार (weight) है। ये उद्योग निम्न प्रकार हैं (भार सहित)ः
1- तेल शोधन उत्पाद (11-29 प्रतिशत)
2- विद्युत् (7-99 प्रतिशत)
3- इस्पात (7-22 प्रतिशत)
4- कोय (4-16 प्रतिशत)
5- कच्चा तेल (3-62 प्रतिशत)
6- प्राकृतिक गैस (2-77 प्रतिशत)
7- सीमेंट (2-16 प्रतिशत)
8- उर्वरक (1-06 प्रतिशत)
आधारभूत संरचना क्षेत्रक की तरह ही, आधारभूत संरचना उद्योगें के लिए भी भारी पूँजी के साथ ही प्रौद्योगिकी, मानव शक्ति तथा उद्यमशीलता की भी बड़े पैमाने पर जरूरत होती है, जो कि पुनः निजी क्षेत्र द्वारा जुटाना संभव नहीं माना गया। यदि निजी क्षेत्र ‘मूलभूत उद्योगें’ वस्तुओं की आपूर्ति कर भी पाते है तब भी उपभोक्ताओं की कमजोर क्रयशक्ति के कारण वे अपना उत्पाद बाजार में विक्रय करने में सफल नहीं हो पाते। शायद यह एक और कारण था कि मूलभूत उद्योगें की स्थापना का दायित्व सरकार ने ही स्वयं वहन किया।
छह मूलभूत उद्योगें में से सीमेंट क्षेत्रक निजी क्षेत्र में कुछ मजबूत था। लोहा एवं इस्पात क्षेत्रक में निजी क्षेत्र एक अकेली कम्पनी की उपस्थिति थी। कोय क्षेत्रक निजी क्षेत्र द्वारा नियंत्रित था जबकि कच्चे तेल एवं तेलशोधन में निजी क्षेत्र ने अभी कदम ही रखे थे। उद्योगशील भारत द्वारा माँग का जो स्तर बनना था उसकी पूर्ति उस समय के मूलभूत उद्योगें में विद्यमान क्षमता से संभव नहीं थी। न ही उनमें अपेक्षित विस्तार तत्कालीन निजी क्षेत्र के संचालकों द्वारा संभव था। अन्य किसी विकल्प के अभाव में सरकार ने तय किया कि वह स्वयं ही इसमें प्रमुख भूमिका निभाए। इसीलिए हम आज उनमें से अधिकांश के सार्वजगिक क्षेत्र की इकाइयों का एकाधिकार देखते हैं।
3- रोजगर सृजन (Employment Generation)
सार्वजगिक क्षेत्र के उपक्रमों को रोजगर सृजन रणनीति के महत्वपूर्ण अंग के रूप में भी देखा गया। लालोकतांत्रिक व्यवस्था वाली एक सरकार मात्र अर्थशास्त्र पर ही केन्द्रित नहीं रह सकती बल्कि उसे राष्ट्र के सामाजिक-राजनीतिक आयामों पर भी विचार करना होता है, उन लक्ष्यों की भी पूर्ति करनी पड़ती है। सभ्य देश निर्धनता की गंभीर समस्या से जूझ रहा था तथा श्रमशक्ति में तीव्र वृत्ति हो रही थी। निर्धनलोगों को रोजगर प्रदान करना गरीबी-उन्मूलगी का समयसिद्ध उपाय है। सार्वजगिक क्षेत्र के उपक्रमों से यह अपेक्षा की गई कि वे रोजगर योग्य श्रमशक्ति अथवा कार्यशक्ति के लिए पर्याप्त रोजगर सृजित करेंगे।
देश में सामाजिक परिवर्तन की भी जरूरत अनुभव की जा रही थी। देश में ज्यादातरलोगों की यहाँ की प्राचीन जाति व्यवस्था से जुड़ी थी जिसमें जमीन का स्वामित्व ऊँची जातियों के हाथ था, जबकि जमीन 80 प्रतिशतलोगों की आजीविका का एकमात्र साधन था। भूमि सुधार की महत्वाकांक्षी नीति को गू करने के साथ-साथ सरकार ने समाज के निर्बल वर्गें के लिए सरकारी नौकरियों में आरक्षण की भी व्यवस्था थी। नये बनते सार्वजगिक उपक्रमों से यह अपेक्षा थी कि उगके लिए सृजित नौकरियों का वितरण सरकार अपनी आरक्षण नीति के अनुसार कर सकेगी, यानी आरक्षण को सामाजिक परिवर्तन के लिए एक आर्थिक औजार के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता था।
