प्रकाश संश्लेषी मूल या स्वांगीकारी जड़ (photosynthetic roots in hindi) क्या होती है , कार्य उदाहरण चित्र

(photosynthetic roots in hindi) प्रकाश संश्लेषी मूल या स्वांगीकारी जड़ क्या होती है , कार्य उदाहरण चित्र कहाँ पायी जाती है |

प्रकाश संश्लेषी अथवा स्वांगीकारी मूल (photosynthetic roots) : जैसा कि हम जानते है कि जड़ें प्राय: हरी नहीं होती , क्योंकि इनकी कोशिकाओं में क्लोरोफिल वर्णक उपस्थित नहीं होता लेकिन कुछ पौधों जैसे – टिनोस्पोरा , टिनियोफिल्लम सिंघाड़ा और पोड़ोस्टीमोन की अपस्थानिक जड़ें , प्रकाश में उदभासित रहती है और इनकी कोशिकाओं में फ्लोरोफिल वर्णक पाए जाते है , परिणामस्वरूप ये हरी हो जाती है और प्रकाश संश्लेषण का कार्य करती है। इस प्रकार की जड़ों को प्रकाश संश्लेषी या परिपाचीमूल कहते है। गिलोय या टिनोस्पोरा की अपस्थानिक जड़ें वर्षा ऋतु में तने की पर्वसंधियों से उत्पन्न होकर लटकती हुई डोरियों के समान संरचना प्रदर्शित करती है लेकिन ये शुष्क मौसम अथवा ग्रीष्म ऋतू में सिकुड़ जाती है। एक आर्किड टीनोयोफिल्लम जो कि एक पर्णविहीन अधिपादप है , में वायवीय अपस्थानिक जड़ें पट्टी अथवा रिबन के समान चपटी होकर हरे रंग की हो जाती है और प्रकाश की उपस्थिति में कार्बन डाइ ऑक्साइड की सहायता से भोजन बनाने का कार्य करती है। इसके विपरीत सिंघाड़ा एक जलीय पादप है की अत्यंत कटी फटी हरे रंग की जल निमग्न जड़ें प्रकाश संश्लेषण का कार्य करती है। इन जड़ों की बाह्य और आंतरिक संरचना अत्यन्त कटी फटी जल निमग्न पर्णों के समान होती है। पोडीस्टीमोन में मुख्य पादप शरीर से हरी और चपटी जड़ें विकसित होती है जो उथले जल में मुक्त रूप से वृद्धि करती है और किनारों की चट्टानों पर एक स्थापनांग जैसी संरचना जिसे हेप्टेरान कहते है , की सहायता से चिपक जाती है। ये हरी जड़ें प्रकाश संश्लेषण का कार्य भी करती है।

टीनोस्पोरा जड़ की आन्तरिक संरचना (internal structure of tinospora root)

