पटवों की हवेली कहां पर स्थित है | Patwon ki Haveli in hindi | पटवों की हवेली का निर्माण किसने करवाया

Patwon ki Haveli in hindi पटवों की हवेली कहां पर स्थित है , पटवों की हवेली का निर्माण किसने करवाया ?

प्रश्न: पटवों की हवेली
उत्तर: जैसलमेर की हवेलियां राजपूताना के आकर्षण में चार चांद लगाती हैं। यहाँ की पटवों की हवेली अपनी शिल्पकला, विशालता एवं अद्भुत नक्काशी के कारण प्रसिद्ध है। इस हवेली में हिन्दू, ईरानी, यहूदी एवं मुगल स्थापत्य कला का सुन्दर समन्वय है। यह पांच मंजिला हवेली नगर के बीचों-बीच स्थित है। जाली-झरोखे बरबस ही लोगों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं। इसकी पहली मंजिल में नाव तथा हस्ती-हौपे के आकार के गवाक्ष हैं, दूसरी मंजिल में मेहराबदार सुन्दर छज्जे हैं, तीसरी मंजिल पर षट्कोणीय छज्जे हैं।

प्रश्न: नौ चैकी [RAS Main’s 2010]
उत्तर: उदयपुर में राजसमंद झील की पाल का निर्माण राणा राजसिंह सिसोदिया द्वारा गोमती नदी के प्रवाह को रोककर किया गया था। इसी पाल पर स्थित ‘नौ चैकी‘ पाल है। नौ ग्रहों के अनुरूप नौ चैकी में भी नौ के अंक का अद्भुत प्रयोग है। पाल की लम्बाई 999 फीट और चैड़ाई 99 फीट है। प्रत्येक सीढ़ी 9 इंच चैड़ी और 9 इंच ऊँची है। पाल पर बनी तीन मुख्य छतरियां हैं। प्रत्येक छतरी में 90 का कोण और प्रत्येक छतरी की 9 फीट की ऊँचाई है। झील के किनारे की सीढ़ियों को हर तरफ से गिनने पर योग नौ ही होता है और पाल पर नौ चैकियां बनी हुई है, जो नौ चैकी नाम को सार्थक करती है। कहा जाता है कि इस पाल के निर्माण में उस समय 1 करोड़ 50 लाख 7 हजार 608 रुपये व्यय हए थे। प्राकृतिक रमणीयता के बीच सफेद संगमरमर से निर्मित छतरियां, विविध दृश्यों की शिल्पकारी, नक्काशी और आकर्षक तोरण द्वार पर्यटकों को मंत्र मुग्ध कर देते हैं।
प्रश्न: नाकोड़ा
उत्तर: नाकोडा, मेवानगरजोधपुर-बाड़मेर के मध्यवर्ती बालोतरा जंक्शन से लगभग नौ किलोमीटर दूर पश्चिम में जैन सम्प्रदाय का प्रसिद्ध तीर्थ स्थल ‘श्री नाकोडा जी‘ है। इसे मेवानगर के नाम से भी पहचाना जाता है। मेवा नगर ग्राम का पूर्व नाम वीरमपर था जो बारहवीं या तेरहवीं शताब्दी में बसाया गया बताया जाता है। मुख्य मंदिर में ‘तेईसवें जैन तीर्थकर भगवान पार्वनाथ‘ की प्रतिमा विराजित है। नाकोड़ा तीर्थ स्थल का महत्त्व यहाँ विराजित प्रकट-प्रभावी ‘अधिष्ठायक देव नाकोडा भैरवजी‘ के कारण और अधिक बढ़ गया है। संवत् 1511 में आचार्य कीर्ति रत्न सूरि द्वारा नाकोड़ा भैरव की स्थापना की गई भी यहाँ पतिवर्ष पौष बदी दशमी को श्री पार्श्वनाथ के जम्मोत्सव पर विशाल मेला भरता है। नाकोड़ा पार्श्वनाथ मंदिर के साथ स्थापत्य कला की दृष्टि से यहाँ ‘आदिनाथ और शांतिनाथ के मंदिर‘ भी बेजोड़ एवं दर्शनीय हैं।
प्रश्न: लौद्रवा [RAS Main’s 2007]
उत्तर: जैसलमेर से 16 किलोमीटर दूर स्थित प्राचीन लौद्रवा तत्कालीन जैसलमेर राज्य की राजधानी था। लौद्रवा जैन सम्प्रदाय का प्रमुख तीर्थ स्थल बन गया। लौद्रवा के भव्य ‘चिन्तामणि पार्श्वनाथ जैन मंदिर‘ का निर्माण थारूशाह भंसाली ने कराया। इस मंदिर की अद्वितीय स्थापत्य कला देखते ही बनती है। मंदिर का मुख्य तोरण द्वार प्राचीन भारतीय कला का अनूठा उदाहरण है। इसके पास ही कल्पवृक्ष का कृत्रिम स्वरूप बना है। लकड़ी के इस कल्पवृक्ष पर पत्ते, फल और पक्षी बने हैं। कहा जाता है कि प्राचीन लौद्रवा युगल प्रेमी मूमल -महेन्द्रा का प्रणय स्थल था। शुष्क काक नदी के किनारे स्थित ममल मेडी के नाम से इस प्रेमाख्यान की नायिका मूमल के महल के भग्नावशेष आज भी इस अमर प्रेम गाथा को प्रमाणित करते हैं।
मूमल की मेढ़ी: लोदवा के निकट काक नदी के तट पर एक भवन के भग्नावशेष मूमल की मेढ़ कहलाते हैं। मूमल और महेन्द्र की प्रेमकथा विख्यात है। मूमल लोद्रवा की राजकुमारी थी तथा महेन्द्र उमरकोट का राजकुमार था। इस प्रेमाख्यान का दुःखद अंत दिखाया गया है।
