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Categories: BiologyBiology

पिन्नीपेडा और सिटेसिया श्रेणियां क्या होते है , उदाहरण जीव pinnipeds and cetaceans in hindi examples

pinnipeds and cetaceans in hindi examples

 पिन्नीपेडा और सिटेसिया श्रेणियां
पिन्नीपेडा और सिटेसिया श्रेणियों में पानी में रहने की अनुकलताओं वाले स्तनधारी शामिल हैं। ये हैं सील और ह्वेल।
पिन्नीपेडा श्रेणी सील (प्राकृति १५५) समुद्रों और कुछ झीलों में रहते हैं। यहां उन्हें अपना भोजन मिलता है। मछली उनका भोजन है। सील मार्के के तैराक और गोताखोर होते हैं। पर जब आराम करने या वच्चे देने के लिए जमीन पर निकल आते हैं तो बड़ी मुश्किल से इधर-उधर घूम-फिर सकते हैं। संकट का जरा-सा भी संकेत मिलते ही वे फौरन पानी में चले जाते हैं।
सील का छोटे-से सिर और छोटी-सी गर्दन सहित लंब वृत्ताकार शरीर पानी को आसानी से काटता जाता है। इस प्राणी के अग्रांग और पश्चांग मीन-पक्षों जैसे अंगों में परिवर्तित हो चुके हैं। ये अंग छोटे होते हैं और उनकी अंगुलियां त्वचा की एक परत से जुड़ी रहती हैं। ये मछली के मीन-पक्षों जैसा ही काम देते हैं।
सील के चमकीले बाल छोटे और सख्त होते हैं। त्वचा के नीचेवाली चरबी की सुविकसित परत शरीर को ठंडा पड़ने से बचाती है। सील के कर्ण-पालियां नहीं होतीं। जब सील पानी के नीचे चला जाता है तो उसके कर्ण-द्वार और नासा-द्वार बंद हो जाते हैं।
जलचर जीवन के बावजूद सील वस्तुतः स्तनधारी प्राणी हैं। वे उष्णरक्तीय होते हैं , उनके फुफ्फुस और चार कक्षों वाला हृदय होता है और वे वायुमंडलीय हवा में श्वसन करते हैं। सांस लेने के लिए वे कम से कम हर दस मिनट बाद पानी की सतह पर आते हैं। उनके मीन-पक्षों में वैसी ही हड्डियां होती हैं जैसी अन्य स्तनधारियों के अग्नांगों और पश्चांगों में। सील किनारे पर या बर्फ के तूदों, पर जीवित बच्चे देते हैं और उन्हें अपना दूध पिलाते हैं। नवजात सील के शरीर पर लंबी , सफेद फर का आवरण होता है। वे तैर नहीं सकते और निर्मोचन के बाद ही पानी में रहने लगते हैं। इन सब बातों से स्पष्ट होता है कि सीलों के पुरखे स्थलचर प्राणी थे और बाद में पानी में जीवन बिताने लगे।
सिटेसिया श्रेणी सीलों की अपेक्षा ह्वेल जलगत जीवन से कहीं अधिक संबद्ध हैं। ह्वेल पानी के बाहर कभी नहीं निकलते। इस कारण ढेलों में सीलों की अपेक्षा बहुत अधिक परिवर्तन हुआ है।
ह्वेल के शरीर का आकार मछली जैसा होता है (आकृति १५६)। सिर धड़ से सटकर जुड़ा रहता है। धड़ क्रमशः गावदुम होता हुआ पूंछ में समाप्त होता है। अग्रांगों का आकार मछली के मीन-पक्षों जैसा ही होता।
पिछले मीन-पक्ष नहीं होते पर श्रोणि के अवशेष दिखाई देते हैं। लंबी पूंछ के अंत में एक दुपल्ला मीन-पक्ष होता है। पर यह आड़ा होता है, मछली की तरह खड़ा नहीं। मीन-पक्ष की ऐसी स्थिति के कारण ह्वेल बड़ी तेजी से पानी की सतह के नीचे जा सकता है और ऊपर आ सकता है।
मुंह के इर्द-गिर्दवाले थोड़े-से बालों को छोड़कर ह्वेल के कोई वाल नहीं होते। बालों से खाली चिकने शरीर के कारण वह पानी से कम रगड़ खाता है। त्वचा के नीचेवाली चरबी की मोटी परत ह्वेल के शरीर को ठंडे पड़ने से बचाती है। चरबी पानी से हल्की होती है और ह्वेल के शरीर में चरबी की बड़ी मात्रा होने के कारण उसका विशिष्ट गुरुत्व घटता है।
