अहस्तक्षेप की नीति क्या है | अहस्तक्षेप की नीति किसने अपनाई non intervention policy in hindi

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 राज्य हस्तक्षेप की सीमाएँ
आधुनिक काल में राज्य ताकतवर संस्था के रूप में उभरा। 17वीं शताब्दी में यूरोप में यह प्रक्रिया शुरू हुई, जिससे चर्च की ताकत में लगातार कमी आई। चर्च और राज्यों के अधिकारों का बंटवारा हुआ। यह प्रक्रिया निम्नलिखित दो चरणों से होकर गुजरी:
ऽ अहस्तक्षेप (लेसेफेयर) की नीति
ऽ सामूहिकतावादी विचारधाराओं का उदय

अहस्तक्षेप (लैसेफेयर) की नीति
उन्नीसवीं शताब्दी में ‘‘अहस्तक्षेप नीति‘‘ पर अधिक बल था जिसका अर्थ है नागरिक के दैनिक जीवन में राज्य का न्यूनतम हस्तक्षेप। राज्य का प्रमुख उद्देश्य केवल कानून को बाध्यतापूर्वक लागू करना तथा व्यवस्था कायम करना होना चाहिए और राज्य को नागरिकों के हितों की रक्षा के लिए कल्याणकारी उपाय की पहल नहीं करनी चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति को अपना हित देखना-समझना चाहिए।

सामूहिकतावादी-विचारधाराएं
साम्यवादी, समाजवादी तथा फांसीवाद वैचारिकी के प्रभाव में सामाजिक समस्याओं का सामना करने तथा कल्याणकारी उपायों के संवर्धन में राज्य की भूमिका पर अधिक बल दिया जा रहा था। 1929 की विशाल मंदी के पश्चात् पूँजीवादी राज्यों जैसे संयुक्त राज्य अमेरिका तथा फ्रांस ने भी अर्थव्यवस्था तथा बाजार के नियमन के लिए हस्तक्षेप किया। इन राज्यों ने बेकारी नियंत्रित करने के लिए, कारखानों के बंद होने की समस्या तथा असुरक्षा की समस्या के लिए कुछ विशेष कदम उठाए।

राज्य सबसे शक्तिशाली संस्था है और निस्संदेह उसकी भूमिकाएँ हिंसा, सांप्रदायिकता, सामाजिक भेदभाव के नियंत्रण में तथा सामाजिक सुरक्षा तथा सेवायोजन के संवर्धन में बहुत महत्व रखती हैं।

 सीमाएं
अहस्तक्षेप की नीति का पूंजीवादी राज्यों ने पूरी तरह अनुकरण नहीं किया। 1919 के बाद खास तौर पर राज्य ने कई क्षेत्रों में हस्तक्षेप किया। इसी प्रकार राज्य हस्तक्षेप के सामूहिकतावादी विचारधाराएं भी सफल नहीं हुई। परंतु राज्य के हस्तक्षेप की सीमाएँ हैं। सामाजिक चेतना, नागरिकता का भाव, जनता में दायित्व की भावना के द्वारा सामाजिक समस्याओं को और प्रभावी रूप से रोका जा सकता है। जब तक समाज द्वारा कल्याणकारी उपायों की स्वीकृति नहीं होगी राज्य द्वारा किए गए प्रयास प्रभावी नहीं हो सकते। इस प्रकार हमको ध्यान में रखना होगा कि राज्य द्वारा प्रारंभ किए गए उपाय अपनी सीमाएँ रखते हैं। समाज तथा राज्य दोनों मिलकर सामाजिक समस्याओं द्वारा उपस्थित चुनौतियों का प्रभावपूर्ण समाधान कर सकते हैं।

बोध प्रश्न 4
प) प्रकार्यवादी एवं माक्र्सवादी दृष्टिकोणों की प्रमुख अपर्याप्तताओं का चार-चार पंक्तियों में वर्णन कीजिए।
क) ……………………………………………………………………………………………………………………………………………………………..
ख) ……………………………………………………………………………………………………………………………………………………………..