प्रश्न: झालरापाटन
उत्तर: किसी समय यहाँ चन्द्रावती नामक अत्यन्त प्राचीन नगर था। 1796 में कोटा राज्य के सेनापति झाला जालिमसिंह ने चन्द्रावती के ध्वंसावशेषों से लगभग पौने तीन किलोमीटर दूर झालरापाटन नगर की स्थापना की। इस नवीन नगर में जालिमसिंह ने झालरापाटन नगर के बीचों-बीच एक पत्थर लगवाकर उस पर राजकीय घोषणा अंकित करवाई कि जो व्यक्ति इस नगर में आकर रहेगा उससे चंगी नहीं ली जायेगी और उसे राज्य की तरफ से अर्थ दण्ड दिया गया तो वह भी क्षमा कर दिया जायेगा। इस घोषणा ने मारवाड़ तथा हाडौती के व्यापारियों को आकर्षित किया जिससे झालरापाटन एक समृद्ध नगर बन गया। कहा जाता है कि चन्द्रावती नगर में 108 मंदिर थे। इस नगर में स्थित द्वारिकाधीश मंदिर का निर्माण 1796 में झाला जालिमसिंह ने करवाया था। नगर में स्थित पद्मनाभ मंदिर (सूर्य मंदिर) शीतला देवी मंदिर, जूना मदिर, नवलखा मंदिर तथा इमली द्वार दर्शनीय है। कर्नल टॉड ने झालरापाटन को ‘घण्टियों का शहर‘ कहा है।
राजस्थान में हवेली स्थापत्य
प्रश्न: राजस्थान में हवेली स्थापत्य की विशेषताएं बताइए।
उत्तर: राजस्थान में हवेली निर्माण की स्थापत्य कला भारतीय वास्तुकला के अनुसार ही रही है। बाद में ईरानी स्थापत्य का भी प्रभाव दिखाई देता है। यहाँ हवेली के प्रमुख द्वार के अगल-बगल के कमरे, सामने चैबारा, चैबारे के अगल बगल व पृष्ठ में कमरे होते हैं। यदि हवेली बड़ी हुई तो दो-तीन चैक तथा कई मंजिल हो सकती है। जहाँ मारवाड़ की हवेलियां अपनी पत्थर की जाली व कटाई के कारण तथा पूर्वी राजस्थान व हाड़ौती की हवेलियां अपनी कलात्मक संगराशी के लिए प्रसिद्ध है वहीं शेखावाटी की हवेलियां अपनी पेंटिंग के लिए जानी जाती है। जैसलमेर की पटवों की हवेली अपनी जाली कटाई व नक्काशी के लिए विश्व प्रसिद्ध है।
प्रश्न: जालिमसिंह की हवेली
उत्तर: जैसलमेर के किले के पूर्वी ढलान पर स्थित जालिमसिंह की हवेली का शिल्प सौंदर्य भी बेजोड़ है। जालिमसिंह जैसलमेर राज्य के प्रधानमंत्री थे और उन्होंने इस नौखण्डी हवेली का निर्माण करवाया। इस हवेली के सात खण्ड पत्थर के और ऊपरी दो खण्ड लकड़ी के बने हुए थे। जिन्हें क्रमशः “रंगमहल‘ एवं ‘शीशमहल‘ कहा जाता था। बाद में लकड़ी के दोनों खण्ड उतार दिये गये, फिर भी ये पांच मंजिली हवेली जैसलमेर की सबसे ऊँची इमारतों में से एक है और अपने शिल्प वैभव का दूर-दूर तक दर्शन कराती है। वर्तमान में ऊपरी मंजिलों को ‘जहाज महल तथा मोतीमहल‘ कहा जाता है। सबसे ऊपरी मंजिल पर रथाकार झरोखे हैं।
प्रश्न: नथमल की हवेली
उत्तर: जैसलमेर की नथमल की हवेली भी शिल्पकला की दृष्टि से अपना अनूठा स्थान रखती है। यह 1881 प्र. से 1885 ई. के मध्य निर्मित हुई। इस हवेली के द्वार पर पीले पत्थर से निर्मित दो खूबसूरत हाथी हवेली के दो द्वारपालों का आभास कराते हैं। इस हवेला की शिल्पकारी का कार्य हाथी और लालू नामक दो भाईयों ने इस संकल्प के साथ शुरू किया कि वे हवेली में प्रयुक्त शिल्प का दोहरायेंगे नहीं, इसी कारण इसका शिल्प अनूठा है।
प्रश्न: शेखावाटी की हवेलियाँ [RAS Main’s 2007]
उत्तर: शेखावाटी की हवेलियों का निर्माण भारतीय वास्तुकला की हवेली शैली स्थापत्य कला की विशेषताओं के अनुरूप हुआ हैं। रामगढ़, नवलगढ़, मण्डावा, मुकुन्दगढ़, पिलानी आदि सभी कस्बों में उत्कृष्ट हवेलियाँ है जो अपने भित्ति चित्रण के लिए भी विश्व विख्यात हैं। भित्ति चित्रण में पौराणिक, ऐतिहासिक व विविध विषयों का चयन, स्वर्ण व प्राकृतिक रंगों का प्रयोग तथा फ्रेस्कों बुनों, फ्रेस्को सेको व फ्रेस्को सिम्पल विधियों का प्रयोग किया गया है। इस अमूल्य सांस्कृतिक धरोहर का क्षरण हो रहा है जिसके संरक्षण की आवश्यकता है। फ्रांसीसी ‘नदीन ला प्रेन्स‘ ने इस सन्दर्भ में सराहनीय कार्य कर उत्कृष्ट उदाहरण पेश किया है।