kathakali dance which state in hindi कथकली किस राज्य का लोक नृत्य है ? के प्रमुख कलाकार कौन कौनसे है नाम बताइए ?
कथकली
कथकली केरल का प्राचीन नृत्य है, जिसकी उत्पत्ति बहुत पुराने युग में हुई है। यह द्रविड़ों और आर्यों के नृत्य संबंधी सिद्धांतों के सम्मिश्रण से विकसित हुआ है। केरल के नायर, आर्य और द्रविड़ जातियों से मिलकर बने हैं और यह एक योद्धा जाति है। जातीय शूरवीरता की कीर्ति की स्मृति बनाए रखने के लिए पुराने जमाने से ही इस जाति में सामारिक नृत्यों का चलन रहा है। कालांतर में उनके सामरिक नृत्यों का विलय कथकली नृत्य में हो गया और इसे भी उन्होंने अपनी जाति के नृत्य के रूप में स्वीकार कर लिया। कथकली नृत्य के विकास में नायरों का काफी योगदान रहा है। उन्होंने इस नृत्य की शैलियों और विधियों को उन्नत किया और उसे अधिक तेजवान तथा कौशलपूर्ण बनाया। इस नृत्य की कथावस्तु अधिकांशतः महाकाव्यों और पौराणिक गाथाओं से ली गई। मलयालम जिसमें बहुत से संस्कृत शब्द थे, कथकली गीतों की भाषा बन गई। धार्मिक प्ररेणाओं, शास्त्रों के निषेध और वैष्णव भक्ति नृत्यों के प्रभावों से कथकलो नृत्य का स्वरूप धीरे धीरे विस्तृत हुआ। केरल के इस समुन्नत हो रहे नृत्य में विभिन्न प्रकार के अभिनय, नृत्य नाटक और अंत में कथा नाटक भी सम्मिलित हो गए। जिस प्रकार का नृत्य होता था उसी के अनुसार नाम दिया जाता था। और अंततः इसका नाम कथकली हो गया, जिसका मतलब है किसी कहानी पर आधारित नाटक।
कथकली के विकास और उन्नति में कोट्टायम और ट्रावनकोर के राजपरिवारों का महान योगदान है। 18वीं शताब्दी क अंत के आसपास ट्रावनकोर के “कार्तिक तिरूनाल” ने कथकली के लिए कई नाटक लिखे। बाद में इसी राज परविार के एक अन्य सदस्य महाराजा स्वाति राम वर्मा ने कथकली नृत्य के लिए कोई 75 पद तैयार किए। इस नृत्य के विकास, योगदान करने वाले अन्य लोगों में ‘कवि इरायिम्मान थप्पी'(1783-1863) ने इस नृत्य के लिए कुछ नाटक लिखे। उन्ह की तरह उनकी पुत्री थंकाची ने भी कुछ नाटक लिखे। जिन दिनों केरल में ब्रिटिश प्रभाव सबसे अधिक था उन्हीं दिना, जो लोग पाश्चात्य शिक्षा प्राप्त कर चुके थे, वे नृत्य और संगीत के प्राचीन रूपों के प्रति अनासक्त थे। एक समय एता आया कि उपेक्षा, प्रश्रय की कमी और आम उदासीनता के कारण कथकली नृत्य संकट के दौर से गुजरा। प्रास मलयालम कवि वल्लथोल नारायण मेनन ने हर कीमत पर इस कला को पुनरूज्जीवित करने के लिए संघर्ष किया। 1930 ई. में केरल कलामंडलम नामक संस्थान की स्थापना की। वहां जो गुरू लाए गए उनमें रावुन्नी मेनन, कवलाप्रा नारायण मेनन और कुन्जु कुरूप जैसे विख्यात कथकली-नृत्य-विशेषज्ञ भी थे। इस प्रकार कथकली को एक बार फिर अपनी ५ हुई प्रतिष्ठा प्राप्त हुई।
कई नृत्य कलाकार हैं जिन्होंने हाल के वर्षों में कथकली को प्रसिद्ध बनाया है। यह कार्य इस नृत्य के विख्यात प्रणेता श्गोपीनाथ और रागिनी देवीश् ने किया। कृष्णन कुट्टी, माधवन और आनंद शिवरामन ने शानदार नृत्य कार्यक्रम प्रस्तुत करके तथा कुछ विशेष नृत्य प्रदर्शनों द्वारा यह बताया कि कथकली में निहित कौन कौन से कलात्मक मूल्य । उदयशंकर, रुक्मिणी देवी, मृणालिनी साराभाई ने कथकली की उन्नति के लिए बहुत सेवा की है। श्रामगोपालश् कला को भारत से बाहर कई देशों तक ले गए, और सभी जगह कथकली की धाक जमाई। इसी नृत्य शैली की एक और उच्च कोटि की कलाकार हैं श्शांतारावश् जो भारत के अत्यंत कठिन शैली के नृत्यों में से एक कथकली नृत्य को बड़े मनोहरी ढंग से प्रस्तुत करती रही हैं।
कथकली की अपनी एक विशेषता है अंग विक्षेप और स्वांग भरने की कला। एक ओर संगीतज्ञ गीत गाते हैं और दूसरी ओर नर्तक अपने अंग संचालन से गीत की विषयवस्तु को व्यक्त करता है। उसे एक नृत्य कलाकार होने के साथ साथ अभिनेता बनना भी आवश्यक है और अपने शरीर पर उसे नियंत्रण होना चाहिए। बिना शब्दों के नाटकीय भावों को व्यक्त करने की समर्थता इस बात का प्रमाण है कि कलाकार को कितनी साधना कराई गई है। कलाकार की भूमिका को चार रूपों में वर्गीकृत किया जा सकता है। ये रूप हैं- श्माई साधकमश् या शरीरिक व्यायाम, काल साधकम या पैरों की गति, श्मुद्रा साधकमश् अर्थात अंग विक्षेप और श्मुखाभिनय साधकमश् या चेहरे पर भावों की अभिव्यक्ति। परिधान और प्रसाधन की दृष्टि से कथकली बडा भव्य नृत्य है। देवी-देवता, पौराणिक शूरवीर, राक्षस, कपटी, संत, राजा, शिकारीय देवियों, राक्षसियों, चुडैलों, जलपरियों, रानियों और नायिकाओं तथा नाग और हनुमान आदि सभी चरित्रों को जब रंगमंच पर अपनी-अपनी भूमिका निभाने के लिए लाया जाता है तो उनको प्रसाधन सामग्री की सहायता से ऐसा नाटकीय ढंग से बदल दिया जाता है कि वे इस देश-काल के लगते ही नहीं।
आजकल यह नृत्य अलग-अलग स्थानों पार भिन्न भिन्न प्रकार के रंगमंचों पर विश्व के सभी देशों के दर्शकों के सामने प्रस्तुत किया जाता है।