ई.वी. रामास्वामी नायकर पेरियार Periyar E. V. Ramasamy in hindi Erode Venkatappa Ramasamy

पेरियार रामास्वामी की सच्ची रामायण Periyar E. V. Ramasamy in hindi Erode Venkatappa Ramasamy ई.वी. रामास्वामी नायकर पेरियार कौन थे पुस्तकें नाम लिखिए ?

ई.वी. रामास्वामी नायकर
इकाई की रूपरेखा
उद्देश्य
परिचय
प्रारंभिक जीवन
1930 तक की राजनीतिक गतिविधियां
गुरुकुल विवाद
वर्णाश्रम धर्म
आत्म-सम्मान आन्दोलन, 1925 13.7 भाषा विवाद
सारांश
प्रमुखं शब्द
कुछ उपयोगी पुस्तकें
बोध प्रश्नों के उत्तर

उद्देश्य
इस इकाई को पढ़ने के बाद आप:
ऽ उस परिस्थिति को समझ सकेंगे जिसमें ई. वी. रामास्वामी नायकर का उदय हुआ,
ऽ ‘‘वर्षाश्रम धर्म‘‘ पर उनके विचारों की आलोचनात्मक जांच कर सकेंगे, और
ऽ वर्तमान भारत में उनके जीवन व कार्यों की प्रासंगिकता/उपयोगिता को समझ सकेंगे।

 परिचय
इस इकाई में आप हमारे देश के उग्रवादी सामाजिक सुधारक ई. वी. रामास्वामी नायकर के बारे में अध्ययन करेंगे। नायकर ने जिनका लोकप्रिय नाम ‘‘परियर’’ था, वर्णाश्रम के आधार पर उच्च स्थिति प्राप्त लोगों के अत्याचारों के विरुद्ध जीवनपर्यन्त संघर्ष किया। उनके द्वारा शुरू किया गया धर्मयुद्ध, वर्तमान भारत में समाज के पिछड़े व निम्न वर्गों को राष्ट्र की मुख्य धारा में शामिल करने के प्रयासों के संदर्भ में/दृष्टिकोण से और भी अधिक प्रासंगिक/उपयोगी बन गया है।

प्रारंभिक जीवन
ई. वी. रामास्वामी नायकर, 20वीं सदी में भारत के प्रमुख सामाजिक सुधारक थे। उनका जन्म 28 सितम्बर, 1879 को तमिलनाडु राज्य के कोयम्बटूर जिले के इरोड नामक स्थान पर हुआ था। उनका सम्बन्ध उस जिले के एक समृद्ध व्यापारिक परिवार से था। किन्तु उन्हें किसी प्रकार की औपचारिक शिक्षा नहीं मिली थी। इनके बाल्यकाल में ही आन्दोलनकारी/प्रतिरोधी गुण नजर आने लग गये थे जो उनकी सामाजिक और राजनीतिक गतिविधियों/कार्यकलापों के साथ-साथ चलते रहे। उन्होंने किशोरावस्था में ही सभा जाति-नियमों व प्रतिबन्धों को चुनौती दी और बाद में उनके माता-पिता ने भी इस कार्य में इनकी मदद की।

फिर भी उनका घर पंडितों व धार्मिक विद्वानों के विचार-विमर्श का स्थान था। उनकी बातचीत व वार्तालाप से ई.वी. आर को हिन्दूवाद (दार्शनिक महत्व) का कुछ प्रारंभिक ज्ञान हुआ। किन्तु शीघ्र ही ये निष्क्रिय श्रोता से सक्रिय सहभागी बन गये। उन्होंने पौराणिक कहानिया की असंगातया और अस भाव्यताआ क बार में प्रश्न पूछना शुरू कर दिया व हिंदू धर्म तथा दर्शन का मजाक करने लगे। उनके द्वारा पूछे जाने वाले प्रश्नों में अधिक जोर समाज में जाति व्यवस्था की उपयोगिता, ‘‘कर्म‘‘ के सिद्वान्त में विश्वास, मूर्तिपूजा का औचित्य आदि पर होता था। कोई भी पंडित उनको संतोषजनक उत्तर नहीं दे पाता था।

1904 में, 25 वर्ष की आय में वे बनारस चले गये। यहीं से उनके जीवन में परिवर्तन की शुरुआत होती है। किसी भी दृष्टि से उन्हें बनारस अन्य शहरों की तुलना में पवित्र नहीं लगा। वहां के ब्राह्मण मांस खाते थे, ताड़ी पीते थे व नारी व्यभिचार में लिप्त थे। इन सब बातों से निराश होकर वे पिता के साथ व्यापार करने के लिये इरोड लौट आये। शीघ्र ही वे विभिन्न सुधार प्रयासों के नेता व कार्यकर्ता के रूप में प्रतिष्ठित हो गये। 1915 में जब ईरोड में प्लैग की बीमार फैली तो उन्होंने मित्रों की सहायता से कई सहायता/सेवा कार्यों का संचालन किया तथा पीड़ित परिवारों में भोजन व धन का वितरण किया। उन्हें ईरोड की नगरपालिका (म्युनिसिपैलिटी) का अध्यक्ष चुना गया। 1917 से 1919 तक के अपने कार्यकाल में उन्होंने कावेरी जल योजना को लागू किया जिससे ईरोड के निवासियों को नियमित पेयजल-आपूर्ति की गारंटी मिल गयी व इसके लिये उनकी काफी प्रशंसा की गई।

