प्रशासन बनाम जनता (जनसाधारण) (Administration v/s Public in hindi) , प्रशासन और जनता के बीच सामंजस्य (तालमेल)

प्रशासन और जनता के बीच सामंजस्य (तालमेल) प्रशासन बनाम जनता (जनसाधारण) (Administration v/s Public in hindi)  ?
लोक एवं प्रशासनिक मनोवृत्ति तथा भारत में अभिशासन
(Public & Administrative Altitude & Governance in India)

किसी भी देश के शासन संचालन में वहां की जनता एवं वहां के प्रशासकों की अवस्थिति, प्रवृत्ति तथा उनके अनुभवों की बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। ऐसे में जनता एवं प्रशासकों की प्रवृत्तियों एवं अनुभवों को वर्तमान संदर्भ में समझना श्रेयस्कर प्रतीत होता है। यहां हम जनता एवं प्रशासकों के बीच के संबंध और इसके विभिन्न आयामों को शासन व्यवस्था के संदर्भ में निम्नलिखित शीर्षकों के अंतर्गत समझेंगेः
ऽ प्रशासन बनाम जनता (लोकजन)
ऽ प्रशासन के प्रति आम जनता की सोच
ऽ आम जनता के प्रति प्रशासकों (नौकरशाही) की मनोवृत्ति
ऽ प्रशासन एवं जनता के बीच अन्तर्विरोध एवं सामंजस्य

प्रशासन बनाम जनता (जनसाधारण) (Administration v/s Public)

वर्तमान समय में प्रशासन के अधिकारों एवं कर्तव्यों में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है, अर्थात् प्रशासन के कार्य-प्राधिकार में जबरदस्त इजाफा हुआ है। 20वीं शताब्दी के आगमन तक राज्य की भूमिका मात्र एक रात्रि-प्रहरी जैसी थी। प्रशासन की भूमिका कानून एवं व्यवस्था को देखभाल, न्याय-प्रशासन एवं राजस्व वसूली तक ही सीमित थी। प्रशासन की इसी भूमिका से जनसाधारण एवं प्रशासन के संबंध परिभाषित होते थे।
वर्तमान में सामाजिक आर्थिक परिदृश्य बदल रहे हैं। राज्य की भूमिका मात्र रात्रि-प्रहरी (Night Watchmen) तक सीमित नहीं रह गई है। राज्य को अब एक ‘कल्याणकारी राज्य‘ के रूप में देखे जाने की प्रवृत्ति विकसित हुई है। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो वर्तमान संदर्भ में ‘कल्याणकारी राज्य‘ की अवधारणा विकसित हुई है। प्रशासन का अर्थ अब सीमित नहीं रह गया है। इसकी जवाबदेही बढ़ चुकी है और अब इसे जनसाधारण से जुड़े हर मुद्दों एवं समस्याओं को ध्यान रखना है, जैसे स्वास्थ्य, शिक्षा, उद्योग, कृषि इत्यादि। इन परिस्थितियों में प्रशासन व्यवस्था अब बेहद जटिल कार्य हो गया है। प्रशासन की पेचिदगियों एवं इसके तकनीकी पहलुओं को समझने के लिए विशेषज्ञों की दक्षता की आवश्यकता महसूस की जा रही है। यहां ‘विशेषज्ञ‘ का अर्थ है वैसा प्रशासक जिसने किसी खास शासकीय क्रियाकलाप में कार्यमूलक दक्षता हासिल की हो। प्रशासन में विशेषज्ञों की भूमिका तब और महत्वपूर्ण हो जाती है जब बात विकासशील देश के प्रशासनिक व्यवस्था की हो। भारत जैसे विकासशील देश में तो शासन संचालन एक दुष्कर कार्य है क्योंकि यहां की अधिकांश जनता निर्धन, अशिक्षित तथा परम्परावादी हैं। राष्ट्र-निर्माण की अवधारणा को ये कम ही समझते हैं। अतः अपनी तरफ से ये कोई पहल भी नहीं करते जिससे राष्ट्र-निर्माण की प्रक्रिया अबाधित रूप से चल सके। जनसाधारण की ऐसी प्रवृत्ति प्रशासकों के समक्ष अपने आप में एक चुनौती है जिस पर विजय पाना आवश्यक है ताकि जनसाधारण में विकास के प्रति उत्साह पैदा हो। प्रशासन से भी इस बात की उम्मीद की जाती है कि वह सामाजिक व आर्थिक परिवर्तन का वाहक बने, जनसाधारण को इस बात के लिए प्रेरित करे कि वे प्रशासन में अपना सहयोग दें तथा विकास योजनाओं के कार्यान्वयन में अपनी भागीदारी सुनिश्चित करें।

