नाथ पंथ के संस्थापक कौन है | नाथ पंथ नामक सम्प्रदाय के प्रवर्तक कौन थे originator of nath panth in hindi

originator of nath panth in hindi or founder of nath panth नाथ पंथ के संस्थापक कौन है | नाथ पंथ नामक सम्प्रदाय के प्रवर्तक कौन थे ?

प्रश्न: नाथपंथ
उत्तर: जोधपुर के मत्स्येन्द्रनाथ द्वारा प्रचारित पाशुपत सम्प्रदाय की एक शाखा जिसमें हठयोग, तंत्रवाद, कुण्डली क्रिया प्रमुख है। भर्तहरि, गोपीचन्द आदि इसके प्रमुख योगी हुए जिन्होंने इसका प्रचार-प्रसार किया। पहले नाथ पंथ या सम्प्रदाय पूरे देश में अलग अलग बिखरा हुआ था लेकिन विभिन्न प्रकार के विधाओं द्वारा एकत्रीकरण करके इस संप्रदाय या पन्थ को एक किया इस कारण गोरखनाथ जी को इस पंथ का संस्थापक माना जाता है |

प्रश्न: राजस्थानी गद्य साहित्य की विभिन्न विधाओं पर प्रकाश डालिए।
उत्तर: गद्य साहित्य के अन्तर्गत वात, वचनिका, ख्यात, दवावैत, वंशावली, पट्टावली, पीढ़ियावली, दफ्तर, विगत एवं हकीकत आदि आते हैं।
वचनिका: संस्कृत के ‘वचन‘ शब्द से व्युत्पन्न ‘वचनिका‘ शब्द एक काव्य विधा के रूप में साहित्य में प्रविष्ट हुआ। वचनिका एक ऐसी तुकान्तं गद्य-पद्य रचना है जिसमें अंत्यानुप्रास मिलता है, यद्यपि अनेक स्थलों पर अपवाद भी हैं। राजस्थानी भाषा की दो अत्यन्त प्रसिद्ध वचनिकाओं में सिवदासकृत अचलदास खींची री वचनिका तथा खिड़िया जग्गा री कही राठौड़ रतनसिंघजी महेस दासोत री वचनिका प्रमुख हैं। अचलदास खींची री वचनिका में गद्य और पद्य दोनों हैं। गद्यात्मक काव्य और काव्यात्मक गद्य अद्भुत है।
दवावेत: दवावैत कलात्मक गद्य का अन्य रूप है, जो वचनिका काव्य रूप से साम्य है। वचनिका अपभ्रंश मिश्रित राजस्थानी में लिखी मिलती है, किन्तु दवावैत उर्दू, फारसी की शब्दावली से युक्त है। चरित्र नायक की गुणावली, राज्य वैभव, युद्ध, आखेट, नखशिख आदि का वर्णन तुकान्त और प्रवाहयुक्त है। वयण सगाई शब्दालंकार की छटा तथा सौन्दर्य वर्णन में जिन उपमाओं का प्रयोग किया गया है वह स्थानीय रंग को मुखरित करता हुआ भाषा को लालित्य प्रदान करने वाला है।
वात: कलात्मक गद्य के श्सिलोकाश् और ‘वर्णक‘ रूपों से अधिक राजस्थानी ‘वात‘ साहित्य रूप का महत्व है। ऐतिहासिक, अर्द्ध-ऐतिहासिक, पौराणिक, काल्पनिक आदि कथानकों पर राजस्थानी का वात साहित्य संख्यातीत है। कहानी का पर्याय ‘वात‘ में कहने और सुनने की विशेष प्रणाली है। कथा कहने वाला बात कहता चलता है और सुनने वाला हंकारा देता रहता है। शैली की वैयक्तिकता राजस्थानी वातों की अपनी विशेषता है। गद्यमय, पद्यमय तथा गद्य–पद्यमय तीनों रूपों में ‘वातंे‘ मिलती हैं।