1930 तक की राजनीतिक गतिविधियां
1920 तक तमिलनाडु की राजनीति में उनकी हिस्सेदारी नाममात्र की ही थी। होमरूल संगठन व ‘‘न्यू इंडिय’’ के विरुद्ध सरकारी कार्यों के विरोध में संगठित एक विरोधी सभा में उन्होंने 1916 में भाग लिया। किन्तु 1917 के बाद से प्रमुख राष्ट्रवादी नेताओं से उन्होंने राजनैतिक संपर्क स्थापित किया। कांग्रेस की तमिलनाडु शाखा के गैर-ब्राह्मण सदस्यों ने 1917 में मद्रास प्रेजीडेंसी एसोसियेशन की स्थापना की। इसकी स्थापना का उद्देश्य था, राष्ट्रीय संगठन में गैर-ब्राह्मण हितों का प्रतिनिधित्व व उनकी सुरक्षा करना और मद्रास प्रेजीडेंसी में जस्टिस पार्टी के इस दावे का खंडन करना कि वहां गैर ब्राह्मण समुदाय की एकमात्र प्रतिनिधि हैं। किंतु एसोसियेशन का उस समय सर्वप्रथम उद्देश्य भारत-सचिव एडविन एस. मोन्टेग्य को सधारों की एक ऐसी योजना प्रस्तत करना था जिससे गैर-ब्राहमणों को विधानमंडल में साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व मिल सके। एसोसिशन की प्रथम सभाध्मीटिंग में नायकर ने भाग लिया था और वे एसोसिएशन के उद्देश्यों विशेष रूप से सार्वजनिकध्लोक इकाइयों में गैर-ब्राह्मणों के प्रतिनिधित्व को सुरक्षित करने के प्रयासों से, पूरी तरह सहमत थे। नायकर ने गैर-ब्राह्मणों के प्रतिनिधित्व के इन प्रयासों को सामाजिक न्याय की आवश्यकता से प्रेरित माना। उदारवादी व नागरिक सेवाओं में ब्राह्मणों के प्रभुत्व/प्रमुखता के कारण मद्रास प्रेजीडेंसी में सामाजिक न्याय की इस मांग को और बल मिला। नायकर ने एसोसिशने के कार्यों से बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया, वे इसके उपाध्यक्ष रहे, इसकी सभी वार्ताओं में उन्होंने भाग लिया और उन्होंने अक्टूबर 1919 में इसका दूसरा वार्षिक सम्मेलन ईरोड में कराने में काफी मदद की।

एम.पी.ए. के सक्रिय सदस्य के रूप में नायकर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की नीतियों व योजनाओं से परिचित हो गये। राष्ट्र को स्वतंत्र कराने की कांग्रेस की योजनाएं उन्हें पसन्द आयी। विशेष रूप से जन-साधारण का जीवन सुधारने, अस्पृश्यता को रोकने व उसे समाप्त करने के प्रयासों से वे काफी प्रभावित हुये। कांग्रेस व स्वयं उनके सामाजिक सुधार के विचारों में समानता होने के कारण उन्होंने सोचा कि किसी राजनीतिक संगठन में शामिल होकर वे मद्रास प्रेजीडेंसी में नई समाजिक व्यवस्था की स्थापना कर सकते हैं।

1920 में कांग्रेस में शामिल होने के बाद वे तेजी से चमके। कांग्रेस के अन्दर उन्हें सी. राजगोपालाचारी और गैर-ब्राह्मण राजनेताओं का समर्थन प्राप्त था। उन्होंने असहयोग आन्दोलन में, सत्याग्रह आन्दोलन (आत्म-संयम आंदोलन) और विदेशी कपड़ों के स्थान पर खादी के प्रयोग हेतु चलाये गये आन्दोलन में पूरे मन से भाग लिया। 1920 में वे कांग्रेस (एम.पी.सी.सी.) के अध्यक्ष चुने गये। उन्होंने गांधी जी के बहिष्कार कार्यक्रम का न केवल विधानमण्डल के लिये वरन् तालुक बोर्ड के चुनावों के लिये भी समर्थन किया। 1921 में उन्होंने आय अर्जित करने वाले सभी ताड़ी के पेड़ों को नष्ट करा दिया व इस तरह स्थाई लाभ का नुकसान भी किया। इस प्रकार उन्होंने यह दिखाया कि अन्य सभी चीजों की अपेक्षा सिद्धान्त की रक्षा के लिये वे किसी भी हद तक जा सकते हैं। उसी वर्ष उन्होंने ताड़ी की दुकानों पर पिकेटिंग की। विरोध को दबाने के लिये नवम्बर 1921 में मद्रास सरकार ने अन्य आन्दोलनकारियों के साथ उन्हें भारतीय दण्ड संहिता की धारा 144 के अन्तर्मत एक माह के लिये कैद कर लिया।

एक ओर गांधीजी की जन-सहभागिता की पद्वतियों से ई.वी.आर. को साम्राज्यवादी शक्ति के विरुद्ध आन्दोलन का अनुभव हुआ तो वैकोम सत्याग्रह से उन्हें भारतीय समाज व्यवस्था में व्याप्त सामाजिक बुराईयों से लड़ने का अवसर मिला। वैकोम ट्रावनकोर का देशी प्रदेश था। वहां निम्न सामाजिक स्तर के लोग मन्दिर के पास की सड़क का भी उपयोग नहीं कर सकते थे। इस प्रकार की सामाजिक असमानता को दूर करने व अछूतों के सड़कों व मन्दिरों के उपयोग के अधिकार के लिये, ट्रावनकोर के कांग्रेसियों ने गांधीजी की अनुमति से सत्याग्रह प्रारम्भ किया। किन्तु ट्रावनकोर शासन ने उन्हें तुरन्त गिरफ्तार कर लिया। अपने गिरफ्तारी से पहले उन्होंने ई.वी.आर. और फिर टी.एन.सी.सी. के अध्यक्ष से सत्याग्रह का नेतृत्व सम्हालने की अपील की। ई. वी.आर. ट्रावनकोरा आ गये और उन्होंने ब्राह्मणों व देवताओं के विरुद्ध उत्तेजनात्मक/गर्म भाषण दिये। बड़े झगड़े के डर से सरकार ने उन्हें छह दिन में ही गिरफ्तार कर लिया और ट्रावनकोर छोड़ने का वारंट जारी कर दिया। किन्तु उन्होंने आदेश को नहीं माना। अतः गिरफ्तार कर लिये गये व 6 महीने की जेल की सजा मिली। किन्तु महाराजा की मृत्यु के कारण उन्हें दो महीने पहले छोड़ दिया गया।

किन्तु वैकोम सत्याग्रह ने ई. वी.आर. और समाज के रूढ़िवादी वर्गों द्वारा अस्पृश्यता के प्रश्न पर अपनाये गये दृष्टिकोण को स्पष्ट कर दिया। ई. वी.आर. ने सिद्धान्त के आधार पर अपना आन्दोलन चलाया किन्तु वे रूढ़िवादियों की प्रतिक्रियाओं का पूर्वानुमान नहीं कर सके। वह यह नहीं समझ सके कि सदियों पुरानी अस्पृश्यता की समस्या एक सत्याग्रह से या ईश्वर के विरुद्ध भड़काऊ भाषणों से समाप्त नहीं की जा सकती। धार्मिक सहिष्णुता और हर स्तर पर लम्बे समय तक संघर्ष के द्वारा ही इसे समाप्त किया जा सकता था।
बोध प्रश्न 1
टिप्पणी: 1) नीचे दिये गये रिक्त स्थान में ही उत्तर लिखें।
2) इकाई के अन्त में दिये गये उत्तरों से अपने उत्तर मिलाइयें।
1) 1930 तक की नायकर की राजनीतिक गतिविधियों की संक्षिप्त विवेचना कीजिए?