इसमें निम्नलिखित संरचनाएँ दृष्टिगोचर होती है –
(A) परित्वक : इसमें कॉर्क , कॉर्क कैम्बियम और द्वितीयक वल्कुट पाए जाते है। कॉर्क कैम्बियम की उत्पत्ति परिरंभ से होती है और यह विभाज्योतकी होती है। कॉर्क ऊतक , आयताकार , सुबेरिन युक्त मृत कोशिकाओं द्वारा निर्मित बहुपंक्तिक क्षेत्र होता है , जिसमें वातरंध्र भी पाए जाते है। कॉर्क के बाहर के ऊत्तक अन्श्त्वचा , वल्कुट और मूलीय त्वचा मृत होकर छिलके के रूप में उतर जाते है , इनको छाल कहते है। इसलिए ये ऊतक परिपक्व जड़ में दिखाई नहीं देते। द्वितीयक वल्कुट में पहली भित्ति वाली कोशिकाएँ पायी जाती है , जिनके बीच पर्याप्त मात्रा में अंतर्कोशिक स्थान उपस्थित होते है। इन कोशिकाओं में हरित लवक भी पाए जाते है।
(B) वल्कुट : वल्कुट केवल तरुण मूल में पाया जाता है। इसमें पतली भित्ति वाली मृदुतकी कोशिकाएँ उपस्थित होती है , जिनके बीच सुस्पष्ट अन्तर्कोशिक स्थान पाए जाते है। प्रकाश संश्लेषी होने के कारण इसकी कोशिकाओं में असंख्य हरितलवक उपस्थित होते है।
(C) अन्तश्त्वचा : तरुण जड़ में यह एक सुविभेदित परत होती है जिसकी कोशिकाएँ एक पंक्ति में पायी जाती है। इन कोशिकाओं की अरीय और स्पर्शरेखीय भित्तियों पर केस्पेरियन पट्टिकाओं का स्थूलन पाया जाता है। परित्वक के निर्माण के कारण परिपक्व जड़ में अन्तश्त्वचा छिलके के रूप में उतर जाती है , अत: अन्तश्त्वचा नहीं पायी जाती।
(D) परिरंभ : यह ऊतक क्षेत्र अन्तश्त्वचा के ठीक नीचे पाया जाता है और इसकी कोशिकाएँ एक पूर्ण वलय के रूप में उपस्थित होती है। इस ऊतक क्षेत्र से कॉर्क कैम्बियम की उत्पत्ति होती है और परित्वक का निर्माण होता है।
(E) संवहन ऊतक तंत्र : इसमें प्राथमिक फ्लोयम , द्वितीयक फ्लोयम , कैम्बियम , मज्जा रश्मियाँ और प्राथमिक जाइलम और द्वितीयक जाइलम पाया जाता है। प्राथमिक फ्लोयम समूहों अथवा चप्पों के रूप में पाया जाता है , जो प्राथमिक जाइलम समूहों से एकान्तर क्रम में केन्द्रीय अक्ष के पास अवस्थित होते है। ये प्राय: विदलित अवस्था में प्रतीत होते है। द्वितीयक फ्लोयम समूह , प्राथमिक फ्लोयम चप्पों के नीचे पाए जाते है और सुस्पष्ट होते है। कैम्बियम एक तरंगित वलय के रूप में पाया जाता है और इसकी कोशिकाएँ एक से लेकर अनेक पंक्तियों में व्यवस्थित हो सकती है। द्वितीयक जाइलम एधा के नीचे पाया जाता है। बीच बीच में मज्जा रश्मियों की उपस्थिति के कारण यह अनेक छोटे बड़े खण्डों में विभेदित रहता है। प्राथमिक जाइलम ऊतक समूह केन्द्रीय अक्ष के समीपस्थ क्षेत्र में पाए जाते है। इन समूहों में प्रोटोजाइलम केन्द्र से दूर परिधि की तरफ उन्मुख होता है (बाह्यदिदारुक , exarch अवस्था)
(F) मज्जा : केन्द्रीय अक्ष में मज्जा , एक सिमित क्षेत्र में पायी जाती है। इस ऊतक की कोशिकाएँ लिग्नीकृत और मोटी भित्ति वाली होती है।

VI. चूषकांग मूल अथवा परजीवी मूल (haustorial roots or parasitic roots)

इस प्रकार की जड़ें पूर्ण परजीवी पौधों , जैसे – कस्कयूटा विस्कम और लोरेंथस में पायी जाती है। ये अपस्थानिक जड़ें , परजीवी पौधों के तने से विकसित होती है और परपोषी के पादप शरीर को भेद कर इसके संवहन ऊतकों से सम्पर्क स्थापित कर लेती है। इसके परिणामस्वरूप परजीवी पौधे को परपोषी के पादप शरीर से भोज्य पदार्थ , जल और खनिज लवणों की निरंतर प्राप्ति होती है। इसलिए ऐसी जड़ों को परजीवी मूल अथवा चुष्कांग मूल कहा जाता है क्योंकि ये परजीवी पौधों में पायी जाती है। ये पौधे स्वयं अपना भोजन प्रकाश संश्लेषण द्वारा बनाने में सक्षम नहीं होते और इनकी जड़ें चुष्कांगो के समान कार्य करती है।
अमरबेल का तना पीले रंग का होता है और इस पर शल्क पर्ण उत्पन्न होते है। यह एक पूर्ण परजीवी पौधा होता है , जो कि विभिन्न आवृतबीजी परपोषी पौधों जैसे शीशम , बबूल , झाडीबोर और क्लेरोडेन्ड्रम के पादप शरीरों पर पीली नायलोन की डोरियों के समान लिपटा और लटकाया हुआ पाया जाता है और इनके पादप शरीर से भोज्य पदार्थ और जल प्राप्त करता है। इसके विपरीत विस्कम एक आंशिक परजीवी पौधा है जिसमें हरी पत्तियां पायी जाती है और यह प्रकाश संश्लेषण में सक्षम होता है लेकिन जल और खनिज पदार्थों की प्राप्ति के लिए यह परपोषी के पादप शरीर में चूषकांग प्रेषिक करता है।