राव अमरसिंहजी री वात, खींचियां री वात, तुंवरा री वात, पाबूजी री वात, चूडावत री वात, कोडमदे री वात, कान्हड़दे री वात, अचलदास खींची री वात, रतन हमीर री वात, ढोला मारू री वात, बीजड़ बीजोगड़ री वात, फोफाणंद री वात, राजा भोज अर खापरा चोर री वात, दीपालदे री वात, वात सूरां अर सतवादी री, वात रिजक बिना राजपूत री आदि वातें हैं, जिनके कारण राजस्थानी का प्राचीन कथा साहित्य अमर हो गया है। इनमें प्रेम की रंगीनी, युद्ध की आग, पौराणिक अलौकिकता, ऐतिहासिक वस्तुस्थिति है, तो पारिवारिक दुर्बलताओं पर प्रहार है और सामाजिक विसंगतियों पर करारा व्यंग्य है। इन राजस्थानी बातों में प्रभावान्विति के साथ-साथ काव्य निर्णय भी दृष्टव्य है। आज के युग में आकाशवाणी से प्रसारित वार्ताओं, कहानियों के लिए राजस्थानी वात साहित्य से बहुत कुछ सीखा जा सकता है।
बालावबोध: सरल और सुबोध टीका को बालावबोध कहते हैं।
टब्बा लावबोध विस्तारीका है, टब्बा अति संक्षिप्त-शब्दार्थ रूप।
वंशावला: इस श्रेणो की रचनाओं में राजवंशों को वंशावलियाँ विस्तृत विवरण् वंशावली, रजपूतों री वंशावली आदि।
प्रकास: किसी वंश अथवा व्यक्ति विशेष की उपलब्धियों या घटना विशेष पर प्रकाश डालने वाली कृतियाँ ‘प्रकास‘ कहलाती हैं। राजप्रकास, पाबू प्रकास, उदय प्रकास आदि इनके मुख्य उदाहरण हैं।
मरस्या: राजा या किसी व्यक्ति विशेष की मृत्योपरांत शोक व्यक्त करने के लिए रचित काव्य, जिसमें उस व्यक्ति के चारित्रिक गुणों के अलावा अन्य क्रिया-कलापों का वर्णन किया जाता है।
विगत: यह भी इतिहास परक ग्रंथ लेखन की शैली है। श्मारवाड़ रा परगना री विगतश् इस शैली की प्रमुख रचना है।
प्रश्न: राजस्थानी लोक कहावतें, धर्म, दर्शन, नीति, कृषि, अकाल, सामाजिक रीति-रिवाज आदि का दर्शन होती है। सोदाहरण स्पष्ट कीजिए। 
उत्तर: कहावतें भी राजस्थानी लोक साहित्य की एक प्रमुख विधा है। प्रायः कहावत का अर्थ कही हुई बात से है। जीवन के किसी ऐसे अनुभव को जिसे एक व्यक्ति ही नहीं परन्तु समाज के अधिकांश व्यक्ति प्रायः अनुभव करते हैं और इस अनुभव को जब एक महत्वपूर्ण अभिव्यक्ति मिलती है तो पूरा लोक जन सामान्य इसे स्वीकार कर लेता है, तब कालान्तर में यही अभिव्यक्ति या वाक्यांश या पद्यांश लोकजीवन में कहावत के रूप में प्रचलित हो जाता है। कहावतों में सम्पूर्ण लोक जीवन के विषयों जैसे – धर्म, दर्शन, नीति, पुराण, इतिहास, ज्योतिष, सामाजिक रीति-रिवाज, कृषि, वर्षा, राजनीति आदि को अभिव्यक्ति मिलती है। रचना शिल्प की दृष्टि से भी कहावतें, साहित्य कला की उत्कृष्टता को प्रदर्शित करती है। कुछ कहावतें सीधे सादे वाक्यों में, कुछ लय व तुक बद्ध में, कुछ कवितांश के रूप में, कुछ वार्तालाप शैली में, ये सभी कहावतें विषय वस्तु के साथ-साथ इनमें निहित साहित्यिक सौंदर्य को भी राजस्थानी साहित्य में मुखर करती हैं। साथ ही कहावतों की भाषा इतनी सरल होती है कि सुनने वालों पर यथोचित प्रभाव डालती है।