गुरुकुल विवाद
जनवरी 1925 में रामास्वामी नायकर व कुछ लोगों की जानकारी में यह बात आई कि तिरुनेल्वेली जिले के शेरमादेवी में, कांग्रेस के पैसे से चल रहे गुरुकुल में गैर-ब्राह्मण लड़कों को ब्राह्मणों के लड़कों से अलग स्थान पर खाना खिलाया जाता है। इस मुद्दे ने कांग्रेसियों के दिमाग में हलचल पैदा कर दी किन्तु वे गुरुकुल के मामलों में हस्तक्षेप नहीं कर सकते थे। तमिलनाडु कांग्रेस कमेटी की त्रिचनापल्ली में हुई सभा में एम समझौते के प्रस्ताव पर सहमति हुई जिसमें कमेटी ने यह सिफारिश की कि राष्ट्रीय आन्दोलन में भाग लेने वाले सभी संगठनों – द्वारा जन्म पर आधारित श्रेष्ठता के भेदभाव का परित्याग कर दिया जाना चाहिये। रामास्वामी नायकर भी इस प्रस्ताव से सहमत थे। उन्होंने कहा यदि समाज इसको स्वीकार नहीं करता तो यह गैर-ब्राह्मणों का कर्तव्य है कि वे ऐसा जनमत तैयार करें जो उनके अधिकारों के अनुकूल हो।

ब्राह्मणों द्वारा इस प्रश्न पर कोई निश्चित दृष्टिकोण अपनाने से मना करने पर गुरुकल के इस मुद्दे को हल करने में असफल रहे कांग्रेस के ब्राह्मणों व गैर-ब्राह्मणों के मध्य तनाव बढ़ गया।

धार्मिक प्रतिबन्धों से मुक्ति पाने के लिये टी.एन.सी.सी. के समर्थन से ई. बी.आर. और अन्य व्यक्तियों के प्रयास भी निरर्थक साबित हुये। ई.वी.आर. अब तक सामाजिक बाईयों और नौकरशाहो में ब्राह्मणों के प्रभाव की आलोचना किया करते थे, किन्तु अब उन्होंने कांग्रेस संगठन के खिलाफ आरोप लगाना शुरू कर दिया। अप्रैल 1925 में सलेम में उन्होंने कहा कि ‘‘चाहे ब्रिटिश सर्वोच्चता हमेशा बनी रहे किन्तु इस समस्या का समाधान किया जाना चाहिये। अन्यथा गैर-ब्राह्मणों को ‘‘ब्राह्मणों के अत्याचार’’ के कारण नुकसान उठाना पड़ेगा।’’

इस मुद्दे के कारण तमिलनाडु कांग्रेस में ई. वी.आर. और कांग्रेस के बीच विवाद की शुरुआत हो गई थी किन्तु दो अन्य कारणों से इसे पूर्णता प्रदान की। ये थे– (1) सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व और (2) वर्णाश्रम धर्म पर गांधी जी से मतभेद। सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व के बारे में ई. वी.आर का यह विचार था कि जाति-उच्चता पर आधारित समाज में प्रशासन और अन्य उदारवादी व्यवसायों में केवल ब्राहमणों के प्रतिनिधित्व का अर्थ जाति-उच्चता को और मजबूत बनाना है और आर्थिक व राजनीतिक शक्ति से हीन गैर-ब्राह्मणों को हमेशा के लिये सामाजिक व्यवस्था में नीचे रहना पड़ेगा। उन्हें ऊंचा उठाने के लिए उन्होंने साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व का सुझाव दिया। उनका यह मत मद्रास प्रेजीडेंसी के कांग्रेस संगठन के अन्तर्गत एम.पी.ए. के लक्ष्यों और उद्धेश्यों के अनुरूप था।

नवम्बर 25 के टी.एन.पी.सी.सी. के कांचपुरम् अधिवेशन में ई. वी.आर. ने साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व के प्रश्न पर तमिलनाडु कांग्रेस से मतदान की मांग की। इस इकाई ने सिद्धान्त रूप में साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व की मांग को स्वीकर कर लिया किन्तु इसे विधिक स्वरूप प्रदान करने के लिये कई बार मना किया। इससे ई.वी.आर. को लगा कि महत्वपूर्ण प्रश्न को चतुराई से नकारा जा रहा है। उन्होंने इस प्रकार के प्रयास की पुनः साम्प्रदायिक शब्दों में व्याख्या की। उन्हें लगा कि ब्राह्मण केवल अपने राजनीतिक हितों को बढ़ाने के लिये ही राष्ट्रीय संगठन में है न कि देश को आजादी के लिये संघर्ष करने के लिये। उनका मानना था कि अपने निहित स्वार्थों के लिये ब्राहमण नेता किसी भी ऐसे प्रयास का विरोध करते थे जिसमें बहुसंख्यक गैर-ब्राह्मण समुदाय के राजनीतिक भविष्य को सुधारने की मांग की गई हो।
बोध प्रश्न 2
टिप्पणी: 1) अपने उत्तर के लिये नीचे दिये गये स्थान का प्रयोग करें।
2) अध्याय के अन्त में दिये गये उत्तर से अपने उत्तर की जांच कीजिये।
1) नायकर से सम्बन्धित गुरुकुल विवाद क्या था?