प्रशासन के प्रति जनता की सोच एवं उनका अनुभव
(People’s Perception in Administration)

लोक-प्रशासन के सफल संचालन के लिए स्व-सहायता समूहों की उपस्थिति तथा जनसाधारण की सक्रियता बेहद जरूरी है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में जनसाधारण की सहमति तथा सहयोग ही लोक प्रशासन का आधार होना चाहिए। वस्तुतः लोक प्रशासन तथा जनसाधारण के बीच अन्तःक्रिया एक द्विगामी प्रक्रिया है। एक ओर जहां प्रशासक के लिए जनसाधारण की प्राथमिकताओं को समझना जरूरी है, वहीं यह भी आवश्यक है कि जनसाधारण प्रशासकों को उनके कार्यों में सहयोग दें। परन्तु यह तभी संभव है जब प्रशासन जनसाधारण की इच्छाओं एवं आकांक्षाओं का ध्यान रखे एवं उनमें अपनी रुचि दिखाए। इससे यह होगा कि आम जनता भी प्रशासन में अपना विश्वास प्रकट कर सकेंगे एवं उसका आदर भी करेंगे।
जैसा कि पहले भी कहा गया है, भारत की जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा निर्धन, अशिक्षित तो है ही साथ में विकास के प्रति भी वे उदासीन हैं या फिर एकदम अनभिज्ञ। ऐसे में यहां की आम जनता को विकास की मुख्य धारा से जोड़ना एवं प्रशासन में उनकी भागीदारी सुनिश्चित करना भारतीय प्रशासन के लिए सचमुच चुनौती भरा कार्य है। इस समस्या का समाधान तभी संभव है जब प्रशासन को जनसाधारण की प्रवृत्ति एवं सोच का सही ज्ञान हो।
प्रशासन से जुड़े इसी पहलू के संदर्भ में कई शोध एवं विमर्श किए गए हैं और प्रशासनिक सुधार आयोग का गठन इसी विमर्श का एक भाग है। इन अध्ययनों के पश्चात यह निष्कर्ष निकल कर आया है कि नौकरशाही के प्रति जनसाधारण में उत्साह नहीं है, अर्थात् आम जनता नौकरशाही को गंभीरता से नहीं लेती जिसके कारण जो सम्मान जनता के मन में नौकरशाही के प्रति होना चाहिए, उसका अभाव है। सच तो यह है कि लोकसेवकों तथा आम नागरिकों के बीच तालमेल का अभाव है अर्थात् इन दोनों के बीच सद्भावना की कमी है इसका ज्वलंत प्रमाण इस बात से भी मिलता है कि आए दिन लोक सेवकों के खिलाफ जनसाधारण की शिकायतें आती रहती हैं। इन लोकसेवकों के बारे में यह कहा जाता है कि ये तानाशाह की तरह व्यवहार करते हैं, इनमें कत्र्तव्यनिष्ठता की कमी है, ये अपने कर्तव्य का पालन नहीं करते पक्षपात करते हैं तथा आम जनता का शोषण कर रहे हैं। यही कारण है कि लोग कई बार अपना काम राजनीतिक पहुंच, घूस या फिर व्यक्तिगत संबंधों के माध्यम से कराने की कोशिश करते हैं। वस्तुतः जनता को ये सारे माध्यम ही सर्वसुलभ प्रतीत होते हैं। दरअसल जनसाधारण में यह सोच घर कर गई है कि नौकरशाहों में मानवता नाम की चीज नहीं रह गई है तथा वे नौकरशाह के बदले तानाशाह बन चुके हैं। जनसाधारण तथा लोक सेवकों के बीच यही खाई बिचैलियों को बढ़ावा दे रही है और इसी का फायदा उठाकर वे गरीब और जरूरतमंद लोगों का शोषण कर रहे हैं।

जनता के प्रति प्रशासन का रवैया
(Administration’s Attitude towards People)