संस्कृति के भग्नावशेष इन लोकोक्तियों में छिपे पड़े हैं। भारतीय संस्कृति की अखण्डता का स्वरूप राजस्थानी कहावतों में स्पष्ट रूप से झलकता है। राजस्थान में प्रचलित कुछ प्रमुख कहावतों का विवरण इस प्रकार है-
अक्कल बिना ऊंट उमाणा फिरे – मूर्ख बुद्धि का अभाव होने के कारण साधनों का प्रयोग नहीं कर पाते।
अनहोणी होणी नहीं, होणी होये सो होय – जो होना है, वह हो कर रहेगा।
अकल रौ दसमण – महामूर्ख।
अकल सूं बोझ्या मरणौ – अपनी विद्वता पर घमण्ड होना।
अंजळ ऊठयौ – संबंध टूटना।
अंधारै घर रौ चानणौ – दुःखी घर में भविष्य का उजाला।
अभागियों टावर त्युंहार नै रूसै – अभागा सुअवसर से लाभ नहीं उठा पाता है।
राजस्थानी कहावतों में वर्षा
राजस्थान की कृषि तो मूलतया वर्षा पर ही निर्भर है, अतः कहावतों के रूप में वर्षा संबंधी कहावतें पीढ़ी दर पीढी राजस्थान के लोकजीवन में समाई हुई है। मनुष्य, पशु-पक्षी एवं कीट पतंगों की क्रियाओं से वर्षा की संभावना से घनिष्ठ संबंध है। वायुमंडल आकाश, विद्युत इंद्रधनुष, आंधी आदि के आधार पर भी वर्षा का पूर्वानुमान लगाया जाता है। इन प्रभावों को ही कहावतों में संजोया गया है।

राजस्थान के संत एवं लोक देवता
अतिलघूत्तरात्मक प्रश्नोत्तर
राजस्थान के संत एवं पंथ
प्रश्न: शैव सम्प्रदाय
उत्तर: शिव से सम्बन्धित धर्म को शैव धर्म और उसके अनुयायियों को शैव कहा गया। राजस्थान में शैव धर्म के अन्तत पाशुपत, कापालिक, नाथपंथ, खाकी, नागा, सिद्ध, निरंजनी आदि पंथों की स्थापना हुई।
प्रश्न: पाशुपत सम्प्रदाय
उत्तर: दण्डधारी लकुलीश द्वारा प्रचारित शैव धर्म को एक शाखा जिसमें शिव पूजा एवं एक लिंगार्चन, दण्डधारण करना प्रमुख लक्षण है। हारीत ऋषि द्वारा मेवाड़ में लकुलीश मंदिर की स्थापना कर इस मत का प्रचलित किया गया।
प्रश्न: कापालिक सम्प्रदाय
उत्तर: भैरव को शिव का अवतार मानकर शैव धर्म की एक शाखा जिस पर श्मशानवासी, चिता भस्म रमाने वाले अघोरी तांत्रिकों का प्रभाव रहा है। इसका राजस्थान के ग्रामीण क्षेत्रों में प्राबल्य है।
प्रश्न: शक्ति सम्प्रदाय 
उत्तर: शक्ति (देवी) की पूजा में विश्वास करने वाले शाक्त सम्प्रदाय को योद्धा जाति ने अपनी आराध्य मानकर कुलदेवी का दर्जा दिया। करणीमाता, सुगालीमाता आदि विविध राजवंशों की कुलदेवियां एवं लोकदेवियों के रूप में पूज्य रही।
प्रश्न: वैष्णव सम्प्रदाय
उत्तर: हरि या विष्णु को प्रधान देव मानने वाले वैष्णवों का प्रमुख लक्षण भक्ति कीर्तन, नृत्य, अवतारवाद आदि रहे। यहाँ वल्लभ, निम्बाक्र, गौड़ीय एवं रामावत वैष्णव परम्परा के सम्प्रदायों का विकास हुआ।
प्रश्न: निम्बार्क सम्प्रदाय
उत्तर: 16वीं सदी में वल्लभचार्य द्वारा प्रचारित वैष्णव धर्म में कृष्ण भक्ति की एक शाखा, निम्बार्क सम्प्रदाय की राजस्थान में स्थापना परशुराम देवाचार्य ने सलेमाबाद (किशनगढ़) में की जिसमें युगलस्वरूप (राधा-कृष्ण) की मधुर सेवा की जाती है।