वर्णाश्रम धर्म
भारतीय समाज में जाति-श्रेष्ठता पर आधारित चार स्तरीय विभाजन के प्रति ई. वी.आर. के कठोर विचार थे। वे कांग्रेस के उच्च आदर्शों व लक्ष्यों जिनमें एक अस्पृश्यता का अंत करना था, के कारण इसमें शामिल हुये थे। वैकोम में इसके विरुद्ध उनका संघर्ष आन्दोलन का सा रूप ले चुका था जिसके कारण ब्राह्मण और अधिक नजदीक आ गये थे। इसके अलावा जस्टिस पार्टी के स्थापना भी ब्राह्मणों और वर्णाश्रम धर्म के विरुद्ध क्रांति ही थी। ऐसी स्थिति में मद्रास प्रेजीडेंसी में वर्णाश्रम धर्म पर बल देने का विपरीत प्रभाव ही पड़ता।

दुर्भाग्यवश, सितम्बर 1927 में कड़लोर में गांधी जी ने वर्णाश्रमधर्म में अपना पक्का विश्वास व्यक्त किया। उन्होंने गैर ब्राह्मणों से अपील की ब्राह्मणों के विरुद्ध रोष में गैर-ब्राह्मणों को वर्णाश्रम धर्म को जो कि हिन्दूवाद का मूलाधार है, नष्ट न बारना चाहिये। किंतु उन्होंने वर्णाश्रम धर्म से जुड़ी उच्च व निम्न सामाजिक स्थिति की भी जोरदार शब्दों में आलोचना की और सुझाव दिया कि अन्तर्विवाह या परस्पर खाने-पीने पर प्रतिबन्ध इसका अभिन्न अंग नहीं है।

किन्तु तमिल क्षेत्र के अधिकतर गैर-ब्राह्मणों वर्णाश्रमधर्म का अर्थ जनसंख्या के शेष भाग पर ब्राहमणों की श्रेष्ठता ही मानते थे। ई.वी.आर. ने वर्णाश्रमधर्म की बहुत आलोचना की। उनके मत से तमिल क्षेत्र में सभी गैर-ब्राह्मण हिन्दू जातियों की शूद्रों की स्थिति में परिणति’ इसमें अन्तर्निहित है। उनका मानना था कि यदि प्रत्येक जाति अपने ही धर्म को माने तो गैर-ब्राहमणों को बाहमणों की सेवा करने के लिये बाध्य किया जायेगा। रामास्वामी ने कहा ‘‘यदि हम स्वयं को शुद्र मानने लगे तो इसका अर्थ स्वयं को वेश्याओं के पुत्रों के रूप में स्वीकार करना है।

वर्णाश्रमधर्म पर गांधीजी के विचारों में परिवर्तन कराने के लिये नायकर ने सितम्बर 1927 में उनसे मुलाकात की। उन्होंने गांधीजी के वक्तव्यों पर चिन्ता व्यक्त की और बताया कि इससे अस्पृश्यता और बाल विवाह, जिनके विरुद्ध स्वयं गांधीजी संघर्षरत थे, जैसे प्रश्नों पर आडंबरवादी हिन्दू दृष्टिकोण को ही बल मिलेगा। परस्पर विरोधी दृष्टिकोण होने के कारण वार्ता असफल हो गई। नायकर ने ‘‘कडी अरासु’’ में अपना पक्का विश्वास व्यक्त किया अर्थात् भारत में सच्ची स्वतंत्रता भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, हिन्दूवाद और ब्राह्मणवाद को समाप्त करने पर ही प्राप्त की जा सकती है। अपने इस अतिवादी/उग्र दृष्टिकोण के कारण उन्होंने साइमन कमीशन का भी समर्थन किया जबकि कांग्रेस ने उसका बहिष्कार किया था। वे इस हद तक आगे बढ़ गये कि उन्होंने 1930 के सविनय अवज्ञा आन्दोलन की भी आलोचना की। किन्तु अपने विरुद्ध जनता की प्रतिक्रिया देखकर उन्होंने शीघ्र ही अपना दृष्टिकोण बदल लिया और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को स्वतंत्रता के लिये संघर्षरत एकमात्र संगठन के रूप में स्वीकार कर लिया। उन्होंने सरकार से कांग्रेस के सत्याग्रहियों के विरुद्ध दमनकारी कदम न उठाने की प्रार्थना की। और कांग्रेस के बिना गोलमेज सम्मेलन बुलाने को सारहीन/व्यर्थ बताया (कांग्रेस के बिना गोलमेज सम्मेलन का कोई औचित्य नहीं है)। गांधी इर्विन समझौते को वे कांग्रेस की नैतिक विजय मानते थे। उनके अनुसार इस समझौते के द्वारा सरकार ने कांग्रेस के इस दावे को स्वीकार कर लिया था कि कांग्रेस ही राजनीतिक रूप से संघर्षरत भारत का प्रतीक है और भविष्य में सभी सम्मेलनों में कांग्रेस के विचारों को सुना जाना चाहिये। 1934 में सी. राजगोपालाचारी ने नौ वर्ष तक कांग्रेस से अलग रहे ई.वी.आर. को पुनः कांग्रेस में शामिल होने के लिये कहा जिसे उन्होंने इस शर्त के साथ स्वीकार कर लिया कि कांग्रेस को समर्थन देने के लिये किसी सामान्य योजना पर सहमति हो। इस प्रकार दोनों ने साथ मिलकर एक योजना बनाई जिसे गांधीजी की स्वीकृति के लिये भेजा गया। इस योजना का सबसे अधिक महत्वपूर्ण पक्ष यह था कि टी.एन.सी.सी. सभी प्रतिनिधि संस्थाओं, नागरिक और उदार व्यवसायों में साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व के सिद्धान्त पर सहमत हो। गांधीजी को यह चीज बिल्कुल भी स्वीकार्य नहीं थी। अतः नायकर को पुनः कांग्रेस में लाने को राजाजी के सभी प्रयास असफल हो गये।

बोध प्रश्न 3
टिप्पणी: 1) अपने उत्तर के लिये नीचे दिये गये स्थान का प्रयोग करें।
2) अध्याय के अन्त में दिये गये उत्तर से अपना उत्तर मिलाइये।
1) वर्णाश्रम धर्म पर नायकर के विचारों की परीक्षा कीजिए।