जहां तक भारतीय नौकरशाही का प्रश्न है तो यह मुख्य रूप से शहरी मध्यम वर्ग का प्रतिनिधित्व करता है। विडम्बना यह है कि प्रशासन कार्य के दौरान इन नौकरशाहों का संपर्क मुख्य रूप से ग्रामीण परिवेश से होता है, जहां के लोग आमतौर पर निर्धन और अशिक्षित हैं। अतः यह स्पष्ट है कि भारत में नौकरशाही (प्रशासक) तथा आम जनता का एक बहुत बड़ा हिस्सा दो भिन्न-भिन्न सांस्कृतिक धाराओं का प्रतिनिधित्व करते हैं। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो प्रशासक एवं जनसाधारण के बीच बहुत बड़ी खाई है जिसे पाटना मुश्किल प्रतीत होता है। जहां प्रशासकों का यह मानना है कि भारत की जनता एकदम उदासीन है तथा शासन व्यवस्था के प्रति अपनी जिम्मेदारी को वे बिल्कुल नहीं समझते, वहीं जनसाधारण की शिकायत यह है कि भारतीय प्रशासकों (नौकरशाहों) की विकासात्मक कार्यों में कोई रुचि नहीं रह गई है और ये भावशून्य से हो गए हैं।
भारतीय नौकरशाही इस बात पर खासा बल देती है कि जब भारत में जनसाधारण अपने समस्याओं के लिए स्वयं ही जिम्मेदार हैं। ये न तो अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हैं और न ही समस्या की गंभीरता को समझ पाते हैं। इतना ही नहीं बल्कि ये अपनी समस्याओं के समाधान हेतु कोई प्रयास भी नहीं करते। इनमें ज्ञान का भी अभाव है तथा नियम, कानून और प्रशासन की बारीकियों से ये बिल्कुल वाकिफ नहीं हैं।
हालांकि देखा जाए तो जनसाधारण में कुछ सीमा तक इस बात की आशा अवश्य रहती है कि नौकरशाही से उन्हें मदद मिल सकती है और उनका काम हो सकता है। परन्तु लोकसेवकों की शिकायत यह रहती हैं वे अपने कर्तव्य निष्पादन में स्वतंत्र नहीं है क्योंकि आम नागरिकों द्वारा प्रशासन में कुछ ज्यादा ही हस्तक्षेप किया जा रहा है। आम नागरिकों द्वारा क्षेत्रीय राजनीतिज्ञों के माध्यम से लोकसेवकों पर दबाव बनाया जाता है जिससे स्वतंत्र होकर ईमानदारीपूर्वक अपने कार्य निष्पादन में उन्हें बेहद कठिनाई होती है।
भारतीय नौकरशाही इस बात को लेकर भी क्षुब्ध हैं कि जनसाधारण स्वयं अपनी समस्याओं के प्रति गंभीर नहीं हैं और न ही अपने भविष्य के लिए चिन्तित। नौकरशाही समाज में सकारात्मक बदलाव के लिए ईमानदारीपूर्वक प्रयासरत है परन्तु उन्हें जनसाधारण का सहयोग नहीं मिल पा रहा है। इसके विपरीत नौकरशाही को संदेह की दृष्टि से देखा जाता है, इनकी निन्दा की जाती है इनके ऊपर अविश्वास किया जाता है। ऐसा प्रतीत होता है जैसे जनसाधारण में नौकरशाही के प्रति एक डर-सा बैठ गया है जो बेबुनियाद है।

प्रशासन और जनता के बीच सामंजस्य (तालमेल)
(Reconciliation of Public and Administration)