बोध प्रश्नों के उत्तर

बोध प्रश्न 4
प) क) प्रकार्यवादी दृष्टिकोण समाज में विद्यमान विरोधाभास तथा भिन्न-भिन्न समूहों तथा वर्गों के बीच हितों के टकराव पर दृष्टि नहीं डालता। वह एक प्रभाव को एक कारण मानता है। वह मानव क्रिया का निर्धारणवादी दृष्टिकोण प्रदान करता हैं। सामाजिक व्यवस्था को प्रकार्यवादी एक सक्रिय अभिकर्ता के रूप में दर्शाते हैं, जबकि वास्तव में केवल मानव ही क्रिया करते हैं।
ख) एक सिद्धांत के रूप में माक्र्सवाद ने भौतिक शक्तियों तथा संघर्ष की भूमिका पर अत्यधिक बल दिया है। उसने पूँजीवादी समाज की वर्ग संरचना का अतिसरलीकरण किया है।

रूपांतरण की प्रतिमानों एवं सामाजिक समस्याएँ
पिछले कुछ वर्षों में प्रतिमान के प्रत्यय का सामाजिक विज्ञानों में बहुधा प्रयोग हुआ है। इसका शाब्दिक अर्थ है – एक शब्द की विभक्तियाँ जिसे उदाहरण के लिए सारणीबद्ध किया गया है, या भिन्न-भिन्न शब्दों या मोड़ या वक्र के व्याकरणिक संबंधों को व्यक्त करना। इस प्रकार प्रतिमान का प्रत्यय व्याकरण से आया है। सर्वप्रथम, सामाजिक विज्ञानों में प्रतिमान प्रत्यय का सैद्धांतिक तथा दार्शनिक निरूपण थामस एस. कुन ने अपनी पुस्तक ‘‘द स्ट्रक्चर ऑफ जाइन्टीफिक रिवोल्यूशन‘‘, 1962, में किया था। सामाजिक विज्ञानों में इस प्रत्यय का प्रयोग विचारों का लीक से हटना, विचारों में क्रांति, उत्कट विवेचन तथा वाद-विवाद के उपरांत पुराने विचारों के स्थान पर विचारों की नवीन परंपराओं के उद्भव के अर्थ में किया जाता है।

दो सौ साल के दर्मियान सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक विकास के प्रतिमानों के बारे में एक बड़े पैमाने पर वाद-विवाद चल रहा है। इस प्रक्रिया में, विचारों में बदलाव हुए तथा एक वैचारिकी के स्थान पर दूसरी वैचारिकी को अपनाया गया। आधुनिक शब्दावली में इसे प्रतिमान का बदलाव कहा जा सकता है या विकास की पुरानी प्रतिमान के स्थान पर विकास की नवीन प्रतिमान का उद्भव हुआ। विकास की इन प्रतिमानों को हम इन निम्नलिखित वर्गों में विभाजित कर सकते हैं:
ऽ उदारतावादी-पूँजीपति
ऽ साम्यवादी
ऽ लोकतंत्रीय समाजवादी।
ऽ भारतीय प्रयोग और गांधीवादी प्रतिमान

उदारतावादी-पूँजीवादी प्रतिमान
उदारतावादी औद्योगिक लोकतंत्र ने विचारों के नवीन प्रतिमानों को जनित किया जो पूर्वकालों के विचारों में पूर्णतया भिन्न थे। इस प्रतिमान का प्रमुख बल लोकतंत्र, राजनीतिक स्वतंत्रता, स्वतंत्र उद्यम, औद्योगिकीकरण, आधुनिक प्रौद्योगिकी तथा जन उत्पादन पर था। इन विचारों के अमल के सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक परिणामस्वरूप लोकतांत्रिक राज्य, बड़े पैमाने का औद्योगिकीकरण, ग्रामों से नगरों को प्रवासन, यूरोप एवं उत्तरी अमरीका में अपूर्वगामी नगरीकरण जैसी प्रक्रियाएँ तीव्रता के साथ उभरीं। इनके फलस्वरूप नामहीनता, अवैयक्तिक संबंध तथा सामाजिक नियंत्रण की परंपरात्मक पद्धति में दिखाई पड़ता है।