आत्म-सम्मान आन्दोलन, 1925
नायकर ने ‘‘सयामरियाति इयक्कम’’ या आत्म-सम्मान आन्दोलन की स्थापना कर सामाजिक सुधार संबंधी अपने विचारों को निश्चित स्वरूप प्रदान किया। यह गैर-ब्राह्मणों को अपने प्राचीन द्रविड़ भावना के गौरव की स्मृति दिलाने के उद्देश्य से प्रेरित सुधार आन्दोलन था। इसने ब्राह्मणों की श्रेष्ठता और वर्तमान व्यवस्था में उनके अडिग विश्वास को अस्वीकार किया और वर्तमान सामाजिक व्यवस्था को पूरी तरह बदलने और जाति, धर्म के भेदभाव से रहित सभी व्यक्तियों की एकता का ऐसा जीवन सूत्र बनाने की मांग की जिसमें अछूत भी शामिल हों। हिन्दुवाद के धर्म-सिद्धान्तों को अस्वीकार करना इसका एक प्रमुख विचार था क्योंकि वे मानते थे कि इसके कारण असंदेही लोग ब्राह्मणों के शिकंजे में फंस जाते थे। तमिलनाडु़ के सामाजिक-धार्मिक जीवन में ब्राह्मण एक प्रमुख व्यक्ति माना जाता था अतः आत्म-सम्मान आंदोलन का निशाना भी नहीं बना।

ई. वी.आर. ने, जो तमिलनाडु में एक नये प्रकार के नेता का प्रतिनिधित्व कर रहे थे, आन्दोलन की आवाज को दिशा प्रदान की। वे अंग्रेजी में शिक्षित नहीं थे और केवल लोक-प्रचलित तमिल भाषा ही बोल सकते थे। आंदोलन ने लगभग सभी तमिल जिलों पर अपना ध्यान केन्द्रित किया। इसमें मुख्य रूप से अछूत और सामाजिक व्यवस्था के निम्न समूह जैसे-वेन्नियाकुल क्षत्रिय शामिल थे। औरतों व नौजवानों के लिये भी विशेष प्रयास किये गये। इसके सीधे सम्पर्क व सरल सन्देश के कारण अशिक्षित और अल्प शिक्षित ग्रामीण आंदोलन के प्रति आकर्षित हुएं। तमिलनाडु की राजनीति में यह एक नया कदम था। गैर-ब्राह्मणों के प्रतिनिधित्व का दावा करने वाली जस्टिस पार्टी ने कभी भी इन समूहों को शामिल करने की चिन्ता नहीं की थी। वस्तुतः जस्टिस पार्टी का नेतृत्व भूस्वामियों (जमींदार वर्ग) के हाथों में था। और इसमें मध्यम तथा जमींदार वर्गों को शामिल करने की कोशिश की गयी थी।

ई. वी.आर. ने 1925 में आत्म-सम्मान आन्दोलन को शुरू करने से पहले ही समाज की बुराईयों पर अपने विचार व्यक्त करना शुरू कर दिया था। 1924 में शुरू किया गया तमिल भाषा का साप्ताहिक कुड़ी अरासु (जनता की सरकार) आत्म-सम्मान आन्दोलन का हिस्सा बन गया। इसका ध्यान विशेष रूप से उन गैर-ब्राह्मणों के समूहों पर था जहां तक जस्टिस पार्टी के द्रविड़ अभी नहीं पहुंच पाये थे। 1930 के बाद शीघ्र ही रामास्वामी नायकर ने एक तमिल भाषा का दैनिक पत्र ‘‘विदथलाई‘‘ (स्वतंत्रता) शुरू किया और 1935 में एक मासिक पत्र ‘‘पक्कथरिड‘‘ (सामान्य ज्ञान) आरंभ किय। किन्तु 1920 के दशक के अन्तिम वर्षों में ‘‘कुडी अरासू‘‘ आन्दोलन के प्रचार का हथियार बन गया।

ब्राह्मणवादी परंपराएं आत्म-सम्मान आंदोलन का प्रमुख निशाना थी अतः इनके प्रतीकों पर आक्रमण किया गया। कई बार ममनस्मति जलायी गयी और पराणों के कई पात्र बदले गये। उदाहरण के लिये, वाल्मिकी-रामायण के रावण को नायक बनाया गया और और उसे एक अच्छे द्रविड़-आचरण का आदर्श माना गया। राम को एक दुर्बल और अन्यायी आर्य के रूप में देखा गया। हिन्दू धर्म-ग्रन्थों व इनके प्रतीकों पर इस प्रकार के आक्रमण की ब्राह्मणों के अलावा गैर-ब्राह्मणों ने भी आलोचना की। किन्तु इसका आत्म-सम्मान आन्दोलन की तरीकों पर कोई प्रभाव नहीं पडा। आन्दोलन का प्रचार-प्रसार जारी रहा और तेजी से बढ़ा। इसके नेताओं के बारे में गीत छापे और वितरित किये गये तथा आंदोलन के उद्देश्यों को समझाने के लिये छोटी पुस्तिकाएं निकाली गयी। इनमें से कुछ में हिन्दू देवताओं के चरित्रों की हँसी उड़ायी गयी थी। 1929 में छपी ऐसी एक पुस्तिका ‘‘विसित्तिरा तेवारकल कोरटु’’ (देवी-देवताओं की अजीब अदालत) थी। आत्म-सम्मान आन्दोलन की शुरू की गतिविधियों में सबसे महत्वपर्ण 17 फरवरी 1929 के दिन चिन्गलेपत में बलायी गयी-प्रथम प्रान्तीय आत्म-सम्मान सभा/सम्मेलन थी। सम्मेलन की कार्यवाहियों में इसका प्रबल समतावादी झुकाव, ब्राहमण-पुरोहितों के बहिष्कार का प्रबल निश्चय, युवा लोगों व औरतों को आकर्षित करने की इच्छा व इनके अलावा द्रविड़-सभ्यता के प्रति निष्ठा स्पष्ट नजर आने लगे थे।

इस सम्मेलन में कई प्रस्ताव स्वीकृत हुए। एक प्रस्ताव में सदस्यों से मन्दिरों के निर्माण या पुरोहितों और मध्यस्थों को वहां काम करने के लिये धन न देने के लिये कहा गया था। दूसरे में वर्णाश्रम धर्म और समाज के ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और पंचमों में विभाजन की अलोचना की गयी थी तथा ‘‘जन्म की आकस्मिकता’’ पर आधारित श्रेष्ठता का खण्डन किया गया था। एक अन्य प्रस्ताव में जाति-सूचक सभी प्रत्ययोंरुउपनामों की आलोचना की गयी थी। एक अन्य प्रस्ताव में औरतों के लिये पुरुषों के समान उत्तराधिकार के अधिकारों की मांग की गयी थी और किसी भी पक्ष की इच्छा से विवाह की समाप्ति का समर्थन किया गया था। अपनी भावनाओं के अनरूप आत्म-सम्मान आंदोलन के समर्थकों ने ब्राहमणों की धार्मिक वैधता/मान्यता में पूर्णतः अविश्वास व्यक्त किया। ब्राह्मण पुरोहितों के बिना आत्म-सम्मान विवाह एक सामान्य बात हो गई।