VII आर्द्रता अथवा अधिपादपीय मूल (hygroscopic or epiphytic roots)

कुछ अधिपादपीय आर्किड पौधों , जैसे – वांडा और वनीला में विशेष प्रकार की वायवीय जड़ें गुच्छों के रूप में पादप शरीर से लटकती हुई पायी जाती है। ये अधिपादपीय और आर्द्रताग्राही जड़ें होती है , जिनमें मूल गोप और मूल रोम नहीं पाए जाते , अपितु इनमें एक विशेष प्रकार का मृत स्पंजी ऊतक पाया जाता है जिसे वेलामेन कहते है। इस वेलामेन की सहायता से ये जड़ें वातावरण में उपस्थित नमी और जलवाष्प को अवशोषित कर पौधे को जल की आवश्यक मात्रा उपलब्ध करवाने का कार्य करती है।

VIII. पर्णमूल (leaf roots)

कुछ पौधों जैसे – ब्रायोफिल्लम और बिगोनिया आदि की पत्तियों के किनारों से कलिकाएँ उत्पन्न होने लगती है। इन कलिकाओं से छोटी छोटी जड़ें विकसित होती है , जिनको पर्ण मूल कहते है। इन जड़ों के साथ इस प्रकार एक छोटी कलिका एक ब्रोयोफिल्लम के पौधे का विकास करने में सक्षम होती है। अत: इनके द्वारा वर्धीप्रजनन भी होता है।

IX प्लावी जड़ें (root foats or floating roots)

कुछ पौधों जैसे जुसिया में तने की पर्वसंधियों से रंगहीन अथवा सफ़ेद फूली और उभरी हुई प्लावी जड़ें विकसित होती है। जिनमें वायुवक बहुतायत से पाया जाता है और इनकी वायु गुहाओं में हवा की उपस्थिति के कारण ये फूली हुई होती है। ये फूली हुई प्लावी जड़ें पौधे को जल की सतह पर उभरने में सहायक होती है इसलिए इनको मूल प्लावक भी कहते है।

X. संकुचलशील मूल (contractile roots)

इस प्रकार की जड़ें प्राय: उन पौधों में पायी जाती है जिनमें भूमिगत रूपान्तरित तने जैसे – घनकन्द और प्रकंद उपस्थित होते है। केसर इसका एक उपयुक्त उदाहरण है। यहाँ घनकन्द की वृद्धि बहुत ही विचित्र प्रकार से होती है।
वृद्धि की प्रक्रिया में नये घनकन्द एक के ऊपर एक के क्रम में विकसित होते है। यदि वृद्धि का क्रम इसी प्रकार निरंतर चलता रहे तो इन घनकन्दों के भूमि की सतह के ऊपर आ जाने की सम्भावना उत्पन्न हो जाती है। अत: इसके निराकरण के लिए घनकन्दों के ऊपर विशेष प्रकार की जड़ें उत्पन्न होती है , जिनको संकुचनशील जड़ें कहते है। ये जड़ें भूमि की सतह में धँसकर अपने विशेष बल के द्वारा घनकंद को जमीन के अन्दर की तरफ खींचने में कामयाब होती है।
इसके परिणामस्वरूप ये घनकन्द जमीन की सतह से ऊपर नहीं आ सकते। अन्यथा यदि ये घनकंद जमीन की सतह पर आ जाए तो इनके सूखने का खतरा रहता है।

XI. कंटिका मूल अथवा मूल कंटक (root thorns)

अनेक पौधों जैसे खजूर की विभिन्न प्रजातियों और पोथोस आरमेटस आदि में तने के आधारीय भाग से विशेष प्रकार की अपस्थानिक जड़ें उत्पन्न होती है। ये जड़ें आगे चलकर सख्त अथवा दृढ , नुकीली और काँटों के समान संरचना में रूपांतरित हो जाती है , इनको मूल कंटक कहते है।

XII प्रजनन मूल (reproductive roots)

कभी कभी कुछ पौधों जैसे शतावरी और डहेलिया में माँसल और अपस्थानिक जड़ों से कुछ अपस्थानिक कलिकाएँ उत्पन्न होती है। अनुकूल परिस्थितियों में ये कलिकाएँ अंकुरित होकर नए पौधों के रूप में विकसित होती है और मुख्य पौधे अथवा कन्द से पृथक हो जाती है। इसी प्रकार की अवस्था शकरकंद में भी देखि जा सकती है।
उपर्युक्त विवरण के आधार पर यह स्पष्ट हो जाता है कि संवहनी पौधों विशेषकर आवृतबीजी पौधों में जड़ें आधारभूत कार्यो जैसे जल और खनिज पदार्थो का भूमि से अवशोषण अथवा पौधे का भूमि में स्थिरीकरण अथवा मृदा अपरदन को रोकने के अतिरिक्त , कुछ अन्य विशेष कार्य भी संपादित करती है।