लोकतंत्रीय पूँजीवादी समाज अपने नागरिकों को रहन सहन का एक न्यूनतम स्तर तथा पर्याप्त राजनीतिक स्वतंत्रता प्रदान करने में सफल हुआ है। साथ ही, विकसित तथा औद्योगीकृत समाज अपराध, श्वेतवसन अपराध, युद्ध का भय, बाल अपराध, प्रतिमानहीनता, मानसिक स्वास्थ्य समस्या, प्रजाति पर आधारित भेदभाव तथा उदासीनता से पीड़ित हैं। निर्धनता तथा लिंग भेद की समस्याओं के समाधान में वह सफल नहीं हुआ है। सन् 1992 में अमेरिका में उपद्रव हुए। प्रजातीय घृणा की वृद्धि का एक उदाहरण है। इसी तरह की गोचर व अगोचर प्रजातीय घृणा की प्रवृत्तियाँ इंग्लैंड, जर्मनी तथा फ्रांस में भी दिखाई देती हैं।

 साम्यवादी प्रतिमान
सामाजिक तथा आर्थिक विकास की साम्यवादी प्रतिमान मुख्यतः माक्र्स तथा लेनिन के सिद्धांतों पर आधारित है। साम्यवादी वैचारिकी पूँजीवादी वैचारिकी की विरोधी है। उसका प्रमुख बल सामूहिकता, साम्यवादी राज्य द्वारा उत्पादन के साधनों पर नियंत्रण, सर्वहारा तथा अधिनायकत्व तथा उत्पादन के साधनों तथा स्रोतों का उपयोग श्रमिक वर्ग के हित के लिए करने पर है। अपने शास्त्रीय विश्लेषण में माक्र्स का विचार था कि उत्पादन की पूँजीवादी व्यवस्था ने वर्ग संघर्ष, शोषण, सामाजिक तथा आर्थिक असमानता, श्रमिक वर्ग का दमन तथा उनका उत्पादन के साधनों के स्वामित्व से विसंबंधन की समस्याएँ पैदा किया है।

साम्यवाद का दावा है कि वह सामाजिक, राजनीतिक तथा आर्थिक व्यवस्था का विकल्प प्रदान करता है। पूँजीवादी व्यवस्था से पैदा हुई इन सामाजिक समस्याओं का उसके द्वारा समाधान मान लिया गया था। एक वैकल्पिक प्रतिमान की तरह साम्यवाद सोवियत रूस में 1917 से 191 तक, चीन में 1949 से, पूर्वी यूरोप के अधिकांश देशों में 1945 से 1991, वियतनाम में 1945 तथा क्यूबा में 1955 से अमल में लाया गया। साम्यवादी समाज अनेक सामाजिक राजनीतिक समस्याओं से पीड़ित रहे जैसे कि अधिनायकत्व, स्वतंत्रता का अभाव, बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार, अकुशलता, तलाक मे वृद्धि, त्रस्त करने वाली गर्भपात की दर, अकेलापन तथा भय का मनस्ताप। साम्यवादी समाज निर्धनता की समस्या, जीवन के गुणात्मक पक्ष के एक न्यूनतम स्तर का अभाव, इत्यादि पूर्ण रूप से हल न कर सके। परिणामतः साम्यवाद केवल सोवियत रूस में ही नहीं बल्कि पूर्वीय यूरोप में भी ढह गया।