यद्यपि कुछ कांग्रेसी नेताओं जैसे- पी.वर्दराजुलु नायडू ने मन्दिरों के सुधार के कार्यों के लिए धनं देने से मना करने वाले प्रस्तावों का विरोध किया किन्तु ये प्रस्ताव आत्म-सम्मान आन्दोलन के आधार बने रहे।

उन्होंने आत्म-सम्मान आन्दोलन के नये नाम बुद्धिवादी/तर्कणापरक संगठन के नेता के रूप में तीन महीने तक रूस का भ्रमण किया और इस बीच वे यूरोप के अन्य भागों में भी घूमे।

सोवियत-रूस की यात्रा का ई.वी.आर. पर गहरा प्रभाव पड़ा। उन्हें कृषि व उद्योग में रूस । द्वारा की गयी अद्भुत प्रगति से काफी प्रेरणा मिली जिसका कारण उन्होंने रूसी व्यवस्था को. माना। इसलिये उन्हें यह विश्वास हो गया कि जब तक भारत में भी रूस की तरह ही आमूल परिवर्तन नहीं हो जाते, देश में किसी प्रकार की अर्थपूर्ण व्यवस्था नहीं हो सकती। सोवियत रूस की यात्रा से लौटने के तुरन्त बाद उन्होंने एक नयी योजना बनाने के लिये दक्षिण भारत के प्रमुख साम्यवादी नेता सिंगरावेलु छेट्टी से मदद मांगी। नयी योजना में दक्षिण भारत के आत्म-सम्मान लीग समधर्म (साम्यवादी) दल के भीतर दो शाखाएं बनाने का विचार था। दोनों के उद्देश्य- संवैधानिक उपायों द्वारा राजनीतिक स्वतंत्रता प्राप्त करना, वितरण और सार्वजनिक परिवहन, औद्योगिक और कृषि-श्रमिकों का उद्धार करना और आत्म-सम्मान आन्दोलन के उद्देश्यों के लिये नयी शक्ति के साथ काम करना, निर्धारित किये गये थे। आन्दोलन की दोनों शाखाओं के इन उद्देश्यों को ‘‘ईरोड योजना’’ कहा गया।

उन्होंने ‘‘कडी अरासु’’ व अन्य माध्यमों के जरिये समाजवाद और सामाजिक सुधार का प्रचार जारी रखा। किन्तु कुडी अरासु में उनके संपादकीय लेख- ‘‘वर्तमान सरकार को क्यों नहीं भगाया/उखाड़ा जाये’’ छपने पर सरकार ने उन्हें संवैधानिक सरकार को शक्ति प्रयोग द्वारा गिराने का आरोप लगाकर गिरफ्तार करने का निर्णय किया। ई. वी.आर. ने आरोप को चुनौती नहीं दी किन्तु इस सम्बन्ध में न्यायालय में उन्होंने एक लिखित वक्तव्य भेजा/पिछले सात-आठ वर्षों से मैं लोकतांत्रिक तरीकों से समाजवाद के सिद्धान्तों का प्रचा सामाजिक और आर्थिक समानता लाने के उद्देश्य से कर रहा हूं। यह किसी प्रकार का अपराध नहीं है- समर्थकों को सरकार की इस प्रकार की दमनात्मक कार्यवाहियों का सामना करने के लिये तैयार रहना चाहिये।’’

किन्त जेल से छुटने के बाद उन्होंने आत्म-सम्मान आन्दोलन की राजनीतिक योजना पर बल नहीं दिया। और समाज सुधार के प्रश्न पर अधिक ध्यान देना शुरू किया। इसके साथ-साथ उन्होंने म्युनिस्पिल और विधान मंडलों के चनावों में गैर-ब्राह्मणों के हितों की उपेक्षा करने के लिए कांग्रेसी उम्मीदवारों को हराने के उद्देश्य से जस्टिस पार्टी के विरुद्ध प्रचार जारी रखा। किन्तु 1936 के विधान मंडल चुनावों में जस्टिस पार्टी की हार ने यह स्पष्ट कर दिया कि वह अब एक राजनीतिक शक्ति नहीं रही। किन्तु ई.वी.आर. चनावों में जीतने वाली कांग्रेस की बजाय जस्टिस पार्टी के करीब आ गये।

बोध प्रश्न 4
टिप्पणी: 1) अपने उत्तर के लिये नीचे दिये गये स्थान का प्रयोग करें।
2) अध्याय के अन्त में दिये गये उत्लरों से अपना उत्तर मिलाइये।
1) नायकर द्वारा चलाये गये आत्म-सम्मान आन्दोलन पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।

भाषा विवाद
विधान मण्डलों के चुनावों में कांग्रेस को सरकार बनाने के लिये पर्याप्त सीटें मिलीं और सी. राजगोपालाचारी मद्रास प्रजीडेंसी के प्रधानमंत्री बने। कांग्रेस की नीति के अनुरूप उन्होंने घोषणा की (प्रेस में) कि स्कूल के पाठ्यक्रम में अध्ययन के लिये हिन्दी को अनिवार्य विषय के रूप में शुरू किया जायेगा।

मद्रास प्रजीडेंसी में हिन्दी लागू करने के निर्णय में उत्तर दक्षिण के मध्य मौजूद भाषायी मतभेदों की उपेक्षा की गयी और क्षेत्रवाद के उन प्रबल प्रवाहों को नजरअंदाज कर दिया गया जो स्वयं 50 वर्ष पूर्व घटित हो चुके सांस्कृतिक पुनर्जागरण के परिणाम थे। सी. राजगोपालाचारी, सत्यमूर्ति, ई. वी. रामास्वामी नायकर और थिरू कल्याण सुन्दर मदालिया ने जब वे 1920 के दशक में कांग्रेस में थे, अपनी मातृ भाषा तमिल में काफी राजनीतिक चेतना पैदा कर दी थी।