ऐसे अन्य पूँजी साधन क्षेत्रकों के लिए जिनमें सरकारी कम्पनियाँ प्रवेश करने वाली थीं, निवेश की जागी वाली राशि का प्रबंध कोई आसान कार्य नहीं था। सरकार ने अपनी ओर से करारोपण, आंतरिक एवं बाह्य ऋण, बल्कि अंतिम उपाय के रूप में मुद्रा की छपाई के माध्यम से भी निधि का प्रबंध कर रही थी। सरकार उच्च करारोपण तथा भारी सार्वजगिक ऋणग्रस्तता को भारत की रोजगर पाने योग्य आबादी को रोजगर प्रदान करके औचित्य प्रदान करने की कोशिश कर रही थी।
सरकार सार्वजगिक उपक्रमों को ‘ट्रिकल डाउन इफैक्ट’ का केन्द्र समझ रही थी। सरकार ने सार्वजगिक उपक्रमों को स्थापित करने एवं चने के लिए सब कुछकिया क्योंकि ऐसा समझा जा रहा था कि इगके भ रिसकरलोगों तक पहुँचेंगे और अंततः देश में वृद्धि और विकास को ही बल मिलेगा। सार्वजगिक उपक्रमों के रोजगर को ‘ट्रिकल डाउन’ सिद्धांत के प्रभाव में ही सामान्यतः समझा गया। एक समय, नेहरू जी ने सार्वजगिक उपक्रमों का उल्लेख ‘भारत के नये मंदिरों’ के रूप में किया। सरकार तो इगके माध्यम से प्रत्येक घर-परिवार से एक व्यक्ति को नौकरी देने के लिए प्रतिबद्ध थी। इसमें भविष्य में श्रम बल के आयामों का आकलगी नहीं किया गया, न ही इतने बड़े पैमाने पर रोजगर सृजित करने के लिए जरूरी संसाधनों को ही ध्यान में रखा गया। लेकिन सरकार नये सार्वजगिक उपक्रमों की स्थापना करती गई बिना इसके वित्तीय परिणामों की परवाह किए – केवल यह मागकर कि वे ही समत्वपूर्ण वृद्धि के वास्तविक इंजन हैं। सार्वजगिक उपक्रमों के रोजगर सृजन के दायित्व को इस सीमा तक विस्तारित किया गया कि अधिकांश इकाइयों में श्रमशक्ति की अत्यधिक आपूति हो गई। परिणामस्वरूप सार्वजगिक इकाइयों का मुनाफा तथा भ श्रमिकों के वेतन, पेंशनतथा भविष्य निधि खाते में ही खपने लग (अंतिम दो मदों का विलंबित वित्तीय प्रभाव हुआ)।
4- मुनाफा तथा सामाजिक क्षेत्र का विकास
(Profit and Development of the Social Sector)
सरकार द्वारा सार्वजगिक उपक्रमों में जागे वाले निवेश की प्रकृति सम्पत्ति सृजन की थी तथा इन इकाइयों को उत्पादक गतिविधियों में लगीना था। यह स्वाभाविक था कि सरकार इनसे हुए मुनाफै पर नियंत्रण रखती। जो वस्तु,ँ एवं सेवाएँ इन इकाइयों द्वारा उत्पादित एवं विक्रय की जागी थीं उनसे सरकार को आय सुनिश्चित थी। सरकार की यह सार्वजगिक उपक्रमों से सृजित आय को खर्च करने की एक सचेत नीति थी। इस आय का उपयोग ‘सामाजिक वस्तु’ यानि ‘सार्वजगिक वस्तु’ (public goods) की आपूर्ति में करना था और इस प्रकार भारत में एक विकसित सामाजिक क्षेत्र को खड़ा करना था। सामाजिक वस्तु से सरकार का आशय भारतीय जनता को कतिपय वस्तुओं एवं सेवाओं की सार्वभौम रूप से सुनिश्चित करना था। इसके अंतर्गत शिक्षा, स्वास्थ्य, पोषण, पेयजल, सामाजिक सुरक्षा आदि शामिल थे। इसका अर्थ यह कि सार्वजगिक उपक्रमों को सामाजिक क्षेत्र के विकास के लिए राजस्व उपार्जन के माध्यम के रुप में देखा गया। अनेक कारणों से सार्वजगिक उपक्रम उतना राजस्व (मुनाफा) नहीं अर्जित कर पाए जितना कि सामाजिक क्षेत्र के स्वस्थ विकास के लिए जरूरी था। इसके चलते देश में सार्वजगिक वस्तुओं की उपलब्धता पर बुरा असर पड़ा। यहाँ तो सरकार को मुनाफा कमाकर देना था और यहाँ सार्वजगिक उपक्रम बड़ी संख्या में घाटे में चलगीा शुरू हो गए। उगको सम्भालगे के लिए बजटीय सहायता एक नियमित प्रक्रिया बन गई।