जड़ों के विशिष्ट रूपान्तरित कार्य निम्नलिखित प्रकार से है –

  1. गाजर , मूली , शलगम और शकरकंद आदि पौधों में भोज्य पदार्थ का संग्रहण करना।
  2. स्कन्ध मूल अथवा अवस्तम्भ मूल और वप्रमूल के द्वारा कुछ पौधों में तनों को अतिरिक्त सहारा प्रदान करना।
  3. आरोही जड़ों के माध्यम से कमजोर तनों वाले पौधों के आरोहण में सहायता।
  4. परजीवी पौधों में जड़ें चुषकांगो के समान कार्य करती है और परपोषी पौधे से भोज्य पदार्थो का अवशोषण करती है।
  5. अधिपादपीय अथवा आर्द्रताग्राही जड़ों के द्वारा पौधे के उपयोग हेतु वातावरण की नमी और जलवाष्प का अवशोषण किया जाता है।
  6. मूल ग्रंथियों में जीवाणुओं के सहजीवी गठबंधन द्वारा , पौधों के लिए नाइट्रोजनी यौगिकों की उपलब्धता सुनिश्चित की जाती है।
  7. प्लावी जड़ें , जलोद्भिद पौधों के लिए विशेष रूप से उपयोगी है क्योंकि जल की सतह पर पौधे के प्लावन में विशेष रूप से मददगार होती है।
  8. श्वसन मूल मेनग्रोव वनस्पति में ऑक्सीजन की पर्याप्त मात्रा उपलब्ध करवाने के लिए विशेष रूप से उपयोगी है।
  9. पर्णमूल और कंदील जड़ों की अपस्थानिक कलिकाएँ पौधे में कायिक जनन के लिए विशेष रूप से उपयोगी होती है।

इस प्रकार यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि संवहनी पौधों के लिए जड़ अथवा मूल एक आधारभूत और महत्वपूर्ण संरचना है जो कि पौधे के जीवन चक्र को अत्यधिक प्रभावित करती है।

प्रश्न और उत्तर

प्रश्न 1 : जड़ है पौधे का –
(अ) अवशोषी अंग
(ब) स्त्रावी अंग
(स) संश्लेषी अंग
(द) लैंगिक अंग
उत्तर : (अ) अवशोषी अंग
प्रश्न 2 : मूल रोम का कार्य है –
(अ) जल का संवहन
(ब) जल का अवशोषण
(स) ग्यूसीलेज स्त्राव
(द) जनन
उत्तर : (ब) जल का अवशोषण
प्रश्न 3 : मूल ग्रंथि है जड़ का –
(अ) परजीवी गठबंधन
(ब) अधिपादप
(स) सहजीवी गठबंधन
(द) परित्परजीवी गठबंधन
उत्तर : (स) सहजीवी गठबंधन
प्रश्न 4 : मूल ग्रन्थि में उपस्थित जीवाणु का नाम –
(अ) थायोबेसिलम
(ब) एस्केरेशिया
(स) थियोथ्रिक्स
(द) राइजोबियम
उत्तर : (द) राइजोबियम
प्रश्न 5 : प्लावी जड़ें पायी जाती है –
(अ) जुसिया में
(ब) हाइड्रिला में
(स) सिंघाड़े में
(द) वाटरलिली में
उत्तर : (अ) जुसिया में
प्रश्न 6 : पूलवत मूल पायी जाती है –
(अ) बरगद में
(ब) केवड़ा में
(स) एस्पेरेगस में
(द) क्रोकस में
उत्तर : (स) एस्पेरेगस में
प्रश्न 7 : अधिपादप मूल पायी जाती है –
(अ) शलगम में
(ब) राइजोफोरा में
(स) ब्रायोफिल्लम में
(द) आर्किड्स
उत्तर : (द) आर्किड्स
प्रश्न 8 : श्वसन मूल पायी जाती है –
(अ) मूल में
(ब) राइजोफोरा में
(स) केवड़ा में
(द) पोथोस में
उत्तर : (ब) राइजोफोरा में