तमिल विद्वानों द्वारा हिन्दी का विरोध करने के दो प्रमुख कारण थे। पहला, हिन्दी शुरू करने का अर्थ था- संस्कृत भाषा, जिसका वे परंपरागत रूप से विरोध करते थे, का पुनः प्रयोग। शुरू होना। दूसरा, उन दिनों मातृभाषा स्कूल के पाठ्यक्रम का अनिवार्य विषय नहीं था, अतरू कई व्यक्ति द्राविड़ भाषा की जानकारी के बिना भी स्कूली शिक्षा पूरी कर लेते थे। अतः उनका तर्क था कि मातृभाषा को अनिवार्य विषय बनाये बिना स्कूलों में हिन्दी को लाग करने का मतलब जानबूझ कर द्राविड़ भाषाओं की अवनति करने जैसा है।

उनके इस उचित भय की उपेक्षा करते हुए स्कूलों में अप्रैल 1938 में हिन्दी को लागू कर दिया गया। हिन्दी के विरोध में प्रदर्शन और आन्दोलन हए। इस बीच, आत्म-सम्मान आंदोलन के नेताओं ने हिन्दी-विरोधी आन्दोलन के पक्ष में जनमत को मजबूत करने के लिये त्रिचनापल्ली से मद्रास तक की यात्रा की। इसमें 101 सदस्य थे और इसने 243 गांवों और 60 मुफस्सिल कस्बों को शामिल करते हुए त्रिचनापल्ली, तन्जौर, दक्षिण अर्कोट और चिन्गलेपत से गुजरते हुए लम्बा रास्ता तय किया।

हिन्दी-विरोधी आन्दोलन की सर्वाधित महत्वपूर्ण बात आन्दोलन में काफी बड़ी संख्या में स्त्रियों का भाग लेना था। 13 नवम्बर, 1938 के स्त्रियों के सम्मेलन में ई. बी.आर. ने भी भाग लिया और स्त्रियों मे ‘‘हिन्दी के माम्राज्यवाद’’ के विरुद्ध संघर्ष करने को कहा। 14 नवम्बर के दिन उन्होंने एक विदेशी और आर्य भाषा के आक्रमण से मातृभाषा की रक्षा के लिये अपील की। इन दो भाषणों के बाद काफी संख्या में स्त्रियां हिन्दी विरोधी आन्दोलन में शामिल हो गयीं और कई स्त्रियों को स्कूलों के समक्ष धरना देने के लिये गिरप्तार कर जेल भिजवा दिया गया।

ई. वी.आर. द्वारा 13 व 14 नवम्बर को दिये गये भाषणों के लिये उन पर हिन्दी विरोधी आन्दोलन के लिये स्त्रियों को भड़काने का आरोप लगाया गया तथा। वर्ष का कठोर करावास और 1000/-रु. जुर्माने की सजा दी गयी। किन्त जनमत इस कठोर सजा से खश नहीं था। अतः सजा को बदलकर 6 महीने का सादा कारावास कर दिया गया व उन्हें तीसरी श्रेणी के कैदी से प्रथम श्रेणी के कैदी का दर्जा दिया गया। किन्तु खराब स्वास्थ्य के आधार पर उन्हें अवधि पूरी होने से पहले ही छोड़ दिया गया। परन्तु स्कूलों में हिन्दी की समाप्ति 1940 में ही हुई।

ई. बी.आर. कांग्रेस को ब्राह्मण-प्रभुत्व वाली संस्था मानते थे और कांग्रेस के साथ अपने पूर्व के अनुभवों के कारण उन्होंने राजगोपालाचारी सरकार की उदार नीतियों की भी आलोचना की। कभी-कभी उन्हें जो कोई भी कांग्रेस का विरोधी मिला, उमी से उन्होंने मांठ-गांठ कर ली ताकि कांग्रेस को अलोकप्रिय बना सकें। इसका एक उदाहरण मंदिर प्रवेश बिल पर उनका दष्टिकोण था। इसमें मालाबार जिले के हरिजनों को मन्दिर में प्रवेश करने और पूजा करने की अनुमति प्रदान की गयी। ब्राह्मण समुदाय के सनातनी वर्ग के लोगों ने हिन्दु मन्दिरों में हरिजनों के प्रवेश के विरोध में आन्दोलन शुरू कर दिया। मन्दिर प्रवेश बिल का सनातन वर्ग द्वारा विरोध करने के बावजूद भी ई. वी.आर. ने तमिल समाज में सामाजिक परिवर्तन लाने के राजगोपालाचारी के प्रयासों का समर्थन नहीं किया। बल्कि तात्कालिक राजनीतिक लाभ के लिये वे अपने ही द्वारा पोषित और समर्पित सामाजिक लक्ष्यों जैसे-हरिजनोद्धार, से समझौता करने व सेनानियों को कुछ रियायत देने के इच्छुक नजर आये।

नायकर द्वारा कांग्रेस का विरोध मन्दिर प्रवेश बिल तक ही सीमित नहीं था। यह विडिनाड नामक पृथक तमिलनाडु की मांग के रूप में भी परिलक्षित हआ। कुछ हद तक यह मांग लगभग पिछले 50 वर्षों से चल रहे पृथक अस्मिता के प्रश्न का परिणाम थी। काडवेल और जी.य. पोप तथा पश्चिमी लेखकों के लेखों ने तमिलनाडु के पुनर्जीवन के अलावा द्रविड़ों की नयी पहचान की भावना को उद्वेलित किमा। किन्तु ई. वी.आर. ने 1940 में जस्टिस पार्टी की कार्यकारी समिति में इस संबंध में एक प्रस्ताव पारित कर अस्पष्ट सी अस्मिता को भी एक राजनैतिक दिशा दे दी। उन्होंने 15 नवम्बर 1939 के ‘‘मेल‘‘ में यह विचार व्यक्त किये कि तमिल राष्ट्र की अवधारणा कोई नयी बात नहीं है बल्कि जस्टिस पार्टी की स्थापना के समय से ही सोची जा रही है।