ह्वेल वायुमंडलीय हवा में सांस लेते हैं। इसके लिए वे हर १०-१५ मिनट बाद पानी की सतह पर आते हैं। सांस छोड़ते समय पानी का फव्वारा छूटता है। इससे ढेल को सतह पर आते समय फौरन पहचाना जा सकता है। ह्वेल द्वारा छोड़ी गयी सांस में स्थित ठंडा जल-वाष्प और पानी की सतह से आनेवाली झींसी से मिलकर यह फव्वारा छूटता है। ह्वेल के फुफ्फुस बहुत बड़े होते हैं और वह काफी मध्यावधि छोड़कर सांस ले सकता है। नासा-द्वार सिर के ठीक ऊपर होते हैं और जब ह्वेल सतह पर उतराता आता है तो सबसे पहले यही पानी के ऊपर निकल आते हैं। पानी के नीचे वे पेशियों के संकुचन के कारण बंद हो जाते हैं। ह्वेल का उपास्थीय स्वर-यंत्र उभाड़दार होता है और सीधे पिछले नासा-द्वारों से संबद्ध। नासा-द्वारों में प्रवेश करनेवाली हवा मंह को टालकर सीधे स्वर-यंत्र के जरिये श्वास-नली और फुफ्फुसों में पहुंचती है। इससे भोजन निगलते समय ह्वेल की श्वसनेंद्रियों में पानी नहीं घुसता।
जलगत जीवन के प्रभाव से ह्वेल के शरीर में काफी परिवर्तन हुए हैं, फिर भी उनमें स्तनधारियों के मुख्य लक्षण बने रहे हैं। वे सजीव बच्चों को जन्म देते हैं और उन्हें अपना दूध पिलाते हैं।
धरती पर पैदा हुए स्तनधारियों में खेल सबसे बड़े हैं। इनमें सबसे बड़ा नीला ह्वेल होता है। इसकी लंबाई ३० मीटर तक और वजन १५० टन तक हो सकता है। नवजात ह्वेल की लंबाई ७-८ मीटर और वजन २ टन से अधिक होता है। ऐसे प्राणी केवल पानी में ही रह सकते हैं क्योंकि वहां शरीर हवा में रहने की अपेक्षा जैसे ज्यादा हल्कापन महसूस करता है। तूफान के कारण किनारे पर फेंका गया ह्वेल चलकर पानी में नहीं जा सकता और किनारे पर ही आखिरी दम लेता है।
बड़े बड़े दंतविहीन ह्वेल छोटे छोटे क्रस्टेशियनों, छत्रक-मछलियों , मोलस्कों और छोटी मछलियों को खाकर रहते हैं। ह्वेल जब अपना मुंह खोलता है तो हर समय पानी के साथ वह बड़ी संख्या में इन प्राणियों को मुंह में लेता है। तालु से लटकनेवाली अनेकानेक शृंगीय पट्टिकाएं भोजन को रोक रखती हैं। ह्वेल इन पट्टिकाओं के छिदे हुए सिरों के बीच से पानी छान लेता है और भोजन को जीभ के सहारे गले और ग्रसिका में ठेल देता है। शृंगीय पट्टिकाओं का आम नाम ह्वेल हड्डी (ूींसम इवदम) है।
ह्वेल के भ्रूण के दांत होते हैं पर बाद में उनका लोप, हो जाता है। इससे हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि ह्वेलों के पुरखों के दांत हुआ करते थे।
सदंत ह्वेल भी विद्यमान हैं और वे शिकारभक्षी जीवन बिताते हैं। काले सागर में अक्सर पाये जानेवाले डाल्फिन इसके उदाहरण हैं।
सीलों और ह्वेल कार आर्थिक महत्त्व सील और ह्वेल आर्थिक महत्त्व रखनेवाले प्राणियों में से हैं। उनसे चरबी, चमड़ा इत्यादि चीजें मिलती हैं। आर्कटिक सागरों
का आर्थिक के तटों पर और कास्पीयन सागर में सीलों का शिकार महत्त्व किया जाता है।
ह्वेलों का शिकार सुदूर पूर्वीय सागरों और अंटार्कटिका में खास ह्वेलमार जहाजी बेड़ों द्वारा किया जाता है। हर बेड़े में आम तौर पर एक बड़ा जहाज और सरपट चलनेवाली बहुत-सी ह्वेलमार नौकाएं होती हैं। वे शिकार करती हैं और मारे गये शिकार को बड़े जहाज तक ले आती हैं। यहां ढेलों को चीर-फाड़कर विभिन्न उपयुक्त चीजें बनायी जाती हैं। इनमें चरबी , डिब्बाबंद मांस इत्यादि शामिल हैं।
प्रश्न – १. जलचर जीवन के लिए सील की अनुकूलता किन बातों से स्पष्ट होती है ? २. हम क्यों यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि सीलों के पुरखे स्थलचर स्तनधारी थे? ३. ह्वेल जब भोजन करता है तो उसका गला पानी से क्यों नहीं घुटता ? ४. ह्वेल और पिन्नीपेडा की तुलना करके यह बतलानो कि जलगत जीवन के प्रभाव से ह्वेल में कौनसे अधिक परिवर्तन हुए हैं ?