5- निजी क्षेत्र का उदय
(Rise of the Private Sector)
जैसे ही सार्वजगिक उपक्रम अर्थव्यवस्था की आधारभूत संरचना तथा मूलभूत उद्योगें की आपूर्ति का दायित्व ले लेंगे, वैसे ही निजी क्षेत्र के उद्योगें के लिए भी आधार तैयार होता जाएना। देश में निजी क्षेत्र के उद्योगें के उदय के साथ औद्योगीकरण की प्रक्रिया पूर्ण हो जाएनी। सार्वजगिक उपक्रमों के लिए जो भूमिकाएँ निर्धारित की गई थीं, उनमें यह सबसे अधिक दूरदृष्टि सम्पन्न भूमिका यही थी। अन्य भूमिकाओं का क्या हुआ, यह एक अलग माम है जिस पर हम तब लौटेंगे जब देश के औद्योगिक परिदृश्य पर चर्चा करेंगे। यहाँ हमने विश्लेषण किया कि क्यों भारत सरकार ने स्वतंत्रत पश्चात् सार्वजगिक क्षेत्र के विस्तार के लिए ऐसी महत्वाकांक्षी योजना तैयार की थी।
इसके अतिरिक्त, सार्वजगिक उपक्रमों को स्थापित करने के पीछे विकासात्मक चिंताओं से जुड़ी अन्य बातें भी थीं, जैसे-उत्पादन में आत्मनिर्भरता, संतुलित क्षेत्रीय विकास, लघु एवं आनुषंगिक उद्योगें का फैव, निम्न एवं स्थिर कीमतें तथा भुगतान संतुलगी में दीर्घकालिक साम्य। समय बीतने के साथ सार्वजगिक उपक्रमों ने देश की उन्नति और विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
वर्ष 1985-86 आते-आते, सार्वजगिक क्षेत्र उपक्रमों (Public Sector undertaking) की दक्षता (efficiency) पर पूरे विश्व में (WB ,oa IMF सहित) एक आम सहमति-सी उभरी। इसके प्रतिफल के रूप में ‘वाशिंगटन सहमति’ का उदय हुआ जिसने ‘नव-उदारवादी (neo liberal) आर्थिक नीतियों की एक वैश्विक कोशिश के रूप में विश्व जगत को प्रभावित किया। इस प्रकार भारत समेत विश्व के अधिकांश देशों में सरकारी कंपनियों के निजीकरण एवं विनिवेश की प्रक्रिया शुरू हुई। 1990 के दशक के अंत तक शोधों एवं अध्ययनों से यह पता च कि ‘अध्यक्षता’ सरकारी नहीं बल्कि निजी क्षेत्र की कंपनियों में भी हो सकती है। लेकिन तब तक विश्व के बहुतसारे देशों में निजी क्षेत्र को अत्यधिक उदारवादी तरीके से विनियमित (regulate) किया जागे लग था। सरकारों की ऐसी सोच इस बात पर टिकी थी कि बहुतसारी आर्थिक चुनौतियों का समाधन ‘बाजार’ (यथा-निजी क्षेत्र) कर सकता है। अंततः वर्ष 2007-08 के अमेरिकी ‘सब-प्राइम’ (Sub Prime) संकट के उपरांत इस सोच (दबव-liberal) पर एक तरह से भारी प्रश्न-चिन्ह लग और विश्व में इस तरह की आर्थिक नीतियों पर एक तरह से विराम-सा लगी गया।
इस बीच भारत द्वारा सरकारी कंपनियों के निजीकरण पर रोक लग दी गयी (वर्ष 2003-04 में) लेकिन इनमें विनिवेश की प्रक्रिया जारी रही। सरकार की यह सोच रही कि ये कंपनियां सरकारी स्वामित्व में बनी रहेंगी। वित्ताय वर्ष 2016-17 में सरकार द्वारा पुनः विनिवेश की उस नीति का प्रस्ताव रखा गया है जिगके माध्यम से सरकारी कंपनियों के निजीकरण का प्रावधन है (‘रणनीतिक विनिवेश’)। सरकार की यह नीति कई समसामयिक मुद्दों से जुड़ी है-अनावश्यक क्षेत्रों से सरकार का बाहर गिकलगीाऋ निवेश के लिए धन की व्यवस्था; उस क्षेत्र में सरकारी निवेश को उचित स्तर तक बढ़ाना जिनमें निजी निवेश की संभावना नहीं है या नगण्य है निजी क्षेत्र को कार्य करने का समान स्तर (level playing field) उपलब्ध कराना; इत्यादि।