यह अवधारणा राजनैतिक मत या विश्वास के रूप में 1937 में तब प्रकट हूयी जब कांग्रेस के बाहमण राजनीतिज्ञों ने उनके लक्ष्य को चुनौती दी और उन्होंने एक आन्दोलन शुरू किया। राष्ट्रीय अखबारों जैसे स्वदेशमित्र ने उनको इस मांग को खतरनाक व कपटपूर्ण बताकर आलोचना की। इसके बावजूद भी उन्होंने अपना प्रचार जारी रखा। वे मुस्लिम लीग में शामिल हो गये उसकी विभाजन की मांग का समर्थन करने लगे। उन्होंने पृथक मुस्लिम राष्ट्र के पीछे कार्य कर रहे जिन्हा के दो राष्ट्र के सिद्धान्त की व्याख्या इस प्रकार की कि आर्य बाहमणों की प्रमुखता वाले राष्ट्र में सद्भावना के साथ रहने का एकमात्र हल यही है। राष्ट्र की राजनीति में लीग की भूमिका के बारे में ई.वी.आर. ने कहा कि यह राष्ट्रीय एकता को छिन्न-भिन्न करने के लिये नहीं वरन् देश में मुस्लिमों व सभी अल्पसंख्यकों के अधिकारों व विशेष सुविधाओं की सुरक्षा करने के लिये है।

किन्तु द्रविनाड़ की मांग कोई विशेष महत्व प्राप्त नहीं कर सकती और स्वयं जस्टिस पार्टी का पतन होने लगा। ई.बी.आर. का नेतृत्व भी इसकी प्रतिष्ठा में सुधार नहीं कर सका। 1944 के सलेम के सम्मेलन में जस्टिस पार्टी का नाम बदलकर द्रविड़ कषगम् नाम रखा गया। ऐसा पार्टी की प्रतिष्ठा को पुनः संवारने की आशा से किया गया था। किन्तु ई.वी.आर. के अधिनायकवादी नेतृत्व के कारण कोई परिवर्तन नहीं हो सका। ई.वी.आर. द्वारा अपने से उम्र में काफी छोड़ी औरत से शादी करने पर विरोध में काफी संख्या में सदस्यों ने दल को छोड़ दिया और 1949 में ई. वी.आर. के नेतृत्व वाली द्रविड कषगम् का पुनः विभाजन हो गया।

1949 के बाद तमिलनाडु की राजनीति में ई. वी.आर. का महत्व काफी हो गया। उन्होंने 1954 में राजगोपालाचारी की शिक्षा नीति के विरोध में छोटे-छोटे आन्दोलन किये। उन्होंने तमिलनाडु के मुख्यमंत्री कामराज को ‘‘विशुद्ध तमिल’’ कहकर उनका समर्थन किया क्योंकि वे एक पिछड़े समदाय ‘‘नाडार’’ से सम्बन्धित थे। किन्तु धीरे-धीरे द्रविड़ कषगम् का दूसरा भाग द्रविड़ मुनेत्र कषगम् एक प्रमुख राजनीतिक शक्ति बन गया। एक दबाव समूह के रूप में द्रविड़ कषगम का महत्व स्वयं ई.वी.आर. के नेतृत्व में ही समाप्त हो गया।

बोध प्रश्न 5
टिप्पणी: 1) अपने उत्तर के लिये नीचे दिये गये स्थान का प्रयोग करें।
2) अध्याय के अन्त में दिये गये उत्तरों से अपना उत्तर मिलाइये
1) 29वीं शताब्दी के प्रारंभिक वर्षों में दक्षिण में चल रहे हिन्दी विरोधी आन्दोलन में नायकर की क्या भूमिका रही?

सारांश
ई.वी.आर. ने तमिलनाडु में उदिल हो रही नयी शक्तियों का प्रतिनिधित्व किया। वे उपनिवेशवादी शक्ति के विरुद्ध संघर्ष करने के गांधीवादी तरीकों के पक्के समर्थक थे। किन्तु सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व और वर्णाश्रम धर्म पर उनके गांधीजी और कांग्रेस से भिन्न विचार अतः उन्होंने कांग्रेस भी छोड़ दी। आत्मसम्मान आन्दोलन एक नयी बात थी और समाज के वर्गों में कृत्रिम विभाजन के विरुद्ध क्रांति थी। इस आन्दोलन ने अछूत समझे जाने वाले जनसमुदाय को आकर्षित किया तथा इसने अस्पृश्यता जैसी सामाजिक बुराईयों के विरुद्ध लड़ने का संकल्प किया। आन्दोलन का इससे भी अधिक सुदृढ़ पक्ष तमिल भाषा और संस्कृति की उन्नति करना था। कुछ जाति-बन्धन समाप्त हुए और नागरिक सेवाओं में गैर-ब्राहमणों का प्रतिनिधित्व निश्चित हुआ जिसके लिये ई.वी.आर. ने निरन्तर संघर्ष किया था। किन्तु इसका नकारात्मक पहलू भी था इसके कारण विदेशी विद्वानों द्वारा प्रस्तुत किये गए जातीय सिद्धान्तों को बिना सोचे-समझे स्वीकार कर लिया गया। इसकी वजह से ब्राह्मणों की यक्तियों और प्रभाव से समाज से असमानता पैदा हुयी। इस सांप्रदायिक दृष्टिकोण के कारण उन्होंने कांग्रेस और राष्ट्रीय आन्दोलन को ब्राह्मण-प्रभावित बताया। वे मुस्लिम लीग में शामिल होने और द्रविनाड़ की मांग करने की सीमा तक चले गये। किन्तु आखिर तक उनका मत यह था कि वे ब्राह्मणों विरुद्ध नहीं है किन्तु वर्णाश्रम धर्म और ब्राह्मणों की श्रेष्ठता के विरुद्ध है। राजनैतिक मतभेदों के बावजूद सी. राजगोपालाचारी से उनके निकट संबंध उनकी गंभीरता की पुष्टि करते हैं।

प्रमुख शब्द
वर्णाश्रम धर्म: समाज का चार वर्गों में विभाजन 1. ब्राह्मण 2. क्षत्रिय 3. वैश्य 4. शूद्र
आत्म-सम्मान आन्दोलन: ई.बी.आर. द्वारा शुरू किया गया आन्दोलन जिसमें बिना जाति व धर्म के भेदभाव के स्वयं व्यक्तियों को समाज में सबके समान मानने के लिये कहा गया था।
द्रविड़स्तान: ब्रिटिश साम्राज्य के संरक्षण में मद्रास प्रेजीडेंसी के चार राज्यों को मिलाकर एक पृथक राष्ट्र बनाने की ई.वी.आर. की मांग।

कुछ उपयोगी पुस्तकें
ई.एस.विश्वनाथन: ई.वी. रामास्वामी का राजनैतिक जीवन: तमिलनाडु की राजनीति में एक अध्ययन (1920-1949) ई.एफ. इशिक: दक्षिण भारत में राजनीति और सामाजिक द्वन्द्वं