समांगुलीय और विषमांगुलीय स्तनधारियों की श्रेणियां
वराह जंगली सूअर या वराह (आकृति १५७ ) जंगलों में बेत के झुरमुटों में रहते हैं। वराह के अग्रांगों और पश्चांगों में चार चार अंगुलियां होती हैं और प्रत्येक के अंत में शृंगीय खुर होते हैं। दो बिचली अंगुलियां सुविकसित और किनारे की दो अंगुलियां अल्पविकसित होती हैं। किनारे की अंगुलियां जमीन का स्पर्श नहीं करतीं। नरम दलदली भूमि पर बिचली अंगलियां कुछ फैल जाती हैं और किनारे की अंगुलियों के खुर आधार के क्षेत्र को कुछ बड़ा कर देते हैं। इस कारण उस प्राणी के पैर दलदल में फंसते नहीं।
अंगुलियों की सम संख्या ( चार या दो) वाले सखुर स्तनधारी प्राणी समांगुलीय । कहलाते हैं । वराह समांगुलीय स्तनधारियों में शामिल है।
वराह की टांगें वैसे छोटी होती हैं जिससे उसका शरीर जमीन से बहुत ऊंचाई पर नहीं रहता। उसका धड़ लंबा और थूथनी पच्चड़ के आकार की होती है। वह घनी से घनी झाड़ियों के बीच से आसानी से गुजर सकता है।
झाड़ी-झुरमुटों और नम जगहों में रहने के कारण वराह की त्वचा में काफी परिवर्तन हुए हैं। उसकी मोटी चमड़ी कड़े बालों से ढंकी रहती है। ये कड़े बाल न टहनियों में फंसते हैं और न पानी से तर होते हैं। फिर भी वराह का यह आवरण ठंड से बचाव करने के लिए काफी नहीं है। त्वचा के नीचे चरबी की एक मोटी परत होती है जिससे उसके शरीर में उष्णता बनी रहती है।
वराहों को जंगलों में पर्याप्त भोजन मिलता है। अन्य सखुर प्राणियों के विपरीत वराह सर्वभक्षी होते हैं। वे घास, ओक वृक्ष के फल, पौधों की जड़ें, कीट और उनके डिंभ और चूहे खाते हैं। अपना कुछ भोजन वे जमीन के ऊपर पाते हैं और कुछ उसके अंदर। अपनी लंबी थूथनी से वे जमीन खोदते हैं। थूथनी के अगले हिस्से में उपास्थीय गोलाकार चद्दरें होती हैं। वराह सूंघने के जरिये भोजन का पता लगाता है और उक्त चद्दरों की मदद से मिट्टी हटाकर उसे जमीन में से निकाल लेता है। उसका भारी सिर गर्दन की मजबूत पेशियों से संभला हुआ रहता है।
वराह के दांत विभिन्न प्रकार का भोजन खाने के अनुकूल होते हैं। जमीन खोदने में बाधा डालनेवाली जड़ों को वह अपने बड़े बड़े सुआ-दांतों से काट डालता है। नरों के सुआ-दांत ऊपर की ओर झुके और मुंह से बाहर निकले हुए होते हैं। यह बचाव के साधन का काम देते है। सम्मुख दंत बड़े-से होते हैं और उनका रुख आगे की ओर होता है। इनसे वराह अपने भोजन के टुकड़े करता है और उन्हें जमीन पर से उठा लेता है। चर्वण-दंतों पर उभाड़ होते हैं और वे वनस्पति तथा प्राणि-भोजन दोनों चबा सकते हैं। वराह हर समय चार से छः तक बच्चे देते हैं।
बारहसिंगा बारहसिंगा (आकृति १५८) जंगली और पालतू दोनों प्रकार का हो सकता है। यह वृक्षहीन टुंड्रा का विशिष्ट निवासी है। टुंड्रा में जाड़े बहुत लंबे और बड़े कड़ाके के होते हैं। वहां की भूमि दलदली है और लगभग वनस्पतिहीन।