उपर्युक्त विश्लेषण से यह स्पष्ट है कि जनसाधारण और प्रशासन (नौकरशाही) के विचारों में कोई तालमेल नहीं है बल्कि एक-दूसरे के बिल्कुल विपरीत है। परन्तु इन दोनों में से किसी के भी से सहमत होना मुश्किल है। अन्य यहां यक्ष प्रश्न यह है कि क्या इन दो भिन्न-भिन्न विचारों में समान स्थापित करना संभव है? क्या प्रशासन (नौकरशाही) तथा जनसाधारण के बीच विश्वास को मजबूत कर पाना संभव है?
इस संदर्भ में सी.पी. भाम्बरी के सुझावों पर गौर करना काफी फायदेमंद साबित हो सकता है। प्रो. भाम्बरी का यह कथन है कि आम जनता तथा नौकरशाही के बीच विश्वास की कड़ी को मजबूत करने के लिए अब तक जो प्रयास किए गए हैं वो नाकाफी है। इस सिलसिले में कुछ विशेष करने की जरूरत है ताकि जनसाधारण की मनोवृत्ति में परिवर्तन आए और वे शासन-कार्यों में सकारात्मक सोच के साथ अपनी भागीदारी निभाएं। प्रो. भाबरी के अनुसार प्रशासन और जनता के बीच एक बहुत बड़ा अन्तराल है जिसे समाप्त करने की आवश्यकता है। यह तभी हो सकता है जब इन दोनों के बीच एक सम्पर्क सूत्र का निर्माण किया जाए। इस सम्पर्क सूत्र के सहारे ही दोनों के बीच आपसी विश्वास का संबंध बन पाएगा।
जहां तक इस सम्पर्क सूत्र का प्रश्न है तो इसका निर्माण निश्चित रूप से संभव है। इसके लिए प्रयास की जरूरत है। यह प्रयास इस रूप में हो कि लोक सेवक अपने दायित्व को समझें तथा यह जानने की कोशिश करें कि जनता उनके कार्य-कलापों के बारे में कैसी सोच रखती है, प्रशासकीय नीतियों के प्रति उनकी क्या मनोवृत्ति है तथा जनसाधारण उनसे क्या उम्मीदें रखते हैं। अगर ऐसा किया जाता है तो दोनों के बीच का सौहार्द्र बढ़ेगा। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए प्रशासन के अन्तर्गत एक एजेन्सी के गठन की जरूरत है जो लोक संबंध (च्नइसपब त्मसंजपवद) के प्रति पूर्ण रूप से समर्पित है। इस एजेंसी के माध्यम से ही प्रशासन (नौकरशाही) को नागरिकों की इच्छाओं तथा आकांक्षाओ के बारे में जानकारी मिलती रहेगी। इस एजेंसी के कार्य इस दिशा में बहुत महत्वपूर्ण और कारगर साबित हो सकता है। एजेंसी जनता के लिए एक शिक्षक (ज्नजवत) का काम कर सकती है, उन्हें सलाह दे सकती है, उनकी मनोवृत्ति में बदलाव ला सकती है तथा उनके कार्य व्यवहार को भी एक दिशा दे सकती है। इससे नागरिकों तथा कर्मचारियों के बीच एक संतोषजनक रिश्ता कायम हो सकता है। वस्तुतः यह एजेंसी इन दोनों के बीच एक सेतु का कार्य कर सकती है तथा जनसाधारण तक इस बार प्रेषित कर सकती है कि प्रशासन (नौकरशाही) किस प्रकार उनके विकास में सहायक है।
भारतीय संविधान में एक समतावादी समाज की स्थापना का लक्ष्य रखा गया है। परन्तु इस लक्ष्य को पाना सिर्फ प्रशासन (नौकरशाही) के वश की बात नहीं है। इसके लिए आम नागरिकों को भी आगे आना होगा। भारतीय समाज अभी भी पिछड़ा है। यहां अभी भी परम्पराएं बहुत मायने रखती हैं। अगर इसे पराम्परावादी समाज में आमूल-चूल परिवर्तन लाना है तो जनसाधारण को भी अपनी सोच बदलनी होगी। आपनी हर आवश्यकता के लिए पूर्ण रूप से नौकरशाही पर ही निर्भर रहने की प्रवृत्ति छोड़नी होगी। जनता को अपनी नकारात्मक भूमिका से बाहर आना होगा। उन्हें खुद में सकारात्मक सोच विकसित करनी होगी। अगर आम जनता प्रगति और सम्पन्नता की इच्छा रखती है तो उन्हें अपने समस्याओं से सरोकार रखना होगा तथा उदासीनता से हटकर सक्रिय होना पड़ेगा।
नौकरशाही की जिम्मेदारी निश्चित रूप से बहुत बड़ी है परन्तु उनके प्रयासों की सफलता तभी मिल सकती है जब आम जनता भी प्रशासन में रुचि ले, इसकी तरफ पहल करे, इसमें अपनी भागीदारी सुनिश्चित करें तथा प्रशासन को खुले दिल से सहयोग दे।
लोक प्रशासन की सफलता लोकसेवकों के त्याग, समर्पण, सत्यनिष्ठता एवं कत्र्तव्य परायणता पर निर्भर करती है। लोक सेवकों द्वारा इसी प्रतिबद्धता एवं सेवा भावना से किए गए प्रयास से करोड़ों लोगों का कल्याण सुनिश्चित हो सकता है। प्रशासन (नौकरशाही) को ग्रामीण तबकों के लोगों से अपना सम्पर्क बढ़ाना होगा क्योंकि दूर-दराज में रह रहे यही वे लोग हैं जिन्हें प्रशासन के मदद की सबसे ज्यादा जरूरत है। कमेटी रिपोर्ट में भी कहा गया है- प्रशासन का आधुनिकीकरण करने एवं इसमें, टेक्नोलॉजी के इस्तेमाल भर से इसे लोकोन्मुख नहीं बनाया जा सकता। इसके लिए लोक सेवकों को सक्रिय होने की जरूरत है। उन्हें जनसाधारण तक अपनी पहुंच बनाने की जरूरत है। इसके लिए उन्हें अपना ज्यादा वक्त प्रशासनिक दौरों पर देना चाहिए, दूर-दराज इलाकों में निरीक्षण के लिए निरन्तर जाना चाहिए और हो सके तो ग्रामीण इलाको में रात्रि विराम के बहाने वहां के लोगों से मेल-जोल बढ़ाकर वहां की क्षेत्रीय समस्याओं को समझना चाहिए।