 लोकतंत्रीय समाजवाद की प्रतिमान
उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम चतुर्थांश से विचारकों के एक समूह ने विशेषतया इंगलैंड में फेबियन तथा फ्रांस एवं जर्मनी में भी कुछ अन्य लोगों ने साम्यवाद के दावे के प्रति एक आलोचनात्मक दृष्टिकोण अपनाया। उनका विचार था कि पूँजीवाद तथा साम्यवाद दोनों प्रणालियाँ औद्योगिक तथा प्रौद्योगिक क्रांति द्वारा प्रदत्त चुनौतियों का प्रत्युत्तर देने में अक्षम हैं। पूँजीवाद आर्थिक स्वतंत्रता नहीं प्रदान कर सकता है और साम्यवाद राजनीतिक स्वतंत्रता नहीं दे सकता है। दोनों प्रणालियाँ मानवीय गरिमा को नकारात्मक रूप से प्रभावित करती हैं। नया समाज तभी बन सकता है जब मानव सामाजिक आर्थिक तथा राजनीतिक असमानताओं और उनकी शक्ति से उत्पन्न तनाव से स्वतंत्र हो।

अनेक पश्चिमी यूरोपीय देशों के समाजवादी तथा श्रमिक दलों ने प्रथम महायुद्ध के बाद शक्ति प्रदान की। ब्रिटेन में श्रमिक दल, स्वीडन तथा जर्मनी में सामाजिक लोकतंत्रीय दल ने अपने देशों में लोकतंत्रीय समाजवाद के आदर्शों को लागू करने की कोशिश की। ठोस अर्थों में, उनके सामाजिक, राजनीतिक तथा आर्थिक आदर्शों ने श्रमिक वर्ग के हितों के लिए सामाजिक सुरक्षा के उपायों का रूप ग्रहण किया। जैसे कि ब्रिटेन, फ्रांस, स्वीडन, जर्मनी में प्रमुख उद्योगों का राष्ट्रीयकरण, कार्य की सुरक्षा, रोजगार न्यूनतम मजदूरी, स्वास्थ्य योजना के प्रयास किए गए।

राज्य की हस्तक्षेप की नीति होते हुए भी अपराध, बाल अपराध, प्रजातीय भेद भाव, लिंग भेद, मादक द्रव्य व्यसन, यौन अपराध, बेकारी, मद्यपान, तलाक की वृद्धि तथा वेश्यावृत्ति इत्यादि समस्याएँ स्वीडन, फ्रांस तथा जर्मनी में जहाँ लोकतंत्रीय समाजवादी किसी न किसी काल में शक्ति में रहे थे, हल न हो सकीं।

भारतीय प्रयोग और गांधीवादी प्रतिमान
1947 के बाद भारत के आजाद होने पर लोकतांत्रिक समाजवाद निश्चित अर्थव्यवस्था और गांधीवादी दर्शन के पालन की नीति अपनाई गई।

स्वाधीनता के बाद भारत ने गांधीवादी विचारधारा के साथ ही साथ लोकतांत्रिक समाजवादी पथ का अनुसरण किया। भारत ने सामाजिक-आर्थिक रूपांतरण के लिए मिश्रित अर्थव्यवस्था सामाजिक-आर्थिक नियोजन, पंचवर्षीय योजनाएँ, सामुदायिक विकास, निर्धनता की समाप्ति, अनुसूचित जातियों तथा जनजातियों के हित की नीति, सामाजिक तथा शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों के सामाजिक कल्याण पर विशेष बल दिया। शिक्षा, सामाजिक सुरक्षा तथा श्रमिकों की सुरक्षा में भी अनेक प्रयास किए गए।

भारत में निर्धनता, अस्वास्थ्य, नगरीय केंद्रों में गंदी बस्तियाँ, निरक्षरता, मादक द्रव्य व्यसन में वृद्धि, मद्यपान, अस्पृश्यता, बढ़ता हुआ आतकंवाद एवं हिंसा को आज तक हल नहीं किया जा सका है। इस संदर्भ में हमको ध्यान में रखना है कि यह समस्याएँ केवल राज्य के हस्तक्षेप द्वारा हल नहीं की जा सकतीं। राज्य की अपनी भी सीमाएँ होती हैं।