बारहसिंगे की संरचना टुंड्रा की विषम परिस्थिति में जीवन बिताने के अनुकूल होती है। जाड़ों में उसका विशाल शरीर मोटी फर से ढंक जाता है। जाड़ों वाले बालों के अंदर हवा रहती है और वे सर्दी से बचने के विशेष अच्छे साधन का काम देते हैं।
लंबी टांगों की बिचली और किनारे की अंगुलियों के खुर होते हैं और वे एक दूसरे से काफी दूर फैल सकती हैं। इससे शरीर को अच्छा खासा आधार मिलता है। इनकी सहायता से बारहसिंगा गरमियों में नम जमीन पर और जाड़ों में बर्फ पर आसानी से चल सकता है।
टुंड्रा की अत्यल्प वनस्पतियां बारहसिंगे की आवश्यकताएं पूरी कर सकती हैं। गरमियों में वह घास तथा झाड़ी-झुरमुटों की पत्तियां खाता है और जाड़ों में टुंड्रा की लिकेन या हरिण-काई पर निर्वाह करता है। पक्के खुरों वाली टांगों से वह – बर्फ में से काई खोद निकालता है।
उत्तरी बारहसिंगे के विशेष लक्षण हैं उसके मजबूत शाखदार सींग। ये हड्डीदार होते हैं। ये नर और मादा दोनों के होते हैं। बारहसिंगे के अन्य प्रकारों में सींग केवल नरों के होते हैं । सींग हर साल झड़ते हैं और कुछ ही महीनों बाद नये सींग निकलते हैं। नये सींगों पर मखमली त्वचा की परत होती है पर बाद में वह नष्ट हो जाती है।
टुंड्रा के बाशिंदों के लिए पालतू उत्तरी बारहसिंगे का बड़ा महत्त्व है। उससे मांस , दूध , गरम फरदार कपड़े और जूते मिलते हैं और भारवाही पशु के रूप में भी उसका उपयोग किया जाता है। सोवियत संघ के सुदूर उत्तरी प्रदेशों में बारहसिंगा-पालन अर्थ-व्यवस्था की एक महत्त्वपूर्ण शाखा है।
पालतू उत्तरी बारहसिंगे और जंगली बारहसिंगे के बीच न के बराबर फर्क होता है। पालतू बारहसिंगे की फर ज्यादा घनी और लंबी होती है और सींग कमजोर। दोनों की बड़ी समानता का कारण यह है कि दोनों का जीवन बहुत कुछ एक-सा होता है। सारे साल दोनों खुले मैदानों में रहते हैं और स्वयं अपना भोजन ढूंढ लेते हैं। पालतू बारहसिंगे के बारे में (पशु-चिकित्सा के इलाज को छोड़कर) यदि कोई चिंता करनी हो तो इतनी ही कि उनके रेवड़ों की निगरानी करना और उन्हें नये नये चरागाहों में ले जाना।
वराह की तरह बारहसिंगा भी समांगुलीय स्तनधारियों में शामिल है। मवेशी और भेड़ें भी इसी श्रेणी में आती हैं।
घोड़ा पालतू घोड़े जंगली घोड़ों से पैदा हुए हैं। मध्य एशिया की स्तेपियों में अभी तक प्रजेवाल्स्की नस्ल का जंगली घोड़ा (आकृति १५६) पाया जाता है। यह नाम इस घोड़े की खोज करनेवाले विख्यात रूसी शोध-यात्री न ० म ० प्रजेवाल्स्की के नाम पर पड़ा है।
घोड़े के खूबसूरत , शानदार शरीर पर छोटे छोटे बाल होते हैं। सिर (अगली लट ), गर्दन (अयाल ) और पूंछ पर लंबे बाल होते हैं। अपनी पूंछ. को लहराकर घोड़ा मक्खियों और गोमक्खियों को भगा देता है।
घोड़ों के जंगली पुरखे खुले मैदानों में रहते थे। वहां वे शत्रुओं से छिप न पाते थे और उन्हें भोजन तथा पानी ढूंढने के लिए लंबे लंबे फासले तय करने पड़ते थे। ऐसी स्थितियों में जीते हुए उनके अग्रांगों और पश्चांगों की संरचना धीरे धीरे बदलती गयी। उनके नये लक्षण पालतू घोड़ों में भी आनुवंशिक रीति से आये। घोड़ा अपनी लंबी , सुडौल टांगों के सहारे सूखी , सख्त जमीन पर बड़ी तेजी और चुस्ती के साथ दौड़ सकता है। घोड़े के पैर की केवल बिचली अंगुली सुविकसित होती है और उसपर बड़ा खुर होता है। खुर से शरीर को पर्याप्त आधार मिलता है और वह सहज ही जमीन से ऊपर उठ सकता है। तेज दौड़ के लिए यह जरूरी हैं। घोड़े के पैर के कंकाल में दो और अंगुलियों के अवशेष छोटी छोटी हड्डियों के रूप में होते हैं।
सुविकसित नेत्रंद्रिय और घ्राणेंद्रिय के कारण घोड़ा स्तेपियों में दूर दूर से अपने शत्रुओं के आगमन को समय पर भांप सकता है।
घोड़ा शाकभक्षी प्राणी है। उसके दांत और प्रांत वनस्पति-भोजन के अनुकूल होते हैं। सिर को लंबा आकार देनेवाले बड़े जबड़ों में आगे की ओर सम्मुख दंत होते हैं – छः ऊपर और छः नीचे। ये दांत एक दूसरे से सटे होते हैं और उनका रुख आगे की ओर होता है। घोड़ा अपने मुलायम ओंठों से और फिर सम्मुख दंतों से घास को पकड़ता है और सिर को झटका देकर उसे काटता है। सुप्रा-दांत केवल सांडों के होते हैं । सुना-दांतों के पीछे जबड़ों के दांतों से खाली हिस्से होते हैं। मुंह में पीछे की ओर ऊपर और नीचे छः छः चर्वण-दंत होते हैं। उनकी चबानेवाली सपाट सतहों पर सख्त इनैमल की चुनटें होती हैं। इन दांतों से घोड़ा भोजन चबाता है। चबाते समय वह उसे लार से काफी तर कर देता है।
घोड़े का जठर बड़ा-सा होता है। प्रांत में सुविकसित सीकम होता है जिसमें भोजन रुककर फरमेंट होता है।
घोड़ी हर समय एक बछेड़ा देती है। बछेड़ा शीघ्र ही अपनी मां का अनुसरण करने लगता है। खुली स्तेपियों में इसका बड़ा महत्त्व है क्योंकि वहां नवजात बछेड़े को छिपने की कोई जगह नहीं होती।
घोड़ा विपमांगुलीय स्तनधारियों की श्रेणी में शामिल है क्योंकि उसकी हर टांग में एक ही सुविकसित अंगुली होती है। इसी श्रेणी में हर टांग में तीन तीन अंगुलियों वाले सखुर प्राणी शामिल हैं। गैंडा इनमें से एक है।
प्रश्न – १. वराह के लिए त्वचा के नीचेवाली चरबी की परत का क्या महत्त्व है ? २. यह किन बातों से स्पष्ट होता है कि बारहसिंगे की संरचना टुंड्रा में जीने के अनुकूल है ? ३. पालतू और जंगली उत्तरी बारहसिंगों में क्यों अत्यल्प अंतर है ? ४. हम क्यों इस निर्णय पर पहुंचते हैं कि पालतू घोड़े के पुरखे खुली स्तेपियों में रहा करते थे ? ५. कौनसे प्राणी समांगुलीय स्तनधारियों की श्रेणी में शामिल हैं और कौनसे विषमांगुलीय स्तनधारियों की श्रेणी में ?

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